चीन में कुल पांच SEZ हैं । Shenzhen, Zhuhai, Shantou और Xiamen जो, 1980 में बने और Hainan बना 1988 में। इन पांच SEZ से चीन दुनिया का एक्सपोर्ट हब बन गया। और, तरक्की में भारत से बहुत आगे निकल गया। 79 से95 के बीच शेनझेन SEZ हर साल पचास परसेंट बढ़ा। और, सरकार के लिए स्पेशल कमाई जोन बन गया। 80 से 95 के 15 सालों में शेनझेन से सरकार को पचास अरब युआन से भी ज्यादा की कमाई हुई।
चीन के ये मॉडल अपनाने के 25 साल बाद अब भारत के नेता जागे हैं। और, देश की तरक्की के लिए उनको यही रास्ता समझ में आ रहा है। शायद यही सोचकर चीन को पीछे पछाड़ने के लिए भारत में सैद्धांतिक तौर पर 234 SEZ को मंजूरी मिल चुकी है। औऱ, इसके भरोसे भारत सरकार अगलेपांच साल में तीन लाख करोड़ रुपए का निवेश और चालीस लाख नौकरियों का भरोसा दिला रही है।यही वो लुभाने वाले आंकड़े जिनके बूते सरकार SEZ पर कोई भी पंगा लेने को तैयार है।
सरकार कह रही है कि SEZ से देश में नौकरी और निवेश दोनों आएगा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अभी तक के जो आठ SEZ शुरू हुए हैं उसमें करीब उन्नीस सौ करोड़ रुपए लगे और करीब एक लाख लोगों को नौकरी मिली। ये आंकड़े अच्छे लगते हैं। लेकिन, ये 8 SEZ तीन लाख वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन में बने हैं। और, भारत की जो आबादी है उस लिहाज से इतनी जमीन पर सिर्फ एक लाख लोगों को रोजगार से तरक्की नहीं हो सकती।
सबसे बड़ासवाल ये है कि क्या तानाशाह कम्युनिस्ट चीन का ये मॉडल भारत के लोकतांत्रिक राज्य में काम कर सकेगा। शायद नहीं कर सकेगा क्योंकि, यहां हर मॉडल को लोकतंत्र के पैमाने पर खरा उतरना होता है और SEZ के मामले में ये साफ है कि ये मॉडल लोकतंत्र के हित में नहीं है। इस मॉडल के फेल होने के सारे लक्षण दिख रहे हैं। इसकी शुरुआत देश के सबसे बडे प्रस्तावित SEZ में शामिल रिलायंस के महामुंबई, गुड़गांव, सलीम ग्रुप के नंदीग्राम जैसे SEZ के जबरदस्त विरोध से हो गई है।
पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार में जब चौदह जानें SEZ को जमीन न देने में चली गईं तो, फिर चुने न जाने से डरी केंद्र और राज्य सरकार पीछे लौट गए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो, तुरंत ऐलान कर दिया कि बिना नई पुनर्वासनीति के आए नया SEZ पास नहीं किया जाएगा। ये दूसरा लक्षण था चीन के विकास मॉडल के भारत में फेल होने का।
इतना ही नहीं सरकार ने ऐलान कर दिया कि मल्टीपल प्रोडक्ट SEZ भी पांच हजार हेक्टेयर से ज्यादा में नहीं बनेगा। इससे रिलायंस के दस हजार हेक्टेयर से ज्यादा में बनने वाले दो और दूसरे करीब चार अलग-अलग SEZ पर ग्रहण लग गया।लेकिन, जब रिलायंस ने आपना SEZ छोटा करने से इनकार किया तोखुद वाणिज्य मंत्री कमलनाथ दबाव में कहने लगे कि केस टू केस बेसिस पर लैंड लिमिट बढ़ाई जा सकतीहै।इसी बीच सरकार ने 63 और नए SEZ को मंजूरी दे दी। यानी SEZ को लेकर सरकार की कोई पॉलिसी अब तक नहीं है जब-तब इसमें बदलाव होते रहेंगे। ये एक मजबूत लक्षण है चीन के मॉडल के भारत में फेल होने का।
चीन के सबसे बड़े SEZ शेनझेन जो, 32700 हेक्टेयर में बना है, में शुरुआत में पूरा पैसा केंद्रीय और राज्य सरकार ने लगाया। बाद में इसमें विदेशी निवेश आया। सिर्फ इसी SEZ से देश का 14% एक्सपोर्ट होने लगा।
