एक सुबह ऑस्ट्रेलिया के एक रेडियो स्टेशन से फोन आया कि मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट पर आपसे बात करनी थी। मैंने कहाकि रिपोर्ट नहीं देखी है एक बार देख लूं फिर फोन करिए। रेडियो स्टेशन के एंकर ने बताया कि मेकेंजी की रिपोर्ट ये कह रही है कि भारत की आधी आबादी गरीबी में चली जाएगी अगर सुधारों को लागू नहीं किया गया तो। खैर, मैंने बाद में उस पर बात करने के लिए कहा और फोन रख दिया। फिर मैंने मेकेंजी की उस रिपोर्ट को देखा। उस रिपोर्ट का शीर्षक था फ्रॉम पावर्टी टू एमपावरमेंट। रिपोर्ट की शुरुआत भारत की तारीफ से की गई है जिसमें कहा गया है कि भारत ने गरीबी दूर करने में बड़ी उपलब्धि हासिल की है। रिपोर्ट के आंकड़े कह रहे हैं कि 1994 में भारत में 45 प्रतिशत यानी लगभग आधा भारत गरीब था और 2012 में सिर्फ 22 प्रतिशत यानी करीब एक तिहाई ही गरीब रह गए हैं। रिपोर्ट कहती है कि ये जश्न मनाने वाली उपलब्धि है लेकिन, इससे भारत के लोगों में एक नए तरह की उम्मीदें जग गई हैं।
मेकेंजी की रिपोर्ट ये भी कहती है कि भारत में दरअसल गरीब उनको गिना जा रहा है जो बिल्कुल दयनीय हालत में हैं। जबकि, खुद इस रिपोर्ट को तैयार करने वालों ने जब अपने मानकों पर परखा तो 2012 का भारत 1994 कगे भारत जैसा ही गरीब निकला। मेकेंजी ने बीपीएल, एपीएल की बजाय एमपावरमेंट लाइन तैयार की। इसके मानक रखे – खाना, बिजली (दूसरे ईंधन), पानी, घर, शौचालय, सेहत, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा। और जब इन मानकों पर भारत को मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट के शोधार्थियों ने भारत को परखा तो उन्हें भारत सरकार के आंकड़ों से दोगुने गरीब मिल गए। बल्कि, सरकारी आंकड़ों के दोगुने से भी ज्यादा। भारत सरकार के आंकड़े देश में सिर्फ 22 प्रतिशत गरीब बता रहे हैं। मेकेंजी की एमपावरमेंट लाइन पार करने में 54 प्रतिशत भारतीय फेल हो गए। यानी मेकेंजी ने जिन आठ जरूरी जरूरतों पर भारत को परखा वो भी देश के आधे से ज्यादा नागरिकों के पास नहीं है। मेकेंजी की इस रिपोर्ट के मुताबिक 2012 में 68 करोड़ भारतीयों के पास जरूरी सुविधाएं नहीं थीं। जबकि, सरकार कह रही है कि सिर्फ 27 करोड़ गरीब ही भारत में बचे हैं।
मेकेंजी की रिपोर्ट ये भी कहती है कि भारत में दरअसल गरीब उनको गिना जा रहा है जो बिल्कुल दयनीय हालत में हैं। जबकि, खुद इस रिपोर्ट को तैयार करने वालों ने जब अपने मानकों पर परखा तो 2012 का भारत 1994 कगे भारत जैसा ही गरीब निकला। मेकेंजी ने बीपीएल, एपीएल की बजाय एमपावरमेंट लाइन तैयार की। इसके मानक रखे – खाना, बिजली (दूसरे ईंधन), पानी, घर, शौचालय, सेहत, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा। और जब इन मानकों पर भारत को मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट के शोधार्थियों ने भारत को परखा तो उन्हें भारत सरकार के आंकड़ों से दोगुने गरीब मिल गए। बल्कि, सरकारी आंकड़ों के दोगुने से भी ज्यादा। भारत सरकार के आंकड़े देश में सिर्फ 22 प्रतिशत गरीब बता रहे हैं। मेकेंजी की एमपावरमेंट लाइन पार करने में 54 प्रतिशत भारतीय फेल हो गए। यानी मेकेंजी ने जिन आठ जरूरी जरूरतों पर भारत को परखा वो भी देश के आधे से ज्यादा नागरिकों के पास नहीं है। मेकेंजी की इस रिपोर्ट के मुताबिक 2012 में 68 करोड़ भारतीयों के पास जरूरी सुविधाएं नहीं थीं। जबकि, सरकार कह रही है कि सिर्फ 27 करोड़ गरीब ही भारत में बचे हैं।
