ये नरेंद्र मोदी का प्रभाव है या कहें कि उनके प्रभाव का
विरोधियों में डर है कि हर चुनाव के बाद ये चर्चा होने लगती है कि मोदी का प्रभाव
घटा या नहीं। इससे भी आगे बढ़कर विरोधी कहते हैं कि नरेंद्र मोदी की लहर खत्म हो
गई है। और समर्थक कहते हैं कि मोदी लहर जारी है। वैसे तो ये बहस कभी खत्म ही नहीं
हुई। लेकिन, अब ये ताजा बहस शुरू हुई है नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश गुजरात के
स्थानीय निकाय चुनाव नतीजे आने के बाद। हालांकि, जिस तरह से ठीक स्थानीय निकाय,
जिला पंचायत चुनाव के पहले पटेलों ने आंदोलन शुरू किया था। उससे तो दिल्ली की
मीडिया ने ये निष्कर्ष साफ तौर पर निकाल लिया था कि अब बीजेपी के गुजरात में साफ
होने की शुरुआत हो जाएगी। ऐसा हो नहीं सका। गुजरातियों की पहली पसंद अभी भी बीजेपी
ही है। गुजरात की सभी छे महानगरपालिका में कमल का ही कब्जा है। जिला पंचायतों में
कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है। इकतीस में से तेईस जिला पंचायतें हाथ की
पकड़ में आ गई हैं। तालुका पंचायतों मे भी कांग्रेस बेहतर स्थिति में रही है। एक
सौ तिरानबे में से एक सौ तेरह हाथ की पकड़ में हैं। लेकिन, बड़े शहरों की तरह नगर
पालिकाओं में भी अभी बीजेपी कांग्रेस से बहुत मजबूत है। छप्पन में से बयालीस सीटों
पर कमल खिला है।
इन आंकड़ों के आधार पर भारतीय जनता पार्टी के समर्थक कह
सकते हैं कि गुजरात में अभी भी उनका कब्जा बरकरार है। तर्क ये भी आ सकता है कि जिला
पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनाव विधानसभा या लोकसभा चुनाव के संकेत नहीं दे पाते
हैं। बीजेपी समर्थकों का ये तर्क उत्तर प्रदेश के संदर्भ में तो ठीक हो सकता है। जहां
अभी हुए जिला पंचायत चुनावों में बीजेपी तीसरे नंबर पर रही। लेकिन, गुजरात के
संदर्भ में ये बिल्कुल सही नहीं है। क्योंकि, गुजरात में स्थानीय निकाय, जिला
पंचायत और विधानसभा, लोकसभा के चुनाव नतीजे लगभग एक जैसे ही आते रहे हैं। एक और
महत्वपूर्ण बात ये भी है कि गुजरात में सीधी लड़ाई है। सीधी लड़ाई का मतलब ये कि
भाजपा और कांग्रेस के अलावा कोई तीसरा है ही नहीं। पहले बिंदु पर बात करें, तो नरेंद्र
मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते भारतीय जनता पार्टी राज्य में कभी कोई चुनाव
नहीं हारी है। यानी करीब चौदह सालों तक गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को किसी
चुनाव में हार का सामना नहीं करना पड़ा है। इस लिहाज से गुजरात में करीब डेढ़ दशक
में जिला पंचायत चुनावों में हुई हार भारतीय जनता पार्टी की पहली हार है। महानगर
पालिका में 2010 में बीजेपी ने 443 सीटें जीतीं थीं जो, 2015 में घटकर 389 रह गईं।
2010 में कांग्रेस को सिर्फ 100 सीटें मिलीं थीं जो, 2015 में बढ़कर 176 हो गईं। नगर
पालिका की बात करें, तो 2010 में बीजेपी ने 1245 सीटें जीतीं थीं। जो, 2015 में
1199 हो गईं। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 401 सीटें मिलीं थीं। वो बढ़कर 2015 में
