भारतीय संविधान निर्माताओं ने जब संविधान बनाया था तो स्पष्ट तौर पर उसमें यह व्यवस्था स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि किसी भी हाल में विधायिका, न्यायापालिका और कार्यपालिका के बीच किसी तरह का टकराव न हो। हालाँकि, इसमें लोकतंत्र की मूल भावना का ख्याल रखते हुए विधायिका और न्यायपालिका को एक दूसरे पर इस नज़रिये से नज़र रखने का बंदोबस्त किया गया कि किसी भी हाल में निरंकुश व्यवस्था न हावी हो जाए, लेकिन सबके मूल में लोकतंत्र को ही सर्वोच्च भावना के साथ स्थापित करना था, इसीलिए कई बार भारतीय लोकतंत्र में इस बात की भी चर्चा होने लगती है कि भारत में अतिलोकतंत्र की वजह से सरकारें निर्णय नहीं ले पाती हैं। पहले नागरिकता क़ानून के विरोध में चले शाहीनबाग और अब कृषि क़ानूनों के विरोध में चल रहे सिंघु-टिकरी-गाजीपुर के आंदोलन को लेकर अतिलोकतंत्र की बहस फिर से छिड़ गई है और इसी अतिलोकतंत्र की बहस के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने तीनों कृषि क़ानूनों को निलंबित कर दिया है। इससे यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ जाकर काम किया है। क्योंकि, संसद द्वारा पारित किसी भी क़ानून को रद्द करने या निलंबित करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। अब सवाल यह खड़ा हो गया है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक दायरे को लांघा है और अगर ऐसा हो गया है तो उसकी परिणति क्या होगी।
सर्वोच्च न्यायालय के तीनों कृषि क़ानून को निलंबित करने के निर्णय को एक और तरह से देखा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल भावना को ही स्थापित करने के लिए तीनों कृषि कानूनों को निलंबित करने का निर्णय लिया है। दरअसल, संविधान की मूल भावना देश में लोकतंत्र को स्थापित रखने की है और उस लोकतंत्र को स्थापित रखने की भावना किसी भी हद तक जाकर असहमति का अधिकार देती है। इसीलिए नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर कोई भी अपनी माँग लेकर सरकार के ख़िलाफ़ या किसी भी तरह की अपनी माँग को लेकर शांतिपूर्ण-लोकतांत्रिक तरीक़े से लगातार प्रदर्शन कर सकता है। लोकतंत्र के मूल असहमति के इसी अधिकार का उपयोग, नागरिकता क़ानून और कृषि क़ानून के विरोधियों ने दुरुपयोग की हद तक कर लिया। शाहीनबाग में बेबुनियाद आधार पर देश के मुसलमानों को भड़काकर बैठे लोगों ने सिर्फ़ दिल्ली-हरियाणा-उत्तर प्रदेश-राजस्थान के लोगों का जनजीवन ही अस्तव्यस्त नहीं किया बल्कि उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुए दगों की वजह भी बना। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने शाहीनबाग के प्रदर्शन पर बहुत तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि सार्वजनिक स्थान को घेरकर ऐसे प्रदर्शन करना लोगों के अधिकार के ख़िलाफ़ है और धरना-प्रदर्शन एक तय स्थान पर ही लोकतांत्रिक तरीक़े से होना चाहिए। 7 अक्टूबर 2020 के इस निर्णय की समीक्षा के लिए शाहीनबाग के 12 प्रदर्शनकारियों ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डाल रखी है। शाहीनबाग पर तीखी टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि शाहीनबाग जैसे प्रदर्शन स्वीकार्य नहीं हैं और प्रशासन को ऐसे अवैध क़ब्ज़े को हटाने की कार्रवाई करनी चाहिए। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने ही शाहीनबाग के प्रदर्शन के दौरान समिति बनाकर प्रदर्शनकारियों को हटाने-समझाने की कोशिश की थी जो नाकाम रही थी।
नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ मुसलमानों को भड़काया गया था तो कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ भड़काकर किसानों का दुरुपयोग किया जा रहा है। सरकार बार-बार किसानों को बुलाकर बात कर रही है और यूनियनबाजी करने वाले किसान नेताओं की बेबुनियाद आशंकाओं का भी निराकरण करने के लिए अपनी तरफ़ से प्रस्ताव दे चुकी है, जिसे किसान यूनियन के नेताओं ने टीवी चैनलों के सामने फाड़कर ठीक उसी तरह की भावनात्मक राजनीति करने की कोशिश की जैसी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में फाड़कर की थी। नागरिकता क़ानून विरोधी प्रदर्शनकारी काफ़ी हद तक देश के मुसलमानों को भड़काकर सड़कों पर लाने में सफल भी हो गए थे कि इससे आपकी नागरिकता चली जाएगी जबकि, उस क़ानून से किसी भी भारतीय मुसलमान की नागरिकता न जानी थी, न गई।
ऐसी ही झूठी कोशिशें कृषि क़ानून विरोधी आंदोलन में भी की गईं, लेकिन देश भर में किसानों ने कृषि क़ानून विरोधी यूनियनबाजों को हाथ नहीं रखने दिया। उसकी बड़ी वजह यही थी कि किसान बरसों से जिन सुधारों के ज़रिये अपनी बेहतरी की आस लगाए बैठा था, वही सुधार, क़ानून के तौर पर नरेंद्र मोदी की सरकार ने लागू कर दिया और सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी नहीं कांग्रेस सहित भारतीय किसान यूनियन भी इन्हीं सुधारों को लागू करके किसानों की दशा सुधारने की बात कह रहे थे। तथ्य और तर्क की बुनियाद पर किसान यूनियन के नेता आधारहीन नज़र आते हैं, लेकिन लोकतंत्र के मूल में असहमति के अधिकार को आधार पर बनाकर पंजाब और हरियाणा के बड़े किसान नेताओं ने दिल्ली को बंधक बना लिया है। सरकार पर भरोसा न होने की बात कहकर कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े किसान संगठन बार-बार संविधान के अनुच्छेद 19(1) (a) और (b) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण तरीक़े से प्रदर्शन के अधिकार की दुहाई देते हुए दिल्ली की सीमाओं पर जम गए हैं। किसान यूनियन के नेता कह रहे हैं कि जान दे देंगे, लेकिन वापस नहीं जाएँगे और कमाल की बात यह भी थी कि किसान यूनियन के नेता सर्वोच्च न्यायालय जाने को भी तैयार नहीं हो रहे थे। आख़िरकार सर्वोच्च न्यायालय में जब यह मामला अलग-अलग तरह से पहुँचा और अंत में किसानों की तरफ़ से प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे कृषि क़ानून रद्द करने की माँग लेकर पहुँचे तो ज़रूर, लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई कि बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे सड़क पर बैठे हैं और सरकार समाधान नहीं निकाल पा रही है तो हम समिति बनाएँगे और तब तक के लिए क़ानूनों पर रोक लगा देंगे, तो प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे के लिए यह झटके जैसा था। झटका इतना बड़ा था कि अगले दिन दोनों विद्वान वकील सर्वोच्च न्यायालय के सामने जिरह करने आए ही नहीं और सर्वोच्च न्यायालय ने कृषि क़ानूनों पर फ़िलहाल रोक लगाते हुए 4 सदस्यों की समिति बना दी। अशोक गुलाटी, डॉ प्रमोद जोशी, अनिल धनवंत और भगवान सिंह मान के नाम पर भी अब किसान संगठन यह कहते हुए एतराज़ जता रहे हैं कि यह चारों कृषि क़ानूनों के समर्थक हैं और इसलिए सरकार समर्थक हैं जबकि, सच्चाई यही है कि इन चारों लोगों की कृषि मामलों पर बरसों की साख है और उसे झुठलाया नहीं जा सकता।
दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे किसान लगातार अराजकता कर रहे हैं, लेकिन उसे शांतिपूर्ण प्रदर्शन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार बता रहे थे, सरकार को भी लोकतंत्र विरोधी बताने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय की बात मानने से इनकार करके यूनियनबाज, अराजक किसान नेता संविधान की ही मूल भावना लोकतंत्र को ख़ारिज करते नज़र आ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने किसान यूनियन की अराजकता को संवैधानिक दायरे में बांधने की कोशिश की है। संविधान का अनुच्छेद 19(1) (a) और (b) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण तरीक़े से प्रदर्शन का अधिकार तो देता है, लेकिन इस सबके पीछे मूल लोकतंत्र और लोकतंत्र की मज़बूती के लिए संवाद से असहमति को सहमति की तरफ़ ले जाना होता है। कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय ने शाहीनबाग की परिणति उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगों के तौर पर देखी थी और कृषि क़ानून विरोधी आंदोलन को उस तरफ़ जाने से रोकने के लिए अपने अधिकारों का उपयोग कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों के अड़ियल रवैये को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय उन्हें दिल्ली को बंधक रखने की इजाज़त नहीं देगा। इसके बाद, अब किसान यूनियनों के पास विकल्प बहुत कम रह गया है। पूरे देश को स्पष्ट दिख रहा है किसान यूनियन संविधान द्वारा प्रदत्त असहमति के अधिकार का दुरुपयोग अराजकता बढ़ाकर लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए कर रहे हैं।
(यह लेख आज https://hindi.moneycontrol.com/news/country/farmer-protest-supreme-court-respects-constitution-farmer-anarchy_252003.html पर छपा है)
अब बक्त हैं इन नकली किसान और इस मैं शामिल कांग्रेस बम्पतियो की जमकर ठुकाई की जाय पब्लिक इन से परेशान है ओर इस खालिस्तान की साजिश बू आ रहे है इन माशा अललाह सुप्रीमो कोट बात भी किसी को पच रही हैं
ReplyDeleteको
क्या इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकते?
ReplyDeleteकृषि कानून समर्थन उतना उभरकर सामने नही आ पाया, सर्वोच्च नयायालय की भी टिप्पणी है की समर्थनमें एक भी याचिका नही है( आज शायद याचिका दायर होगी) शायद सरकार यह मान रही हो की जितना घाव खरोचोगे उतना मवाद बह जाने दिया जाये, परन्तु अब किसान कानून समर्थन पर भी देशके किसानोको मुखर होना पडेगा। ईस विषयमें सर्वोच्च न्यायालय लगता है मध्यम मार्ग पर चल रहा है, वैसे सरकार भी समिति बनाने को ही कह रही थी।
ReplyDeleteलेकिन मान्यवर, नतीजा शाहीन बाग में भी सुप्रीमकोर्ट ना निकाल सका और ना ही कल कोई बहुत उचित निर्णय कर पाया। इस देश में अराजकता का मूल कारण तुष्टिकरण है। देश हित से पहले तुष्टिकरण , निजी स्वारथ ने भारत विभाजनका दंश भी जीया ,पंरतु अनुभव के नाम पर सिर्फ तुष्टीकरण ही सीखा । एक जिहादी समुदाय केअलावा आजकल यह हर राष्ट्रवादियों के विरोध में किया जाता है। अगर शाहीन बाग में उचित निर्णय , बिना तुष्टिकरण के ले लिया जाता तोआज परिस्तिथि सरकारके हाथ में होती। लेकिन सुप्रीमकोर्ट और सरकार ने उस समय जो निष्क्रियता दिखलाई वहीं आज की समस्या हैं। politically correct होने की होड़ और तुष्टीकरण मेरे देश को खा गया है।
ReplyDeleteये किसान आंदोलन नहीं है बल्कि खलिस्तान आंदोलन और देश को अस्थिर करने की चाल है।
ReplyDeleteये किसान आन्दोलन है ही नही ये तो मंडी के दलालो जिहादियो और खालिस्तानियो गद्दारो का गिरोह है जो देश को तबाह करने पर तुला है। इनके सरगनाओ की सी बी आई द्वारा जांच करवा कर संपत्ति की जांच करवा कर जेल मे ठूस देना चाहिए।
ReplyDeleteये हरामखोर बिचौलियों का विधवा विलाप है। इनके ऊपर देशद्रोह के मुकदमे ठोंक कर इनके खाते जमीन अवैध कारोबार जप्त कर लेना चाहिए।
Agree....truly said
Deleteये किसान नहीं बिचौलियों का आंदोलन है
ReplyDeleteThis is protest is going against idea of Indiaj .
