Friday, December 25, 2009

दलित-ब्राह्मणवाद को रामबाण बनने से रोकना होगा

ये नए तरह का मनुवाद है। इसको नए तरह का ब्राह्मणवाद भी कह सकते हैं। फर्क बस इतना है कि इस ब्राह्मणवाद का कवच दलित होने पर ही मिलता है। ये दलित ब्राह्मणवाद इतना अचूक नुस्खा हो गया है कि बस एक बार हुंकारी लगाने की जरूरत है फिर पीछे-पीछे लाइन लग जाती है। पुराना ब्राह्मणवाद धर्म के पाप लगने से डराता था और अपने पापों को छिपा ले जाता था तो, ये नया दलित ब्राह्मणवाद वोटबैंक खो जाने जैसे पाप का डर राजनीतिक पार्टियों को दिखाता है यही वजह है कि मायावती को खुद के राज में असल दलितों पर अत्याचार भले ही चिंतित नहीं करता लेकिन, आज के लिहाज से ब्राह्मण में तब्दील हो चुके कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के भ्रष्टाचार के खिलाफ महाभियोग के प्रस्ताव में एक दलित के खिलाफ साजिश की बू आने लगती है।
मायावती ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर कहा है कि जस्टिस दिनकरन को बिना मौका दिए महाभियोग का प्रस्ताव लाना गलत है और वो इसके खिलाफ आवाज उठाएंगी। ये दलित नाम का न चूकने वाला नुस्खा ही है कि एक दलित कांग्रेसी सांसद की अगुवाई में सभी दलों के दलित सांसद अचानक दिनकरन के पक्ष में खड़े हो गए हैं। दिनकरन तो पहले से ही चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि दलित होने की वजह से मुझे फंसाया जा रहा है। दिनकरन कह रहे हैं कि उन पर जमीन घोटाले का आरोप तब लगाया गया जब उनके सुप्रीमकोर्ट में जज बनने की बात आई। लेकिन, सवाल ये है अगर दलित होने की वजह से उनके खिलाफ साजिश रचने वाली ब्राह्मणवादी ताकतें इतनी मजबूत हैं तो, उनके कर्नाटक हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनने में अड़ंगा क्यों नहीं लगाया।
ऐसे में ये दिनकरन और दूसरे दलित से ब्राह्मण बन चुके लोगों की दलित-ब्राह्मणवाद की आड़ में भ्रष्टाचार जैसे आरोप को कमजोर करने की कोशिश ज्यादा लगती है। वरना भ्रष्टाचार के आरोप निराधार हैं तो, जस्टिस पी डी दिनकरन आरोपों को भारतीय संविधान के दायरे में खारिज करने की कोशिश क्यों नहीं करते। लॉबी बनाकर ब्राह्मण की श्रेणी में आ चुके दलितों की लामबंदी में क्यों जुटे हैं। दलित सांसदों, मुख्यमंत्रियों और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन बूटा सिंह तक का ये कहना कि दिनकरन पर ऐसे आरोप सिर्फ इसलिए लग रहे हैं कि वो, दलित हैं- ये बात कुछ हजम नहीं हो रही है। अब अगर बूटा सिंह साहब लगे हाथ ये भी याद कर लेते कि सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस बालाकृष्णन साहब कौन सी जाति के हैं तो, अच्छा रहता।
हाल ये हो गया है कि ये दलित-ब्राह्मणवाद ऐसा रामबाण हो गया है कि बस नाम भर ले लो फिर किसी की क्या मजाल जो, कुछ हमला करने की हिम्मत कर सके। अपराध करो, भ्रष्टाचार करो- कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। बेचारे सचमुच के दलितों से लेकर जाति में दलित लगाए महासवर्णों तक आपके साथ खड़े हो जाएंगे और जिनके जाति के आगे दलित नहीं लगा है वो, इस डर से विरोध नहीं करेंगे कि दलित विरोधी होने का ठप्पा न लग जाए। और, सच में दलित स्थिति में रह रहे दलित के दर्द की आवाज इस तमाशे के शोर में दब सी जा रही है।
इसीलिए, जरूरी है कि दलित-ब्राह्मणवाद नाम के इस मंत्र को रामबाण बनने से रोका जाए। क्योंकि, असल दलित तो अपना हक पाने की लड़ाई लड़ते-लड़ते आज भी अपनी स्थिति बहुत कम सुधार पाए हैं। लेकिन, मायावती और जस्टिस पी डी दिनकरन जैसे दलित ब्राह्मण नए तरह के दलित तैयार करने में कामयाब हो जाएंगे। वैसे ज्यादा समय इस बात को भी नहीं हुआ है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन बूटा सिंह ने एक बिल्डर से करोड़ो की धोखाधड़ी के मामले में बेटे की गिरफ्तारी पर सीबीआई के खिलाफ ही दलित होने के रामबाण का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे थे। इस नए रामबाण को अचूक होने से रोकना होगा नहीं तो, जाने कितने भ्रष्टाचार, गंदगियां और जाने कितनी दूसरी बुराइयों की ये ढाल बन जाएगा।

