Tuesday, May 25, 2010

मीडिया का अछूत गांधी

 इस गांधी की चर्चा मीडिया में अकसर ना के बराबर होती है और अगर होती भी है तो, सिर्फ और सिर्फ गलत वजहों से। मीडिया और इस गांधी की रिश्ता कुछ अजीब सा है। न तो मीडिया इस गांधी को पसंद करता है न ये गांधी मीडिया को पसंद करता है। इस गांधी के प्रति मीडिया दुराग्रह रखता है। किस कदर इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश के पहले परिवार से निकले इस गांधी के भाई राहुल गांधी के श्रीमुख से कुछ भी अच्छा बुरा निकले तो, मीडिया उसे लपक लेता है और अच्छा-बुरा कुछ भी करके चलाता रहता है। जब ये दूसरा गांधी यानी वरुण गांधी कहता है कि उत्तर प्रदेश में 2012 में बीजेपी सत्ता में आएगी और हम सत्ता में आए तो, मायावती की मूर्तियां हटवाकर राम की मूर्तियां लगवाएंगे तो, किसी भी न्यूज चैनल पर ये टिकर यानी नीचे चलने वाली खबर की पट्टी से ज्यादा की जगह नहीं पाती है लेकिन, जब मायावती के खिलाफ देश के पहले परिवार का स्वाभाविक वारिस यानी राहुल गांधी मायावती के खिलाफ कुछ भी बोलता है या कुछ नहीं भी बोलता है तो, भी सभी न्यूज चैनलों पर बड़ी खबर बन जाती है यहां तक कि हेडलाइंस भी होती है।

वरुण गांधी को ये बात समझनी होगी कि आखिर उसके अच्छे-बुरे किए को मीडिया तवज्जो क्यों नहीं देता। वरुण को ये समझना होगा कि जाने-अनजाने ये तथ्य स्थापित हो चुका है कि उनका चचेरा भाई राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की उस विरासत को आगे बढ़ा रहा है जो, गांधी-नेहरु की असली विरासत मानी जाती है। वो, राजीव गांधी जो नौजवानों के सपने का भारत बनाना चाहता था लेकिन, जिसकी यात्रा अकाल मौत की वजह से अधूरी रह गई। लेकिन, जब वरुण गांधी की बात होती है तो, सबको लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण गांधी का मुस्लिम विरोधी भाषण ही याद आता है। और, तुरंत याद आ जाता है कि ये संजय गांधी का बेटा है जो, जबरदस्ती नसबंदी के लिए कुख्यात था। यहां तक कि आपातकाल का भी पूरा ठीकरा संजय गांधी के ही सिर थोप दिया जाता है। मीडिया ये तो कहता है कि आपातकाल ने इंदिरा की सरकार गिरा दी, कांग्रेस को कमजोर कर दिया। लेकिन, मीडिया आपातकाल के पीछे के हर बुरे कर्म का जिम्मेदार संजय गांधी को ही मानता है। यहां तक कि कांग्रेस में रहते हुए भी संजय गांधी सांप्रदायिक और अछूत गांधी बन गया। राजीव की कंप्यूटर क्रांति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन, देश की सड़कों पर हुआ सबसे बड़ी क्रांति मारुति 800 कार के जनक संजय गांधी को उस तरह से सम्मान कभी नहीं मिल पाया।

