यूपी के चुनाव नतीजे बीजेपी की हार नहीं है। ये हार है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की। संघ के विचारों के यूपी के जातियों में बंटे धरातल पर फेल होने की। यूपी के चुनाव को बीजेपी की हार बताना RSS के और कमजोर होने का रास्ता बना रहा है। यूपी चुनाव में मायावती के पूर्ण बहुमत पाने के बाद RSS ने बीजेपी की हार की जो वजह बताई वो ये कि बीजेपी ने आधे मन से हिंदुत्व का रास्ता अपना लिया। और, मायावती ने इंदिरा गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व के फॉर्मूले से चुनाव जीत लिया।
दरअसल उत्तर प्रदेश में हुआ ये परिवर्तन सिर्फ बीजेपी की हार जितना सीधा सा नहीं है। ये कुछ वैसा ही परिवर्तन है जैसा यूपी में कांग्रेस के खिलाफ 1984 के बाद हुआ था। 1984 में भी इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति की लहर न आई होती तो, शायद कांग्रेस को चेतने का समय मिल जाता। लेकिन, 1984 में कांग्रेस को बहुमत मिल गया तो, गदगद कांग्रेसी टिनोपाल लगा कुर्ता पहनकर मंचों पर गला साफ करने में जुट गए। उत्तर प्रदेश की अंदर ही अंदर बदलती जनता का कांग्रेसियों को अंदाजा ही नहीं लग रहा था। इसका सही-सही अंदाजा RSS को लग रहा था। वजह ये थी कि कांग्रेसी नेता मंचों पर थे -- बरसों की विरासत के साथ और RSS लोगों के पास जमीन में जुटकर काम कर रहा था।
उस वक्त जो दो बातें थीं। कांग्रेसी नेताओं से जनता ऊब चुकी थी और समाज में पिछड़ी और दबी-कुचली जातियां ऊपर उठने की कोशिश कर रही थीं। संघ ने अपनी विचारधारा से लोगों को जोड़ने की कोशिश की। साथ ही पिछड़ी-दबी-कुचली जातियों को साथ लेकर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश की। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, मंडल आंदोलन ने RSS और बीजेपी की काम बिगाड़ना शुरू कर दिया।
1989 में RSS-बीजेपी ने समय की नजाकत समझी और मंडल-कमंडल का गठबंधन हो गया। दोनों को फायदा हुआ लोकसभा में जनता दल को 143 सीटें मिलीं और बीजेपी को 89। बीजेपी के लिए बड़ी उपलब्धि थी 1984 में सिर्फ दो संसद सदस्यों वाली पार्टी के पास लोकसभा में 89 सांसद हो गए थे। RSS की राजनीतिक शाखा उत्थान पर थी आगे संघ के प्रिय आडवाणीजी की रथयात्रा निकली और पार्टी और आगे पहुंच गई 1991 में अयोध्या (भगवान राम) ने बीजेपी को 119 सीटें दिला दीं।
बीजेपी उत्तर प्रदेश और पूरे देश में जम चुकी थी। कई राज्यों में सरकारें भी बन गई थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की मेहनत काफी हद तक काम पूरा कर चुकी थी। 1999 में एक स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद बचाखुचा काम भी पूरा हो गया।
बस यहीं से बीजेपी के कांग्रेस बनने की शुरुआत हो गई। अब RSS ने बीजेपी से अखबारों-टीवी चैनलों की बहसों में किनारा करना शुरू कर दिया। स्वेदशी जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद जैसे संघ के सभी अनुषांगिक संगठन बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग मुद्दों पर बीजेपी के खिलाफ नारा लगाने लगे थे। अटल-आडवाणी और सिंघल-तोगड़िया की मुलाकात अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। अब बीजेपी-RSS को ये पता नहीं लग पा रहा था कि अंदर-अंदर जनता कैसे बदल रही है। पता तब लगा जब इंडिया शाइनिंग का नारा फ्लॉप हुआ और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सत्ता में आ गई।
