हर्ष वर्धन त्रिपाठी
राहुल गांधी ने लंदन में जाकर वही सब कह दिया, जो बात लगातार राहुल गांधी कह रहे हैं। कभी किसी रैली में, कभी कांग्रेस के आंतरिक कार्यक्रम में, कभी दुनिया भर के कुछ अर्थशास्त्रियों के साथ तथाकथित साक्षात्कार में, लेकिन इस बार राहुल गांधी कई कदम आगे बढ़ गए। देश विभाजन की भावना पक्की होती रहे, इसके लिए राहुल अतिरिक्त मेहनत करते हैं। भारत देश नहीं है, यह साबित करने में राहुल की अगुआई में पूरी कांग्रेस लगी हुई है। अब उन्होंने कह दिया कि, पूरे देश में केरोसिन छिड़का हुआ है, बस एक आग लगने की देर है। दरअसल, यह वस्तुस्थिति से अधिक राहुल गांधी की मन की बहुरी चबाने जैसा है। मन की बहुरी चबाना अवधी में प्रचलित है, इसका अर्थ है कि, कुछ अच्छा लग रहा है, उसे ही सोचकर प्रसन्न हुए जा रहे हैं। हालाँकि, राहुल गांधी को अवधी में प्रचलित शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियाँ शायद ही समझ आएँ और अब तो राहुल गांधी अमेठी से चुनाव भी हार चुके हैं, लेकिन राहुल गांधी की हरकतों और मनोदशा पर मुझे यह सटीक लगा। राहुल गांधी देश को विभाजित करने वाली भावनाएँ भड़काने और आग लगाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं और इसमें क्यों बारंबार असफल हो रहे हैं, इसे समझने के लिए पुराने सन्दर्भों को समझना होगा। दरअसल, कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद की कुर्सी पर औपचारिक तौर पर अभी तक कोई बैठ नहीं सका है। भले ही सोनिया गांधी ने यह कहा हो कि, वही अध्यक्ष हैं और सच भी यही है कि, कांग्रेस पार्टी की पूरी गतिविधि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही चला रहे हैं। यह दोनों जहां चाहते हैं, वहाँ प्रियंका गांधी वाड्रा की भी मदद लेते रहते हैं। यही सच है और सार्वजनिक भी है, लेकिन यह सब छिपा रहस्य भी है। छिपा रहस्य इसलिए कि, हर कोई जानता है कि, राहुल गांधी की औपचारिक तौर पर अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के लिए ही सारी रणनीति बनाई-बिगाड़ी जा रही है, लेकिन इस सबके बीच कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर बिना कुर्सी पर बैठे कांग्रेस की अध्यक्षी कर रहे राहुल गांधी क्या कर रहे हैं, इस पर देश में चर्चा अति आवश्यक है। 2019 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री चुनकर आए। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को 2014 के चुनावों से 21 लोकसभा सीटें अधिक मिलीं। देश की जनता ने भारतीय जनता पार्टी को 303 सीटें जिता दीं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली घटना थी, जब लगातार किसी नेता या पार्टी को इस तरह से पूर्ण बहुमत की सरकार जनता ने दोबारा बनाने का अवसर दिया हो। 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 282 सीटें मिलीं थीं। यहाँ यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि, 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने और 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के दौरान भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष भी बदला। 2014 लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने राजनाथ सिंह के नेतृत्व में लड़ा। उससे एक वर्ष पहले ही नितिन गडकरी 2010-13 तक तीन वर्षों के लिए भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे थे। 2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष से मोदी सरकार में गृह मंत्री बने और अध्यक्ष पद अमित शाह ने सँभाला। 2019 का लोकसभा चुनाव पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने लड़ा और 2019 के चुनाव परिणाम आने के बाद लंबे समय तक यह क़यास लगता रहा कि, अब अमित शाह अध्यक्ष रहेंगे या सरकार में जाएँगे। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि, भारतीय जनता पार्टी में लगातार दो कार्यकाल से अधिक अध्यक्ष की कुर्सी किसी एक नेता के हवाले करने का अपवाद ही बना हुआ है। अमित शाह भी 2014-17 और 2017-20, दो कार्यकाल भाजपा अध्यक्ष के तौर पर पूरा कर चुके थे और अमित शाह भी अपवाद नहीं साबित हुए। भारतीय जनता पार्टी ने जगत प्रकाश नड्डा के तौर पर अपना नया अध्यक्ष चुना लिया। अमित शाह सरकार में गृह मंत्री और बाद में नये बने सहकारिता मंत्रालय के मंत्री के तौर पर कार्य कर रहे हैं।
अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का प्रभाव देखिए। 2014 के चुनाव में सोनिया गांधी की अगुआई में कांग्रेस पार्टी को सीटें मिलीं सिर्फ़ 44 और 2019 का लोकसभा चुनाव जब सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी की अगुआई में लड़ा गया तो कांग्रेस को सीटें मिलीं 52 यानि राहुल गांधी की अगुआई में 8 अधिक सांसद कांग्रेस के लोकसभा में पहुँच गए। हालाँकि, इसके बावजूद यह संख्या इतनी छोटी थी कि, राहुल गांधी लोकसभा में नेता सदन बनने का साहस नहीं जुटा पाए। राहुल गांधी के संदर्भ में यह सिर्फ़ कम संख्या का मसला नहीं है। दरअसल, सार्वजनिक तौर पर यह तथ्य सबको पता है कि, राहुल गांधी लगातार संसद सत्रों में हाज़िरी नहीं दे सकते हैं, यही वजह है कि, विपक्ष के नेता के तौर पर सदन में उन्होंने स्वयं को नहीं चुना। गांधियों के संबंध में स्वयं को नहीं चुना ही अंतिम सत्य है। इसी स्वयं को नहीं चुना और चुन लिया, के बीच कांग्रेस पार्टी 2014 से 2019 बुरी तरह हारने के दौरान लटक रही है। 2019 हारने के बाद राहुल गांधी ने हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए कहा था कि, मैं भी नहीं और दूसरा गांधी भी नहीं। इससे पहली नजर में लगा कि, राहुल गांधी समझ गए हैं कि, कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर बुरी तरह असफल होने के बाद अब उन्हें अध्यक्षी का मोह छोड़ना ही होगा, लेकिन जब उन्होंने मैं भी नहीं और कोई गांधी नहीं कि, शर्त जोड़ दी तो समझ आया कि, प्रियंका को किसी भी सूरत में सोनिया और राहुल अध्यक्षी देने को तैयार नहीं हैं। शायद यही वजह रही होगी कि, दादी की नाक और इंदिरा गांधी से दूसरी कई समानताएँ खोजकर लाने वाली हर कोशिश के बावजूद प्रियंका को सोनिया गांधी ने अध्यक्षी नहीं सौंपी। पुत्रमोह का यह एक और सामान्य उदाहरण है। अब नये-पुराने सभी नेताओं को थका देने के बाद सोनिया गांधी ने फिर से कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी ही सदा सर्वदा योग्य हैं, की धारणा को मज़बूती से पुनर्स्थापित कर दिया है।
अब सोनिया गांधी और राहुल गांधी मिलकर निजी संपत्ति की तरह चल रही कांग्रेस पार्टी के कर्मचारियों का मनोबल तोड़कर कांग्रेस कंपनी का सीईओ अपनी मनमर्ज़ी का बनाने का दबाव बना सकते हैं, लेकिन देश की जनता किसी पार्टी की जागीर तो है नहीं और न ही किसी भी पार्टी की कर्मचारी। भारत के नागरिक, भारतवर्ष की समृद्ध, जीवंत लोकतांत्रिक परंपरा से पुष्पित, पल्लवित हैं, इसीलिए समय-समय पर निजी कंपनी के भाव वाले नेताओं को लोकतांत्रिक तौर पर दुरुस्त करते रहते हैं। जनता के इस दुरुस्तीकरण से कोई भी पार्टी बची नहीं है। किसी भी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत न देना ही दरअसल जनता की तरफ़ से किए जा रहे लोकतांत्रिक दुरुस्तीकरण अभियान की शुरुआत थी, लेकिन कांग्रेस पार्टी गठबंधनों की सरकार बनाती मस्त रही और कांग्रेस पार्टी को निजी कंपनी की तरह ही चलाती रही। दूसरी तरफ़ गठबंधन के ज़रिये ही सत्ता में आई अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी जनता के लोकतांत्रिक दुरुस्तीकरण अभियान को समझते हुए जनता का भरोसा जीतने के लिए हर संभव बदलाव पार्टी में कर रही थी। उसी दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जनता का भरोसा पूरी तरह जीतकर नरेंद्र