हर्ष वर्धन त्रिपाठी
पिताजी का घर-परिवार-गांव-समाज से अद्भुत लगाव रहा। लगाव ऐसा रहता था कि, लगकर रिश्ता निभाते थे। हमें भी अलग से ज्ञान दिए बिना रिश्ता निभाने, बनाने की अद्भुत सीख दे गए हैं। घर-परिवार-गांव-रिश्तेदार के साथ हमारी मित्र मंडली भी घर जैसी ही है। आज देश और दुनिया में भी हमारे जो मित्र हैं, हमसे बात करते पिताजी के बारे में अवश्य पूछते हैं। ऐसा इसीलिए हुआ क्योंकि, पिताजी एक बात बहुत दृढ़तापूर्वक हमारे ऊपर लागू करते थे कि, घर के बाहर खड़े-खड़े दोस्ती नहीं रहेगी। पहली बात तो हमारा मित्र है तो उसके बारे में, उसके घर-परिवार के बारे में पिताजी को पूरी जानकारी होनी चाहिए। पिताजी बहुत छोटी-छोटी बात लगातार पूछते रहते थे। हमारे जो भी मित्र घर आते थे तो हाज़िरी जैसा समझ लीजिए कि, पहले पिताजी से मिलकर तभी बात आगे बढ़ेगी। बहुत अच्छा मित्र किसी दिन आया और पिताजी से बिना मिले चला गया तो अगली बार मिलने पर उसकी क्लास लगना तय रहता था। यह हमारे सब मित्रों को पता चल गया था, इसलिए ऐसी गलती बहुत जल्दी सुधार लेते थे। हमारे लिए पिताजी का जाना जितना बड़ा भावनात्मक नुक़सान है, उससे क़तई कम हमारे मित्रों या हमारे घर के किसी भी सदस्य के मित्रों के लिए नहीं है। सब उतनी ही गहरी वेदना में हैं। बहुत से लोगों लोगों को यह भी लगेगा कि, अब कोई टोंकेगा नहीं, डाँटकर पूछेगा नहीं। कई मित्र सार्वजनिक जीवन में बड़े स्थानों पर पहुँच गए हैं, लेकिन पिताजी उनसे उसी तरह पूछते और कभी-कभी थोड़ा बहुत हड़का भी देते। मैं भले कभी उनके इस हड़काने से असहज हो गया, लेकिन मित्रों को कभी उनका हड़काना जरा सा भी बुरा नहीं लगा। बिना हाज़िरी लगाए जाते नहीं थे। घर के बाहर खड़े होकर या फिर स्कूटर-मोटरसाइकिल पर पृष्ठ भाग टिकाकर खड़े-खड़े बात करके दोस्त को बाहर से विदा करना क़तई स्वीकृत नहीं था। एक और बात थी कि, विश्वविद्यालय के दिनों में हमारे लिए निर्देश था कि, रात बाहर नहीं रुकना है। कहीं भी जाने पर कोई रोक नहीं थी और हमारे घर हमारे किसी दोस्त के आने पर रोक नहीं थी, लेकिन देर रात होने से पहले भोजन करके घर आए दोस्त को विदा करना तय था और हमें भी चाहे जितनी रात हो जाए, विदा लेकर घर आकर ही सोना था। उस समय नौजवानी के दिनों में कई बार चिढ़ भी होती थी कि, हम रात बाहर क्यों नहीं रुक सकते, लेकिन हर मित्र की घर में पिताजी से हर बात होती थी और, हमारे अधिकतर मित्र, हमारे घर जैसे ही हैं। हमारे पिताजी उनकी चिंता उसी करते थे, जैसे हमारी करते थे और डांटने-हड़काने में भी जरा सा भी रियायत नहीं देते थे।
घर आए मित्र को बिना भोजन जाने की स्वीकृति नहीं थी। हमारे मित्रों में आज भी चर्चा होती है कि, हर्ष के घर गए तो बिना पूड़ी सब्ज़ी खाए, लौट नहीं सकते। पिताजी भोजन कराने के लिए आफ़त तक कर देते थे। और, कई बार दोस्तों ने हमारे यहाँ बासी खाना भी खाया है। अम्मा ज़्यादा ही खाना बनातीं थीं। पिताजी की कई बार पूछकर खाना खिलाने की प्रवृत्ति उनके भी स्वभाव का हिस्सा बन गई है। और, यही परंपरा हमारे सभी भाइयों-बहनों के लिए है। हमारे सभी भाई-बहनों के मित्र हमारे घर में सबको जानते हैं और हम लोग भी मित्रों के घरवालों को भी उसी तरह से जानते हैं। कई बार लोग कहते हैं कि, हम अच्छे मित्र नहीं बना पाते। मित्रता में धोखा खाने की कहानियाँ भी लोग खूब सुनाते हैं। घर के दरवाज़े के बाहर खड़-खड़े दोस्त नहीं बनते। दोस्त हैं तो घर में आएगा, घर जैसा रहेगा, का मंत्र ख़राब लोगों के लिए छलनी का कार्य करता था। पिताजी का यह मंत्र हमारे लिए आज भी सर्वाधिक महत्व का है। हमने रिश्तों में धोखा नहीं खाया, दिया भी नहीं है। पिताजी के लिए रिश्ता एक बार बनता था। कोई रिश्ता नहीं भी निभा रहा है तो, उससे बिगाड़ करना पिताजी के स्वभाव में नहीं था। अब हम भी यही कोशिश करते हैं।
Accept my deep condolences.. May soul rest in peace. 🙏🙏
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