भारत में गरीबी पर लड़ाई बड़ी पुरानी है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल के खिलाफ देश की जनता के मिजाज को उलटने के लिए 1977 में गरीबी हटाओ का नारा दिया था। लेकिन, प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ वाला नारा इस देश की नियति के साथ ऐसा चिपका है कि दुनिया अब भारत को सिर्फ गरीबों के देश के ही नजरिए से देख पाती है। इसीलिए मेकेंजी की रिपोर्ट कहती है कि देश में 27 करोड़ जो गरीब भारत सरकार बताती है वो तो दयनीय दशा में हैं लेकिन, कुल दरअसल 68 करोड़ लोग ऐसे हैं जो कहने को तो सरकारी गरीबी रेखा से ऊपर उठ गए हैं लेकिन, दरअसल जिनके पास जीने के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। रिपोर्ट ये भी कहती है कि इन 68 करोड़ लोगों को अच्छे से जीने लायक जरूरी सुविधाएं देने के लिए जितनी रकम चाहिए होगी वो गरीबी मिटाने के लिए चलाए जा रहे कार्य़क्रमों पर खर्च रकम का सात गुना है। मेकेंजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अच्छा जीवन जीने के लिए जितनी जरूरी सुविधाएं चाहिए होती हैं उसकी आधी लोगों को मिल ही नहीं पाती हैं। यहां तक बात काफी हद तक ठीक है। सच यही है कि 1991 के बाद जिस तेजी से देश ने 10 प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार और हर गांव शहर में बदल जाने वाला मनमोहिनी सपना देखा उसने हालात खराब ही किए हैं। शहरों में गांवों से और बड़े शहरों में छोटे शहरों से तेज तरक्की की उम्मीद में आए लोगों का जीवन स्तर बेहद खराब हुआ है। कठिनता से वो अपने लिए जरूरी सुविधाएं जुटा पा रहे हैं। एक छत की उम्मीद में भारत में प्रवासी लोग देश के रियल एस्टेट सेक्टर और बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ तो बढ़ा रहे हैं लेकिन, एक घर खरीदने में वो अपनी सारी जरूरी सुख सुविधाओं को तिलांजलि भी दे रहे हैं। जैसे हमारे परिवार के पास इलाहाबाद में भी घर है। और गांव में भी। गांव के घर में हम बमुश्किल ही रहने जा पाते हैं। इलाहाबाद में हमारा आधा से ज्यादा परिवार रहता है। मौके की तलाश में हम कई शहरों के चक्कर मारकर नोएडा और नोएडा में जरूरी सुविधाओं में सबसे जरूरी घर के लिए बड़ी मुश्किल से इंतजाम कर पाए। ये बात इस रिपोर्ट में कहीं नहीं दिखती है। भारत को समझने का ये पश्चिमी नजरिया और इस पश्चिमी नजरिए के आधार पर तैयार होती भारत की आर्थिक नीतियां खतरनाक दिशा में ले जा रही हैं। इसीलिए जरूरी सुविधाएं न जी पाने वाले 68 करोड़ भारतीयों के लिए इसके बाद रिपोर्ट में ज्यादा मौके न होने की बात होती है और उस बहाने से ये भी कि भारत में सुधार नहीं हो रहे हैं। और इसी वजह से भारत में सब खराब हो रही है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है। ये सब जानते हैं। और इसीलिए दुनिया की बड़ी एजेंसियां इस तरह की रिपोर्ट तैयार करके भारतीयों पर ये दबाव बनाती हैं कि उनकी सरकार सुधारों को लागू करने के लिए तैयार हो। दरअसल सुधार शब्द अंग्रेजी के उस “रिफॉर्म” को सीधे अनुवाद कर दिया गया है। जो दुनिया में उद्योगों के लिए अनुकूल परिस्थिति तैयार करने के लिए इस्तेमाल में लाया गया था। लेकिन, मैं जहां तक अर्थशास्त्र समझ पा रहा हूं कि सुधार तो हर देश, व्यक्ति को आगे बढ़ने के लिए जरूरी