इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने हंगामा बरपाया हुआ है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक फैसला सुना दिया कि मुसलमान कम से कम यूपी में तो अल्पसंख्यक नहीं है। फिर उसी हाईकोर्ट के दूसरे जजों ने सरकारी याचिका (याचना कहें तो बेहतर होगा ) पर स्टे दे दिया।
हाईकोर्ट की तरह ये तो मैं भी मानता हूं कि मुसलमान होने का मतलब अल्पसंख्यक तो कम से कम नहीं ही है। हां, सबसे बड़ा वोट बैंक जरूर है। जिस पर खेल कभी इस खेमे से तो कभी उस खेमे से होता रहता है लेकिन, इसमें मददगार ऐसे लोग हो रहे हैंजो ये मानते है कि अल्पसंख्यक शब्द हटा तो मुसलमानों का बड़ा नुकसान हो जाएगा।
मेरा ये भी साफ मानना है कि अल्पसंख्यक होना मुसलमानों के लिए न तो कोई तमगा है न ही कोई ओहदा फिर उस खास स्टेटपर मुसलमान क्यों बने रहना चाहते हैं। जो, स्टेटस उन्हें कुछ देता तो, नहीं हां इसके चक्कर में वो देश में बराबर केभागीदार होने पर भी किनारे ख़ड़े रहते हैं। और, अल्पसंख्यक बनकर किसी न किसी पार्टी के वोटबैंक भर बनकर रह जाते हैं। यही वजह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट से मुसलमानों का अल्पसंख्यक होने का खास स्टेटस खत्म होने का फरमान निकला तो, मुसलमानों की हमदर्द बनने का दावा करने वाली सियासी पार्टियां हों या फिर मुसलमानों से ये खास स्टेटस छीनने को आतुर विहिप दोनों ही जल्दी से मीडिया के सामने आ गए।
मुसलमानों की हमदर्द सियासी पार्टियोंमें टीवी पर दिखने की जल्दी ये थी कि कहीं कोई और उनका ये दावा छीन न ले। और, विहिप की जुगत ये कि कहीं इस बारे में कुछ न बोलने से हिंदु हितों की रक्षा का उनका दावा बेकार सा होता दिखने लगे। इसीलिए फैसले पर बीजेपी ने खुशी जताई तो, यूपी चुनाव के ठीक पहले आए फैसले से कहींअल्पसंख्यक वोटबैंक खिसक न जाए इस डर से मौलाना मुलायम (इस विशेषण से वो शायद सबसे ज्यादा खुश होते होंगे।) इलाहाबाद हाईकोर्ट से अल्पसंख्यक होने का पुराना स्टेटस जल्दी से बहाल करवा लाए। ये स्टेटस न बहाल होता तो, शायद मायावती कुछ और कर गुजरतीं। लेकिन, इस सबमें नुकसान उस वोटबैंक का ही रहा है जिसे अल्पसंख्यक नाम से बुलाया जाता है और चुनाव के समय इसकी चिंता सियासी दलों को सबसे ज्यादा सताने लगती है।
दरअसल अल्पसंख्यक होना ही अपने आपमें वो शब्द है जिसे राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए वोटबैंक में तब्दील कर लेते हैं। ये फायदा आरएसएस-बीजेपी अल्पसंख्यकों (मुसलमान पढ़ें) के खिलाफ बोलकर और कांग्रेस, सपा, बसपा जैसी पार्टियां उसी खिलाफ बोले की खिलाफत में थोड़ी और आग डालकर। लेकिन, भला दोनों में से कोई भी नहीं कर रहा होता है। तो, फिर हम इस अल्पसंख्यक शब्द को क्यों पाल पोल रहे हैं। लेकिन, क्या सिर्फ अल्पसंख्यक शब्द हटाने से मुसलमानों का भला हो पाएगा। नहीं, जरूरत इस बात की है कि मुसलमानों को भी किसी तरह का खास स्टेटस देने के लिए मुसलमान होने के बजाएउनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति को ही आधार बनाया जाए।