लेकिन, तब तक RSS-VHP-SWADESHI JAGARAN MANCH बीजेपी से पूरी तरह दूर हो चुका था। और, यूपी में बीजेपी का वोटर बीजेपी से। वो उत्तर प्रदेश ही था जहां से कांग्रेस गायब हुई तो, आजतक वापसी का इंतजार कर रही है। उत्तर प्रदेश में संघ के ज्यादातर दिग्गज अब बीजेपी में थे और संघ को ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अब एजेंडा तय करने का काम संघ नहीं बीजेपी के ऊपर छोड़ देना चाहिए। लेकिन, मुश्किल वही कि एजेंडा तय करने वाले बीजेपी के नेता अब मंचों पर थे और जमीन पर काम करने वाले बचे-खुचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वयंसेवा में लग गए थे। कोई ऐसा प्रेरणा देने वाला नेता भी उन्हें नजर नहीं आ रहा था।
संघ ने बीजेपी को छोड़कर अपनी शाखाएं लगानी शुरू कर दीं लेकिन, शाखाओं में मुख्य शिक्षक के अलावा ध्वज प्रणाम लेने वाले भी मुश्किल से ही मिल रहे थे। वजह ये नहीं थी कि लोगों को संघ की विचारधार अचानक इतनी बुरी लगने लगी थी कि वो शाखा नहीं जाना चाहते थे। वजह ये थी कि उन्हें ये दिख रहा था कि उन्हें शाखा से निकालकर बीजेपी विधायक सांसद के चुनाव में पर्ची काटने पर लगाने वाले RSS के प्रचारक सत्ता की मलाई काटने में लगे थे।
RSS-बीजेपी के कैडर/नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया था। ये जब ब्राह्मणों को अपना वोटबैंक समझकर दूसरों को लुभाने में लगे थे। तो, पिछले दो दशक से उत्तर प्रदेश में हाशिए पर पहुंच गया ब्राह्मण बीएसपी कोऑर्डिनेटर के साथ बैठकर मुलायम के गुंडाराज के खिलाफ स्ट्रैटेजी तैयार कर रहा था। 1991 से कमल निशान पर ही वोट डालता आ रहा पक्का संघी वोटर भी 2007 में पलट गया और इलाहाबाद की शहर उत्तरी जैसी सीट से भी कमल गायब हो गया। ये वो सीट थी जहां हर दूसरे पार्क में 2000 तक शाखा लगती थी और हर मोहल्ले में दस घर ऐसे होते थे जहां हफ्ते में एक बार प्रचारक भोजन के लिए आते थे। अब सुविधाएं बढीं तो, प्रचारकों को स्वयंसेवकों के घर भोजन करने की जरूरत खत्म हो गई। और, इसी के साथ संघ का सीधे स्वयंसेवकों के साथ संपर्क भी खत्म हो गया। सीधे संपर्क का यही वो रास्ता था जिसके जरिए संघ ने राम मंदिर आंदोलन खड़ा किया था।
ये एकदम सही नहीं है कि राम मंदिर आंदोलन खड़ा होने से संघ से लोग जुड़े। संघ-बीजेपी के लोग भी इस भ्रम में आ गए कि जयश्रीराम के नारे की वजह से ही लोग बीजेपी-संघ के साथ खड़े हो रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही थी कि जब संघ के स्वयंसेवक लोगों के परिवार का हिस्सा बन गए थे, जब लोगों के निजी संपर्क में थे, जब उनके दुखदर्द परेशानी में उनके साथ खड़े थे तो, संघ का हर नारा बुलंद हुआ। लेकिन, जब संघ के लोग सत्ता के लोभी होने लगे। जब संघ के स्वयंसेवक सिर्फ विधानसभा/लोकसभा टिकट, पेट्रोलपंप/गैस एजेंसी के लिए संघ कार्यालयों से झोला लेकर निकलने लगे तो, संघ की शाखाओं में सिर्फ टिकटार्थी और सत्ता से सुख पाने के लोभी ही बचे। जाति के समीकरण ज्यादा हावी हुए लेकिन, इस बार अंदर ही अंदर।
