उत्तर प्रदेश में चुनाव बिना किसी गड़बड़ी के पूरा हो रहा है। सिर्फ आखिरी सातवां चरण बाकी है। ये सब हो सका है चुनाव आयोग की सख्ती से। निस्संदेह चुनाव आयोग को बधाई मिलनी चाहिए। शुरू से ही सात चरणों में चुनाव कराए जाने पर आयोग की दबी जुबान से ही सही आलोचना भी हो रही थी।लेकिन, चुनाव आयोग ने साफ कह दिया कि देश के सबसे बड़े प्रदेश में निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ये जरूरी है।सेना और दूसरी पैरामिलिट्री फोर्सेज को चुनाव आयोग ने लोकतंत्र की पहरेदारी में लगा दिया। फर्जी वोट डालने वाले दूर से ही नमस्ते करते दिखे। और, जिन्होंने इसके बाद भी हिम्मत दिखाई वो, जवानों की बूट की ठोकर खाने के बाद सुधरे।
लेकिन, क्या सचमुच उत्तर प्रदेश के चुनाव निष्पक्ष हुए हैं और हुए भी हैं तो क्या ये निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की मजबूती दिखा रहे हैं। दो छोटे उदाहरण हैं जिनसे साफ है कि चुनाव निष्पक्ष भले ही हुए हों। लोकतंत्रपिसता नजर आ रहाहै और, इसके लिए जिम्मेदार नेता ही हैं।उन्होंने नौकरशाही को ऐसा मौका दिया कि अब उनसे भी मामला संभालते नहीं बन रहा। नौकरशाही के हावी होने के दोनों उदाहरणनेताओं से ही जुड़े हैं। पहला उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद का ही नाम मतदाता सूची से गायब है। सलमान खुर्शीद कांग्रेस के बड़े नेता हैं और लुइस तो खुद ही फरुखाबाद की कायमगंज सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हैं। अब सवाल ये कि क्या चुनाव आयोग की ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि फर्जी वोट न पड़े इसके साथ ही वो ये भी सुनिश्चित करे कि जो वोट देने के लायक हैं वो वोट डाल सकें। और, अगर खुद चुनाव लड़ने वाले का ही नाम मतदाता सूची से गायब है तो, फिर ये कैसे माना जा सकता है कि चुनाव निष्पक्ष हैं क्योंकि खुद प्रत्याशी ही अपने पक्ष में वोट नहीं डाल सकता। लुइस खुर्शीद और सलमान खुर्शीद का आरोप है कि कायमगंज विधानसभा में पैंसठ हजार वोट फर्जी जुड़े हैं जबकि, असली वोटरों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया गया है।
दूसरा मामला सपा नेता अमर सिंह से जुड़ा है। अमर सिंह के छोटे भाई अरविंद सिंह ने माना है कि उनकेबड़े भाई अमर सिंह दो-दो जगह से वोट डालने की हैसियत में हैं। क्योंकि, उनका नाम गाजियाबाद के अलावा आजमगढ़ के पैतृक घर से भी वोटर लिस्ट में शामिल है। ये दो बड़े उदाहरण हैं जो, साफ कर देते हैं कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हुए हैं। हां, इतना जरूर हुआ कि बिना वोटर लिस्ट में नाम और हाथ में मतदाता पहचान पत्र के लोगों को वोट नहीं डालने दिया गया। लेकिन, अब इस बात की जिम्मेदारी किसकी होगी कि बूथ के बाहर से भगाए गए लोग फर्जी वोटर थे या फिर उनके भी नाम सलमान और लुइश खुर्शीद की तरह मतदाता सूची से पहले से ही साफ कर दिया गया था। और, कई ऐसे वोटर भी थे उत्तर प्रदेश की एक ही या अलग-अलग विधानसभा में कई-कई वोट डाल रहे थे।
