Tuesday, December 27, 2022

मीडिया के संघर्ष का वर्ष रहा 2022, 2023 में मीडिया के बीच का संघर्ष बढ़ेगा

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi




2022 बीतते देश के सबसे तेजी से बढ़ते उद्योग घराने अडानी समूह ने एनडीटीवी को खरीद लिया। अचानक कुछ ऐसे स्वर कर्कश राग गाने लगे कि, अब भारत से पत्रकारिता पूरी तरह से खत्म हो गई। मुख्य धारा की पत्रकारिता से बाहर हुआ एक समूह मुख्य धारा में काम कर रहे पत्रकारों को पहले से ही खारिज करने के लिए नई शब्दावलियाँ गढ़ चुका था। अडानी के एनडीटीवी खरीदने पर जिस तरह से भारत में पत्रकार और पत्रकारिता के खत्म होने की बात चीखते हुए कही जाने लगी, उसका शतांश भी कुछ वर्ष पहले देश के सबसे बड़े उद्योग घराने रिलायंस समूह के टीवी एटीन से नेटवर्क एटीन हो चुके मीडिया समूह के जबरिया अधिग्रहण पर भी नहीं कहा गया था, लेकिन अडानी के जबरिया अधिग्रहण पर रुदाली इस तरह से हो रही थी, जैसे किसी मीडिया घराने में पहली बार किसी उद्योग घराने ने निवेश किया हो या उसे खरीद लिया हो। उस समय एनडीटीवी और उसमें करोड़ों को पैकेज पर बैठे पत्रकार आधे-आधे घंटे का प्रवचन उस टीवी के माध्यम पर कर रहे थे, जिसकी मूल शर्तों में बताया जाता था कि, किसी भी विज़ुअल पैकेज का एंकर लिंक तीस सेकेंड से अधिक का नहीं होगा। करोड़ों के पैकेज पर एक-एक शो में वही मेहमान घुमाकर सुबह से रात तक चलने वाले एनडीटीवी से दर्शकों को मोहभंग हो चुका था। कुछ सरकारी विज्ञापनों और तथाकथित सरोकारी आड़ में कुछ टाइगर बचाने और जंगल बचाने के अभियानों से एनडीटीवी मोटे पैकेज पर कुछ एंकरों से प्रवचन करा रहा था। प्रवचन करने वाले एंकरों की कीमत पर लगातार पत्रकारों की छँटनी एनडीटीवी में होती रही, लेकिन किसी ने पत्रकारों की दशा पर कोई चिंता नहीं व्यक्त की। अचानक मुख्य धारा से धकियाकर किनारे कर दिए गए पत्रकारों ने गिरोह बनाकर भारत में पत्रकारिता की समाप्ति का एलान कर दिया। हालाँकि, यह वही समूह है, जिसने सिर्फ सत्ता के आधार पर बरसों पत्रकारिता की थी। भारत में 2014 से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि, भिन्न विचार रखने वाले पत्रकारों ने एक दूसरे को पत्रकार मानने से ही मना कर दिया हो, लेकिन 2014 के बाद सत्ता से नरेंद्र मोदी को हटा पाने की खीझ रखने वाले पत्रकारों के समूह ने एलान कर दिया कि, जो भी नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से हटाने की लड़ाई में उनके साथ नहीं खड़ा होगा, उसे पत्रकार ही नहीं माना जाएगा। दुनिया के किसी हिस्से में पत्रकारों को ही पत्रकार मानने का ऐसा घृणित प्रयास कभी नहीं हुआ। 

