Monday, November 03, 2008

लतियाए, जूतियाए, काटे, गोली खाने के बाद भी हम ऐसे ही रहेंगे

हमारा पिटना, मरना देश भर की चिंता की विषय बना हुआ है। देश (कहने भर को ही है-हर मुद्दे पर तो बंटा है) पता नहीं ऐसे सोच रहा है कि नहीं लेकिन, हम ऐसे ही सोच रहे हैं। क्योंकि, हम आजादी के बाद से (और, मुझे तो लगता है कि उत्पत्ति के साथ ही) ही ये मानने लगे हैं कि हम कमजोर होते हैं तो, देश कमजोर होता है। हम मजबूत रहते हैं तो, देश मजबूत होता है। ये अलग बात है कि जब हमसे कोई पूछता है कि हमने देश की मजबूती के लिए कभी कुछ किया क्या। तो, जवाब आता है- हमहीं तो, देश चलाते हैं- दिमाग चलाते हैं। और, दिमाग चलाना तो, बड़ा काम है। अब जो, दिमाग नहीं चला पाए 60-62 सालों में अब वो सब हम पर लात-जूते गोली चला रहे हैं। फिर भी हम दिमाग चला रहे हैं- रिरिया रहे हैं थोड़ा लात कम चलाओ भाई।

हम कहते हैं कि हम देश को ढेर सारे प्रधानमंत्री, रेलमंत्री से लेकर पता नहीं कौन-कौन त मंत्री और बड़े-बड़े ब्यूरोक्रैट देते हैं। हम कहते हैं कि हम देश के हर हिस्से में जाकर वहां का उत्थान करते हैं। हम कहते हैं कि हम किसी भी हालात में रह सकते हैं किसी भी हालत तक पहुंच सकते हैं। हमारी वजह से देश के दूसरे राज्यों के उद्योग-धंधे चल रहे हैं। हम गए तो, दूसरे राज्य चौपट हो जाएंगे। हम कहते हैं कि हमने जितने बड़े आंदोलन किए उससे देश की सामाजिक दशा-दिशा सुधरी। कुल मिलाकर हम कुछ इस तरह से जीते हैं कि इस देश में जो कुछ भी हैं- हम हैं।

हमें सबकी बड़ी चिंता है। अब हम पूरे देश को अपना मानते हैं इसलिए देश भर में कहीं भी जाकर रहते हैं। हमारी संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम की है- इसलिए दुनिया के किसी भी कोने में बस चार रोटी के जुगाड़ में निकल पड़ते हैं। बाकी सब जहां जाएंगे वहां हमारे भाई-बंधु तो, कुछ न कुछ चिंता करेंगे ही। हम रेलगाड़ियों-बसों में जानवरों की तरह एक के ऊपर एक लदकर सफर करते हैं। अब तक तो आप सबने हमें पहचान ही लिया होगा। हां, हम बिहारी हैं। जो, विस्तार योजना में अब उत्तर भारतीय कहे जाते हैं। वैसे इस बिहारी या उत्तर भारतीय में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भइया-बाबू को हम नहीं जोड़ पाए हैं। ई हम जो हैं ना सिर्फ बिहार से लेकर गोरखपुर के रास्ते उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़-जौनपुर तक ही पाए जाते हैं।

लेकिन, इधर थोड़ी मुश्किल हो गई है। अब हम परोपकारियों को कोई आने नहीं दे रहा है। सब हम जैसी बातें करने लगे हैं। सब कह रहे हैं कि हम खुदही बना लेंगे चलो भइया-बाबू लोगों निकल लो यहां से। लेकिन, हम तो वसुधैव कुटुंबकम वाले हैं। हम देश बाहर जाकर बसे और सूरीनाम मॉरीशस में हम लोग राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री बनके वहां के लोगों का भला कर रहे हैं तो, हम इनकी बेवकूफों की बातों में कैसे आते। इन सब बेवकूफों को क्या पता कि हम नहीं रहेंगे तो, इनके यहां की राजनीति-अर्थनीति-समाजनीति कैसे चलेगी। ये सब तो दिमाग वाले काम हैं। लेकिन, ई ससुरे सुनी नहीं रहे हैं। कह रहे हैं सीधे से नहीं मानोगे तो, मारने-पीटने लगे। राम-राम हम तो इनका भला कर रहे हैं- इनकी गारा-मजदूरी से लेकर रात भर जागके चौकीदारी और चर्चगेट से ठाणे-वाशी, मीरा-भायंदर प्रेम से हमहीं तो लेकर जाते हैं। फिर भी ई हमको मार रहे हैं। हम अब फिर रिरिया रहे हैं- सबको मना थोड़ी न है तुम भी यही सब करो। अब उनके दिमाग तो है नहीं अपने पागल नेता के बवकावे में आ गए हैं कह रहे हैं कि ये सब भागेंगे तो खुदै ज्यादा काम मिलेगा।