10 comments:

  1. सहमत हूं आपसे ।।

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  2. और, सच में दलित स्थिति में रह रहे दलित के दर्द की आवाज इस तमाशे के शोर में दब सी जा रही है।

    मेरे गाँव के विशाल दलित समुदाय में आज तक कोई हाई-स्कूल नहीं पास कर सका जब कि गाँव में ही स्कूल है और नजदीक में ही हाई-स्कूल इंटर कालेज। यह जागरूकता वहाँ तक पहुँचाने पर किसी दलित नेता का ध्यान नहीं है। हाथी पर मुहर लगाने के लिए लम्बी लाइन भले ही लगा लेते हैं सभी।

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  3. ऐसे दलित ब्राह्मण असल दिखने वाले दलितों से ज्यादा पुराने ब्राह्मणों से नजदीकी बनाते देखे जा सकते हैं .....?

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  4. अंतत: यह द्राह्मण वाद अपना दाह स्वयं करेगा। किसी अन्य को करने का मौका न देगा।
    बढ़िया लिखा; पर फॉण्ट कलर अगर डिफॉल्ट से बदल कर हल्के रंग का कर दिया जाता है तो फीडरीडर में पढ़ने में नहीं आता।

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  5. सच में आपने बहुत बढ़िया लिखा , बधाई ।

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  6. ज्ञान जी की बात सही है - फीड रीडर के सफेद पृष्ठ में तो रंग गुम ही हो गया था ।
    अतिशयता होने दें - स्वयं विनष्ट होने की घोषणा सच हो जायेगी ।
    दलित अभी भी वही है जो कल था, जो ऊपर उठ गये - वो पहले भी दलित की परिभाषा से बाहर थे ।
    मेरे कस्बे में एक दलित ने स्वयं की उपेक्षा (अन्य समर्थ दलितों के मुकाबले) से तंग आकर आत्महत्या की कोशिश की । बच गया । बाद में हत्या करने को उतर आया । आज विक्षिप्त है ।

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  7. देश की वर्त्तमान राजनीति पर समसामयिक प्रविष्टि ....!!

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  8. वर्ण-व्यवस्था के शिखर और पायदान पर बैठी दो जातियों को साथ लाने का प्रयोग राष्ट्र के लिये वरदान साबित होता.. बशर्ते ईमानदार लोग आगे आते..

    ईमानदार कोशिशों से जो प्रयोग सामाजिक आधारभूत संरचना को ही बदल देता और सामाजिक सौहार्द्र की नई मिसाल रचता, वही अवसरवादियों के हाथ में बन्दर का उस्तरा बन गया है।

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  9. जन्मदिन है क्या आपका?? अगर है तो बधाई

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