2022 भारत में पत्रकारिता पर किसी सरकारी या दूसरे हमले से अधिक इस बात के लिए जाना जाएगा कि, जिन पत्रकारों को पहले की सत्ता के समय पुरस्कृत होते, बड़े पदों पर बैठे हुए, बरसों-बरस लोग आदर्श के तौर पर देखते रहे, उन पत्रकारों ने सत्ता का साथ मिलने की खीझ पत्रकारिता पर ही निकाली। सामान्य पत्रकार को भी गोदी पत्रकार कहकर उसे सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने की कोशिश की गई। मीडिया के भीतर का ऐसा संघर्ष 2014 के बाद शुरू हुआ और 2019 के बाद बहुत तेजी से बढ़ा, 2022 में चरम के आसपास पहुँच गया। इसे इस उदाहरण से समझिए कि, जब अंबानी ने नेटवर्क एटीन का अधिग्रहण किया तो भी उसे चलाने वाले सारे के सारे पत्रकार ही थे और, जब अडानी ने एनडीटीवी का अधिग्रहण किया है तो उसे चलाने के लिए बोर्ड में शामिल दोनों ही नाम भारतीय पत्रकारिता जगत के बहुत पुराने और बड़े नाम हैं। संजय पुगलिया अडानी मीडिया के सीईओ और एडिटर इन चीफ हैं। संजय पुगलिया आजतक में एसपी सिंह की टीम का सबसे प्रमुख चेहरा थे। वहाँ से जी न्यूज़ के संपादक के तौर पर कार्य किया और, वहाँ से स्टार न्यूज के डायरेक्टर के तौर पर भारत में टीवी पत्रकारिता को नई पहचान दी थी। स्टार न्यूज़ के बाद संजय पुगलिया का पड़ाव राघव बहल के साथ सीएनबीसी आवाज को शुरू करने का था। संजय पुगलिया की पहचान कभी भी भाजपा या संघ समर्थक पत्रकार की नहीं रही है, लेकिन एनडीटीवी को अडानी ने ख़रीदा,सिर्फ इसी आधार पर संजय पुगलिया की बरसों की पत्रकारिता को खारिज करने की कोशिश मुख्य धारा से बाहर हो गए उन पत्रकारों ने की, जो किसी एक गोदी में अपने जीवन की लगभग पूरी या अधिकतर पत्रकारिता करते रहे। सेंथिल चेंगलवरायन अंग्रेज़ी कारोबारी पत्रकारिता का बहुत पुराना चेहरा है, अडानी मीडिया के निदेशकों में एक सेंथिल भी हैं। यह दोनों नाम मैंने इसीलिए बताए कि, आसानी से समझ आए कि, 2022 में मीडिया के बीच का संघर्ष कितना बड़ा हुआ है। 

मीडिया के बीच के संघर्ष का लाभ राजनीतिक दलों ने जमकर उठाया है। पत्रकारों को एक दूसरे से भिड़ाकर उसका लाभ लेना उन्हें बखूबी आता है। इस वर्ष उसको नए तरह से आम आदमी पार्टी ने करके दिखाया। 2014 नवंबर में पी 7 न्यूज चैनल में बिजनेस एडिटर के तौर पर मेरी आखिरी नौकरी थी। मैंने तय किया कि, अब स्वतंत्र पत्रकारिता करूँगा। 2015 से लगभग सभी राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर राजनीतिक, आर्थिक चर्चा में शामिल रहने लगा, लेकिन 2022 में एक ऐसा अनुभव हुआ जो नए तरह की राजनीति के खतरे को दिखाता है। आम आदमी पार्टी ने टीवी चैनलों की बहस में अपने प्रवक्ता यह कहकर भेजना बंद कर दिया कि, हर्ष वर्धन त्रिपाठी अगर होंगे तो हमारा प्रवक्ता नहीं जाएगा। यह मेरे लिए चौंकाने वाला था। राजनीतिक पार्टियाँ पहले भी अपनी पसंद के विपरीत वाले चैनलों का बहिष्कार करती रही हैं, लेकिन किसी स्वतंत्र पत्रकार का कोई रणनीतिक दल निषेध करने लगे, यह पहली बार अनुभव में आया। यहाँ अच्छी बात यह रही कि, चैनलों ने मेरा बहिष्कार नहीं किया। हाँ, जिस बहस में आम आदमी पार्टी का पक्ष बेहद जरूरी होता था, उसके लिए मुझे बता दिया और मैंने स्वयं को उस चर्चा से बाहर कर लिया। 2022 में मीडिया में पत्रकारों के बीच का संघर्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता को दबाने की राजनीतिक कोशिशों का अनुभव मेरा रहा। मुझे लगता है कि, 2023 में यह दोनों खतरे और अधिक बढ़ेंगे। राजनीतिक दल अपने लिहाज से टीवी चैनलों पर प्रवक्ता भेजते हैं और उससे आगे बढ़कर अपनी पसंद के पत्रकार भी आएँ, यह तय करने की कोशिश करने लगे हैं। टीवी से दर्शकों से खारिज होने के बाद नौकरी चली गई है तो कुछ पत्रकारों ने उसी को विक्टिम कार्ड के तौर पर प्रस्तुत करके यूट्यूब पर व्यूज और लाइक्स बटोरने का नया तरीका निकाल लिया है। 2022 में इन खतरों के शुरुआती लक्षण दिखे और अब 2023 में यह लक्षण पूरी तरह से उभरकर सामने आएँगे, लेकिन मैं घोर आशावादी व्यक्ति हूँ। मैं मानता हूँ कि, इसी में पत्रकारिता का नया सूरज उगेगा। लोकतंत्र भारत के मूल में है, थोपा हुआ नहीं है। और, जब तक लोकतंत्र है, तब तक पत्रकारिता का भी महत्व बना रहेगा, इसमें मुझे जरा सा भी संदेह नहीं है। जिसकी पत्रकारिता पूरी हो चुकी है, हमेशा उसने यह साबित करने की कोशिश की है कि, अब पत्रकारिता ही खत्म हो गई है, लेकिन पहले ऐसा हुआ था और अब ऐसा होगा। एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह पत्रकारिता नहीं है।

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