उनके नेता को पागल हम नहीं कहे हम तो, उनके साथ बंबई में रहते हैं (उनका नेतवा बंबई सुनेगा तो, फिर मारेगा)। लेकिन, हमारे नेता तो, पटना-बिहार-दिल्ली रहते हैं। ऊ कहे कि हमरे अलावा सबका नेता पगला है। हमरे नेता को नहीं पहचाने। अरे वही जो, करीब पंद्रह साल राज करके हमको इतना (ना)लायक बना दिए कि हमको लगा कि चलो अब वसुधैव कुटुंबकम को चरितार्थ करके ही कुछ हो पाएगा। बिहार में ई करने के बाद अब रेल में यही कर रहे हैं। अब लेकिन, रेल तो देश भर में चलती है। बस यही पंगा हो गया।

हमने बड़ा चेत के-मशक्कत करके इनको हटाए। लेकिन, हम कहे न हम दिमाग वाले हैं। तो, सोचिए हम पर राज करने वाला नेता (जो, दूसरे नेताओं को बुड़बक-पागल कहके बेईज्जती करता है और पटना युनिवर्सिटी के जमाने से उसी पागलपन-बुड़बकई को ब्रांड बनाके मेहररुवौ को मुख्यमंत्री बना दिया) कितना दिमागदार होगा। अब ऊ कह रहा है कि हम पर खतरा है यानी साफ है देश पर खतरा है। इसलिए हमारे सारे लोग राजनीति बंद करें और इस्तीफा दे दें। क्योंकि, राजनीति करने का आजीवन पट्टा तो, ऊ हमारे कान में बड़े-बड़े बाल वाले नेताजी के ही पास है। ऊ कह रहे हैं कि उनके पटना युनिवर्सिटी के दिन वाले साथी और उसके बाद से परम विरोधी (बीच-बीच में हंस बोल लेते हैं तो, गलत संदेश न समझ लीजिएगा) नेताजी देश को गलत संदेश दे रहे हैं। इस्तीफा नहीं दे रहे हैं।

काहे लिए इस्तीफा। इसलिए कि हमको बंबई में पीटा गया। हममें से एक को गोली मार दी गई। हमारे उस एक का गुनाह कोई थोड़ी न था। उ तो, बस थोड़ा गुस्सा दिखा रहा था। बेचारे के पास लाइसेंसी नहीं थी तो, देसी कट्टा टाइप रिवॉल्वर जुगाड़ करके किसी तरह मुंबई आया और गुस्से में चीखा। एकाध फायर इधर-उधर किए बेचारा बार-बार कहता रहा कि हम किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते। बस राज ठाकरे को मारना चाहते हैं पुलिस कमिश्नर से मेरी बात करा दो। अब क्या उसे इतना भरोसा था कि कमिश्नर उसे साथ ले जा कर राज को गोली मारने में मदद करेगा।
खैर कमिश्नर की जगह कम पढ़े-लिखे दरोगा-सिपाही आए। और, बेवकूफ हममें से उस एक ज्यादा दिमाग वाले की बात नहीं समझ सके। और, उसे गोली मार दी। बस इसके बाद हमारे सारे नेता (क्योंकि, हम तो अब भी यही मानते हैं कि नेतागिरी करने का दिमाग वाला काम तो बस हमारे ही वश का है) एक साथ खड़े होकर एक सुर में दूसरे पागल नेता के खिलाफ जुटे। पीएम-मैडम के सामने रिरियाए। कान में बड़े बाल वाले नेता बाहर निकले तो, समझ में आया कि अरे अभी तो हमारी सत्ता हमारे विरोधी के पास है। बस वितंडा कर दिया।

