शुक्रवार को अमेरिकी शेयर बाजार जब बंद होने की तरफ बढ़ रहे थे। तो, दुनिया की जानी-मानी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी एस एंड पी यानी स्टैंडर्ड एंड पुअर के दफ्तरों में हलचल बढ़ गई। खबरें जो, निकलकर आईं कि दरअसल अमेरिकी कर्ज संकट को सुलझाने के लिए रेटिंग एजेंसी के तय फॉर्मूले के गणित में थोड़ी गड़बड़ हो गई थी। जिसकी वजह से कर्ज की सीमा बढ़ाने और खर्च घटाने के अमेरिकी सरकार की योजना के आधार पर अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग एएए प्लस पर ही बनी रही। लेकिन, शुक्रवार को अमेरिकी बाजार बंद होने से पहले ही स्टैंडर्ड एंड पुअर ने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की साख पर संदेह खुलेआम जाहिर कर दिया। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने अमेरिकी क्रेडिट रेटिंग एएए प्लस से घटाकर एए प्लस कर दिया। और, उस पर भी रेटिंग एजेंसी ने इसे निगेटिव आउटलुक के साथ जारी किया है। इसका मतलब ये हुआ कि अगले 12 से 18 महीने में एक बार फिर से अमेरिका की रेटिंग घटने का खतरा है। और, अमेरिकी रेटिंग का घटना इसलिए भी ऐतिहासिक है कि ये रेटिंग एजेंसी के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार हुआ है।
अब सवाल ये है कि इस रेटिंग के घटने को अमेरिकी अर्थव्यवस्था और दुनिया के लिए कितने बड़े खतरे के तौर पर देखा जाना चाहिए। दरअसल अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए ये झटका 2008 में आई मंदी से भी बड़ा है। उसकी वजहें भी साफ हैं। 2008 में जो, मंदी आई थी उसमें अमेरिकी सरकार की साख को बट्टा नहीं लगा था। उस वक्त भी रेटिंग एजेंसियों ने अमेरिका की एएए प्लस की रेटिंग नहीं घटाई थी। क्योंकि, उस मंदी की वजह अमेरिका के रियल एस्टेट सेक्टर और खराब कर्जों को नए तरीके से पैकेजिंग करके बेचकर ज्यादा मुनाफा कमाने का बैंकों का लालच था। लेकिन, इस बार मामला ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि, इस बार तो, सरकारी खजाना ही खाली है। पिछली मंदी में बैंक दिवालिया हुए थे, इस बार तो, सरकार दिवालिया होती दिख रही है। सरकारी बिल के भुगतान में दिक्कत है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिकी कंगाली दुनिया के सामने खुलने का डर दिखाकर कर्ज लेने की सीमा बढ़ाने वाले बिल पर रिपब्लिकन और डेमोक्रैट्स दोनों को एक साथ आने के लिए मना लिया। लेकिन, अमेरिका की जो, योजना है खर्च घटाने की वो, दरअसल अभी भी संदेह के घेरे में है। वैसे तो, अमेरिका ने अगले दस सालों में वित्तीय घाटा 2.1 ट्रिलियन डॉलर घटाने का प्रस्ताव पारित किया है जो, 4 ट्रिलियन डॉलर से काफी कम है। लेकिन, 2.1 ट्रिलियन डॉलर घटाने की भी जो, योजना है वो, संदेह के घेरे में है।
ये संदेह बाजार में बवाल बनकर उभर रहे हैं। अमेरिकी शेयर बाजारों के लिए बीता हफ्ता पिछले दो सालों का सबसे खराब हफ्ता साबित हुआ है। अमेरिकी शेयर बाजार का एसएंडपी 500 सूचकांक पिछले दस कारोबारी दिनों में करीब ग्यारह प्रतिशत गिरा है। अमेरिका गिरा तो, पीछे-पीछे सारे यूरोपीय, एशियाई बाजार भी धड़ाम हो गए। अमेरिका का अपना बुरा हाल और उस पर यूरोप का बढ़ता कर्ज संकट। कुल मिलाकर एक बार फिर दुनिया भर के अर्थशास्त्री ये आशंका जताने लगे हैं कि अमेरिका फिर से मंदी के मुंह में जा रहा है। यस वी कैन का नारा देकर अमेरिकी बदलाव का प्रतीक बन गए बराक ओबामा के भाषणों का नशा अमेरिकी जनता के दिमाग से खत्म हो गया है।
मंदी से बाहर आए अभी अमेरिका को करीब साल का ही समय बीता है कि फिर से मंदी का भूत व्हाइट हाउस की छत पर मंडराने लगा है। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के पांव उखड़ने लगे हैं। इस वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में अमेरिका की जीडीपी सवा परसेंट (1.3%) से भी कम बढ़ी है। हालांकि, पहली तिमाही से हालात सुधरे हैं। पहली तिमाही में अमेरिका की जीडीपी आधा परसेंट (1.3%) से भी कम बढ़ी है। अगर पहले छे महीने का हाल देखें तो, ये बढ़त मंदी के बाद रिकवरी की शुरुआत यानी जून 2009 के बाद सबसे कम है।
