चीन का डर, भारत का अवसर बनेगा ?
चाइनीज
वायरस को पूरी तरह से खत्म होने में वक्त लगेगा, लेकिन इस वायरस का प्रकोप खत्म
होते पूरी विश्व संरचना बदल जाएगी। इसमें भारत की भूमिका भी बदल सकती है, बेहतर हो
सकती है, लेकिन प्रश्न है कि क्या हमारी नीतियां और उन्हें लागू करने में तेजी
भारत को पुन: विश्व
गुरु का दर्जा दिला पाएंगी। 3 मई को जब देशबंदी का दूसरा चरण समाप्त होगा, उसके बाद भारत सरकार और
राज्य सरकारें विश्व निवेशकों को क्या सकेंते देंगे, उसी से तय होगा कि भारत इस
ऐतिहासिक अवसर का कितना लाभ उठा पाएगा। हालांकि, इस बात का अन्दाजा भारत सरकार को
भी बहुत अच्छे से है। केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग और सूक्ष्म, लघु और मध्यम
उद्योग मंत्री नितिन गडकरी कह रहे हैं कि वायरस के बाद चीन के प्रति दुनिया भर के
अविश्वास का लाभ भारत को उठाना चाहिए। उन्होंने यह भी भरोसा जताया है कि
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारत सरकार इस अवसर का लाभ उठाने में
कामयाब होगी। भारत सरकार में मंत्री होने के नाते नितिन गडकरी की यह सदिच्छा
स्वाभाविक दिखती है और देश भी इसी तरह से देख रहा है कि चीन से कंपनियां जब बाहर
निकलेंगी तो उनका स्वाभाविक ठिकाना भारत होगा। ताजा यूबीएस मार्केट रिपोर्ट के
मुताबिक चीन से बाहर जाने वाली कंपनियों के लिए भारत सर्वाधिक उपयुक्त स्थान हो
सकता है। यूबीएस ने 500 बड़ी कंपनियों के बड़े अधिकारियों से बातचीत के आधार पर यह
रिपोर्ट जारी की थी। इसका सीधा सा मतलब समझा जा सकती है कि सिर्फ भारत सरकार या
उनके मंत्री ही नहीं, दुनिया भर की एजेंसियां यह मान रही हैं कि चीन से बाहर
निकलने की इच्छा रखने वाली कंपनियों के लिए भारत सर्वोत्तम स्थान हो सकता है,
लेकिन सिर्फ इस तरह की सद्भावना रिपोर्ट से निवेश नहीं आता है। चीन जैसे देश से
कंपनियां अपनी मैन्युफैक्चरिंग इकाई भारत लेकर आएं, इसके लिए सबसे जरूरी है कि
भारत की सरकार चीन में निर्माण इकाई लगाने वाली कंपनियों की एक रिपोर्ट तैयार करते
कि आखिर किन वजहों से यह कंपनियां चीन में जमी हुई हैं। सस्ता श्रम और नीतियों में
एकरूपता के मुकाबले में भारत चीन से प्रतिस्पर्धी हो चुका है, लेकिन क्या दूसरे
मानकों पर भारत सरकार के विदेश और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने ऐसी कोई
रिपोर्ट तैयार की है, इसका जवाब फिलहाल नहीं में ही दिख रहा है और यहीं पर आकर यह
समस्या बड़ी होती दिखती है कि भावनात्मक सद्भावना रिपोर्ट से चीन से बाहर निकलने
वाली कंपनियां भारत में कैसे आएंगी।
अमेरिका
और चीन के बीच कारोबारी युद्ध के दौरान ही अमेरिकी, जापानी और दक्षिण कोरियाई
कंपनियां चीन से बाहर निकलने की तैयारी करने लगीं थीं। उसी समय भारत सरकार को यह तैयारी
युद्धस्तर पर करना चाहिए था, लेकिन भारत सरकार इस काम में फिलहाल सफल नहीं हो सकी
है। निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने
राजनयिक स्तर पर अमेरिकी, जापान, दक्षिण कोरिया और दूसरे देशों के साथ संबंध इतने
बेहतर किए हैं कि सद्भावना के तहत इन देशों की कंपनियों की पहली प्राथमिकता भारत
हो सकता है, लेकिन जैसा मैंने पहले कहाकि बड़ी कंपनियां सद्भावना रिपोर्ट के आधार
पर अपना निवेश एक देश से दूसरे देश में नहीं ले जाती हैं। खासकर, चीन से कंपनियों
को अपनी निर्माण इकाई दूसरे देश में ले जाना ज्यादा मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि
चीन में कंपनियों ने भारी निवेश कर रखा है। इस उहापोह के बीच ज्यादातर कंपनियां
अमेरिका और चीन के कारोबारी युद्ध के दौरान योजना ही बनाती रहीं, लेकिन विश्वव्यापी
चाइनीज वायरस के फैलाव के बाद सभी बड़ी कंपनियों ने अपनी निर्माण इकाइयां चीन से
बाहर ले जाने के बारे में सोच रही हैं। सच्चाई यह भी है कि चीन में स्थापित कई
विदेशी कंपनियां भारतीय कंपनियों से बात कर रही हैं। दक्षिण कोरिया, जापान और
अमेरिका की कंपनियां दूसरे देशों पर भारत को प्राथमिकता दे रही हैं, लेकिन भारत
सरकार को इसके लिए आक्रामक नीति तुरन्त लागू करने की जरूरत है। टेलीडाइन, एम्फीनॉल
और जॉनसन एंड जॉनसन जैसी कंपनियां अपना कारोबार चीन से समेटना चाह रही हैं। अमेरिका
और चीन के बीच कारोबारी युद्ध की चपेट में आने से बचने के लिए जापानी कंपनियां
रीको, सोनी और एसिक्स पहले ही चीन से बाहर अपनी उत्पादन इकाई ले जाने की योजना बना
रही थीं और चाइनीज वायरस के संक्रमण के बाद जापान सरकार की 2.2 बिलियन डॉलर के
प्रस्ताव ने दूसरी जापानी कंपनियों को भी चीन से बाहर निकलने के लिए तैयार कर लिया
है, लेकिन मुश्किल वही है कि क्या इस अवसर का लाभ भारत पूरी तरह से उठा पाएगा या फिर
नोमुरा की रिपोर्ट में दिख रहा संकट भारत की हानि बढ़ने वाला है। अब जरा कुछ तथ्य
देखिए, चाइनीज वायरस के प्रकोप से पहले ही बीते जुलाई रीको ने प्रिंटर उत्पादन
इकाई को चीन शेनझेन से थाईलैंड में ही शिफ्ट कर दिया था। नाइके वियतनाम और थाईलैंड
के साथ भारत भी आने की संभावना तलाश रही है। तिमाही नतीजों का एलान करते पैनासोनिक
के CFO हीरकाजू
उमेडा ने स्पष्ट किया था कि उनकी कंपनी चीन से बाहर जाने की संभावना तलाश रही है। भारी
खर्च के बावजूद जापानी कार कंपनी माजदा ने चीन के जियांगसू से अपना उत्पादन
मेक्सिको के गुआनजुआटो इसी महामारी के बीच ही शिफ्ट कर लिया है। और, यह सब इसके
बावजूद हो रहा है कि भारत सरकार ने मेक इन इंडिया के तहत विदेशी कंपनियों को भारत
में लाने के लिए कॉर्पोरेट टैक्स 35 प्रतिशत से घटाकर 25.17 प्रतिशत कर दिया
है। कई मामलों में तो यह 22 प्रतिशत तक और नई कंपनियों के मामले में 15 प्रतिशत से
कुछ ही ज्यादा है।
भारत को
एक और बड़ा लाभ सभी देशों के मुकाबले यह भी है कि भारत ऐसा मैन्युफैक्चरिंग हब बन
सकता है, जहां उत्पादन की खपत भी पूरी हो सकती है, दुनिया का सबसे बड़ा बाजार भी
यहीं मौजूद है। चीन के बाद भारत के पास ही इस तरह का बाजार है, लेकिन इस सबके
बावजूद वियतनाम, मलेशिया, ताइवान और थाईलैंड भारत से बाजी मार ले जा रहे हैं तो
इसका सीधा दोष सरकारी नीतियों को लागू करने में शिथिलता पर ही जाएगा। चीन से ढेर
सारी कपनियां बाहर निकलने की कोशिश कर रही हैं। कंपनियों ने चीन में इतना भारी
निवेश कर रखा है कि एक साथ वहां से निकलना संभव नहीं, इसलिए कंपनियां दूसरे देशों
में अपना छोटी-बड़ी आधार इकाई लगा रही हैंस जिससे उन्हें चीन से अपना कारोबार पूरी
तरह समेटने में आसानी हो। फिलहाल शुरुआती इकाई लगाने के लए चीन से निकलने वाली
कंपनियां भारत पर वियतनाम, मलेशिया, सिंगापुर को चुन रही हैं। भारत की प्राथमिकता
थाईलैंड और फिलीपींस जैसे देशों से बस थोड़ा ही ऊपर है। नोमुरा ने चीन से बाहर
जाने वाली कंपनियों पर एक अनुमान लगाया है। नोमुरा प्रोडक्शन रीलोकेशन इंडेक्स 3
पैमाने पर बना है। पहला- चीन की ही तरह जिस देश से दुनिया भर में निर्यात किया जा
