हर्ष वर्धन त्रिपाठी
केंद्रीय प्रधानमंत्री, केंद्रीय विदेश मंत्री या फिर केंद्रीय रक्षा मंत्री, ऐसी शब्दावली आपने कभी सुनी है क्या। नहीं सुनी क्योंकि जैसे प्रधानमंत्री देश में सिर्फ़ एक ही होता है और पूरे देश का होता है, वैसे ही विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री भी एक ही होता है और पूरे देश का होता है, इसीलिए केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों के बारे में बताते यह स्पष्ट करना ज़रूरी होता है कि बात देश के शिक्षा मंत्री यानि केंद्रीय शिक्षा मंत्री की हो रही है या फिर संबंधित राज्य के शिक्षा मंत्री की। प्रधानमंत्री पद की मर्यादा और साथ ही विदेश और रक्षा मामलों में भी मर्यादित व्यवहार का अपेक्षा संविधान के तहत सभी राजनीतिक दलों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों से भी की जाती है, लेकिन इस चाइनीज़ वायरस की महामारी के दौरान यह प्रश्न बड़ा हो गया है कि क्या विपक्षी नेता और राज्यों के मुख्यमंत्री संविधान के तहत तय विदेश और रक्षा मामलों पर अपना दायित्व निभा रहे हैं। इससे पहले भी चीन के साथ युद्ध जैसे हालात में यह स्थिति बनी थी और उससे भी पहले बालाकोट के मामले में भी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित विपक्षी नेता राहुल गांधी ने हमले का सबूत माँग लिया था। राहुल गांधी ने यह भी प्रश्न पूछ लिया था कि आख़िर पुलवामा हमले से किसको सीधा लाभ मिल रहा है। यह कहकर कठिन समय में देश में एक अविश्वास का वातावरण बनाने की कोशिश की थी। हालाँकि, सभी कोशिशों में विपक्ष की ही साख ख़राब हुई, अभी महामारी के दौरान सरकार को सलाह देने वाला एक ट्वीट करके दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस बात की आवश्यकता को फिर से रेखांकित कर दिया है कि एक बार संविधान सभा का आह्वान करके या फिर सर्वोच्च न्यायालयच में बड़ी खंडपीठ बनाकर विदेश और रक्षा मामलों में राज्यों के मुख्यमंत्रियों के संवैधानिक दायित्वों को तय किया जाए।
महामारी के दौरान राज्यों और केंद्र के अधिकार और दायित्वों को भी पुनर्परिभाषित किए जाने की सख़्त ज़रूरत दिखाई देती है। विशेषकर दिल्ली के मामले में हमने देखा कि कैसे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के साथ हुई बैठक को लाइव करके एक संदेश देने की कोशिश की कि हम तो दिल्ली के लोगों की ज़रूरत के लिए चिंतित हैं और केंद्र सरकार से गुहार लगा रहे हैं, लेकिन हमें दिल्ली के लिए ज़रूरी सुविधाएँ नहीं मिल पा रही हैं। यहाँ तक कि दिल्ली उच्च न्यायालय में ऑक्सीजन की कमी और दिल्ली की स्वास्थ्य सुविधाओं पर चली लंबी बहस में केंद्र सरकार को इस बात के लिए फटकारते हुए न्यायालय ने कहाकि कहीं से भी ऑक्सीजन की आपूर्ति कीजिए। बाद में तुलनात्मक अध्ययन करते तथ्य सामने आया कि दिल्ली में कम मरीज़ों के लिए 700 मीट्रिक टन ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ी जबकि मुम्बई में उससे ज्यादा मरीज़ों को 275 मीट्रिक टन ऑक्सीजन में ही बचा लिया गया। दरअसल, दिल्ली की सरकार ने केंद्र की तरफ़ से आठ ऑक्सीजन प्लांट की स्वीकृति के बाद भी उसे नहीं लगाया। भले ही महामारी अधिनियम लागू होने पर सारी शक्तियाँ केंद्र के पास चली जाती हैं, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को बनाने और उसे लागू करने का तंत्र तो राज्य सरकार के पास ही रहता है। इस महामारी में यह स्पष्ट तौर पर दिखा कि केंद्र और राज्य सरकारें एक दूसरे से तालमेल नहीं बैठा सकीं। इससे भी बढ़कर यह कि राज्यों ने पहले केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि उन्हें कुछ भी करने की छूट नहीं है, लेकिन जब राज्यों को सबकुछ तय करने की छूट दे दी गई तो उन्होंने कहाकि अच्छा हो कि, केंद्रीय स्तर पर कोई निर्णय लिया जाए। पहली लहर में नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय व्यवस्था के तहत देश भर में एक जैसे नियम लागू कराए और उसकी निगरानी भी प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय से होती रही, लेकिन एक बार लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद जब दूसरी लहर आई तो राज्यों ने अपने स्तर से सबकुछ तय किया और यह स्पष्ट दिखा कि उसके ठीक से अमल न होने से ही दूसरी लहर में भारत में ज़्यादा मुश्किलें दिखीं।
एक और बड़ी महत्वपूर्ण बात रही कि वैक्सीन बनाने की शुरुआत से ही ग़ैर भाजपा सरकारों के मुख्यमंत्रियों और विपक्षी नेताओं ने वैक्सीन को सीधे प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा से जोड़कर उसमें नुस्ख निकालना शुरू कर दिया। शुरुआती दौर में कांग्रेसी राज्य सरकारों ने कोवैक्सीन की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाने के साथ उन्हें लेने से इनकार कर दिया था और उत्तर प्रदेश में विपक्षी नेता पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने वैक्सीन का मज़ाक़ बनाते हुए इसे भाजपा की वैक्सीन बताकर इसके प्रति लोगों का भरोसा ख़त्म करने की कोशिश की थी। और, अब तीसरी लहर का हवाला देकर सिंगापुर की ओर उँगली उठाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ऐसा अनर्थ कर दिया कि भारत और सिंगापुर के रिश्ते पर प्रभाव पड़ता, लेकिन भला हो कि विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर ने बिना समय गँवाए यह कह दिया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री विदेशी मामलों पर बोलने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हैं। सिंगापुर के विदेश मंत्री विवियन बालाकृष्ण ने भी तुरंत जवाब दिया कि भारत और सिंगापुर मिलकर इस वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ते रहेंगे, ज़ब तक पूरी दुनिया इससे मुक्त न हो जाए। राजनयिक स्तर पर इससे नुक़सान नहीं हुआ। केंद्र सरकार की तेज़ी से बच गया, लेकिन सिंगापुर में रहने वाले भारतीयों पर इसका बुरा असर पड़ा है। भारतीय मूल के व्यक्ति के सिंगापुर में रेस्टोरेंट से दिए गए 200 ऑर्डर में से सिर्फ़ 20 ऑर्डर ही लेने लोग आए। अरविंद केजरीवाल के एक ट्वीट से कितना नुक़सान हुआ है, यह सिर्फ़ एक छोटा सा उदाहरण है। आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र और राज्य के संबंधों को लेकर स्वस्थ मन से चर्चा हो और पक्की लकीर खींची जाए। विश्व की तेज़ी से बदलती भूराजनैतिक परिस्थितियों में रक्षा और विदेश मामलों में राज्यों की लक्ष्मण रेखा तय करना बेहद ज़रूरी है।
(यह लेख https://hindi.moneycontrol.com/news/country/foreign-affairs-is-very-important-amid-covid-19-pandemic-center-and-states-should-be-fixed_266651.html पर छपा है।)
Very nicely laid down the subject n pointed out these buggers like Owl baba, jocker Akhilesh Yadav, Farziwaal n Opposition party who only serv the public via news channel n Papers Shame on these buggers n most of the Media houses
ReplyDeleteकेजरीवाल राजनीति को बदलने आए थे लेकिन यह देख कर बहुत दुख होता है कि केजरीवाल राजनीति के स्तर को बहुत नीचे ले गए। यह केवल देश के लोगों का ही नहीं बल्कि विदेशों में रह रहे भारतीय लोगों का विश्वास खत्म कर रहे हैं।
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