और, फिर जब वरुण गांधी बीजेपी के जरिए लोकतंत्र में सत्ता की ओर बढ़ने की कोशिश करने लगा फिर तो, वरुण के ऊपर पूरी तरह से अछूत गांधी का ठप्पा लग गया। इसलिए वरुण को समझना होगा कि इस देश का मूल स्वभाव किसी भी बात की अति के खिलाफ है। फौरी उन्माद में एक बड़ा-छोटा झुंड हो सकता है कि ऐसे अतिवादी बयानों से पीछे-पीछे चलता दिखाई दे लेकिन, ये रास्ता ज्यादा दूर तक नहीं जाता। इसलिए वरुण गांधी को दो काम तो तुरंत करने होंगे पहला तो ये कि मीडिया से बेवजह की दूरी बनाकर रखने से अपनी अच्छी बातें भी ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचेंगी ये समझना होगा। हां, थोड़ी सी भी बुराई कई गुना ज्यादा रफ्तार से लोगों के दिमाग में स्थापित कराने में मीडिया मददगार होगा। दूसरी बात ये कि अतिवादी एजेंडे को पीछे छोड़ना होगा। जहां एक तरफ राहुल गांधी भले कुछ करे न करे- गरीब-विकास की बात कर रहा हो वहां, वरुण गांधी को राम की मूर्तियां कितना स्थापित करा पाएंगी ये समझना होगा। राम के नाम पर बीजेपी को जितना आकाश छूना था वो छू चुकी अब काम के नाम पर ही बात बन पाएगी।

ऐसा नहीं है कि वरुण गांधी को पीलीभीत से सिर्फ भड़काऊ भाषण की वजह से ही जीत मिली है। वरुण गांधी अपने क्षेत्र के हर गांव से वाकिफ हैं। राहुल के अमेठी दौरे से ज्यादा वरुण पीलीभीत में रहते हैं। लेकिन, वरुण के कामों की चर्चा मीडिया में बमुश्किल ही होती है। वरुण गांधी ने अपने लोकसभा क्षेत्र में 2000 गरीब बेटियों की शादी कराई ये बात कभी मीडिया में आई ही नहीं। जबकि, छोटे-मोटे नेताओं के भी ऐसे आयोजनों को मीडिया में थोड़ी बहुत जगह मिल ही जाती है। जाहिर है वरुण गांधी की मीडिया से दूरी वरुण गांधी के लिए घातक बन रही है।

वरुण गांधी से हुई एक मुलाकात में एक बात तो मुझे साफ समझ में आई कि कुछ अतिवादी बयानों और मीडिया से दूरी को छोड़कर ये गांधी अपने एजेंडे पर बखूबी लगा हुआ है। वरुण गांधी को ये अच्छे से पता है कि फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में नहीं उसकी परीक्षा उत्तर प्रदेश की राजनीति में होनी है। वरुण का लक्ष्य 2012 में होने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है जिसमें वरुण बीजेपी को सत्ता में लाना चाहता है और खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहता है। वरुण के इस लक्ष्य को पाने में सबसे अच्छी बात ये है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का कार्यकर्ता अभी के नेतृत्व से बुरी तरह से निराश है और उसे वरुण गांधी में एक मजबूत नेता नजर आ रहा है। बीजेपी में अपनी राजनीति तलाशने वाले नौजवान नेताओं को ये लगने लगा है कि वरुण गांधी ही है जो, फिर से बीजेपी के परंपरागत वोटरों में उत्साह पैदा कर सकता है। शायद यही वजह है कि 14 अशोक रोड पर उत्तर प्रदेश के हर जिले से 2-4 नौजवान नेता वरुण गांधी से मुलाकात करने पहुंचने लगे हैं।

वरुण गांधी के पक्ष में एक अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वरुण को यूपी बीजेपी का नेता बनाने का मन बना चुका है। वरुण गांधी को संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का अंध आशीर्वाद भले न मिले लेकिन, अगर वरुण भविष्य के नेता के तौर पर और राहुल गांधी की काट के तौर पर खुद को मजबूत करते रहे तो, संघ मशीनरी पूरी तरह से वरुण के पीछे खड़े होने को तैयार है। वरुण गांधी को ये बात समझ में आ चुकी है यही वजह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष का पद न लेकर बीजेपी में राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद भी वरुण सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश के बारे में सोच रहे हैं।

