यह रविवार का मेरा नियमित स्तंभ है। मुझे कल्पना भी नहीं थी कि, रविवार को जब यह स्तंभ समाचार पत्र में छपेगा तो माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की हत्या तीन अपराधी पुलिस अभिरक्षा में कर देंगे। इसके बावजूद इस लेख का सन्दर्भ अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi
अतीक अहमद के बेटे असद अहमद की पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में झाँसी में मौत हो गई। असद के साथ ही पुलिस मुठभेड़ में एक और शूटर गुलाम मोहम्मद भी मारा गया। असद अहमद और, गुलाम मोहम्मद, दोनों ही उमेश पाल की हत्या के आरोपी थे, लेकिन यहाँ यह भी बार-बार बताना-कहना आवश्यक है कि, आरोप के साथ सीसीटीवी में असद अहमद और गुलाम मोहम्मद, उमेश पाल के साथ ही पुलिस के दोनों जवानों, राघवेंद्र सिंह और संदीप निषाद, पर गोलियाँ दागते साफ दिख रहे थे। इसलिए न्यायालय में भले ही असद अहमद और गुलाम मोहम्मद के आरोपों पर दलीलें न दी जा सकीं हों, जनता के सामने दोनों ही उमेश पाल की हत्या के दोषी हैं। इसके बावजूद झाँसी में उत्तर प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स के जवानों की हत्यारों के साथ हुई मुठभेड़ कई तरह के सवाल किए जा रहे हैं। जाहिर है, जनता की ओर सवाल कम ही हैं या ना के बराबर हैं। जनता को साफ दिख रहा है कि, आतंक का खात्मा उत्तर प्रदेश पुलिस ने किया है और, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में नेता विपक्ष अखिलेश यादव के सवाल के जवाब में कहा- माफिया को मिट्टी में मिला दूँगा- करके दिखा दिया। अब बहुतायत जनता यह मान रही है कि, योगी आदित्यनाथ के शासन में उत्तर प्रदेश पुलिस ने न्याय किया है, लेकिन नेताओं, पत्रकारों आदि का एक बड़ा समूह अचानक मानवाधिकार, आँख के बदले आँख से सब अंधे हो जाएँगे, न्यायालय का क्या होगा, संविधान का क्या होगा, ऐसे गंभीर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। कुछ अति बुद्धिजीविता का प्रदर्शन करते हुए कह रहे हैं कि, अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, पुलिस या सरकार को अपराधी को सजा देने का कोई अधिकार हमारा संविधान नहीं देता है। यह कहते हुए, ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी योगी आदित्यनाथ और, उत्तर प्रदेश की पुलिस को गलत तरीके से प्रस्तुत करने में लग गए हैं। आखिर, जनता और देश के नेताओं, पत्रकारों या तथाकथित बुद्धिजीवियों के न्याय का पैमाना इतना अलग क्यों है। इस पर अच्छे से चर्चा होनी चाहिए। सच यही है कि, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति पुलिस की कार्रवाई में किसी के मारे जाने के साथ नहीं खड़ा होगा। हर कानून पसंद, संविधान में भरोसा रखने वाला व्यक्ति यही चाहता है और, आगे भी चाहेगा कि, हर छोटे से छोटे और, बड़े से बड़े अपराधी को पुलिस पकड़कर न्यायालय के सामने प्रस्तुत करे। सरकार के निर्देशन में प्रशासन, पुलिस तथ्यों के साथ ऐसी घेरेबंदी करे कि, न्यायालय में अपराधी के सामने बच निकलने का कोई रास्ता न रह जाए, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सत्ता में बैठे नेताओं ने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपराधियों के छोटे ही नहीं बहुत बड़े अपराधों को भी नजर अंदाज ही नहीं किया, अपनी सत्ता सुरक्षित बनाए रखने के लिए उनके अपराध को पूरा संरक्षण भी दिया। एक हत्या के बाद भी जिस अपराधी को आजीवन कारावास होनी चाहिए थी, उस अपराधी के ऊपर एक बाद एक सैकड़ों अपराधिक मामले दर्ज होते हुए और, ऐसे अपराधी माननीय बन गए। जिस पुलिस के सामने अपराधी की पैंट गीली हो जानी थी, वही पुलिस माननीय सांसद/विधायक हो चुके अपराधी के सामने चिरौरी मुद्रा में खड़ी रहती थी। फिर, माननीय बन चुके अपराधियों ने सत्ता संरक्षण और सत्ता में हिस्सेदारी का ऐसा दुरुपयोग करना शुरू किया कि, संविधान का आत्मा कराहती रही, लेकिन किसी नेता, पत्रकार या तथाकथित बुद्धिजीवी तक संविधान की आत्मा के कराहने को सुनने को ही तैयार नहीं थे। संविधान की आत्मा के टूटने, कराहने की आवाज माननीय हो चुके अपराधी के अट्टहास में एकदम दब सी गई थी।