674 सीटें हासल कर ले गई। अभी तक फासला बीजेपी के पक्ष में ज्यादा बना हुआ है।
लेकिन, जिला पंचायत में 2010 में बीजेपी ने 547 सीटें जीतीं जो, 2015 में घटकर 367
रह गईं। कांग्रेस दोगुने से ज्यादा पहुंच गई। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 244
सीटें मिलीं थीं जबकि, अभी के चुनाव में कांग्रेस को 596 सीटें मिली हैं। अगर पूरे
स्थानीय निकाय चुनाव के लिहाज से देखें, तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच
का फासला लगभग नगण्य है। सिर्फ 2% का अंतर। बीजेपी 48%, कांग्रेस 46%। भारतीय जनता पार्टी
के पक्ष में रह गई ये सिर्फ दो प्रतिशत की बढ़त नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता
पार्टी के लिए कितने खतरनाक संकेत दे रही है। ये समझने की जरूरत है। 2010 में
बीजेपी ने स्थानीय निकाय के चुनाव में 83 प्रतिशत सीटें जीत लीं थी। 323 में से
269 सीटें। 2015 में बीजेपी के हिस्से की 44% सीटें कम हो गईं।
सिर्फ 126 सीटें मिलीं। 2010 में बीजेपी ने जिला पंचायत के चुनाव में 24 जिला
पंचायतों में 547 सीटें जीतीं थीं। 2015 में 31 जिला पंचायतों में कांग्रेस ने 596
सीटें जीत लीं हैं। आठ जिले ऐसे हैं जहां जिला पंचायत चुनाव में बीजेपी का खाता तक
नहीं खुला है। और सबसे बड़ी बात ये कि अहमदाबाद में छत्तीस हजार लोगों ने नोटा का
इस्तेमाल किया है। इसका मतलब ये हुआ कि गुजरात भी विकल्प खोजने लगा है। और इस
विकल्प खोजने में अगर कांग्रेस ने खुद को ताकतवर नहीं बनाया तो, गुजराती किसी और की
तरफ भी 2017 तक देख सकता है। हालांकि, ये भी साफ है कि ये विकल्प हार्दिक पटेल कतई
नहीं है। खुद हार्दिक पटेल के गांव में भाजपा जीती है। और अहमदाबाद में हुए चुनाव
में पटेल बहुल वॉर्डों में भाजपा ने 43 सीटें जीतीं हैं जबकि, कांग्रेस ने सिर्फ 9
सीटें। निष्कर्ष साफ है कि हार्दिक पटेल, पटेलों का नेता नहीं बन पाया। और पटेल
मोटे तौर पर अभी भी बीजेपी के ही साथ हैं।
ये भी निष्कर्ष निकलता है कि मोदी की लहर अभी भी कायम है।
और ये बात सच है कि भारतीय जनता पार्टी के हालात अभी भी अगर बेहतर हैं, तो उसके
पीछे नरेंद्र मोदी का दो दशक से ज्यादा मुख्यमंत्री के तौर पर बेहतर काम है। स्थानीय
निकाय और जिला पंचायत चुनावों को जब तक मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के कामकाज की
समीक्षा माना जा रहा था। तब तक सचमुच बीजेपी के पक्ष से लोग खिसकते दिख रहे थे।
लेकिन, जब राष्ट्रीय मीडिया में ये बहुतायत चलने लगा कि बिहार में मोदी लहर की
समाप्ति के एलान के बाद अब गुजरात से भी मोदी वाली बीजेपी गायब होने जा रही है। समीक्षा
इस बात की भी होने लगी कि संघ की प्रयोगशाला में अब भगवा रंग फीका पड़ने लगा है। इसने
जबर्दस्त बदलाव किया। और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष से खिसकते उन गुजरातियों को
वापस खींचा जो, डर रहे थे कि गुजरात की स्थानीय निकाय चुनाव की हार भी केंद्र में
नरेंद्र मोदी के विकास के एजेंडे को ध्वस्त करेगी। इस डर ने विकास के एजेंडे पर