अभी कुछ दिन पहले जब मीडिया में वरुण गांधी की तस्वीरें दिखीं थीं तो, सभी चैनलों पर यही देखने को मिला कि वरुण चप्पल पहनकर इलाहाबाद में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का माल्यार्पण करने चले गए थे। किसी भी अखबार या टीवी चैनल पर ये खबर देखने-पढ़ने को नहीं मिली कि वरुण जौनपुर में एक बड़ी रैली करके लौट रहे थे। राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद ये वरुण की पांचवीं रैली थी और वरुण इस साल 20 और ऐसी रैलियां करके पूरे प्रदेश तक पहुंचने की कोशिश में हैं। अरसे बाद बीजेपी के जिले के नेताओं को ऐसा नेता मिला है जिसकी रैली के लिए बसें भरने में उन्हें ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ रहा है।

ये गांधी भारतीय राजनीति की लंबी रेस का घोड़ा दिख रहा है। लेकिन, वरुण को उग्र बयानों से हिंदुत्ववादी नेता बनने के बजाए बीजेपी का वो नेता बनने की कोशिश करनी होगी जो, जगह कल्याण सिंह के बाद उत्तर प्रदेश में कोई बीजेपी नेता भर नहीं पाया है। और, ये जगह अब राम की मूर्तियां लगाने वाले बयानों से नहीं उत्तर प्रदेश के नौजवान को ये उम्मीद दिखाने से मिल पाएगी कि राज्य में ही रहकर उसकी बेहतरी के लिए क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश के 18 करोड़ लोगों को एक नेता नहीं मिल रहा है। अगर वरुण ये करने में कामयाब हो गए तो, भारतीय राजनीति में एक अलग अध्याय के नायक बनने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा। वरुण की उम्र अभी 30 साल के आसपास है और वरुण के पास लंबी राजनीति करने का वक्त भी है, गांधी नाम भी और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी का बैनर भी। बस उन्हें खुद को अछूत गांधी बनने से रोकना होगा।
(this article is published on peoples samachar's edit page)

Sunday, May 23, 2010

संविधान बदलने की बात दब क्यों गई

 1998 में हम लोगों ने इलाहाबाद के IERT यानी इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी परिसर में संविधान समीक्षा पर तीन दिन की संगोष्ठी कराई थी। उस समय विद्यार्थी परिषद (ABVP) पूरे देश में संविधान समीक्षा का मुद्दा जोर शोर से उठाए हुए था। वाराणसी में हुए प्रांतीय अधिवेशन में संविधान समीक्षा का प्रस्ताव मुझसे ही रखवाया गया था। अखबारों में बड़ी-बड़ी खबरें छपतीं थीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन में भी हम लोगों ने इसी विषय पर एक दिन का सेमिनार करवाया था। लेकिन, पता नहीं कैसे बाद में वो बात आई-गई हो गई। खुद संघ परिवार इस मुद्दे को लेकर आगे नहीं बढ़ा।

आज जब मैं अफजल गुरु की फांसी के मामले पर केंद्रीय गृह मंत्री और दिल्ली की मुख्यमंत्री को एक दूसरे पर लानत भेजता देखता हूं तो, मुझे लगता है कि अगर संविधान समीक्षा एक बार हो गई होती तो, ऐसी जाने कितनी विसंगतियों से बचा जा सकता था। क्योंकि, गाड़ी की ट्यूब में भी 4-6 पंचर हो जाने के बाद ट्यूब बदलना जरूरी ही हो जाता है लेकिन, देश को चलाने वाले भारतीय संविधान में तो, जाने कितने पंचर होने के बाद भी पंचर बनाकर (बदलाव करके) ही काम चलाया जा रहा है। शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े विचार परिवार की ये बड़ी कमी साबित हुई है कि वो अच्छे मुद्दों को भी उठाकर उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। जिसकी वजह से उस विशेष मुद्दे की वजह से संघ परिवार से जुड़ने वाले लोग फिर उसकी बातों से सहमत होते हुए भी उससे जुड़ने में मुश्किल महसूस करते हैं।