कई घरों में तो हाल ये था किलोकसभा और नगर निगम चुनावों में वोटडालने वाले ही इस चुनाव में वोटर लिस्ट से बाहर कर दिए गए थे। मतदात पहचान पत्र उनके पास थे भी तो, सेना के कड़क जवाने के सामने जिरह करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। शायद यही वजह रही कि किसी भी चरण में मतदान का प्रतिशत पचास के नीचे ही रहा। कई घरों में तो घर का मुखिया घर के लोगों दूर से ही छोड़कर आया क्योंकि, उसका नाम वोटर लिस्ट से ही गायब हो गया था।
दरअसल ये पिछल साठ सालों से नेताओं की करतूत थी। जिसका खामियाजा अब देश का लोकतंत्र भुगत रहा है। और, इन नेताओं ने लोकतंत्र का इतना मजाक-फायदा उठाया है कि लोकतंत्र के लोग भी चुनाव आयोग की ज्यादतियों को व्यवस्था की सफाई का हिस्सा मानकर चुप बैठे हैं। सच्चाई ये है कि व्यवस्था की सफाई के साथ ही नौकरशाही के हावी होने की शुरुआत भी हो गई है।पूरा चुनाव भर नौकरशाही तानाशाही पर उतारू रही और व्यवस्था की बरबादी के नेता सहमे रहे। और, फिर नेताओंके पीछे रहने वाली जनता कैसे बोल पाती।
अब तक उत्तर प्रदेश का जनादेश जिधर जाता दिख रहा है, उससे लग रहा है कि जल्द ही देश के इस सबसे बड़े प्रदेश के लोगों को एक बार फिर से सेना की संगीनों के साये में ज्यादा बिगड़े नेताओं में से कम बिगड़े नेता का चुनाव करना होगा। इसलिए जरूरी ये है कि आगे से चुनाव आयोग के भरोसे बैठने की बजाए लोग ही लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। क्योंकि, नौकरशाही को लोकतंत्र की लगाम थामने की छूट मिल गई तो, लोकतंत्र और निष्पक्षता दोनों ही तानाशाही की भेंट चढ़ जाएंगे।
लेकिन, क्या सचमुच उत्तर प्रदेश के चुनाव निष्पक्ष हुए हैं और हुए भी हैं तो क्या ये निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की मजबूती दिखा रहे हैं। दो छोटे उदाहरण हैं जिनसे साफ है कि चुनाव निष्पक्ष भले ही हुए हों। लोकतंत्रपिसता नजर आ रहाहै और, इसके लिए जिम्मेदार नेता ही हैं।उन्होंने नौकरशाही को ऐसा मौका दिया कि अब उनसे भी मामला संभालते नहीं बन रहा। नौकरशाही के हावी होने के दोनों उदाहरणनेताओं से ही जुड़े हैं। पहला उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद का ही नाम मतदाता सूची से गायब है। सलमान खुर्शीद कांग्रेस के बड़े नेता हैं और लुइस तो खुद ही फरुखाबाद की कायमगंज सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हैं। अब सवाल ये कि क्या चुनाव आयोग की ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि फर्जी वोट न पड़े इसके साथ ही वो ये भी सुनिश्चित करे कि जो वोट देने के लायक हैं वो वोट डाल सकें। और, अगर खुद चुनाव लड़ने वाले का ही नाम मतदाता सूची से गायब है तो, फिर ये कैसे माना जा सकता है कि चुनाव निष्पक्ष हैं क्योंकि खुद प्रत्याशी ही अपने पक्ष में वोट नहीं डाल सकता। लुइस खुर्शीद और सलमान खुर्शीद का आरोप है कि कायमगंज विधानसभा में पैंसठ हजार वोट फर्जी जुड़े हैं जबकि, असली वोटरों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया गया है।
