आज मुंबई मिरर में एन विट्ठल का लेख पढ़ रहा था। जिसमें वो कंसल्टेंसी फर्म मैकेंजी के किसी प्रजेंटेशन का हवाला दे रहे हैं। और, जिस प्रजेंटेशन में भारत के सुपरपावर बनने की इम्मीद दिखी थी। ये प्रजेंटेशन मैकेंजी ने तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को दिखाया था। पूरा प्रजेंटेशन देखने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पूछा- आखिर ये सब होगा कैसे।
पूर्व मुख्य सतर्कता अधिकारी (chief vigilance officer) एन विट्ठल कहते हैं कि यही वो सवाल है कि हम सोचते बड़ा अच्छा हैं। योजनाएं बहुत बड़ी-बड़ी बनाते हैं। लेकिन, उसका क्रियान्वयन (implementation) बहुत ही कमजोर होता है, जिसकी वजह से बड़ी-बड़ी योजनाएं बेकार (flop) हो जाती हैं। विट्ठल ने अपने लेख में टी एन शेषन और तमिलनाडु के एम्प्लॉयमेंट डिपार्टमेंट के एक डिप्टी रजिस्ट्रार का हवाला देकर कहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी की बात का जवाब हैं ये लोग। जिन्होंने अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल करके क्रियान्वयन (implementation) को धारदार बना दिया।
विट्ठल साहब की ये बात एकदम सही है। विट्ठल साहब उन अफसरों में से हैं जिन्होंने इस देश में चीफ विजिलेंस ऑफीसर की पोस्ट के सही मायने लोगों को बता दिए। सब कुछ पारदर्शी था। एक बार पहले भी रायपुर में मैंने एन विट्ठल को सुना है। जिसमें उन्होंने संस्कृत के एक श्लोक की पैरोडी बनाकर बताया था कि किस तरह भ्रष्टाचार क्लर्क स्तर का कर्मचारी बकरी, आईएएस लोमड़ी और नेता शेर जैसे अपना हिस्सा खाता है। मुझे अच्छे से विट्ठल का उदाहरण याद नहीं है लेकिन, इसी के आसपास उन्होंने कहा था और तालियां भी खूब बटोरीं थीं। अब एन विट्ठल के बारे में मुंबई मिरर के रेगुलर कॉलम के अलावा कोई खबर नहीं दिखती।
ऐसे टीएन शेषन इस देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे, जिसके बाद इस देश में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, संसद और चुनाव की तरह देश का आम आदमी चुनाव आयोग के बारे में भी जान गया था। दरअसल शेषन को कोई असीमित अधिकार नहीं दिए गए थे। लेकिन, जब शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो, उन्होंने इस संवैधानिक पद के सारे अधिकारों को क्रियान्वित (implement) किया। इसके बाद ही चुनाव आयोग में इतना दम आया कि वो, दम ठोंककर कहीं भी निष्पक्ष चुनाव करवा देता है। टीएन शेषन के बारे में आखिरी खबर ये थी कि उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ा था।
हमारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान बहुत ही कम समय के लिए एक एसपी सिटी आए थे, जसबीर सिंह। मेरी जानकारी के मुताबिक, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से पढ़ाई के दौरान जसबीर छात्रसंघ में भी थे। और, बहुत ही कम उम्र में इंडियन पुलिस सर्विस में चुन लिए गए थे। जसबीर के एसपी सिटी रहते ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का एक चुनाव हुआ जिसमें हर दूसरे क्षण जसबीर सिंह और छात्रों-छात्रनेताओं में गंभीर विवाद की स्थिति बन जाती थी। खैर, जसबीर की यही काबिलियत रही होगी कि मायावती जब इससे पहले मुख्यमंत्री बनीं थीं तो, मायावती को जसबीर प्रतापगढ़ जिले के लिए सबसे उपयुक्त कप्तान लगे। जसबीर जिले के पुलिस कप्तान बने तो, जसबीर का पहला निशाना बने वहां के रजवाड़े। दबंग और कई अपराधों के आरोपी विधायक रघुराज प्रताप सिंह को महल छोड़कर भागना पड़ा था। लेकिन, मायावती की सरकार गिरने के बाद सपा की सरकार आई तो, जसबीर कहां गए किसी को पता नहीं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ही पढ़ाई के दौरान उस समय के देश के सबसे चर्चित अफसर गोविंद राघव (जी