अब लगभग हर दूसरे चौथे न्यायालयों से निकलने वाले आदेश संविधान की कई बातों को आज की प्रासंगिकता के लिहाज से सही नहीं पाते हैं। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें भारतीय संविधान आज की परिस्थितियों के लिहाज से समय पर न्याय की प्रक्रिया में मददगार नहीं बनता है। आतंकवाद जैसी देश की सबसे बड़ी समस्या से निपटने के लिए तो, संविधान में अलग से कोई प्रावधान ही नहीं है। ये तो कसाब की फांसी सजा के बाद ये राज खुला कि अफजल गुरु की क्षमादान याचिका अभी तक राष्ट्रपति के पास पहुंची ही नहीं है। अभी तक फाइल दिल्ली से सरकार से लौटकर केंद्रीय गृह मंत्रालय पहुंची ही नहीं है। ये कांग्रेसी तरीका हो सकता है किसी भी मसले को टालमटोल करने का। लेकिन, दरअसल किसी भी अभियुक्त को फांसी की सजा और फांसी होने के बीच संविधान में जो व्यवस्था है वो, इस तरह की देरी का बहाना देती है। दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में इस बात की कोई समय सीमा तय ही नहीं की गई है कि राष्ट्रपति को कब तक किसी क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है वो, चाहे तो, दशकों तक उस लटका सकता है। अफजल गुरु के मामले में तो, राष्ट्रपति के पास फाइल पहुंचने से पहले ही लगभग एक दशक होने जा रहे हैं।

अब जरा देखते हैं कि आखिर किसी अभियुक्त को फांसी की सजा सुनाए जाने पर उसे फांसी के तख्ते तक पहुंचाने की प्रक्रिया क्या है
सेशन कोर्ट या फिर स्पेशल कोर्ट अगर किसी को फांसी की सजा सुनाती है तो, उस फैसले पर मुहर लगाने के लिए संबंधित हाईकोर्ट के पास भेजना होता है।
अगर हाईकोर्ट भी फांसी की सजा सुना देता है तो, अभियुक्त के पास सर्वोच्च न्यायालय में अपील का मौका होता है।
सर्वोच्च न्यायालय भी अगर अभियुक्त की फांसी की सजा बरकरार रखता है तो, अभियुक्त के पास आखिरी विकल्प बचता है कि वो, राष्ट्रपति से अभयदान मांगे।
राष्ट्रपति के पास अभयदान के लिए की जाने वाली अपील राष्ट्रपति के पास जाने से पहले गृह मंत्रालय की जांच के लिए भेजी जाती है।
संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति को कितने दिन में क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है।
अब केंद्रीय गृह मंत्रालय उस राज्य से मामले की संपूर्ण जांच के लिए सारी जानकारी मांगता है।
राज्य सरकार मामले की सारी जानकारी जुटाकर गृह मंत्रालय को भेजता है।
गृह मंत्रालय सारे मामले की जांच करके उसे राष्ट्रपति सचिवालय भेज देता है।
राष्ट्रपति सचिवालय आखिर में फाइल राष्ट्रपति के पास फैसले के लिए भेजता है।

अब ये व्यवस्था सामान्य फांसी की सजा पाए व्यक्ति के लिए तो फिर भी ठीक कही जा सकती है लेकिन, देश पर हमला करने वाले आतंकवादियों के मामले में भी यही व्यवस्था भारतीय संविधान का मखौल उड़ाती दिखती है। विशेष अदालत के जरिए सुनवाई होने और अब तक की सबसे तेज सुनवाई होने पर भी कसाब को विशेष अदालत से फांसी की सजा मिलने में डेढ़ साल से ज्यादा लग गए जबकि, ये पहली प्रक्रिया है। आतंकवादियों को जेल में रखने और उनकी सुनवाई पर हम भारतीयों की गाढ़ी कमाई का जो, पैसा जाता है उस पर तो, बहस की गुंजाइश ही नहीं दिखती। कभी-कभार किसी चर्चा में उड़ते-उड़ते ये बात भले सामने आ जाती है। वैसे तो, महंगाई से लेकर ढेर सारे ऐसे मुद्दे हैं जिन पर विपक्ष के साथ खड़ा होने के लिए आम जनता तैयार है। लेकिन, संघ परिवार और बीजेपी को आतंकवाद जैसे मुद्दे पर संविधान समीक्षा की ये जरूरत क्यों नहीं महसूस हो रही है ये समझ में न आने वाली बात है।