मोदी सशक्त नेता के तौर पर स्थापित हो चले थे। सच यही था कि, 2004 के लोकसभा चुनाव में इंडिया शाइनिंग जैसे अभियान समय से पहले का नारा बन गए और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में शानदार निर्णय लेने वाली सरकार हार गई, लेकिन यहाँ यह तथ्य भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि, भाजपा को 138 और कांग्रेस 145 ही सीटें मिलीं थीं। कुल 8 लोकसभा सीटों का अंतर था। गठबंधन की सरकार फिर से कांग्रेस को मिल गई और कांग्रेस सत्ता का तंत्र चलाने की उस्ताद थी, इसलिए उसने सरकार बना ली और उसे अहसास ही नहीं रहा कि, कांग्रेस पर जनता का भरोसा लगातार गिरता जा रहा है। 2009 में लालकृष्ण आडवाणी के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री से प्रधानमंत्री बनने के मोह ने कांग्रेस को फिर से सत्ता में ला दिया और, कमाल की बात यह थी कि, फिर से कांग्रेस को सत्ता गठबंधन से ही मिल सकी। 2012 के बाद नरेंद्र मोदी ने गांधीनगर से दिल्ली की मज़बूत दावेदारी पेश करना शुरू कर दिया था। लंबे समय से असमंजस में पड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी लग गया था कि, भाजपा का नेतृत्व कमजोर हो जाने के अलावा और कोई वजह नहीं है कि, कांग्रेस सत्ता में आए। देश में राष्ट्रीय विमर्श की मज़बूती 1990 के आख़िरी दशक में सशक्त रूप में दिखने लगी थी। इसके बावजूद 10 वर्षों तक कांग्रेस का गठजोड़ के ज़रिये सत्ता में आ जाना सबको चौंका रहा था। संघ और भाजपा की हिचक टूटी तो देश ने पूर्ण बहुमत की सरकार 2014 में और फिर उससे भी प्रचंड बहुमत की भाजपा की सरकार 2019 में बना दी। विश्व की सबसे बड़ी त्रासदी कोविड हो या चीन की भारतीय सीमा में क़ब्ज़े की कोशिश, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने प्रमाणित किया कि, समर्थ, सशक्त भारत का स्व जाग्रत हो चुका है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्व मंचों पर भारत की प्रमाणिकता बढ़ी है। विश्व की हर समस्या के समाधान में भारत अग्रणी भूमिका में हैं। आतंकवाद से लेकर पर्यावरण की चुनौती से निपटने में हर देश भारत को आशा भरी नज़रों से देख रहा है। दुनिया की आर्थिक अव्यवस्था को भी व्यवस्थित करने का ज़िम्मा भी भारत के कंधों पर है। विश्व अर्थव्यवस्था की कमियों को दूर करके उसे सुधारने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की ही तरफ़ हर कोई टकटकी लगाकर देख रहा है। स्व जाग्रत होने की वजह से भारतीय नागरिकों को भारत के सन्दर्भ में हुआ यह सुखद परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिख रहा है। राहुल गांधी नेता के तौर पर बुरी तरह से असफल हो चुके हैं। कांग्रेस पार्टी लगभग गर्त में है। निजी कंपनी के तौर पर काम कर रही कांग्रेस पार्टी के कर्मचारियों का मनोबल बुरी तरह टूटा हुआ है। समर्थ कांग्रेसी अब भाजपाई बन चुके हैं या किसी क्षेत्रीय दल तक में जाने से परहेज़ नहीं कर रहे हैं। नेता, नीति और कार्यक्रम से कांग्रेस पार्टी में जान फूंकने की सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कोई भी रणनीति जनता में भरोसा नहीं पैदा कर पा रही है। इसीलिए अब राहुल गांधी आत्मघाती मुद्रा में हैं। विश्व मंचों पर देश की बदनामी करके भारतीयों का आत्मविश्वास कमजोर करना चाहते हैं। कांग्रेस से ही निकले क्षेत्रीय दलों का साथ राहुल गांधी को इसलिए मिल रहा है क्योंकि, क्षत्रपों को लगता है कि, जिस तरह से भारतवर्ष एक साथ खड़ा हो रहा है, राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर प्रतिक्रिया दे रहा है, उनका स्थान कम होता जाएगा, लेकिन राहुल गांधी और क्षत्रप एक बार फिर बुरी तरह असफल होते दिख रहे हैं।
(यह लेख आज दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर छपा है)
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