आर) खैररनार को हम लोगों ने सिविल लाइन्स, इलाहाबाद के मुख्य चौराहे सुभाष चौक पर सुना था। मुंबई बीएमसी के तोड़ू दस्ते के इंचार्ज खैरनार दाउद के अवैध निर्माणों को धड़ाधड़ा तोड़ने और उसके बाद हुए जानलेवा हमलों की वजह से देश के सबसे चर्चित अफसर थे। ईमानदारी और निडरता की मिसाल बन चुके खैरनार को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इलाहाबाद में बुलाया था। उसके बाद मैंने खैरनार के बारे में आखिरी खबर मुंबई मिरर में ही पढ़ी थी। खबर ये थी कि तोड़ू दस्ता का इंचार्ज रहते खैरनार के ऊपर सरकारी कमरे का कुछ बकाया किराया वसूलने के लिए बीएमसी ने नोटिस दी है। किराया बहुत ही मामूली था।
अब सवाल ये है कि एन विट्ठल, टीएन शेषन, जीआर खैरनार, तमिलनाडु के त्रिचुरापल्ली जिले के एम्प्लॉयमेंट डिपार्टमेंट के डिप्टी रजिस्ट्रार सरत कुमार और इलाहाबाद, प्रतापगढ़ में तेज-तर्रार एसपी रहे जसबीर सिंह जैसे लोगों की खबरें कहां जाती हैं। आखिर ये लोग कहां चले जाते हैं। क्या planning implementation सलीके से करने वाले लोग system को अपच हो जाते हैं। मुझे संस्कृत का कोई श्लोक तो अब याद नहीं रहा। लेकिन, एन विट्ठल की पैरोडी के अंदाज में बस सवाल इतना ही है कि .... सिस्टम को सुधारने की कोशिश करने वाले ... जाने चले जाते हैं कहां ...
पूर्व मुख्य सतर्कता अधिकारी (chief vigilance officer) एन विट्ठल कहते हैं कि यही वो सवाल है कि हम सोचते बड़ा अच्छा हैं। योजनाएं बहुत बड़ी-बड़ी बनाते हैं। लेकिन, उसका क्रियान्वयन (implementation) बहुत ही कमजोर होता है, जिसकी वजह से बड़ी-बड़ी योजनाएं बेकार (flop) हो जाती हैं। विट्ठल ने अपने लेख में टी एन शेषन और तमिलनाडु के एम्प्लॉयमेंट डिपार्टमेंट के एक डिप्टी रजिस्ट्रार का हवाला देकर कहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी की बात का जवाब हैं ये लोग। जिन्होंने अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल करके क्रियान्वयन (implementation) को धारदार बना दिया।
विट्ठल साहब की ये बात एकदम सही है। विट्ठल साहब उन अफसरों में से हैं जिन्होंने इस देश में चीफ विजिलेंस ऑफीसर की पोस्ट के सही मायने लोगों को बता दिए। सब कुछ पारदर्शी था। एक बार पहले भी रायपुर में मैंने एन विट्ठल को सुना है। जिसमें उन्होंने संस्कृत के एक श्लोक की पैरोडी बनाकर बताया था कि किस तरह भ्रष्टाचार क्लर्क स्तर का कर्मचारी बकरी, आईएएस लोमड़ी और नेता शेर जैसे अपना हिस्सा खाता है। मुझे अच्छे से विट्ठल का उदाहरण याद नहीं है लेकिन, इसी के आसपास उन्होंने कहा था और तालियां भी खूब बटोरीं थीं। अब एन विट्ठल के बारे में मुंबई मिरर के रेगुलर कॉलम के अलावा कोई खबर नहीं दिखती।
ऐसे टीएन शेषन इस देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे, जिसके बाद इस देश में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, संसद और चुनाव की तरह देश का आम आदमी चुनाव आयोग के बारे में भी जान गया था। दरअसल शेषन को कोई असीमित अधिकार नहीं दिए गए थे। लेकिन, जब शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो, उन्होंने इस संवैधानिक पद के सारे अधिकारों को क्रियान्वित (implement) किया। इसके बाद ही चुनाव आयोग में इतना दम आया कि वो, दम ठोंककर कहीं भी निष्पक्ष चुनाव करवा देता है। टीएन शेषन के बारे में आखिरी खबर ये थी कि उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ा था।
हमारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान बहुत ही कम समय के लिए एक एसपी सिटी आए थे, जसबीर सिंह। मेरी जानकारी के मुताबिक, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से पढ़ाई के दौरान जसबीर छात्रसंघ में भी थे। और, बहुत ही कम उम्र में इंडियन पुलिस सर्विस में चुन लिए गए थे। जसबीर के एसपी सिटी रहते ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का एक चुनाव हुआ जिसमें हर दूसरे क्षण जसबीर सिंह और छात्रों-छात्रनेताओं में गंभीर विवाद की स्थिति बन जाती थी। खैर, जसबीर की यही काबिलियत रही होगी कि मायावती जब इससे पहले मुख्यमंत्री बनीं थीं तो, मायावती को जसबीर प्रतापगढ़ जिले के लिए सबसे उपयुक्त कप्तान लगे। जसबीर जिले के पुलिस कप्तान बने तो, जसबीर का पहला निशाना बने वहां के रजवाड़े। दबंग और कई अपराधों के आरोपी विधायक रघुराज प्रताप सिंह को महल छोड़कर भागना पड़ा था। लेकिन, मायावती की सरकार गिरने के बाद सपा की सरकार आई तो, जसबीर कहां गए किसी को पता नहीं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ही पढ़ाई के दौरान उस समय के देश के सबसे चर्चित अफसर गोविंद राघव (जी आर) खैररनार को हम लोगों ने सिविल लाइन्स, इलाहाबाद के मुख्य चौराहे सुभाष चौक पर सुना था। मुंबई बीएमसी के तोड़ू दस्ते के इंचार्ज खैरनार दाउद के अवैध निर्माणों को धड़ाधड़ा तोड़ने और उसके बाद हुए जानलेवा हमलों की वजह से देश के सबसे चर्चित अफसर थे। ईमानदारी और निडरता की मिसाल बन चुके खैरनार को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इलाहाबाद में बुलाया था। उसके बाद मैंने खैरनार के बारे में आखिरी खबर मुंबई मिरर में ही पढ़ी थी। खबर ये थी कि तोड़ू दस्ता का इंचार्ज रहते खैरनार के ऊपर सरकारी कमरे का कुछ बकाया किराया वसूलने के लिए बीएमसी ने नोटिस दी है। किराया बहुत ही मामूली था।
अब सवाल ये है कि एन विट्ठल, टीएन शेषन, जीआर खैरनार, तमिलनाडु के त्रिचुरापल्ली जिले के एम्प्लॉयमेंट डिपार्टमेंट के डिप्टी रजिस्ट्रार सरत कुमार और इलाहाबाद, प्रतापगढ़ में तेज-तर्रार एसपी रहे जसबीर सिंह जैसे लोगों की खबरें कहां जाती हैं। आखिर ये लोग कहां चले जाते हैं। क्या planning implementation सलीके से करने वाले लोग system को अपच हो जाते हैं। मुझे संस्कृत का कोई श्लोक तो अब याद नहीं रहा। लेकिन, एन विट्ठल की पैरोडी के अंदाज में बस सवाल इतना ही है कि .... सिस्टम को सुधारने की कोशिश करने वाले ... जाने चले जाते हैं कहां ...
unka jameer ya to thak jata hai ya ve bhi is daldal me chillane se behtar ek khamoshi aod lete hai.
ReplyDeletesystem ko sudharane ki jarurat hai or kaise implement ho yah kisi bhi yojana ka mukhya bindu hota hai yadi amal nahi kiya gaya to yojana fail to hogi hi .
ReplyDeleteयदि ऊपत वाल व्यक्ति ठीक है तो वह अपने साथ ठीक लोगों को रखेगा यदि वह ठीक नहीं तो साथ वाले भी बेकार रहेंगे।
ReplyDeleteये तो हीरो लोग हैं - जिन्हे मीडिया ने लार्जर देन लाइफ बनाया है।
ReplyDeleteमैं तो अपनी बात कहूं - ईमानदारी आपको अकेला बनाती है और कभी अवसाद में भी धकेलती है। ईमनदारी टफ काम है और थकान आती ही है। बहुत लोग नहीं जो आपके साथ सर्वदा रहें।
ये सभी अपने आप में स्वयं योजनायें के भंडार हैं जिनका क्रियान्वयन समाज के ठेकेदारों नें समय रहते नहीं किया । सरकार और मीडिया नें तो अपने अपने राजनैतिक स्वार्थों के कारण इनका उपयोग किया और जब उन्हें लगने लगा कि इनका पडला भारी हो जावेगा तो इन्हें निकाल फेंका ।
ReplyDeleteविचारणीय मसला है। इन सब ने कानून तोड़नेवालों के खिलाफ कार्रवाई की, कानूनी प्रावधानों को ताकत भर लागू किया। लेकिन कानून तो सदा सच बोलो जैसी नैतिकता मात्र है। समाज की असली चाल-ढाल सत्ता और शक्ति के संतुलन से तय होती है। शायद इन लोगों ने पेशे से निकलने के बाद कानून के लूपहोल्स को ढूंढने और उसे बदलने के लिए अवाम को गोलबंद करने का काम किया होता तो आज भी इनकी चर्चा होती। तब ये नहीं कहना पड़ता कि जाने चले जाते हैं कहां...