Friday, May 21, 2010

सोनिया मैडम, ये कौन सी पॉलिटिक्स है

शासन चलाने के साथ विपक्षी भूमिका भी अपने पास रख लेने की कला कांग्रेस से बेहतर किसी के पास नहीं है। नक्सलियों से निपटने पर केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम का ताजा बयान कुछ इसी नीति को पुख्ता करता है। वैसे इस काम के लिए कांग्रेस अलग-अलग समय पर अलग-अलग नेताओं को इस्तेमाल करती रहती है जो, सरकार में न होकर पार्टी में होते हैं। और, UPA 1-2 में ये भूमिका मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बखूबी निभा रहे हैं। लेकिन, नक्सल समस्या जैसे गंभीर मसले पर शायद कांग्रेसी पॉलिटिक्स सिर्फ दिग्विजय के बयानों से अपना काम नहीं साध पा रही थी इसलिए चिदंबरम को भी ये बयान देना पड़ा कि नक्सलियों के आतंक से निपटने के लिए धैर्य की जरूरत है।

ये वही चिदंबरम साहब हैं जो, नक्सलियों के खिलाफ बेहद कड़ी सैन्य कार्रवाई तक करने के पक्षधर होने की वजह से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के निशाने पर भी आ गए थे। शायद और कोई रहा होता तो, वो अनुशासनात्मक कार्रवाई के दायरे में आ गया होता लेकिन, इकोनॉमिक टाइम्स में चिदंबरम की यानी अपनी ही सरकार की नक्सल से निपटने की रणनीति को जिस तरह से बेकार बताया था, उस पर भी सोनिया मैडम ने कुछ भी नहीं कहा। हां, चिदंबरम को जरूर अपनी कड़ी रीढ़ की हड्डी नरम करनी पड़ी। दरअसल अब कांग्रेस को ये लग रहा है कि जिस तरह से रमन सिंह आक्रामक हो रहे हैं अगर इस समय सैन्य कार्रवाई की इजाजत दी गई तो, आम लोगों में उस अभियान की सफलता का सेहरा बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह के सिर बंध सकता है।

संसद में भी कड़े तेवर अपनाते हुए बहस के दौरान विपक्ष के नेता अरुण जेटली खुलेआम कह चुके हैं कि चिदंबरम के साथ हम हैं लेकिन, उनकी पार्टी ही नहीं है। चिदंबरम बेचारे अपनी कड़क मंत्री की छवि बनाए रखना चाहते हैं लेकिन, वो भूल गए कि कांग्रेस की पसंद गृह मंत्री पद के लिए शिवराज पाटिल जैसे ढुलमुल नेता रहे हैं वो, तो मुंबई हमले के बाद बहुत हल्ले की वजह से उनकी बलि लेना पड़ी। अब कांग्रेस को नक्सलियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने वाला गृह मंत्री नहीं चाहिए। वजह साफ है लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह से बिहार चुनाव के मद्देनजर नक्सल नीति पर गंदा बयान जारी किया है उसने कांग्रेसी रणनीतिज्ञों के कान खड़े कर दिए हैं। कांग्रेस को भी तो बिहार में अपना हाल थोड़ा ठीक करना है। उस पर बंगाल में ममता और कांग्रेस की बीच गठजोड़ में पड़ी दरार और ममता को माओवादियों का पूरा साथ इन सबने कांग्रेस को रणनीति थोड़ा बदलने पर मजबूर कर दिया है। हो, सकता है इसकी वजह से अब चिदंबरम के गृह मंत्रालय की ओर से जारी होने वाले नक्सल विरोधी बड़े-बड़े विज्ञापन भी बंद कर दिए जाएं। यही कांग्रेसी पॉलिटिक्स है।

