Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी
भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस दिन को संविधान दिवस के रूप में भी याद किया जाता है। संयोग देखिए कि, संविधान अंगीकार किए जाने के 75 वर्ष पूर्ण होने पर संसद में लोकसभा और राज्यसभा में दो-दो दिनों की चर्चा के बीच के दिन में ही एक देश एक चुनाव पर सरकार दो अधिनियम ला रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा की चर्चा में एक देश एक राशन कार्ड से लेकर एक देश एक स्वास्थ्य कार्ड तक के लाभ बताए। सर्वाधिक महत्वपूर्ण यही था कि, इससे देश में दोहराव और उससे होने वाली गड़बड़ी से बचा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक देश एक कानून की वकालत करते दिखते हैं और यह संकल्प भी उन्होंने पुन: दोहराया। भारत सरकार अभी एक देश एक चुनाव को लेकर भी पूरी तरह से गंभीर दिख रही है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने मार्च में ही सुझाव दे दिए थे। अब कैबिनेट ने उसे स्वीकृति देकर और संसद में प्रस्तुत करने की मंशा के साथ यह स्पष्ट कर दिया है कि, सरकार एक दे
श एक चुनाव पर आगे बढ़ चुकी है। अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि, इससे राजनीति किस तरह से बदलने वाली है। मेरा मानना है कि, व्यवहारिक तौर पर इसे लागू करने में बहुत मुश्किलों के बावजूद अगर इसे लागू कर लिया गया तो कई तरह की समस्याओं से देश को मुक्ति मिल सकती है और अमृतकाल में भारत के अगले 25 वर्षों की विकास यात्रा का प्रवाह बेहतर हो सकेगा। अकसर राजनीतिक विश्लेषक यह बात मानते हैं कि, लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव होता है, लेकिन विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे प्रभावी हो जाते हैं। स्थानीय मुद्दों का प्रभावी होना लोकसभा चुनावों में भी होना ही चाहिए, लेकिन स्थानीय मुद्दों को हवा देकर राज्य विशेष में राष्ट्रीय हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले मुद्दों को भी हवा दी जाती है। एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने से राष्ट्रीय मुद्दों के साथ स्थानीय मुद्दों पर भी जनता मत डालेगी, लेकिन देश के भीतर ही उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम का भेद कराकर किसी राज्य विशेष में चुनाव जीतने की प्रयास राजनीतिक दलों पर भारी पड़ सकता है। एक साथ चुनाव होने से जातीय और क्षेत्रीय भेद को भी हवा देने से राजनीतिक दल बचेंगे। इसको ऐसे भी माना जा सकता है कि, राजनीतिक दल और राजनेता सकारात्मक राजनीति की तरफ बढ़ने के लिए बाध्य हो सकते हैं। हिन्दू-मुसलमान या कहें कि, सांप्रदायिक राजनीति से भी देश को बहुत हद तक राहत मिल सकती है। चुनावों के समय राहत इंदौर की यह पंक्तियां खूब कही जाती हैं कि, सरहदों पर बहुत तनाव है क्या? पता तो करो चुनाव है क्या? यह सिर्फ सरहदों के लिए ही नहीं है। देश में भी चुनाव के समय अतिरिक्त तनाव होता है। एक साथ लोकसभा-विधानसभा के चुनाव हो जाने और 100 दिन के भीतर निकायों के भी चुनाव हो जाने से तनाव भी बहुत तक कम हो सकता है। एक देश एक चुनाव से राष्ट्रीय पार्टियों को लाभ होने की बात कहकर क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां इसका विरोध करती हैं, लेकिन सच यह है कि, यह नुकसान उन्हीं क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को होगा जो जातीय भेद के आधार पर राजनीति कर रहे हैं। एक साथ लोकसभा और विधानसभा का चुनाव होने का एक बड़ा लाभ यह भी हो सकता है कि, जनप्रतिनिधियों की दलबदलू प्रवृत्ति पर भी कुछ रोक लगे। एक देश एक चुनाव में सरकारें गिराने पर बचे हुए समय के लिए ही सरकार चुनने का प्रस्ताव दिया गया है, इससे एक दल से चुनाव जीतकर दूसरे दल में जाकर चुनाव लड़ने की प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश लग सकता है। एक साथ चुनाव होने से चुनाव में धनबल के दुरुपयोग को भी बहुत हद तक रोका जा सकता है। भारत बहुदलीय लोकतंत्र है और यही होना भी चाहिए, लेकिन अलग-अलग चुनाव होने से सिर्फ चुनावी चंदे के लिए चुनाव लड़ने वाली पार्टियां भी मैदान में बढ़ जाती हैं। इस पर भी कुछ हद तक अंकुश लग सकता है। राज्यों के चुनाव की ठीक पहले उसी राज्य में विकास परियोजनाओं के एलान का पिटारा खुल जाता है। एक साथ चुनाव होने से इस विसंगति से भी मुक्ति मिलेगी। वैसे भी विकास के मामले में हर राज्य की जरूरतें एक सी ही होती है। देश में राज्यों के बीच विकास के मामले में भारी विसंगति से विकसित भारत के महामार्ग पर आगे बढ़ने में हम पिछड़ गए। हालांकि, पिछले दस वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के हर राज्य में विकास का प्रवाह एक समान करने की कोशिश की है, लेकिन चुनावी राज्यों में परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण इस सरकार में भी अलग से स्पष्ट दिखता रहा है।
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