जब बीजेपी विधानसभा चुनाव का ऐलान हुआ तो, भी RSS, बीजेपी के साथ कहीं नहीं दिख रहा था। बीजेपी का व्यवहार लोगों में ये भ्रम पैदा कर रहा था कि कहीं बीजेपी-समाजवादी पार्टी का कहीं अंदर ही अंदर कोई समझौता तो नहीं हो गया है। और, मायावती दहाड़ रही थी- मेरे सत्ता में आने के बाद गुंडे या तो जेल में होंगे या प्रदेश से बाहर। बचे-खुचे संघ के स्वयंसेवक भी बहनजी के कार्यकाल को मुलायम से बेहतर बता रहे थे।
अब भी बीजेपी और संघ के लोग नेता और स्ट्रैटेजी बदलकर 2009 का लोकसभा का चुनाव जीतने का भरोसा पाल रहे हैं। लेकिन, ये साफ है कि अगर संघ सचमुच चाहता है कि बीजेपी 2009 के लोकसभा चुनाव में बेहतर करे तो, उसे लोगों से संपर्क जोड़ने होंगे और अपने मूल काम स्वयंसेवक तैयार करने पर ही जोर-शोर से लगना होगा। नेता तैयार करने का काम बीजेपी पर ही छोड़ देना ज्यादा बेहतर होगा। लेकिन, संघ अभी भी अपने मूल काम को छोड़कर इस समीक्षा में लगा हुआ है कि बीजेपी की हार की वजह आधे मन से हिंदुत्व को अपनाना है। दरअसल बीजेपी की हार की वजह ये है कि उसका कोई आधार नहीं रहा। ये आधार बीजेपी को संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों से मिलता रहा है। इसलिए, RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में बीजेपी को चुनाव में हार के लिए जिम्मेदार ठहराना संघ का सच्चाई से आंख मूंदने जैसा लग रहा है। सही बात तो ये है कि उत्तर प्रदेश में RSS के स्वयंसेवक, RSS का सिस्टम फेल हुआ है।
दरअसल उत्तर प्रदेश में हुआ ये परिवर्तन सिर्फ बीजेपी की हार जितना सीधा सा नहीं है। ये कुछ वैसा ही परिवर्तन है जैसा यूपी में कांग्रेस के खिलाफ 1984 के बाद हुआ था। 1984 में भी इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति की लहर न आई होती तो, शायद कांग्रेस को चेतने का समय मिल जाता। लेकिन, 1984 में कांग्रेस को बहुमत मिल गया तो, गदगद कांग्रेसी टिनोपाल लगा कुर्ता पहनकर मंचों पर गला साफ करने में जुट गए। उत्तर प्रदेश की अंदर ही अंदर बदलती जनता का कांग्रेसियों को अंदाजा ही नहीं लग रहा था। इसका सही-सही अंदाजा RSS को लग रहा था। वजह ये थी कि कांग्रेसी नेता मंचों पर थे -- बरसों की विरासत के साथ और RSS लोगों के पास जमीन में जुटकर काम कर रहा था।
उस वक्त जो दो बातें थीं। कांग्रेसी नेताओं से जनता ऊब चुकी थी और समाज में पिछड़ी और दबी-कुचली जातियां ऊपर उठने की कोशिश कर रही थीं। संघ ने अपनी विचारधारा से लोगों को जोड़ने की कोशिश की। साथ ही पिछड़ी-दबी-कुचली जातियों को साथ लेकर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश की। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, मंडल आंदोलन ने RSS और बीजेपी की काम बिगाड़ना शुरू कर दिया।
1989 में RSS-बीजेपी ने समय की नजाकत समझी और मंडल-कमंडल का गठबंधन हो गया। दोनों को फायदा हुआ लोकसभा में जनता दल को 143 सीटें मिलीं और बीजेपी को 89। बीजेपी के लिए बड़ी उपलब्धि थी 1984 में सिर्फ दो संसद सदस्यों वाली पार्टी के पास लोकसभा में 89 सांसद हो गए थे। RSS की राजनीतिक शाखा उत्थान पर थी आगे संघ के प्रिय आडवाणीजी की रथयात्रा निकली और पार्टी और आगे पहुंच गई 1991 में अयोध्या (भगवान राम) ने बीजेपी को 119 सीटें दिला दीं।