एक नहीं कई नमूने हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी की फाइल गृह मंत्रालय और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बीच गजब फंसी हुई है। और, जब मामला खुलने पर सरकार की किरकिरी होनी शुरू हुई तो, हमेशा कांग्रेस की ओर से मुस्लिमों के बड़े नेता बनने की कोशिश करते दिखने वाले परम धर्मनिरपेक्ष दिग्विजय सिंह ने बयान जारी कर दिया कि अफजल गुरु को जल्द फांसी हो। अब अगर ये सिर्फ बयान भर नहीं है तो, ये बात चिदंबरम, शीला दीक्षित को बतानी थी। राहुल गांधी के इस प्रमुख सलाहकार की बात टालने की हिम्मत भला कौन कांग्रेसी इस समय कर सकता है।

इससे पहले बाटला हाउस एनकाउंटर पर भी दिग्विजय सिंह आजमगढ़ जाकर आतंकी परिवारों तक में अपनी ही सरकार की रिपोर्ट को झुठलाकर आए थे। जांच का आश्वासन भी दिया था। ये अलग बात है कि दिल्ली आते-आते पलट गए। वाह रे कांग्रेसी पॉलिटिक्स।


Wednesday, May 19, 2010

नक्सलियों से आखिरी लड़ाई जरूरी

सेना का इस्तेमाल करें या न करें। केंद्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई इस कदर भ्रम में है कि इसी साल के शुरुआती 5 महीने में ही सैकड़ों लोगों की जान जाने के बाद भी वो फैसला नहीं ले पा रही है। आखिर सरकार ये फैसला लेने में इतना संकोच क्यों कर रही है। सेना का इस्तेमाल वहीं किया जाता है जहां देश की सुरक्षा और संप्रभुता को खतरा पैदा होता दिखे। फिर वो चाहे पड़ोसी मुल्क से हमला हो या फिर बाहर-भीतर से देश में दहशत फैलाने वाले आतंकवादियों का हमला हो। अब अगर नक्सलियों के मामले में देखें तो, वो ठीक उसी तरह इस देश की राज्य व्यवस्था को मानने को तैयार नहीं हैं जैसे, आतंकवादी। ये नक्सली अपने खिलाफ खड़े हर हिंदुस्तानी की जान आसानी से ले रहे हैं जैसे आतंकवादी- फिर सेना के इस्तेमाल में इतना संकोच क्यों। आखिर अर्धसैनिक बलों की पूरी ताकत झोंककर नक्सलियों के सफाए की ही कोशिश तो सरकार कर रही है। फिर ये कोशिश आधे मन से क्यों। 

ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ो निर्दोष जानें जाने के पहले जब दंतेवाडा़ से सुकमा जा रही बस को निशाना बनाया था तो, नक्सल समर्थक बुद्धिजीवियों ने नया राग शुरू कर दिया था कि कि पहली बार नक्सलियों ने आम लोगों की जान ली है। नक्सल आंदोलन की प्रबल पैरोकार अरुंधती रॉय कह रही हैं कि अगर दंतेवाड़ा से सुकमा जा रही बस में सचमुच पुलिस अधिकारियों के साथ आम लोगों की भी जान गई है तो, इसे किसी भी कीमत पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। वैसे एक और विरोधी तर्क लगे हाथ ये भी पुरजोर तरीके से चलाने की कोशिश हो रही है कि पुलिस ने आम लोगों के लिए इस्तेमाल में आने वाली बस में जाने की कोशिश करके गुनाह किया है। नक्सल हत्यारों के समर्थक ये भी कह रहे हैं कि युद्ध क्षेत्र मेंCRPF को नक्सलियों के सफाए के लिए सामान्य बसों में जाना ही गलत है।