कमाल की बात यह भी थी कि, जनता पर ही सारा बोझ बेशर्म नेता डाल देते रहे। कहते रहे कि, आखिर जनता अपराधियों को चुनकर संसद/विधानसभा/पंचायत में क्यों भेजती है। तथाकथित बुद्धिजीवी, मानवाधिकारवादी यह चर्चा तो खूब करते रहे कि, आतंकवादियों से लेकर अपराधियों का मानवाधिकार होता है, लेकिन लोकतंत्र के मूल में जो लोग हैं, उनके मानवाधिकारों की बात गायब कर दी। अब जब जनता के मानवाधिकार चर्चा में ही नहीं रह गए तो सत्ता में बैठे लोग अधिक बेशर्मी के साथ अपराधियों को माननीय बनाने लगे और, जनता को भी धीरे-धीरे समझ आ गया कि, अब न्याय के लिए समझौता करना होगा और, वह समझौता भी अपराधी से माननीय बन गए नेता की चौखट पर होगा। हम मीडिया के लोगों ने भी जनता के डर का दोहन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी बल्कि, बढ़ावा ही दिया। मीडिया में अपराधी से माननीय बने नेताओं की रॉबिनहुड छवि छपने/दिखने लगी। हर चुनाव में दिल्ली से सेलिब्रिटी पत्रकार अपराधियों के चुनाव क्षेत्र में जाते और, असलहों, कारों के काफिले के साथ उन्हें दिखाते। आम लोगों की हत्या करके, जेल से आतंक का साम्राज्य चलाने वाले अब इतने मनबढ़ हो चले थे कि, पुलिस पर भी गोलियाँ चलाने में उनके हाथ नहीं काँपते थे। ऐसे जनता भी मानने लगी कि, जब सरकार से लेकर मीडिया तक अपराधियों का ही महिमा मंडन है और, कानून बनाने वाले वही बन गए हैं जो स्वयं अपराध, आतंक का साम्राज्य लोकतंत्र की आड़ में चला रहे हैं तो जनता के मन में ईश्वरीय/प्राकृतिक न्याय की इच्छा बलवती होने लगी। इतनी बलवती कि, गोली चलाने वाले अपराधियों पर पुलिस की गोली ही उसे न्याय लगे लगी, लेकिन बिना सत्ता के संरक्षण के पुलिस पर गोली चलाने वाले अपराधियों पर भी गोली चलाने का साहस पुलिस में नहीं था। अब लोकतंत्र में जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया और, सत्ता ही बदल दी। सत्ता में आने पर सरकार ने अपराधियों का संरक्षण करना बंद किया तो जनता को लगा कि, मताधिकार का सही उपयोग हुआ है और, सत्ता के संरक्षण में माननीय हुए अपराधियों का डर समाप्त होने लगा। न्यायालयों में अपराधियों को पुलिस पकड़कर ले जाती और, तथ्यों के आधार पर कानूनी दलील से ही अपराधियों को भारतीय कानून और, संविधान के तहत सजा मिलने लगी। बौखलाए अपराधी अपना तंत्र बिखरता देख रहे थे, अपराधियों ने आतंक फैलाने के लिए खुलेआम हत्याएं करना शुरू किया। कानून व्यवस्था दुरुस्त रहेगी, इसी भरोसे सत्ता में आए नेता के लिए यह खुली चुनौती थी। नेता ने चुनौती स्वीकार की और, विधानसभा में भरोसा दिया कि, माफिया को मिट्टी में मिला दूँगा। झाँसी में उत्तर प्रदेश स्पेशल टास्क फोर्स से मुठभेड़ में मारे गए असद अहमद और गुलाम मोहम्मद को आप इस परिदृश्य में रखकर देखिए तो आपको न्यायालय, संविधान की आत्मा, लोकतंत्र सब पुनर्जीवित होते दिख रहे हैं। जनता भी ऐसे ही देख रही है और, पुलिस मुठभेड़ में मारे गए शूटर गुलाम मोहम्मद की माँ भी। गुलाम मोहम्मद के परिवार वालों ने उसकी लाश लेने से इनकार कर दिया। गुलाम की माँ ने कहाकि, माँ का कलेजा है, लेकिन उसने जो किया, उससे बहुतों की माँ का कलेजा कटा होगा। गुलाम की माँ को भी न्याय हुआ दिख रहा है, लेकिन कुछ बेशर्म नेता, पत्रकार, तथाकथित बुद्धिजीवी लोकतंत्र में जनता का महत्व ही समाप्त करना चाहते हैं। अच्छी बात है कि, अब उनको जनता नकार दे रही है। जनता को न्याय की उम्मीद बढ़ रही है।
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