बीजेपी उत्तर प्रदेश और पूरे देश में जम चुकी थी। कई राज्यों में सरकारें भी बन गई थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की मेहनत काफी हद तक काम पूरा कर चुकी थी। 1999 में एक स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद बचाखुचा काम भी पूरा हो गया।
बस यहीं से बीजेपी के कांग्रेस बनने की शुरुआत हो गई। अब RSS ने बीजेपी से अखबारों-टीवी चैनलों की बहसों में किनारा करना शुरू कर दिया। स्वेदशी जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद जैसे संघ के सभी अनुषांगिक संगठन बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग मुद्दों पर बीजेपी के खिलाफ नारा लगाने लगे थे। अटल-आडवाणी और सिंघल-तोगड़िया की मुलाकात अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। अब बीजेपी-RSS को ये पता नहीं लग पा रहा था कि अंदर-अंदर जनता कैसे बदल रही है। पता तब लगा जब इंडिया शाइनिंग का नारा फ्लॉप हुआ और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सत्ता में आ गई।
लेकिन, तब तक RSS-VHP-SWADESHI JAGARAN MANCH बीजेपी से पूरी तरह दूर हो चुका था। और, यूपी में बीजेपी का वोटर बीजेपी से। वो उत्तर प्रदेश ही था जहां से कांग्रेस गायब हुई तो, आजतक वापसी का इंतजार कर रही है। उत्तर प्रदेश में संघ के ज्यादातर दिग्गज अब बीजेपी में थे और संघ को ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अब एजेंडा तय करने का काम संघ नहीं बीजेपी के ऊपर छोड़ देना चाहिए। लेकिन, मुश्किल वही कि एजेंडा तय करने वाले बीजेपी के नेता अब मंचों पर थे और जमीन पर काम करने वाले बचे-खुचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वयंसेवा में लग गए थे। कोई ऐसा प्रेरणा देने वाला नेता भी उन्हें नजर नहीं आ रहा था।
संघ ने बीजेपी को छोड़कर अपनी शाखाएं लगानी शुरू कर दीं लेकिन, शाखाओं में मुख्य शिक्षक के अलावा ध्वज प्रणाम लेने वाले भी मुश्किल से ही मिल रहे थे। वजह ये नहीं थी कि लोगों को संघ की विचारधार अचानक इतनी बुरी लगने लगी थी कि वो शाखा नहीं जाना चाहते थे। वजह ये थी कि उन्हें ये दिख रहा था कि उन्हें शाखा से निकालकर बीजेपी विधायक सांसद के चुनाव में पर्ची काटने पर लगाने वाले RSS के प्रचारक सत्ता की मलाई काटने में लगे थे।
RSS-बीजेपी के कैडर/नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया था। ये जब ब्राह्मणों को अपना वोटबैंक समझकर दूसरों को लुभाने में लगे थे। तो, पिछले दो दशक से उत्तर प्रदेश में हाशिए पर पहुंच गया ब्राह्मण बीएसपी कोऑर्डिनेटर के साथ बैठकर मुलायम के गुंडाराज के खिलाफ स्ट्रैटेजी तैयार कर रहा था। 1991 से कमल निशान पर ही वोट डालता आ रहा पक्का संघी वोटर भी 2007 में पलट गया और इलाहाबाद की शहर उत्तरी जैसी सीट से भी कमल गायब हो गया। ये वो सीट थी जहां हर दूसरे पार्क में 2000 तक शाखा लगती थी और हर मोहल्ले में दस घर ऐसे होते थे जहां हफ्ते में एक बार प्रचारक भोजन के लिए आते थे। अब सुविधाएं बढीं तो, प्रचारकों को स्वयंसेवकों के घर भोजन करने की जरूरत खत्म हो गई। और, इसी के साथ संघ का सीधे स्वयंसेवकों के साथ संपर्क भी खत्म हो गया। सीधे संपर्क का यही वो रास्ता था जिसके जरिए संघ ने राम मंदिर आंदोलन खड़ा किया था।