है। और वो सुधार ये कहता है कि हम जिस तरह की नीतियां चला रहे हैं वो सही हैं तो तेजी से आगे बढ़े और समय के लिहाज से नहीं हैं तो उन्हें समय के लिहाज से तैयार किया जाए। लेकिन, सुधारों का मतलब जिस तरह से पश्चिमी देशों की जरूरत के लिहाज से तय कर दिया गया है वो ऐसे दिखता है जैसे विदेशी कंपनियों की सहूलियत के लिहाज से सारी नीतियां तैयार करना ही सुधार है। मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई की मंजूरी के मामले में हम शानदार तरीके से इसे देख चुके हैं। जब वॉलमार्ट पर करोड़ो डॉलर की घूस भारतीय अधिकारियों, नेताओं पर खर्च करने के आरोप लगे। यहां तक कि वॉलमार्ट के इंडिया हेड सहित कई बड़े अधिकारियों को हटा भी दिया गया। फिर भी न तो वॉलमार्ट और न दूसरी विदेशी रिटेल कंपनियां भारत आईं। कुछ इस तरह से शोकेस किया गया था विदेशी रिटेल कंपनियां सीधे भारत की जिंदगी बदलने के लिए आना चाह रही हैं। विदेश रिटेल कंपनियां भारत के लोगों को ढेर सारी नौकरियां देने के लिए आना चाह रही हैं। विदेशी रिटेल कंपनियां भारत की बुनियादी संरचना ठीक करने, बेहतर तकनीक देने, सस्ता माल देने आना चाह रही हैं। लेकिन, इतने के बाद भी और उनकी सहूलियत के लिहाज से नीतियां बनाने के बाद भी वो नहीं आईं। एक टेस्को टाटा के साथ मिलकर आई भी तो उसपर भी खबरें आ रही हैं कि यूपीए की सरकार ने अपनी इज्जत बचाने के लिए टेस्को को शर्तों में कई छूट के वादे के साथ उनको भारत बुलाने के लिए हरसंभव मेहनत की गई। मिन्नत कई गई ये भी कह सकते हैं।
इसीलिए जब मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट जैसा भारत की गरीबी वाली रिपोर्ट आती हैं तो भले ही उसमें भारत के लोगों की सुख सुविधा की चिंता की जाती हो। बताया जाता हो कि कैसे सरकार ने देश के लोगों को जरूरी सुविधाएं नहीं दी। भरोसा नहीं होता। लगता है कि भारत की गरीबी और गरीबों का डर दिखाकर पश्चिम हमारे बाजार पर अपनी शर्तों पर कब्जा करना चाहता है। दिक्कत न तो विदेशी निवेश से है, न बाजार से, न विदेशी कंपनियों से। दिक्कत है विदेशी पूंजी आने और मुनाफा कमाने की शर्तों के साथ। सुधार न होने को भारत की हर दिक्कत की वजह बताने वाली रिपोर्ट ये क्यों नहीं बताती हैं कि जब भारत सिर्फ साढ़े चार प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार पर है तो उसी वक्त भारत की चमत्कारिक कही जाने वाली यूपीए की सरकार ने सारे सुधार के कार्यक्रम लागू कर दिए। ये रिपोर्ट ये क्यों कहते डरती हैं कि भारत की ताकत खुद में है कि वो अपनी गरीबी दूर कर सके। ये रिपोर्ट ये क्यों नहीं कहती कि दरअसल यूपीए सरकार के घपले, घोटालों ने देश की तरक्की, लोगों की सुख सुविधाएं छीनी हैं। ये रिपोर्ट ये क्यों नहीं बतातीं कि भारत के नेता अपनी तरक्की में लगे रहे। देश के लोगों को जरूरी सुविधाएं इसलिए नहीं मिलीं। ये रिपोर्ट ऐसा सब इसलि नहीं बतातीं क्योंकि, फिर इनकी रिपोर्ट में आने वाले “सुधार की जरूरत” वाला सिद्धांत बेअसर दिखने लगेगा। इसलिए मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट जैसी भारत की गरीबी की चिंता करने वाला रिपोर्ट को भारत के नजरिए से देखने-समझने की जरूरत है।
(इसी पर ऑस्ट्रेलिया के एसबीएस रेडियो से हुई मेरी बातचीत भी यहां सुन सकते हैं।)
(इसी पर ऑस्ट्रेलिया के एसबीएस रेडियो से हुई मेरी बातचीत भी यहां सुन सकते हैं।)