Tuesday, February 14, 2023

राजनीतिक लड़ाई हार चुकी कांग्रेस की साख भी खत्म हो रही है

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी



राजनीतिक दलों के लिए चुनाव में हार-जीत लगी रहती है। चुनाव हारने-जीतने से किसी राजनीतिक दल या राजनेता को सत्ता का सुख मिलना या मिलना भले तय होता हो, लेकिन चुनाव हारने से राजनेता के तौर पर या राजनैतिक दल के तौर पर मिलने वाली प्रतिष्ठा में विशेष अंतर नहीं आता है। देश में लंबे समय तक कांग्रेसी सरकारें रहीं, लेकिन पहले जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी नेताओं और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं की प्रतिष्ठा में कभी कमी नहीं आई। देश के अलग-अलग राज्यों में धीरे-धीरे गैर कांग्रेसी सरकारें आईं। फिर से कांग्रेस ने कई राज्यों में वापसी की, लेकिन कांग्रेस की साख हो या फिर गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों की, साख खत्म नहीं हुई। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि, विपक्ष में रहने वाले राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों की साख खत्म हो रही है। खत्म होती साख में नेताओं की अगुआई राहुल गांधी और राजनीतिक पार्टी कांग्रेस कर रही है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से लगभग गायब हो चुकी कांग्रेस पार्टी अब देश के दूसरे राज्यों में भी उसी गति की ओर बढ़ चुकी है। राष्ट्रीय स्तर पर भले ही अभी भी कांग्रेस पार्टी ही अकेली विपक्षी पार्टी है, जिसके पास हर राज्य में पहचान और कार्यकर्ता हैं, लेकिन थोड़ा गहरे उतरकर देखने पर दूसरी गंभीर सच्चाई दिखने लगती है। स्पष्ट पता चल जाता है कि, छिटपुट भले ही सरकारें बन जाती हों, लेकिन कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं की साख अब लगभग शून्य हो चली है और, इसका सबसे बड़ा उदाहरण राहुल गांधी स्वयं हैं। अमेठी के साथ वायनाड चुनना राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के आत्मविश्वास के टूट जाने का सबसे बड़ा उदाहरण था। 2019 की हार के बाद राहुल गांधी सहित पूरा गांधी परिवार और पूरी कांग्रेस पार्टी बुरी तरह से टूट चुकी है। इसीलिए राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने से इनकार कर दिया था, लेकिन लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरते गांधी परिवार के पास दूसरा विकल्प भी नहीं था। इसलिए, नये सिरे से भारत जोड़ो यात्रा के जरिये राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी में आत्मविश्वास भरने की कोशिश की गई। राहुल गांधी की दाढ़ी बढ़ गई। मूँछ-दाढ़ी के बाल सफेद हो गए हैं तो थोड़ी गंभीर छवि दिखने लगी। 