ये एकदम सही नहीं है कि राम मंदिर आंदोलन खड़ा होने से संघ से लोग जुड़े। संघ-बीजेपी के लोग भी इस भ्रम में आ गए कि जयश्रीराम के नारे की वजह से ही लोग बीजेपी-संघ के साथ खड़े हो रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही थी कि जब संघ के स्वयंसेवक लोगों के परिवार का हिस्सा बन गए थे, जब लोगों के निजी संपर्क में थे, जब उनके दुखदर्द परेशानी में उनके साथ खड़े थे तो, संघ का हर नारा बुलंद हुआ। लेकिन, जब संघ के लोग सत्ता के लोभी होने लगे। जब संघ के स्वयंसेवक सिर्फ विधानसभा/लोकसभा टिकट, पेट्रोलपंप/गैस एजेंसी के लिए संघ कार्यालयों से झोला लेकर निकलने लगे तो, संघ की शाखाओं में सिर्फ टिकटार्थी और सत्ता से सुख पाने के लोभी ही बचे। जाति के समीकरण ज्यादा हावी हुए लेकिन, इस बार अंदर ही अंदर।
जब बीजेपी विधानसभा चुनाव का ऐलान हुआ तो, भी RSS, बीजेपी के साथ कहीं नहीं दिख रहा था। बीजेपी का व्यवहार लोगों में ये भ्रम पैदा कर रहा था कि कहीं बीजेपी-समाजवादी पार्टी का कहीं अंदर ही अंदर कोई समझौता तो नहीं हो गया है। और, मायावती दहाड़ रही थी- मेरे सत्ता में आने के बाद गुंडे या तो जेल में होंगे या प्रदेश से बाहर। बचे-खुचे संघ के स्वयंसेवक भी बहनजी के कार्यकाल को मुलायम से बेहतर बता रहे थे।
अब भी बीजेपी और संघ के लोग नेता और स्ट्रैटेजी बदलकर 2009 का लोकसभा का चुनाव जीतने का भरोसा पाल रहे हैं। लेकिन, ये साफ है कि अगर संघ सचमुच चाहता है कि बीजेपी 2009 के लोकसभा चुनाव में बेहतर करे तो, उसे लोगों से संपर्क जोड़ने होंगे और अपने मूल काम स्वयंसेवक तैयार करने पर ही जोर-शोर से लगना होगा। नेता तैयार करने का काम बीजेपी पर ही छोड़ देना ज्यादा बेहतर होगा। लेकिन, संघ अभी भी अपने मूल काम को छोड़कर इस समीक्षा में लगा हुआ है कि बीजेपी की हार की वजह आधे मन से हिंदुत्व को अपनाना है। दरअसल बीजेपी की हार की वजह ये है कि उसका कोई आधार नहीं रहा। ये आधार बीजेपी को संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों से मिलता रहा है। इसलिए, RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में बीजेपी को चुनाव में हार के लिए जिम्मेदार ठहराना संघ का सच्चाई से आंख मूंदने जैसा लग रहा है। सही बात तो ये है कि उत्तर प्रदेश में RSS के स्वयंसेवक, RSS का सिस्टम फेल हुआ है।
बहुत सही कहा है हर्ष भाई, आपके लेख ने तो आरएसएस के औचित्य पर ही प्रश्चचिन्ह लगा दिया है। जमीन से जुड़ा होना ही आरएसएस की ताकत है और उन्होंने ये खो दिया तो पूरे देश में बीजेपी और चड्डीवालों का वही हाल होगा जो उत्तर प्रदेश में हुआ है। दरअसल आरएसएस उत्तर प्रदेश में ही नहीं मुझे तो लगता है पूरे ही देश में फैल हो चुका है। दो हजार तीन की मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की जीत भी आरएसएस या बीजेपी के रणनीतिकारों की जीत नहीं थी बल्कि बिजली,पानी की कमी से त्राहि-त्राहि कर रही जनता का तत्कालीन कांग्रेस सरकारों