यही कहानी दोहराने के लिए सरकार देश के हर कोने में SEZ बनाकर एक्सपोर्ट के मामले में पीछे छोड़ना चाहती है। और, इसके लिए उद्योगपतियों को कोई भी छूट देने को तैयार हैं।
SEZ के डेवलपमेंट, मेनटेनेंस और ऑपरेशन के लिए इंपोर्ट किए सामान पर कोई ड्यूटी नहीं लगेगी।
पांच सालों तक SEZ सेहोने वाले एक्सपोर्ट पर पूरी तरह से इनकम टैक्स, सेंट्रल सेल्स और सर्विस टैक्स की छूट। उसके बाद के पांच साल भी कोई भी टैक्स सिर्फ पचास परसेंट ही देना होगा। राज्य सरकार के सभी टैक्स और ड्यूटी से भी छूट।
तीन वजहें जो मैंने लिखी हैं वो SEZ को टैक्स हैवेन बना देती है। इसके अलावा भी ऐसी ढेर सारी वजहें हें हैं जसका फायदा उठाने के लिए देश का हर बड़ा उद्योगपति किसी भी तरह किसानों की जमीन लेकर स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाना चाहते हैं।
और, यही वो सबसे बड़ी वजहें हैं जो, इस मॉडल के भारत में फेल होने की गारंटी देता है। उद्योगपति पैसा लगाएंगे तो, वो शहर जो उनकी तैयार की सुविधाओं पर ही चलेगा। उस पर सरकार का कोई नियंत्रणभीनहीं होगा। उससे आम आदमी के जीवन में कोई खास सुधार नहीं होगा। विदेशी कंपनियां जो इन SEZ में यूनिट लगाएंगी क्या गारंटी है कि वो मिलने वाला मुनाफा भारत में ही लगाएंगी। ज्यादातर SEZ आईटी सेक्टर के ही हैं क्योंकि, इनको 2009 के बाद टैक्स से छूट खत्म हो रही है। यानी SEZ सिर्फ टैक्स छूट के बहाने के लिए बन रहे हैं।
फिर विकास का मॉडल क्या हो। असल बात SEZ को एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन, SEZ की पॉलिसी में इतनी विसंगतियां हैं और भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप में ये मॉडल काम करता नहीं दिखता। अगर विकास के लिए सरकार को ज्यादा शहर ही तैयार करने हैं जहां की सारी सुविधाएं खुद शहर ही तैयार करे तो, जमशेदपुर का मॉडल अपनाया जा सकता है।
भारत जैसे देश में जहां के ज्यादातर शहर भी दुनिया के बड़े शहरों से विकास में बहुत पीछे हैं । जरूरत इस बात की शहरों के बगल ही छोटे इंडस्ट्रियल एस्टेट बनाए जाएं। लेकिन, सरकार उस पुराने मॉडल को SEZ के चक्कर में इस तरह भूल गई है कि कई शहरों के पास बनाए इंडस्ट्रियल एस्टेट अब बड़े इंडस्ट्री कबाड़खाने जैसे बन गए हैं। इसलिए इतने SEZ को बिना सोचे समझे मंजूर देने से देश में कुछ ऐसे ही नए इंडस्ट्री के कबाड़खाने तैयार करने से बेहतर है कि उन इंडस्ट्रियल एस्टेट्स को ही बेहतर किया जाए।
मैं इलाहाबाद से हूं, उत्तर प्रदेश को अच्छे से जानता हूं। इसलिए वहां का ही उदाहरण बेहतर तरीके से दे सकता हूं। गंगा, यमुना से घिरे इलाहाबाद के एक ओर यमुना के पार नैनी इंडस्ट्रियल इस्टेट में पचास के दशक में कई सरकारी और गैर सरकारी कंपनियों को लगाकर ये कोशिश की गई कि इलाहाबाद के और इसके आसपास के लोगों को यहीं पर रोजगार मिल सके। आईटीआई, बीपीसीएल, रेमंड, जीई, त्रिवेणी ग्लास जैसी प्रतिष्ठित कंपनियां नैनी में लगीं। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, हालात खराब होने लगे यहां नौकरी करने वाले ज्यादातर लोग स्थानीय थे, इस वजह से यूनियन में राजमीति हावी होने लगी और वो राजनीति भी ऐसी कि किसी भी सही परिवर्तन को लागू होने से रोकना ही राजनीति मानी जाती थी। मुझे याद है कि मैंने बचपन से एक कांग्रेसी नेता को देखा जो, सिर्फ इसीलिए जाने जाते थे कि वो फैक्ट्री में नेता थे और राजनीति कांग्रेस के लिए करते थे।