अब उनसे कोई राज्य की बात करता है तो, ऊ साध्वी प्रज्ञा की चर्चा करने लगते हैं। बटला में आतंकवादी मारे जाते हैं। तो, उनके दूसरे फोटोकॉपी नेताजी (अरे वही जो थोड़ा तुतलाकर बोलते हैं फिर अमर सिंह विस्तार से मीडिया को बयान समझाते हैं, यहां तक कि जो, ऊ नहीं भी बोले होते हैं ऊ भी समझा देते हैं) की पार्टी के हमारे लोग प्रदर्शन करते हैं। कहते हैं नाहक अल्पसंख्यक भाई परेशान किए जा रहे हैं। नेताजी खुद रक्षामंत्री रह चुके हैं लेकिन, इनके सिपहसालार पुलिस-फौज का मनोबल तोड़ने वाला हर बयान दे डालते हैं।

लेकिन, इस सबके बाद भी हम गाना गा रहे हैं हम तो, ऐसे हैं भइया। हम न सुधरेंगे भइया। हमको समझ में नहीं आ रहा है कि हम मुंबई से सटे ठाणे स्टेशन पर जब हमको पिटते देखते हैं तो, इतना गुस्सा गए कि बंबई हत्या करने चले। लेकिन, पटना से गोरखपुर स्टेशन पर जब उससे भी गंदा करम होता है तो, किसी राहुल राज का खून नहीं खौलता। ऊ घर छोड़कर दूसरी जगह सुख-शांति तलाश लेता है। सालों से हमारे हरामखोर नेता हमारा खून चूस लिए-हमारी इज्जत फालूदा बनाके कुल्फी के साथ खा गए- हमारा खून नहीं खौला। हमें हमारे घर से निकाल बाहर किया इन कमीनों ने और हम इनके पीछे झंडा-डंडा लेकर खड़े हैं कि हम तो महान हैं हमारा काम तो, सिर्फ राज करना है। हम लात-गोली मुंबई में खा रहे हैं। हम असम में काटे जा रहे हैं। और, ई हरामखोर बुद्धिमान सबको बांटके राज करने के जतन ढूंढ़ रहे हैं। अब एक राज भी राज करने के लिए इनसे सबक सीखके उस्ताद बन रहा है।

पता नहीं किसी राहुल राज को नजदीकै में इनको मारने जितना गुस्सा क्यों नहीं आया। 2000 किलोमीटर का सफर करके आने तक गुस्सा बना रहा। 10-5 किलोमीटर की रेंज में चारो तरफ घूमते बड़े-बड़े कमीने क्यों नहीं दिखते। एक बार बाहर निकले तो, हम सड़ी-गली जिंदगी जीकर भी घर लौटना नहीं चाहते। लेकिन, हम गुस्सा हैं उनसे जिनके घर में हैं। हम उनसे गुस्सा नहीं हैं जिनकी वजह से हम बेघर हो रहे हैं। हम बंबई कट्टा लेकर किसी को डराने-धमकाने चले जाते हैं लेकिन, जहां हैं जिससे डरके रहते हैं उसके लिए गंगाजल का इस्तेमाल नहीं कर पाते। हां, फिल्म में तो हम ताली खूब बजाते हैं। यही वजह है कि राजेंद्र यादव मुंबई मिरर में बिहारी ब्रांड पर लिख मारते हैं कि बिहारी सबसे पहले बिहार से डिटैच होता है। लेकिन, जहां रहता है वहां बिहारी ही रहता है। अब ई यादवजी को कौन समझाए हम डिटैच मन से नहीं मजबूरी में हो रहे हैं। लेकिन, हम तो बस यही सोचकर डरे जा रहे हैं कि ये मजबूरी खत्म होके कभी हमारे मन का भी काम होगा या हम लतियाए, जूतियाए, काटे, गोली खाने के बाद भी ऐसे ही रहेंगे। हम गाना गाते रहेंगे हम तो, ऐसे हैं भइया। हम न सुधरेंगे भइया।

17 comments:

  1. दमदार लेख... बहुत बढ़िया

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  2. सचमुच ठीक कहा आपने

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  3. 'कौन-कौन त मंत्री...' ऊ जौन है कि.... का कहते हैं कि... इन्हीं की वजह से ये दुर्गति है। लात खाने के आदी हैं इसलिए सुधरते नहीं और इनको वोट दे बैठते हैं। बुड़बक... बहुरुपियों को अपने स्वाभिमान का प्रतीक मान लेते हैं। दमदार और शानदार लेखन के लिए बधाई स्वीकारें। मूल मुद्दे तक पहुंचे हैं।

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  4. बेहतरीन आलेख.

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  5. शानदार!

    तार्किक और दमदार.