के खिलाफ दिया गया मत था। दरअसल चड़डीवालों से अब लोगों का भरोसा ही उठता जा रहा है। चूंकि मैं मध्य प्रदेश से हूं इसलिए बेहतर जानता हूं कि कैसे कांग्रेस के शासन में दिग्विजय को पानी पी-पीकर कोसने वाले चड्डीवाले बीजेपी के राज में आग ... रहे हैं। बिजली,पानी के नाम पर बनी सरकार अब पानी मांगनेवालों पर लाठी बरसा रही है और आरएसएस समेत बीजेपी का पूरा संगठन आंखे मूंदे बैठा है। उत्तर प्रदेश की तरह ही यहां भी स्वंयसेवक लोगों से कट चुके हैं और सत्ता का सुख भोग रहे हैं। मुझे लगता है कि आरएसएस की असली परीक्षा अगले साल होने वाले गुजरात चुनावों में होगी। क्योंकि अपने कार्यकाल में चार साल तक गुजरात को मॉडल स्टेट का दर्जा दिलवाने वाले मोदी अब अपराधों को रोक नहीं पा रहे हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी के हारने की संभावना वहां नजर नहीं आती लेकिन ये जीत ना तो आरएसएस की होगी और ना बीजेपी की बल्कि ये जीत नरेंद्र मोदी की होगी, क्योंकि लोग भले ही मोदी को गालियां बके लेकिन गुजरात के गांव-गांव में जो बिजली पहुंचाई है वो मुसलमान के घर को भी रोशन करती है, गांवों में बनी सड़के मुसलमान को भी बाकी दुनिया से जोड़ती है। इसलिए आरएसएस को जागने की जरूरत है क्योंकि मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से तो बीजेपी के रास्ते मुश्किल होंगे ही लेकिन गुजरात सरीखें राज्यों में बीजेपी की जीत भी आरएसएस की जीत नहीं होगी। आखिर 2009 में आम चुनाव भी है यानी जागना तो होगा ही।
ReplyDeleteबढ़िया है। संघ ने लोगों का साथ खोया इसलिए बीजेपी की रीढ़ ही गायब हो गई । इस बार तोबीजेपीको उन्ही लोगों के वोट मिले जो आदतन किसी एक पार्टी को वोट देते जाते हैं। बीजेपी के बड़े नेताओं से भी लोगों का मोहभंग हुआ है। सबने अपनी जमीन खो दी है। सत्ता के लिए सिद्धातों को तिलांजलि दे दी। शायद उसी वजह से बीजेपी के नेताओं की दहाड़ बंद हो गई । सिद्धातों और मुद्दों का नारा बुलंद करने वाली बीजेपी कभी जिन्ना कभी राम मंदिर और कभी रिजर्वेशन के मुद्दे पर सफाई देती रही । नतीजा बीजेपी का मध्यम वर्गीय वोटर इसे नहीं पचा पाया । उनके सामने साफ हो गया कि बीजेपी वालों को केवल बड़ी बड़ी बातें करनी आती हैं। वोट की भूख और सत्ता के आगे इनका कोई सिद्धांत नहीं है। जहां तक बीजेपी के अति पिछड़े वोट बैंक की बात है तो वो भावनाओं में बहकर आया था और अब उसे बहलाने वाला कोई और मिल गया है। इसलिए बीजेपी के पीछे ही क्यों भागे जिसके नेता अब राजाओं जैसे आचरण करने लगे थे। बहरहाल अगर बीजेपी गायब हुई है तो उससे भी कहीं ज्यादा तेजी से आरएसएस गायब हुई है । बीजेपी ते सीधे सत्ता में रहकर बरबाद हुईलेकिनआरएसएस तो केवलसत्ता की गर्मी में ही बह गया।
ReplyDeleteमौजूदा उत्तर प्रदेश को भी तीन भागों में बाँट के नए राज्य पैदा कर दिए जाएँ तो कैसा रहे?
ReplyDeleteपण्डितजी, पढ़ लिया है. पचाने में टाइम लगेगा. भाजपा-आर एस एस की जो गदह पचीसी हुई है; उसका विश्लेशण होना बहुत जरूरी है.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया है आपका लेख.
बहुत बढ़िया है आपका लेख.
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