नैनी इंडस्ट्रियल इस्टेट के उजड़ने की बड़ी वजह ये भी थी कि नब्बे के दशक तक देश तो उदारीकरण के रास्ते पर तेजी से दौड़ पड़ा था लेकिन, नैनी इंडस्ट्रियल इस्टेट जहां की तहां थी। सबसे टिकाऊ और अच्छे फोन उपकरण बनाने वाली आईटीआई को विदेशों से तो छोड़िए देश में भी ऑर्डर मिलने बंद हे गए थे। क्योंकि, बदलते जमाने के साथ आईटीआई के फोन नहीं बदले तो, लोगों ने अपने घरों से उन्हें ही बदल डाला। बाद में तो, हाल ये हो गया कि सरकारी दफ्तरों में भी दूसरी निजी कंपनियों के फोन उपकरण नजर आने लगे।
और, यही हाल उत्तर प्रदेश के सभी शहरों से लगे इंडस्ट्रियल इस्टेट्स का होने लगा। चाहे वो इलाहाबाद-जौनपुर की सीमा पर बसी सतहरिया इंडस्ट्रियल इस्टेट हो या फिर गोरखपुर के बगल में बसे इंडस्ट्रियल इस्टेट का। कानपुर में बसी लेदर इंडस्ट्री बरबाद हो गई। लेकिन, इसे सुधारने की सुध किसी को नहीं आई। शायद सुध आ जाती तो, हालात न बिगड़ते और SEZ मॉडल का हौव्वा खड़ाकर वाहवाही लूटने का मजा और मौका भी न मिल पाता।
लेकिन, अभी भी सरकार अगर सचमुच देश का विकास चाहती है तो, शहरों के बगल में छोटे-छोटे इंडस्ट्रियल इस्टेट बसाए जिससे उस शहर और आसपास के शहर-गांव की रोजगार और दूसरी जरूरतें पूरी हो सकें। हां, चीन से इतनी प्रेरणा ली जा सकती है कुछ चार-पांच बड़े SEZ बनाएं जो, इन शहरों के आसपास बसे इंडस्ट्रियल इस्टेट और विदेशों के बीच पुल का काम करें। और, इन बड़े SEZ में सरकार -निजी क्षेत्र के साथ मिलकर पैसा लगाए और एक्सपोर्ट हब ही बनाए आईटी कंपनियों के लिए टैक्स हैवेन नहीं। भारत जैसे एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले लोकतांत्रिक देश में विकास का इससे बेहतर मॉडल नहीं हो सकता। और, SEZ के भरोसे कुछ उद्योगपतियों का भला तो, हो सकता है लेकिन, देश के भले के लिए देश की जरूरतों के लिहाज से औद्योगिक विकास की नीति तैयार करनी होगी।
चीन के ये मॉडल अपनाने के 25 साल बाद अब भारत के नेता जागे हैं। और, देश की तरक्की के लिए उनको यही रास्ता समझ में आ रहा है। शायद यही सोचकर चीन को पीछे पछाड़ने के लिए भारत में सैद्धांतिक तौर पर 234 SEZ को मंजूरी मिल चुकी है। औऱ, इसके भरोसे भारत सरकार अगलेपांच साल में तीन लाख करोड़ रुपए का निवेश और चालीस लाख नौकरियों का भरोसा दिला रही है।यही वो लुभाने वाले आंकड़े जिनके बूते सरकार SEZ पर कोई भी पंगा लेने को तैयार है।
सरकार कह रही है कि SEZ से देश में नौकरी और निवेश दोनों आएगा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अभी तक के जो आठ SEZ शुरू हुए हैं उसमें करीब उन्नीस सौ करोड़ रुपए लगे और करीब एक लाख लोगों को नौकरी मिली। ये आंकड़े अच्छे लगते हैं। लेकिन, ये 8 SEZ तीन लाख वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन में बने हैं। और, भारत की जो आबादी है उस लिहाज से इतनी जमीन पर सिर्फ एक लाख लोगों को रोजगार से तरक्की नहीं हो सकती।
सबसे बड़ासवाल ये है कि क्या तानाशाह कम्युनिस्ट चीन का ये मॉडल भारत के लोकतांत्रिक राज्य में काम कर सकेगा। शायद नहीं कर सकेगा क्योंकि, यहां हर मॉडल को लोकतंत्र के पैमाने पर खरा उतरना होता है और SEZ के मामले में ये साफ है कि ये मॉडल लोकतंत्र के हित में नहीं है। इस मॉडल के फेल होने के सारे लक्षण दिख रहे हैं। इसकी शुरुआत देश के सबसे बडे प्रस्तावित SEZ में शामिल रिलायंस के महामुंबई, गुड़गांव, सलीम ग्रुप के नंदीग्राम जैसे SEZ के जबरदस्त विरोध से हो गई है।
पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार में जब चौदह जानें SEZ को जमीन न देने में चली गईं तो, फिर चुने न जाने से डरी केंद्र और राज्य सरकार पीछे लौट गए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो, तुरंत ऐलान कर दिया कि बिना नई पुनर्वासनीति के आए नया SEZ पास नहीं किया जाएगा। ये दूसरा लक्षण था चीन के विकास मॉडल के भारत में फेल होने का।
इतना ही नहीं सरकार ने ऐलान कर दिया कि मल्टीपल प्रोडक्ट SEZ भी पांच हजार हेक्टेयर से ज्यादा में नहीं बनेगा। इससे रिलायंस के दस हजार हेक्टेयर से ज्यादा में बनने वाले दो और दूसरे करीब चार अलग-अलग SEZ पर ग्रहण लग गया।लेकिन, जब रिलायंस ने आपना SEZ छोटा करने से इनकार किया तोखुद वाणिज्य मंत्री कमलनाथ दबाव में कहने लगे कि केस टू केस बेसिस पर लैंड लिमिट बढ़ाई जा सकतीहै।इसी बीच सरकार ने 63 और नए SEZ को मंजूरी दे दी। यानी SEZ को लेकर सरकार की कोई पॉलिसी अब तक नहीं है जब-तब इसमें बदलाव होते रहेंगे। ये एक मजबूत लक्षण है चीन के मॉडल के भारत में फेल होने का।
चीन के सबसे बड़े SEZ शेनझेन जो, 32700 हेक्टेयर में बना है, में शुरुआत में पूरा पैसा केंद्रीय और राज्य सरकार ने लगाया। बाद में इसमें विदेशी निवेश आया। सिर्फ इसी SEZ से देश का 14% एक्सपोर्ट होने लगा।
यही कहानी दोहराने के लिए सरकार देश के हर कोने में SEZ बनाकर एक्सपोर्ट के मामले में पीछे छोड़ना चाहती है। और, इसके लिए उद्योगपतियों को कोई भी छूट देने को तैयार हैं।
SEZ के डेवलपमेंट, मेनटेनेंस और ऑपरेशन के लिए इंपोर्ट किए सामान पर कोई ड्यूटी नहीं लगेगी।
पांच सालों तक SEZ सेहोने वाले एक्सपोर्ट पर पूरी तरह से इनकम टैक्स, सेंट्रल सेल्स और सर्विस टैक्स की छूट। उसके बाद के पांच साल भी कोई भी टैक्स सिर्फ पचास परसेंट ही देना होगा। राज्य सरकार के सभी टैक्स और ड्यूटी से भी छूट।
तीन वजहें जो मैंने लिखी हैं वो SEZ को टैक्स हैवेन बना देती है। इसके अलावा भी ऐसी ढेर सारी वजहें हें हैं जसका फायदा उठाने के लिए देश का हर बड़ा उद्योगपति किसी भी तरह किसानों की जमीन लेकर स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाना चाहते हैं।
और, यही वो सबसे बड़ी वजहें हैं जो, इस मॉडल के भारत में फेल होने की गारंटी देता है। उद्योगपति पैसा लगाएंगे तो, वो शहर जो उनकी तैयार की सुविधाओं पर ही चलेगा। उस पर सरकार का कोई नियंत्रणभीनहीं होगा। उससे आम आदमी के जीवन में कोई खास सुधार नहीं होगा। विदेशी कंपनियां जो इन SEZ में यूनिट लगाएंगी क्या गारंटी है कि वो मिलने वाला मुनाफा भारत में ही लगाएंगी। ज्यादातर SEZ आईटी सेक्टर के ही हैं क्योंकि, इनको 2009 के बाद टैक्स से छूट खत्म हो रही है। यानी SEZ सिर्फ टैक्स छूट के बहाने के लिए बन रहे हैं।
फिर विकास का मॉडल क्या हो। असल बात SEZ को एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन, SEZ की पॉलिसी में इतनी विसंगतियां हैं और भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप में ये मॉडल काम करता नहीं दिखता। अगर विकास के लिए सरकार को ज्यादा शहर ही तैयार करने हैं जहां की सारी सुविधाएं खुद शहर ही तैयार करे तो, जमशेदपुर का मॉडल अपनाया जा सकता है।
