राजनीति में गिरावट की जब बात होती है तो, नेता बड़ी चतुराई से ये कहकर बच निकलने की कोशिश करते हैं कि समाज से ही नेता निकलते हैं और समाज के हर क्षेत्र में आई गिरावट का असर राजनीति में भी दिखता है। वैसे तो, ये सामान्य सी बात दिखती है लेकिन, राजनीतिक जीवन में बढ़ता दोगलापन भयावह स्थिति की तरफ बढ़ रहा है।
अर्थशास्त्र में मजबूत ईमानदार माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने अपनी जुबान पर कायम न रह पाने में मिसाल कायम कर दी है। 2004 में आई कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार लोकसभा और राज्यसभा में अपने वादों को पूरा कर पाने के मामले में आजादी के बाद की सबसे फिसड्डी साबित हुई है।
पहले के नेता और सरकारें आज के नेताओं (सरकारों) के मुकाबले कितने ईमानदार थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1984 तक सरकारें लोकसभा-राज्यसभा में किया गया हर वादा पूरा करती थीं। यहां तक कि 2003 तक भी सरकार सदन में किए गए 90 प्रतिशत वादे तो पूरे करती ही थी। ससंदीय कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2004 में यूपीए की सरकार आने के पहले तक रही एनडीए सरकार ने लोकसभा में किए गए 85.26 प्रतिशत वादे पूरे किए। राज्यसभा में किए 87.50 प्रतिशत वादे पूरे हो गए।
लेकिन, यूपीए सरकार की तो जुबान ऐसे फिसल रही है कि वादे अधूरे छोड़ने की फिसलन बढ़ती ही जा रही है। 2005 में यूपीए सरकार ने लोकसभा में 1,946 वादे किए, पूरे हुए 1,701। 2006 में 963 वादे किए, पूरे हुए 768। और, 2007 में तो हद ही हो गई। सरकार के मंत्रियों की जुबानें ऐसी फिसलीं कि 1,086 में से सिर्फ 156 वादे ही पूरे हो पाए। यानी लोकसभा में सरकार ने जा वादे सांसदों के सामने किए, उनमें से सिर्फ 14.36 प्रतिशत ही पूरे हुए। यही हाल राज्यसभा का भी रहा। 2005 में मंत्रियों की कही 1,164 में से 867, 2006 में 877 में से 495 और 2007 में 918 कही गई बातों में से सिर्फ 198 बातें ही पूरी हुईं।
ये सारी गिरावट प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़कर त्याग की प्रतिमूर्ति बनी सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार में है। अब जब संसद में किए गए वादों का ये हाल है तो, मंच पर यूपीए सरकार के इन नेताओं के भाषण सच्चाई के कितने नजदीक हैं, इसका अंदाजा बेहद आसानी लगाया जा सकता है। इससे, लगातार बेहतर से बेहतर रेल बजट और मुख्य बजट पेश करने वाले रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और वित्तमंत्री पी चिदंबरम के करिश्मे का अर्थशास्त्र कुछ तो समझ में आ ही जाता है।
अब भी साफ नहीं है कि किसानों की कर्जमाफी का पैसा कहां से आएगा। अगली सरकार उसे पूरा करने में कितना पटरा होगी या बैंक ही पटरा हो जाएंगे। यही वजह है कि इस सवाल पर चिदंबरम सबसे ज्यादा चिढ़ते हैं। इसीलिए मुझे तो लगता है कि लालू ठीक कह रहे हैं चुनाव के ठीक पहले के साल में बजटों में इस सरकार ने सिर्फ जादू-टोना ही किया है यानी ज्यादातर बातें हवा-हवाई ही हैं क्योंकि, इस सरकार के वादों का दसवां हिस्सा भी पूरा हो जाए तो, बहुत है।