भारत जोड़ो यात्रा से एक संदेश जाने लगा कि, कांग्रेस और राहुल गांधी इस मूल बात को समझ चुके हैं कि, जनता से जब तक जुड़ाव नहीं होगा, नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी से कोई भी लड़ाई जीती नहीं जा सकती है। लोकतांत्रिक तौर पर विपक्षी पार्टी और उसके नेता का यह समझकर जनता के बीच जाकर उनसे जुड़ने की कोशिश करना और जनता को सरकार के विरुद्ध तैयार करना एक आजमाई हुई प्रक्रिया है। आज के समय में जमीन पर लड़ी जा रही लड़ाई को सोशल मीडिया पर भी दिखाना होता है। भारत जोड़ यात्रा उस मोर्चे पर भी अच्छी दिखी। कई बार तो यह भी लगा कि, नरेंद्र मोदी की ही नकल करके वीडियो भी कांग्रेस पार्टी बनवा रही है, लेकिन इस तरह के आरोपों से कुछ अंतर नहीं पड़ता। अंतर पड़ता है कि, राजनीतिक दल और उसके नेता किस तरह से और कितनी निरंतरता से जनता से जुड़े रहते हैं। इस सबके बीच में एक बड़ी गड़बड़ हो रही थी कि, जनता के मुद्दों की बात करते राहुल गांधी सिर्फ और सिर्फ अंबानी-अडानी की सरकार की रट लगाकर सोचते रहे कि, गरीब जनता अमीरों से हमेशा ही नाराज रहती है, इसलिए लगातार यही बात सुनते एक दिन जनता राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी के पक्ष में जाएगी। हालाँकि, इसी यात्रा के दौरान हुए गुजरात, हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव और दिल्ली नगर निगम के चुनावों के साथ ही कई उपचुनावों ने बता दिया कि, राहुल गांधी पूरी तरह से गलत रास्ते पर हैं। अंबानी-अडानी को गाली देना और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जोड़ देना कतई काम नहीं रहा है। कारोबारी प्रवृत्ति वाले गुजरात ने अपने दो सबसे बड़े कारोबारियों की छवि पर कीचड़ उछालने की राहुल गांधी की कोशिश का ऐसा जवाब दिया कि, कांग्रेस रसातल में चली गई। हिमाचल प्रदेश में भले ही सरकार कांग्रेस की बन गई, लेकिन साख कांग्रेस की नहीं बन पाई। अब एक विदेशी रिसर्च फर्म हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट पर देश के तेजी से बढ़ते उद्योगपति गौतम अडानी के समूह की कंपनियाँ के शेयर धड़ाम हुए और इस पर भी राहुल गांधी, कांग्रेस पार्टी के साथ एक बड़ा वर्ग मस्त दिखने लगा तो देश की जनता को यह अच्छा नहीं ही लगा होगा। अडानी समूह की कंपनियों में जिन निवेशकों ने रकम लगाई होगी, उन्हें निश्चित तौर पर भारतीय कंपनियों के विरोधी राहुल गांधी और उनका पूरा इकोसिस्टम पसंद नहीं रहा होगा। बजट सत्र में जिस तरह से कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने चर्चा की बजाय हंगामा किया और जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा हुई तो उसे पूरी तरह से अडानी केंद्रित कर दिया, इसने राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान बनी छवि को भी कमजोर किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उत्तर दिया तो कांग्रेस और राहुल गांधी की छवि और रसातल की ओर चली गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के दौरान विपक्ष अडानी-अडानी चिल्ला रहा था जबकि, सत्ता पक्ष मोदी-मोदी। अब भारतीय जनता पार्टी की शक्ति नरेंद्र मोदी ही हैं और उनका नारा भाजपा की शक्ति बढ़ाएगी ही, लेकिन अडानी का नारा लगाकर कांग्रेस और राहुल गांधी की शक्ति कैसे बढ़ेगी, यह बड़ा प्रश्न है और, अब तो उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि, क्या कांग्रेस पार्टी को भी राहुल गांधी की शक्ति पर रंचमात्र पर भी भरोसा नहीं रह गया है। क्या कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी 2019 लोकसभा चुनावों में करारी हार वाली स्थिति में और गहरे चले गए हैं। भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के पास बड़ा अवसर था, लेकिन राहुल गांधी ने उसे गँवा दिया और अधीर रंजन चौधरी जैसे कांग्रेस के नेता क्यों हैं, यह सवाल और बड़ा हो गया। अब कमजोर गेंद मिल रही हो तो नरेंद्र मोदी छक्के-चौके मारने में भला पीछे क्यों रहते। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के जवाब में उन्होंने अडानी का नाम नहीं लिया और उन्हें लेना भी नहीं था। पता नहीं कौन से सलाहकार राहुल गांधी को यह समझाने में कामयाब हो गए थे कि, इससे नरेंद्र मोदी संसद में अडानी पर बोलने के लिए मजबूर हो जाएँगे और राहुल गांधी के आरोपों में दम जाएँगे। नरेंद्र मोदी दूसरे की तैयार की पिच पर कभी नहीं खेलते। उन्होंने फिर से 2024 के पहले विपक्ष को अपनी तैयार की गई पिच पर खींच लिया है। खत्म हो रही साख के बीच वापसी करना राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के लिए बड़ी चुनौती बन गई है।

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