पिछले दो दशक से ज्यादा समय से मोदी के साथ खड़े गुजरातियों को एक कर दिया। इसलिए
ये विश्लेषण की गुजरात में जिला पंचायत चुनावों में कांग्रेस की बढ़त मोदी की
कमजोरी के संकेत हैं। ये पूरी तरह से निराधार है। हां, इतना जरूर है कि इस पंचायत,
स्थानीय निकाय चुनाव से बीजेपी और खासकर मोदी-शाह की जोड़ी को बड़ा सबक लेने की
जरूरत है। अगर वो चाहते हैं कि विकास के एजेंडे पर देश 2019 में उनके साथ खड़ा
रहे। बिहार चुनाव नतीजों से ये बात समझाना कठिन था। लेकिन, अब गुजरात से ये बात
मोदी-शाह को आसानी से समझ में आएगी। वो बात ये है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह को
राज्यों में नेतृत्व खोजना होगा। शिवराज सिंह, रमन सिंह और वसुंधरा राजे के ऊपर
चाहे जितने तरह के आरोप लगें। लेकिन, इतना तो तय है कि मजबूत नेता राज्य में होने
से वो खुद ही ऐसी बहुत से हमलों को निष्प्रभावी कर देता है। जो कमजोर नेतृत्व होने
पर सीधे मोदी-शाह को झेलना होता। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इस पैमाने
पर बेहद कमजोर नेता साबित हुई हैं। अगर मोदी-शाह का हाथ मजबूती से न हो, तो शायद
ही वो मुख्यमंत्री निवास में अब तक टिक पातीं। गांधीनगर से आने वाली खबरें बताती
हैं कि मुख्यमंत्री राज्य को ठीक से संभाल नहीं पा रही हैं। पाटीदार आंदोलन को
कितने खराब तरीके से नियंत्रित करने की कोशिश की गई। ये पूरे देश ने देखा। इसलिए
जरूरी है कि 2017 के पहले नरेंद्र मोदी और अमित शाह गुजरात के लिए बेहतर सेनापति
खोज लें। अच्छा होगा कि नए साल में नया सेनापति नियुक्त किया जाए। जिससे नए
सेनापति को भी समय मिल सके। यही रणनीति दूसरे चुनाव वाले राज्यों के लिए भी करनी
होगी। अच्छी बात ये है कि असम के लिए भारतीय जनता पार्टी की रणनीति काफी स्पष्ट और
बेहतर दिखती है। बंगाल में काफी कुछ हलचल दिख रही है। और खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष
अमित शाह उस पर नजर रखे हैं। लेकिन, बेहद महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश को लेकर राष्ट्रीय
नेतृत्व भ्रम की स्थिति में ज्यादा दिख रहा है। ये बेहतर है कि अभी के यूपी बीजेपी
के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी अमित शाह के भरोसेमंद ही हैं। और अच्छी बात
ये भी है कि लंबे समय के बाद बीजेपी को उत्तर प्रदेश में लड़ने-भिड़ने वाला
अध्यक्ष मिला है। इसलिए बाजपेयी को एक और कार्यकाल देना बेहतर रणनीति हो सकती है।
लेकिन, लगे हाथ अमित शाह को उत्तर प्रदेश में नए नेताओं की एक पूरी फौज तैयार करनी
होगी। तभी उत्तर प्रदेश की लड़ाई लड़ने में आसानी हो पाएगी। नरेंद्र मोदी की लहर
है और फिलहाल बहुत तेजी से खत्म होती नहीं दिख रही। लेकिन, पहले बिहार विधानसभा और
अब गुजरात स्थानीय निकाय, जिला पंचायत चुनाव ने ये साफ कर दिया है कि मोदी लहर को
राज्यों में मजबूत रखने के लिए राज्यों में मजबूत सेनापति चाहिए। और वो चिंता
दिल्ली से बैठकर नहीं की जा सकती। बाहरी बनाम बिहारी का नारा सबक देने के लिए काफी
है।
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