ReplyDeleteबने रहने के लिए इमानदारी का ढोल पीटना ही काफ़ी होता है .ये लोग हारमोनियम लेकर बैठ गए थे .
ReplyDeleteवैसे बदनाम बिहार पुलिस का एक ईमानदार दारोगा का कहना था कि किसी थाना को सुधारने मे चौबीस घंटे से ज्यादा समय नही लगता है . हम कहबे करेंगे कि " इमानदारी ,ईमानदार लोगों से बेईमानी करती फिरती है ."
बने रहने के लिए इमानदारी का ढोल पीटना ही काफ़ी होता है .ये लोग हारमोनियम लेकर बैठ गए थे .
ReplyDeleteवैसे बदनाम बिहार पुलिस का एक ईमानदार दारोगा का कहना था कि किसी थाना को सुधारने मे चौबीस घंटे से ज्यादा समय नही लगता है . हम कहबे करेंगे कि " इमानदारी ,ईमानदार लोगों से बेईमानी करती फिरती है ."
हर्ष जी। सिस्टम सुधरने लायक नहीं, गिराने लायक है। मलबे में से काम की चीजें छाँट कर अलग कर लेंगे, नया बनाने के काम आएंगी। बस तोड़ने वालों,छाँटने और बनाने वाले लोगों को एक जगह इकट्ठा करना है। कोई संगठक नहीं मिल रहा है। कहते हैं परिस्थितियाँ ऐसे लोगों को पैदा करती हैं। तो लगता है परिस्थितियाँ अभी पूरी तरह लायक नहीं हैं, जब होंगी तो संगठक भी मिल जाएगा। तब तक तीनों दस्तों के लिए इंन्सानों को चीन्हते रहें।
ReplyDeleteआपने सही कहा है। ड्यूटी को वफादारी से अंजाम देनेवाले ईमानदार लोग सिस्टम में अनफिट होते हैं।
ReplyDeleteआज मीडिया भी अधिकांश मामलों में सिस्टम का हिस्सा ही बन गया है। मीडिया घरानों के अपने राजनीतिक या आर्थिक स्वार्थ होते हैं। इतना अधिक कि वे अपने पत्रकारों से भी विज्ञापन वसूलवाते हैं। इन हालातों में ईमानदार लोगों को अपने जौहर दिखाने के बाद चर्चा का हिस्सा बने रहने की गुंजाईश ही कहां है।
सिस्टम द्वारा कभी-कभी तो वैसे लोगों पर सुनियोजित तरीके से हमले भी कराये जाते हैं।
वैसे, ईमानदार लोगों का आमजन के दिलों पर राज हमेशा रहता है, भले सरकार व मीडिया उन्हें न पूछे।
बहुत बढ़िया आलेख. कैसे सुहायेंगे ये सिस्टम को? जब उपर से नीचे तक इनका विरोध ही विरोध है तो कहाँ टिक पायेंगे. ज्ञान जी से पूरी तरह सहमत हूँ, बहुत मेहनत का काम है. धारा के विपरीत इक्का दुक्का ही जाते हैं वो भी बस कुछ दूर तक ही जा पाते हैं.
ReplyDeleteविचारणीय आलेख। शुक्रिया हर्षभाई।
ReplyDeleteमैं अनिल जी से सहमत हूं कि इन्हें सक्रिय राजनीति में होना चाहिए था, शेषन जैसे काबिल आदमी को लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता के खिलाफ चुनाव लड़कर अपनी राजनीतिक आत्महत्या करने के बजाय मुख्यधारा की राजनीति में आते तो ज्यादा भला होता। ऐसे पांच-दस लोग पांच साल के लिए भी कानून बनाने वालों की जमात में शामिल हो जाते तो पांच साल में क्रांति आ जाती।
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