इसके लिए आधार भी बढ़िया मिल गया है। हिंदू और मुसलमान देश में बराबर हो गए हैं। ये किसी नेता का भाषण नहीं है। ये हैं नेशनल काउंसिल अॉफ अप्लाइड अकोनॉमिक रिसर्च यानी NCEAR की ताजा रिपोर्ट। ये रिपोर्ट साफ कहती है कि खर्च, आमदनी के मामले में हिंदू मुसलमान करीब-करीब बराबर खड़े हैं।हिंदू परिवार की औसत कमाई एक सौ अड़सठ रुपए रोज की है तो, एक मुसलमान परिवार की औसत कमाई भी एक सौ साठ रुपए हर रोज की है। यानी इस एक रिपोर्ट ने वो साफ किया है जो, आजादी के बाद से लगातार इस देश के सियासतदां गंदा करते जा रहे थे इस चक्कर में कि ये साफ हो गया कि हिंदु-मुसलमान एक जैसे हैं तो, हमारा क्या होगा। खैर मैं फिर से लौट रहाहूं इलाहाबाद हाईकोर्ट के उसी फैसले पर जिसमें एक बार मुसलमानों को अल्पसंख्यक न मानकर फिर से उसे लागू करने पर रोक लगा दी गई है। मेरी गुजारिश सिर्फ इतनी ही है कि अगर हिंदू-मुसलमान एक बराबर हैं तो फिर मुसलमानों को फिर से अल्पसंख्यक बनाकर क्या हासिल करने की कोशिश हो रही है। सियासत करने वाले तो ये समझेंगे नहीं - या यूं कहें कि समझते हैं इसीलिए मुसलमानों को अल्पसंख्यक ही रहने देना चाहते हैं। इसलिए जरूरत खुद मुसलमानों के समझने की है जिन्हें अल्पसंख्यक नाम का वोटबैंक बनाकर साठ सालों से सिर्फ कैश कराया जा रहा है।सियासत करने वालों की तरह हाईकोर्ट के फैसले के भी एक दिन में ही पलट जाने से तो, सब साफ समझ में आ ही जाता है। वक्त आ गया है कि मुसलमान ये चिल्लाकर बोले कि हमसिर्फ यूपी में नहीं पूरे देश में हिंदुओं के बराबर हैं अल्पसंख्यक नहीं । और, मेरी उन लोगों से गुजारिश से जो मुसलमानों के अल्पसंख्यक न होनेके फैसले को किसी और भावना से प्रेरित बताकर फिर से अल्पसंख्यक नाम के वोटबैंककी इमारत को मजबूत बनाना चाहते हैं।
हाईकोर्ट की तरह ये तो मैं भी मानता हूं कि मुसलमान होने का मतलब अल्पसंख्यक तो कम से कम नहीं ही है। हां, सबसे बड़ा वोट बैंक जरूर है। जिस पर खेल कभी इस खेमे से तो कभी उस खेमे से होता रहता है लेकिन, इसमें मददगार ऐसे लोग हो रहे हैंजो ये मानते है कि अल्पसंख्यक शब्द हटा तो मुसलमानों का बड़ा नुकसान हो जाएगा।
मेरा ये भी साफ मानना है कि अल्पसंख्यक होना मुसलमानों के लिए न तो कोई तमगा है न ही कोई ओहदा फिर उस खास स्टेटपर मुसलमान क्यों बने रहना चाहते हैं। जो, स्टेटस उन्हें कुछ देता तो, नहीं हां इसके चक्कर में वो देश में बराबर केभागीदार होने पर भी किनारे ख़ड़े रहते हैं। और, अल्पसंख्यक बनकर किसी न किसी पार्टी के वोटबैंक भर बनकर रह जाते हैं। यही वजह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट से मुसलमानों का अल्पसंख्यक होने का खास स्टेटस खत्म होने का फरमान निकला तो, मुसलमानों की हमदर्द बनने का दावा करने वाली सियासी पार्टियां हों या फिर मुसलमानों से ये खास स्टेटस छीनने को आतुर विहिप दोनों ही जल्दी से मीडिया के सामने आ गए।