प्रचारित किए जा रहे इन दोनों ही तथ्यों को ठीक से समझने की जरूरत है। पहला ये कि नक्सलियों ने पहली बार पुलिस, अर्धसैनिक बलों के अलावा आम लोगों की हत्या की हैं। और, दूसरा युद्ध क्षेत्र में अर्धसैनिक बलों का आम लोगों की सवारी का इस्तेमाल करना युद्ध के नियमों के खिलाफ है। सबसे पहले तो यही कि पहली बार नक्सलियों ने आम लोगों की हत्या की ये पूरी तरह गलत है। सच्चाई ये है कि देश भर में पिछले 10 सालों में नक्सलियों ने करीब 6000 जानें ली हैं। जिनमें सिर्फ छत्तीसगढ़ के बस्तर में ही 1000 से ज्यादा आम लोगों की जानें गई हैं। पुलिस के साथ बस में मारे गए आम लोगों की जान जाना सुर्खियों में आया लेकिन, ज्यादातर नक्सलियों के फरमान न मानने पर जन अदालत के हुक्म पर आदिवासियों-स्थानीय निवासियों की जान जाने की खबर कभी सुर्खियां नहीं बन पातीं।

रॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, देश भर में लगभग 20 हजार नक्सली सक्रिय हैं। देश के 604 में से 160 जिलों के कई हिस्सों में आतंक के बूते इनकी समानांतर सरकार चलती है। ज्यादातर इनका असर उन इलाकों में है जहां खनिज संपदा भरपूर है जो, पूरी तरह से अपने राज्यों के बाहरी हिस्सों में हैं। जहां आवागमन, संचार के साधन ना के बराबर हैं और जो, बने उन्हें इन्होंने ध्वस्त कर दिया। छत्तीसगढ़ का बस्तर, आंध्र प्रदेश का करीमनगर, महाराष्ट्र का गढ़चिरौली और उड़ीसा का मलकानगिरि- ये ऐसे इलाके हैं जो, अपने राज्यों की राजधानियों से दूर और सीमावर्ती राज्यों से सटे हैं। इस पूरे क्षेत्र के दंडकारण्य जंगलों में पूरी तरह से नक्सलियों का राज चलता है। नेपाल और चीन के माओवादियों का समर्थन इन्हें ताकत देता है। 1967 में पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन आज सत्ता पर कब्जे के लिए कुछ अतिमहत्वाकांक्षी, भ्रमित अतिवामपंथी लोगों की निजी लड़ाई जैसा बनकर रह गया है।

माओवादी, नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों का इसे विकास चाहने वालों की लड़ाई बताना भी कुतर्क से ज्यादा कुछ नहीं है। थोड़ी सी बुद्धि लगाने पर ही माओवाद-नक्सववाद समर्थक बुद्धिजीवियों के इन तर्कों की पोल खुलने लगती है कि ये विकास का अपना हिस्सा मांगने वालों की लड़ाई है। ये सही है कि आदिवासी और पिछड़े इलाकों में विकास का काम बेहद कम हुआ है और यही वजह है कि नक्सलियों को वहां अपनी जमीन मजबूत करने का मौका मिल गया। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि एक बार कब्जा जमा लेने के बाद नक्सलियों ने बची-खुची सड़कों, बिजली, स्कूल, पुल और दूसरी सुविधाओं को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया। छत्तीसगढ़ में अपने कब्जे वाले इलाके में नक्सलियों ने 100 से ज्यादा स्कूलों, करीब 150 बिजली के खंभों और करीब 100 इलाके को जोड़ने वाली सड़कों को धवस्त कर दिया।