भारत जैसे देश में जहां के ज्यादातर शहर भी दुनिया के बड़े शहरों से विकास में बहुत पीछे हैं । जरूरत इस बात की शहरों के बगल ही छोटे इंडस्ट्रियल एस्टेट बनाए जाएं। लेकिन, सरकार उस पुराने मॉडल को SEZ के चक्कर में इस तरह भूल गई है कि कई शहरों के पास बनाए इंडस्ट्रियल एस्टेट अब बड़े इंडस्ट्री कबाड़खाने जैसे बन गए हैं। इसलिए इतने SEZ को बिना सोचे समझे मंजूर देने से देश में कुछ ऐसे ही नए इंडस्ट्री के कबाड़खाने तैयार करने से बेहतर है कि उन इंडस्ट्रियल एस्टेट्स को ही बेहतर किया जाए।
मैं इलाहाबाद से हूं, उत्तर प्रदेश को अच्छे से जानता हूं। इसलिए वहां का ही उदाहरण बेहतर तरीके से दे सकता हूं। गंगा, यमुना से घिरे इलाहाबाद के एक ओर यमुना के पार नैनी इंडस्ट्रियल इस्टेट में पचास के दशक में कई सरकारी और गैर सरकारी कंपनियों को लगाकर ये कोशिश की गई कि इलाहाबाद के और इसके आसपास के लोगों को यहीं पर रोजगार मिल सके। आईटीआई, बीपीसीएल, रेमंड, जीई, त्रिवेणी ग्लास जैसी प्रतिष्ठित कंपनियां नैनी में लगीं। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, हालात खराब होने लगे यहां नौकरी करने वाले ज्यादातर लोग स्थानीय थे, इस वजह से यूनियन में राजमीति हावी होने लगी और वो राजनीति भी ऐसी कि किसी भी सही परिवर्तन को लागू होने से रोकना ही राजनीति मानी जाती थी। मुझे याद है कि मैंने बचपन से एक कांग्रेसी नेता को देखा जो, सिर्फ इसीलिए जाने जाते थे कि वो फैक्ट्री में नेता थे और राजनीति कांग्रेस के लिए करते थे।
नैनी इंडस्ट्रियल इस्टेट के उजड़ने की बड़ी वजह ये भी थी कि नब्बे के दशक तक देश तो उदारीकरण के रास्ते पर तेजी से दौड़ पड़ा था लेकिन, नैनी इंडस्ट्रियल इस्टेट जहां की तहां थी। सबसे टिकाऊ और अच्छे फोन उपकरण बनाने वाली आईटीआई को विदेशों से तो छोड़िए देश में भी ऑर्डर मिलने बंद हे गए थे। क्योंकि, बदलते जमाने के साथ आईटीआई के फोन नहीं बदले तो, लोगों ने अपने घरों से उन्हें ही बदल डाला। बाद में तो, हाल ये हो गया कि सरकारी दफ्तरों में भी दूसरी निजी कंपनियों के फोन उपकरण नजर आने लगे।
और, यही हाल उत्तर प्रदेश के सभी शहरों से लगे इंडस्ट्रियल इस्टेट्स का होने लगा। चाहे वो इलाहाबाद-जौनपुर की सीमा पर बसी सतहरिया इंडस्ट्रियल इस्टेट हो या फिर गोरखपुर के बगल में बसे इंडस्ट्रियल इस्टेट का। कानपुर में बसी लेदर इंडस्ट्री बरबाद हो गई। लेकिन, इसे सुधारने की सुध किसी को नहीं आई। शायद सुध आ जाती तो, हालात न बिगड़ते और SEZ मॉडल का हौव्वा खड़ाकर वाहवाही लूटने का मजा और मौका भी न मिल पाता।
लेकिन, अभी भी सरकार अगर सचमुच देश का विकास चाहती है तो, शहरों के बगल में छोटे-छोटे इंडस्ट्रियल इस्टेट बसाए जिससे उस शहर और आसपास के शहर-गांव की रोजगार और दूसरी जरूरतें पूरी हो सकें। हां, चीन से इतनी प्रेरणा ली जा सकती है कुछ चार-पांच बड़े SEZ बनाएं जो, इन शहरों के आसपास बसे इंडस्ट्रियल इस्टेट और विदेशों के बीच पुल का काम करें। और, इन बड़े SEZ में सरकार -निजी क्षेत्र के साथ मिलकर पैसा लगाए और एक्सपोर्ट हब ही बनाए आईटी कंपनियों के लिए टैक्स हैवेन नहीं। भारत जैसे एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले लोकतांत्रिक देश में विकास का इससे बेहतर मॉडल नहीं हो सकता। और, SEZ के भरोसे कुछ उद्योगपतियों का भला तो, हो सकता है लेकिन, देश के भले के लिए देश की जरूरतों के लिहाज से औद्योगिक विकास की नीति तैयार करनी होगी।