मुसलमानों की हमदर्द सियासी पार्टियोंमें टीवी पर दिखने की जल्दी ये थी कि कहीं कोई और उनका ये दावा छीन न ले। और, विहिप की जुगत ये कि कहीं इस बारे में कुछ न बोलने से हिंदु हितों की रक्षा का उनका दावा बेकार सा होता दिखने लगे। इसीलिए फैसले पर बीजेपी ने खुशी जताई तो, यूपी चुनाव के ठीक पहले आए फैसले से कहींअल्पसंख्यक वोटबैंक खिसक न जाए इस डर से मौलाना मुलायम (इस विशेषण से वो शायद सबसे ज्यादा खुश होते होंगे।) इलाहाबाद हाईकोर्ट से अल्पसंख्यक होने का पुराना स्टेटस जल्दी से बहाल करवा लाए। ये स्टेटस न बहाल होता तो, शायद मायावती कुछ और कर गुजरतीं। लेकिन, इस सबमें नुकसान उस वोटबैंक का ही रहा है जिसे अल्पसंख्यक नाम से बुलाया जाता है और चुनाव के समय इसकी चिंता सियासी दलों को सबसे ज्यादा सताने लगती है।
दरअसल अल्पसंख्यक होना ही अपने आपमें वो शब्द है जिसे राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए वोटबैंक में तब्दील कर लेते हैं। ये फायदा आरएसएस-बीजेपी अल्पसंख्यकों (मुसलमान पढ़ें) के खिलाफ बोलकर और कांग्रेस, सपा, बसपा जैसी पार्टियां उसी खिलाफ बोले की खिलाफत में थोड़ी और आग डालकर। लेकिन, भला दोनों में से कोई भी नहीं कर रहा होता है। तो, फिर हम इस अल्पसंख्यक शब्द को क्यों पाल पोल रहे हैं। लेकिन, क्या सिर्फ अल्पसंख्यक शब्द हटाने से मुसलमानों का भला हो पाएगा। नहीं, जरूरत इस बात की है कि मुसलमानों को भी किसी तरह का खास स्टेटस देने के लिए मुसलमान होने के बजाएउनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति को ही आधार बनाया जाए।
इसके लिए आधार भी बढ़िया मिल गया है। हिंदू और मुसलमान देश में बराबर हो गए हैं। ये किसी नेता का भाषण नहीं है। ये हैं नेशनल काउंसिल अॉफ अप्लाइड अकोनॉमिक रिसर्च यानी NCEAR की ताजा रिपोर्ट। ये रिपोर्ट साफ कहती है कि खर्च, आमदनी के मामले में हिंदू मुसलमान करीब-करीब बराबर खड़े हैं।हिंदू परिवार की औसत कमाई एक सौ अड़सठ रुपए रोज की है तो, एक मुसलमान परिवार की औसत कमाई भी एक सौ साठ रुपए हर रोज की है। यानी इस एक रिपोर्ट ने वो साफ किया है जो, आजादी के बाद से लगातार इस देश के सियासतदां गंदा करते जा रहे थे इस चक्कर में कि ये साफ हो गया कि हिंदु-मुसलमान एक जैसे हैं तो, हमारा क्या होगा। खैर मैं फिर से लौट रहाहूं इलाहाबाद हाईकोर्ट के उसी फैसले पर जिसमें एक बार मुसलमानों को अल्पसंख्यक न मानकर फिर से उसे लागू करने पर रोक लगा दी गई है। मेरी गुजारिश सिर्फ इतनी ही है कि अगर हिंदू-मुसलमान एक बराबर हैं तो फिर मुसलमानों को फिर से अल्पसंख्यक बनाकर क्या हासिल करने की कोशिश हो रही है। सियासत करने वाले तो ये समझेंगे नहीं - या यूं कहें कि समझते हैं इसीलिए मुसलमानों को अल्पसंख्यक ही रहने देना चाहते हैं। इसलिए जरूरत खुद मुसलमानों के समझने की है जिन्हें अल्पसंख्यक नाम का वोटबैंक बनाकर साठ सालों से सिर्फ कैश कराया जा रहा है।सियासत करने वालों की तरह हाईकोर्ट के फैसले के भी एक दिन में ही पलट जाने से तो, सब साफ समझ में आ ही जाता है। वक्त आ गया है कि मुसलमान ये चिल्लाकर बोले कि हमसिर्फ यूपी में नहीं पूरे देश में हिंदुओं के बराबर हैं अल्पसंख्यक नहीं । और, मेरी उन लोगों से गुजारिश से जो मुसलमानों के अल्पसंख्यक न होनेके फैसले को किसी और भावना से प्रेरित बताकर फिर से अल्पसंख्यक नाम के वोटबैंककी इमारत को मजबूत बनाना चाहते हैं।
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