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  6. बहुत सुन्दर।

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  7. सबके दिल का बात बोल दिये हैं आप… बधाई और शुभकामनायें…

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  8. Anonymous8:16 PM

    मुद्दे की बात।

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  9. विवाद के मूल कारण को छूती हुई पोस्ट।

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  10. Anonymous4:12 PM

    चाहे बिहार का राहुल राज हो या उत्तर प्रदेश का धर्मेन्द्र, बात एक ही है. आपने धर्मेन्द्र का जिक्र नहीं किया. दोनों की हत्या में कोई फर्क नहीं. और कोई फर्क नहीं है पूरे भारत वर्ष में महाराष्ट्र के बाहर भी इसी तरह की गुंडागर्दी की भेंट चढ़ने वाले लोगों की गति में. बिहारी बिहार से मजबूरी में डिटैच हो रहा हो चाहे मन से, समस्या ये है कि वो जहाँ रहता है वहां बिहारी ही बनकर रहता है. बात चाहे बिहारी की हो, उत्तर प्रदेश के भइया की, राजस्थानी की और चाहे मराठी की, यदि चार रोटी के लिए माइग्रेट होना ही है तो जहाँ जाना है वहां की तरह ही रहना होगा. कहावत है जैसा देश वैसा भेष. इसमें बुराई भी क्या है. यदि वैसा भेष नहीं अपनाया तो वहां रहते हुए भी डिटैचd ही रहना पड़ेगा. यदि बात पूरे भारत को जोड़ने वाली रेल की की जाए तो सवाल उठता है कि रेलवे की इमेज किसने ख़राब की. यात्रा तो सभी करते हैं लेकिन जनरल का टिकेट लेकर दिल्ली से बिहार बाउंड मूरी एक्सप्रेस में सफर करने की हिम्मत एक सभ्य इंसान क्यों नहीं कर पाता. क्यों वो टिकेट वापस करने में ही भलाई समझता है. आखिर क्या है 'बिहारी' होने का मतलब? बिहारी ही हैं जो रेल मंत्री बिहार का होने के चलते रेलवे को अपनी संपत्ति समझने की भूल करते हैं और इसी भुलावे में अन्य भारतीयों के साथ असभ्यता भी करते है. समस्या ये है कि ऐसे चंद बिहारी उत्तर प्रदेश के चंद भाइयों, राजस्थान के चंद राजस्थानियों, महाराष्ट्र के चंद मराठियों, पश्चिम बंगाल के चंद बंगालियों और तमिलनाडु के चंद तमिलों सभी में छुपे बैठे हैं. गोरखपुर से चलकर ओखा जाने वाली गाड़ी संख्या ५०४५ अप में उत्तर प्रदेश के कुछ लड़कों ने महाराष्ट्र की लड़कियों के साथ जो 'कारनामा' किया वो भी उनके कुछ अर्थों में बिहारी होने का ही परिचायक था. कैसा लगता है जब कोई दो व्यक्ति आपकी भाषा जानने समझने के बाद भी किसी अन्य भाषा को जानने वाली भीड़ के बीच अपनी ही भाषा का इस्तेमाल ढोल पीटकर करते हैं. वे दो व्यक्ति भले ही इसमें अपनी शान समझते हों या ख़ुद को उस भाषा का बड़ा जानकार समझते हों, पर इस वजह के चलते उस भीड़ से अपनत्व की उम्मीद नहीं कर सकते. मतलब ये कि बिहारियों को जिन अर्थों में बिहारी कहा जाता है उन अर्थों में मराठियों को मराठी और राजस्थानियों को राजस्थानी नहीं कहा जाता. बिहार की समस्या ये है कि इसकी जड़ों में 'बिहारी' नाम की दीमक कुछ ज्यादा तबाही मचा चुकी है. लगता है कि समस्या की जड़ यही है. यदि हर कोई उस वस्तु पर हक जताना बंद कर दे जिसका वो हक़दार नहीं और शिष्टाचार सीख ले तो काफी हद तक समस्या का समाधान हो जाए.

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  11. सही लिखा है, आपके लेख सटिक होते हैं भैया, कैमेंट कम कर पाती हूँ मगर जो मेरे ब्लॉग पर हैं उन्हे अवश्य पढ़ती हूँ...

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  12. beautiful piece...well written....congrats...

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  13. कलेजा निकाल कर लिखा है . गजब ! आपकी सोच से हर समझदार का सोच कदमताल कर रहा है ऐसे ही समझ बदलते रहिये .लेकिन एक बात और है मुंबई को भइया नही "भाई" पसंद है.

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