सके, दूसरा- बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुणवत्ता सर्वेक्षण और तीसरा विदेशी निवेश FDI आकर्षित करने में
नोमुरा के सूचकांक में स्थिति। इन तीनों पैमानों पर अगर कंपनियों को चीन से निकलना
पड़ा तो उनकी पहली पसंद वियतनाम है, उसके बाद मलेशिया, सिंगापुर और भारत का स्थान
आता है।
भारत
सरकार उम्मीद कर रही थी कि चीन से आने वाली ज्यादातर कंपनियों के लिए पहली पसंद
भारत बनेगा, लेकिन नोमुरा की रिपोर्ट इसके ठीक उलट बता रही है। नोमुरा ने चीन से बाहर
जा रही 56 कंपनियों पर रिपोर्ट बनाई है और इसके मुताबिक 26 कंपनियां वियतनाम जा
रही हैं, इसके बाद 11 कंपनियां ताईवान और 8 कंपनियां थाईलैंड संभावनाएं तलाश रही
हैं, 56 में से सिर्फ 3 कंपनियां भारत आ रही हैं। वियतनाम को चीन के जैसे वातावरण
का भी लाभ मिल रहा है। लेकिन यह प्रश्न बड़ा हो रहा है कि क्या कम्युनिस्ट शासन
वाले चीन से कंपनियां कम्युनिस्ट शासन वाले वियतनाम, इस्लामिक देश या फिर राजशाही
वाले थाईलैंड में जाना पसंद कर रही हैं जबकि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था में
ढेर सारे आर्थिक सुधार हुए हैं। वियतनाम भी कम्युनिस्ट देश है और घोषित तौर पर
समाजवादी नीतियों वाला देश होने के बावजूद तेजी से पूंजीवादी नीतियों को आगे बढ़ा
रहा है। CCP यानि
चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी की तरह वियतनाम में CPV
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ वियतनाम का शासन है। ताइवान
को वन चाइना पॉलिसी के तहत अपना हिस्सा मानता है हालांकि ताइवान चीन से संघर्ष कर
रहा है और अमेरिका के साथ है। मलेशिया इस्लामिक देश है। इतनी विसंगतियों वाले देश
अगर पूर्ण बहुमत की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के शासन वाले भारत पर
भारी पड़ रहे हैं तो यह चाइनीज वायरस के खात्मे के बाद बदली विश्व परिस्थितियों
में अच्छा संकेत नहीं होगा। आरसीईपी से भारत के बाहर निकलने की घरेलू उद्योगों की
चिंता के अलावा एक बड़ी वजह यह भी थी कि चीन, वियतनाम और दूसरे देशों के जरिये
अपना औद्योगिक उपनिवेश स्थापित कर सकता है। चीन से बाहर निकलने वाली करीब आधी कंपनियां
अगर वियतनाम के रास्ते जा रही हैं तो यह लगभग वही स्थिति हो जाएगी। नोमुरा की रिपोर्ट स्पष्ट बता रही है कि भारत
सरकार को अपनी नीति बनाने और उसे लागू करने में देर नहीं करनी चाहिए वरना उसे बड़ी
हानि हो सकती है।
अभी चीन से बाहर निकलने वाली कंपनियां अगर भारत नहीं आ रही हैं तो उसकी एक
बहुत बड़ी वजह यह भी है कि चीन से निकलने वाली कंपनियां भारतीय कंपनियों से बात
करती हैं तो पता चल रहा है कि फिलहाल यहां कारोबार कब शुरू होगा, इसके बारे में
कोई स्पष्टता ही नहीं है। इसलिए जरूरी है कि सरकार, चीन से बाहर निकल रही कंपनियों
को भारत लाने के लिए बात करते हुए, देश में कारोबार को चरणबद्ध तरीके से शुरू करे।
चाइनीज वायरस के बाद बदलते विश्व में भारत को ऐतिहासिक अवसर मिल रहा है, यह अवसर
चूके तो हम कभी विश्व गुरू थे, यह बताएंगे और यह अवसर चुनौती की तरह लेकर अपने
पक्ष में कर लिया तो विश्व गुरू भारत को दुनिया मान लेगी। इस ऐतिहासिक अवसर को
भारत के पक्ष में कैसे बदलना है, इसकी योजना बनाकर लागू करने के लिए ही जनता ने
प्रचण्ड बहुमत से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर चुना है।
सारगर्भित आलेख।
ReplyDeleteधन्यवाद
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