अर्थशास्त्र में मजबूत ईमानदार माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने अपनी जुबान पर कायम न रह पाने में मिसाल कायम कर दी है। 2004 में आई कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार लोकसभा और राज्यसभा में अपने वादों को पूरा कर पाने के मामले में आजादी के बाद की सबसे फिसड्डी साबित हुई है।
पहले के नेता और सरकारें आज के नेताओं (सरकारों) के मुकाबले कितने ईमानदार थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1984 तक सरकारें लोकसभा-राज्यसभा में किया गया हर वादा पूरा करती थीं। यहां तक कि 2003 तक भी सरकार सदन में किए गए 90 प्रतिशत वादे तो पूरे करती ही थी। ससंदीय कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2004 में यूपीए की सरकार आने के पहले तक रही एनडीए सरकार ने लोकसभा में किए गए 85.26 प्रतिशत वादे पूरे किए। राज्यसभा में किए 87.50 प्रतिशत वादे पूरे हो गए।
लेकिन, यूपीए सरकार की तो जुबान ऐसे फिसल रही है कि वादे अधूरे छोड़ने की फिसलन बढ़ती ही जा रही है। 2005 में यूपीए सरकार ने लोकसभा में 1,946 वादे किए, पूरे हुए 1,701। 2006 में 963 वादे किए, पूरे हुए 768। और, 2007 में तो हद ही हो गई। सरकार के मंत्रियों की जुबानें ऐसी फिसलीं कि 1,086 में से सिर्फ 156 वादे ही पूरे हो पाए। यानी लोकसभा में सरकार ने जा वादे सांसदों के सामने किए, उनमें से सिर्फ 14.36 प्रतिशत ही पूरे हुए। यही हाल राज्यसभा का भी रहा। 2005 में मंत्रियों की कही 1,164 में से 867, 2006 में 877 में से 495 और 2007 में 918 कही गई बातों में से सिर्फ 198 बातें ही पूरी हुईं।
ये सारी गिरावट प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़कर त्याग की प्रतिमूर्ति बनी सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार में है। अब जब संसद में किए गए वादों का ये हाल है तो, मंच पर यूपीए सरकार के इन नेताओं के भाषण सच्चाई के कितने नजदीक हैं, इसका अंदाजा बेहद आसानी लगाया जा सकता है। इससे, लगातार बेहतर से बेहतर रेल बजट और मुख्य बजट पेश करने वाले रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और वित्तमंत्री पी चिदंबरम के करिश्मे का अर्थशास्त्र कुछ तो समझ में आ ही जाता है।
अब भी साफ नहीं है कि किसानों की कर्जमाफी का पैसा कहां से आएगा। अगली सरकार उसे पूरा करने में कितना पटरा होगी या बैंक ही पटरा हो जाएंगे। यही वजह है कि इस सवाल पर चिदंबरम सबसे ज्यादा चिढ़ते हैं। इसीलिए मुझे तो लगता है कि लालू ठीक कह रहे हैं चुनाव के ठीक पहले के साल में बजटों में इस सरकार ने सिर्फ जादू-टोना ही किया है यानी ज्यादातर बातें हवा-हवाई ही हैं क्योंकि, इस सरकार के वादों का दसवां हिस्सा भी पूरा हो जाए तो, बहुत है।
वैसे स्वर्ण युग के दर्शन भूत काल में ही होते हैं। आगे आगे देखिये होता है क्या!
ReplyDeletesahee kaha hai aapne. Agar ye sarkar nuclear samzota bhi nahi kar
ReplyDeletepati to inki credibility to zero ho hee gai.
सता से शादी तो सरदार जी की हुई थी . सोनिया जी को तो मंडप तक जाने भी नही दिया .मतदाता को फुसलाने के लिए ये प्रयाप्त नही है ? फ़िर से किसी सरदार ,प्रणव , अर्जुन के लिए क्या वोट मांगना ? पार्टी पुनः उन्हें झुठ्लाएगी नही क्या ?
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