दूसरा मामला सपा नेता अमर सिंह से जुड़ा है। अमर सिंह के छोटे भाई अरविंद सिंह ने माना है कि उनकेबड़े भाई अमर सिंह दो-दो जगह से वोट डालने की हैसियत में हैं। क्योंकि, उनका नाम गाजियाबाद के अलावा आजमगढ़ के पैतृक घर से भी वोटर लिस्ट में शामिल है। ये दो बड़े उदाहरण हैं जो, साफ कर देते हैं कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हुए हैं। हां, इतना जरूर हुआ कि बिना वोटर लिस्ट में नाम और हाथ में मतदाता पहचान पत्र के लोगों को वोट नहीं डालने दिया गया। लेकिन, अब इस बात की जिम्मेदारी किसकी होगी कि बूथ के बाहर से भगाए गए लोग फर्जी वोटर थे या फिर उनके भी नाम सलमान और लुइश खुर्शीद की तरह मतदाता सूची से पहले से ही साफ कर दिया गया था। और, कई ऐसे वोटर भी थे उत्तर प्रदेश की एक ही या अलग-अलग विधानसभा में कई-कई वोट डाल रहे थे।
कई घरों में तो हाल ये था किलोकसभा और नगर निगम चुनावों में वोटडालने वाले ही इस चुनाव में वोटर लिस्ट से बाहर कर दिए गए थे। मतदात पहचान पत्र उनके पास थे भी तो, सेना के कड़क जवाने के सामने जिरह करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। शायद यही वजह रही कि किसी भी चरण में मतदान का प्रतिशत पचास के नीचे ही रहा। कई घरों में तो घर का मुखिया घर के लोगों दूर से ही छोड़कर आया क्योंकि, उसका नाम वोटर लिस्ट से ही गायब हो गया था।
दरअसल ये पिछल साठ सालों से नेताओं की करतूत थी। जिसका खामियाजा अब देश का लोकतंत्र भुगत रहा है। और, इन नेताओं ने लोकतंत्र का इतना मजाक-फायदा उठाया है कि लोकतंत्र के लोग भी चुनाव आयोग की ज्यादतियों को व्यवस्था की सफाई का हिस्सा मानकर चुप बैठे हैं। सच्चाई ये है कि व्यवस्था की सफाई के साथ ही नौकरशाही के हावी होने की शुरुआत भी हो गई है।पूरा चुनाव भर नौकरशाही तानाशाही पर उतारू रही और व्यवस्था की बरबादी के नेता सहमे रहे। और, फिर नेताओंके पीछे रहने वाली जनता कैसे बोल पाती।
अब तक उत्तर प्रदेश का जनादेश जिधर जाता दिख रहा है, उससे लग रहा है कि जल्द ही देश के इस सबसे बड़े प्रदेश के लोगों को एक बार फिर से सेना की संगीनों के साये में ज्यादा बिगड़े नेताओं में से कम बिगड़े नेता का चुनाव करना होगा। इसलिए जरूरी ये है कि आगे से चुनाव आयोग के भरोसे बैठने की बजाए लोग ही लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। क्योंकि, नौकरशाही को लोकतंत्र की लगाम थामने की छूट मिल गई तो, लोकतंत्र और निष्पक्षता दोनों ही तानाशाही की भेंट चढ़ जाएंगे।
उत्तर प्रदेश चुनाव की शानदार समीक्षा।
ReplyDeletekafi alag pahloo ko pakrne ke liye dhanyabad.booth capturing se jyada badi samsya hai voter lists se ched chad. kyonki booth capturing ko to raton raat theek kiya ja sakta hai paramilitray ki kuch jyada tukri bhejker. lekin voter list durust karne mei salon lag jate hain.
ReplyDeleteकलाम साहब के उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने के आसार ज्यादा है ऐसे में दूसरी बार तो वोट देना ही पड़ेगा। ऐसे में अब ये जनता की जिम्मेदारी है कि सही लोगों को वोट डालने का मौका मिले और फर्जी वोटर बाहर रहे।
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