अर्थशास्त्रियों को डर है कि अमेरिका फिर से मंदी के मुंह में जा सकता है। और, अमेरिकी मंदी का मतलब हुआ- दुनिया भर में मंदी के बादल छाने का खतरा। क्योंकि, GDP की रफ्तार घटने से दूसरी तिमाही में GDP $13.27 ट्रिलियन रह गई है। ये आंकड़ा इसलिए भी डरा रहा है कि मंदी के ठीक पहले यानी 2007 की आखिरी तिमाही में अमेरिका की कुल जीडीपी $13.33 ट्रिलियन डॉलर ही थी। ये आंकड़े साफ बता रहे हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अब लगा कोई भी एक धक्का इसे सीधे मंदी के मुंह में धकेल देगा।
और, वो धक्का लगता दिख रहा है अमेरिका के खाली सरकारी खजाने की वजह से। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अमेरिका की कंगाली का वास्ता देकर अमेरिकी सीनेट से कर्ज लेने की सीमा तो बढ़वा ली। लेकिन, जानकार इसे कुछ समय की ही राहत मान रहे हैं। इसके अलावा भी बहुत से ऐसे कारण फिर से उभर रहे हैं जो, अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फिर से मंदी की तरफ खींच रहे हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में पिछली तिमाही में जो, झटका लगा है। उसकी सबसे बड़ी वजह है अमेरिकियों ने अपने खर्चे घटा दिए। दरअसल, अमेरिका की पूरी अर्थव्यवस्था खर्च पर ही चलती है। खर्च करने पर ही अर्थव्यवस्था का सत्तर प्रतिशत निर्भर करता है। और, खर्च करने में माहिर माने जाने वाले अमेरिकियों ने घर, गाड़ी हो या फिर दूसरी रोज के इस्तेमाल की जरूरी चीजें- सबकुछ खरीदने में कंजूसी दिखाई है। पिछली तिमाही में अमेरिकियों ने सिर्फ 0.1 प्रतिशत घर ज्यादा खरीदे। ये अप्रैल-जून 2009 की तिमाही के बाद सबसे कमजोर बढ़त है। मंदी के संकेत कार और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स की खरीद के आंकड़ों में भी दिखने लगे हैं। पिछली तिमाही में अमेरिकियों ने करीब साढ़े चार परसेंट (4.4%) कम गाड़ियां और टीवी, फ्रिज खरीदे। दरअसल, अमेरिकियों की जेब में इतने पैसे ही नहीं बच रहे हैं कि वो, खर्च कर सकें। अमेरिकियों का फूड और एनर्जी का बिल बहुत बढ़ गया है। इसलिए खाने और आने-जाने पर खर्च के अलावा दूसरे खर्चों में अमेरिकियों को कटौती करनी पड़ी। मई महीने में गैसोलीन का एक गैलन 4 डॉलर महंगा हो गया। ये बढ़त पिछले तीन सालों में सबसे बड़ी है।
2008 की मंदी के पहले तक दुनिया में भारी जेब और नौकरी के बूते सबसे खुशहाल दिखने वाले अमेरिकी बेरोजगार हो रहे हैं। जिस अमेरिका में माना ये जाता था कि जिसे नौकरी चाहिए उसे मिलेगी। यहां तक कि दुनिया तो, ये समझती थी कि अमेरिकी 6 महीने नौकरी करके 6 महीने मौज में बिताते हैं। अब वो अमेरिका बदल गया है। नौकरियां गायब हो रही हैं। जून में बेरोजगारी की दर चढ़कर करीब दस प्रतिशत पर पहुंच गई। 8 जुलाई को अमेरिकी लेबर डिपार्टमेंट के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि जून महीने में सिर्फ 18000 लोगों को नौकरी मिली। उस पर निराशाजनक बात ये है कि बड़ी-बड़ी अमेरिकी कंपनियों ने छंटनी का प्लान तैयार कर रखा है। अमेरिका की दूसरी सबसे बड़ी दवा कंपनी मर्क एंड कंपनी 2015 तक करीब 13000 कर्मचारी घटाएगी। सिस्को 6,500 लोगों को बाहर करेगी। LMT ने 6500 कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवत्ति लेने का प्रस्ताव दिया है। गोल्डमैन भी एक हजार लोगों को निकालेगी।
दुनिया में बढ़ती कमोडिटी कीमतों ने अमेरिकियों की कमर तोड़ दी है। दुनिया की सबसे बड़ी स्नैक-फूड बनाने वाली कंपनी पेप्सिको ने पहले ही कह दिया है कि इस साल मुनाफा पहले के अनुमान से कम होगा। वजह वही कि कमोडिटी की कीमतें बढ़ी हैं। और, कंज्यूमर की तरफ से कोई मांग नहीं है। कुल मिलाकर दुनिया के दादा का दम फूलता दिख रहा है। और, उसका बुरा असर दुनिया पर कुछ वैसे ही होता दिख रहा है जैसे, किसी बड़े जमींदार के दिवालिया होने की खबर से गांव में सुख चैन से दो जून की रोटी खाने वाले भी डर जाते हैं कि क्या होगा। भारत में भी निवेशकों को समझ में नहीं आ रहा कि वो क्या करें। अमेरिका की ये बदहाली विश्व अर्थव्यवस्था में अमेरिका, यूरोप की अगुवाई से एशिया की अगुवाई का मौका बनता दिख रहा है। लेकिन, मुश्किल यही है कि पिछले दो ढाई सालों में कुप्रबंधन की मिसाल बन चुकी हमारी सरकार क्या इसे मौके के तौर पर देखती है। क्योंकि, अर्थव्यवस्था में अगुवा सिर्फ बयानबाजी से नहीं बना जा सकता।