ReplyDeleteVery bad precedent set by SC and/or complete failure of central government. Today it's KISAN bill.... Tomorrow a handful agitators will come out on streets insisting withdrawal/s of Articles 370&35A, Ram Mandir, Triple Talaq and so on... It's a deep rooted conspiracy. AGAIN CENTRAL GOVERNMENT WILL NOT BE ABLE TO FIX.... cases will be filed in SC and Hon Supreme Court will stayed it. So Democracy = BY SC, OF SC, FOR SC....
ReplyDeleteIf a law passed by Parliament can be put in abeyance, what does it say about the certainty of doing business in India?
ReplyDeleteThis is a very bad precedent set by SC which will be misused in future. Few thousand people will lay siege to the Capital of country and SC will jump into fray and parliament decisions will be dealt in court. Where is the country heading to?
While on the subject I will concede that Govt should have outreached earlier to farmers with proper explanations so as to avoid this situation. As usual good schemes but implementation leaves a lot to be desired.
bahot hi sarahniy lekh hai sir ji
ReplyDeleteJINKA ANN DUDH GHEE SABJI DALE TEL KHA KAR BADE HUE JIS MA KA DUDH PI KAR JO INHI KI DEN HE PI KAR BADE HUE USKI LAJ NAHI RAKH SAKE VO DESH KE KYA HOGE MURKHO KISSAN TUMAHARA PET BHARNE KE LIYE DIN RAT HER MOSAM ME MEHNET KARTA HE TUM USE DESH DROHI KHALUSTANI NA JANE KYA KYA KEH RAHE HO MUJHE TO TUM JESE ANDH BHAKTO PER SARM AATI HE MERA RUTHE NA NASIBA VALA JUG PAHVE SARA RUTH JE
ReplyDeleteJINKA ANN DUDH GHEE SABJI DALE TEL KHA KAR BADE HUE JIS MA KA DUDH PI KAR JO INHI KI DEN HE PI KAR BADE HUE USKI LAJ NAHI RAKH SAKE VO DESH KE KYA HOGE MURKHO KISSAN TUMAHARA PET BHARNE KE LIYE DIN RAT HER MOSAM ME MEHNET KARTA HE TUM USE DESH DROHI KHALUSTANI NA JANE KYA KYA KEH RAHE HO MUJHE TO TUM JESE ANDH BHAKTO PER SARM AATI HE MERA RUTHE NA NASIBA VALA JUG PAHVE SARA RUTH JE
ReplyDeleteमैं खुद मेहनत करके खाता हूं किसी की दी हुई भीख नही किसान मेहनत करता है अपने परिवार के लिए किसी दूसरे के लिए नही मैं वही कहूंगा जो वो है गुलाम की अवकात क्या वो कुछ बोल सके यदि इतनी ही अच्छी व्ववस्था थी पहले तो साढ़े चार लाख किसान आत्महत्या किये क्यूँ तब तुंझे तकलीफ नही हुई गुलाम हरामी
DeleteIf SC is powerful it shd have demanded withdrawl of dharna from public place pending follow up action but in no way shd infringe upon parliaments jurisdiction of making and passing laws. A very bad precedence setting by SC
ReplyDeleteIt emboldens anti national elements.
सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteमकर संक्रान्ति का हार्दिक शुभकामनाएँ।
सरकार को आलोचना के डर से न्यायालय का सहारा लेने के बजाय स्वयं अपने बुते पर यह लड़ाई लडनी चाहिए।देश का जनमत उसके साथ है।
ReplyDeleteइतनी डरपोक #सुप्रीम_कोर्ट की भारत में कोई आवश्यकता नहीं है। #सुप्रीम_कोर्ट एक निरंकुश व्यवस्था की वकालत कर रहा है जहां आंदोलन के नाम पर देशद्रोही शक्तियों को असीमित अधिकार दिए जा रहे हैं।
ReplyDelete#सुप्रीम_कोर्ट अपने आपको संसद, सरकार और न्यायिक व्यवस्था से भी श्रेष्ठ साबित करके जन इच्छाओं के विपरीत खानदानी महाभ्रष्ट पार्टी को पिछले दरवाजे से सत्ता सौंपना चाहता है।
सटीक एवं सार्थक लेख !
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteपिंजड़ा अमित शाह ने तोड़ दिया
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