बार-बार आदिवासियों की जमीन छिनने की बात की जाती है। लेकिन, क्या इतने सालों से नक्सलियों के समांतर शासन में आदिवासियों का कुछ भी भला हो पाया है। क्योंकि, वो बेचारे तो दोनों ही तरफ से मारे जा रहे हैं। नक्सलियों के साथ हथियार न उठाओ तो, नक्सली मारें और मुठभेड़ में पुलिस मारे। तरक्की, अच्छी जिंदगी की चाह में सलवा जुडूम में शामिल होकर सरकार के साथ आओ तो, भी नक्सलियों के शिकार बनो। वैसे, नक्सलियों के दमन से सबसे ज्यादा प्रभावित छत्तीसगढ़ में सरकार ने अब तक दो लाख से ज्यादा आदिवासियों-स्थानीय निवासियों को जमीन के पट्टे दिए हैं।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम दोनों ही इस बात पर अब एकमत हैं कि नक्सली, आतंकवादी हैं। रमन सिंह तो विचारधारा के लिहाज से भी अतिवादी वामपंथी नक्सलियों के विरोधी हैं लेकिन, गृह मंत्री चिदंबरम की कांग्रेस उन्हें शायद एकदम से कड़े फैसले लेने की इजाजत नहीं देती। शायद इसीलिए दिग्विजय सिंह ये जोर शोर से कहते रहते हैं कि नक्सलियों को आतंकवादी नहीं माना जा सकता। अब अगर कोई ये कहता है कि राज्य सत्ता नक्सलियों को आतंकवादी बनाकर उनका सफाया करना चाहती है तो, इसमें गलत क्या है। क्योंकि, लोकतंत्र के सारे नियमों को ध्वस्त करके सिर्फ बंदूक की गोली से क्रांति की उम्मीद रखने वाले इन भटके लोगों को सुधारने का और देश के भीतर के इस सबसे बड़े डर को दूर रखने का शायद अब कोई रास्ता ही नहीं बचा है।

और, सबसे कमाल की बात तो ये कि जंगलों में गोली खाते-मारते घूम रहे इन नक्सलियों के दिमाग खराब करने वाले बुद्धिजीवियों की जमात दिल्ली से लेकर विदेशों तक बैठकर सिर्फ बतकही से काम चला ले रही है। वो, दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर और JNU जैसी जगहों पर चर्चा और जंतर-मंतर पर कुछ रस्मी धरना प्रदर्शन से ही अपना काम चला ले रही है। खुद महानगरों के संपूर्ण सुविधायुक्त जगहों पर रहकर मरने-मारने पर उतारू नक्सलियों के पक्ष में सिर्फ बयान देकर बड़े-बड़े अवॉर्ड जुहाती रहती है। और, इन अवॉर्ड्स की चमक भी न देख पाने वाले कुछ और नौजवानों को भटकाकर खून की होली खेलने के लिए तैयार कर देती है।

दूसरी प्रचारित की जा रही बात कि युद्ध क्षेत्र में सामान्य बसों से अर्धसैनिक बसों का जाना युद्ध के नियमों के खिलाफ है। ये बात साफ करती है कि ये देश के खिलाफ जंग है और जंग में सब जायज है। भले ही ये अपने ही कुछ लोग हैं जो भटक गए हैं लेकिन, ये साफ है नक्सलवाद अब सिर्फ विचारों की लड़ाई नहीं रह गई है। ये बंदूक की लड़ाई है और सिर्फ बंदूक की लड़ाई से ही इससे निपटा जा सकता है। आतंक की सारी हदें पार कर चुके इन लोगों से निपटने के लिए सरकार को अब आतंकवादियों से लड़ने जैसे असाधारण तरीके ही अपनाने होंगे। क्योंकि, इस लड़ाई के खत्म होने में जितनी देर होगी। अपने ही देश के लोग उतना ज्यादा इस लड़ाई के हवन में स्वाहा होते जाएंगे। फिर चाहे वो, अर्धसैनिक बलों के जवान हों, आदिवासी या फिर भटके हुए नक्सली। 
(this article is published on rashtriya sahara and peoples samachar's edit page)

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...