हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi
देश के शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी के एक गलती से किए गए ट्वीट ने नरेंद्र मोदी सरकार में संवाद की कमी के गहराते संकट के साथ देश की आंतरिक सुरक्षा के प्रति बढ़ रहे गम्भीर खतरे की तरफ भी एक बार फिर से लोगों का ध्यान आकर्षित करा दिया है। हालाँकि, देश के गृह मंत्री अमित शाह के कार्यालय से रोहिंग्या घुसपैठियों को EWS फ्लैट देने के मामले पर आई सफाई के बाद फिर से इस मामले की गम्भीरता पर चर्चा होने के बजाय पूरी चर्चा इसी बात पर होने लगी कि, नरेंद्र मोदी सरकार रोहिंग्या घुसपैठियों को बसाना चाहती थी या फिर दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने रोहिंग्या घुसपैठियों को शरणार्थी का दर्जा देकर उन्हें फ्लैट देने के लिए प्रस्ताव पारित करके नई दिल्ली नगर निगम से उस पर अमल करने को कहा था। हरदीप पुरी के बेहद ग़ैरजिम्मेदार ट्वीट के बाद गृह मंत्रालय के स्पष्ट ट्वीट से इतना तो साफ हो गया कि, फिलहाल घुसपैठियों को भारत सरकार नागरिकों जैसे अधिकार देने के बारे में दूर-दूर तक नहीं सोच रही है और, साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ कि, सभी अवैध घुसपैठियों को नरेंद्र मोदी की सरकार उनके देश वापस भेजने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। इसकी शुरुआत म्यांमार के रोहिंग्या घुसपैठियों से होगी। अब अरविंद केजरीवाल की पार्टी दिल्ली में रोहिंग्या घुसपैठियों को बिजली, पानी और दूसरी सुविधाएँ क्यों दे रही है या फिर केजरीवाल की सरकार ने रोहिंग्या घुसपैठियों को बक्करवाला में फ्लैट देने के लिए प्रस्ताव क्यों पारित करती है या फिर केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने किस आधार पर ऐतिहासिक निर्णय बताते हुए घुसपैठियों को बक्करवाला में फ्लैट के साथ सुविधाएँ और सुरक्षा देने की बात कही, इस पर अब चर्चा करने से कुछ बात बनने वाली नहीं है। राजनीतिक तौर पर भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच यह राजनीतिक युद्ध चल रहा है और चलता ही रहेगा, लेकिन भारत सरकार और भारतीयों के लिए चिंता की बड़ी वजह पर बात करना जरूरी है और इसमें राजनीति से बचा जा सके, तभी देश की आंतरिक सुरक्षा को दुरुस्त किया जा सकेगा।
2017 में नोएडा में हुई एक घटना का ध्यान दिलाने से देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा सबसे सरल तरीक़े से समझा जा सकता है। जुलाई के दूसरे सप्ताह में नोएडा के सेक्टर 78 की एक सुविधायुक्त सोसायटी में सैकड़ों लोग पहुँचकर पथराव करने लगे। सोसायटी की सिक्योरिटी पर पथराव करने वाले भारी पड़ रहे थे। सोसायटी के भीतर सुरक्षा बोध के साथ रहने वाले सोसायटी के बड़े, बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे अपनी जान बचाने के लिए तेजी से अपने फ्लैट की तरफ भागे। बहुत देर तक अफरातफरी, असुरक्षा, पथराव के बाद पुलिस ने पहुँचकर उसे नियंत्रित किया। यहाँ यह ध्यान में आना आवश्यक है कि, उस संपूर्ण सुविधा, आधुनिक सुरक्षा युक्त सोसायटी की सिक्योरिटी अचानक आई भीड़ को रोक नहीं पाई थी। शहरों में सोसायटी के भीतर पूर्ण सुरक्षित रहने का अहसास उस दिन खतरे में पड़ गया था। और, यह घटना किसी अस्थाई बस्ती, झुग्गियों में नहीं हुई थी। देश के आधुनिक शहरों में से एक, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दिल्ली से ठीक सटे नोएडा में हुई थी। इस घटना के बारे में सोशल मीडिया पर शुरुआत समाचार यही आया कि, सोसायटी में एक घर में काम करने वाली एक महिला को उसको काम देने वाले ने बुरी तरह मारा है और अपनी कार की डिक्की में बंद कर दिया है, जिसकी वजह से महिला अपने घर नहीं पहुँच सकी है। खुद को लिबरल कहने वाले एक व्यक्ति ने फेसबुक पर यह पोस्ट डाली और उसके बाद सोशल मीडिया पर यह वायरल हो गई और किसी ने बिना तथ्य की जाँच पड़ताल किए और फ्लैट में रहने वाले दंपति की बात सुने कामवाली के पक्ष में अभियान छेड़ दिया। कमाल की बात यह भी थी कि, महिला के पति के साथ अस्थाई बस्ती से पथराव करने आए लोगों को मजबूर, कमजोर बताकर उनके पक्ष में सरोकारी अभियान चल पड़ा। बाद में असली कहानी सामने आई। अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिये दिल्ली और उसके आसपास में किस तरह से भर गए हैं। इसका बड़ा प्रमाण उस समय सामने आया। वैसे भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सोसायटी में काम करने वाली अधिकतर महिलाएँ खुद को पश्चिम बंगाल, कोलकाता से ही बताती हैं, लेकिन यह आश्चर्य की बात यही लगती है कि, क्या पश्चिम बंगाल की कुल आबादी दिल्ली और उसके आसपास घरों में काम करने ही आ जाती है। दरअसल, बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या से भारत लंबे समय से जूझ रहा है। जब से पाकिस्तान से कटकर बांग्लादेश बना, उसी समय से ढेर सारे बांग्लादेशी भारत में ही बस गए। उस समय पाकिस्तान को दो हिस्सों में बाँटना इंदिरा गांधी सरकार की एक बहुत बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा गया, इसलिए अवैध घुसपैठियों की समस्या को नजरअंदाज किया गया। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, बांग्लादेश मुक्ति के लिए हुए युद्ध की शुरुआत में ही करीब एक करोड़ा बांग्लादेशी भारत में आ गए थे और, उनमें से अधिकतर भारत में ही रुक गए।यूनाइटेड नेशंस हाई कमीशन फ़ॉर रिफ्यूजीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1971 युद्ध के समय प्रतिदिन करीब एक लाख बांग्लादेशी भारत आ रहे थे। भारत सरकार के लिए असहज स्थिति हो गई थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भले ही पाकिस्तान को दो हिस्सों में बाँटने की बड़ी उपलब्धि को किसी भी तरह से कमतर नहीं होने देना चाहतीं थीं, लेकिन इंदिरा गांधी इस गम्भीर खतरे को समझ रहीं थीं। उन्होंने यूएनएचसीआर के भारी दबाव को नकारते हुए कहा था कि, किसी भी स्थिति में इन्हें भारत में स्थान नहीं दिया जा सकता। 1971 में बीबीसी को दिए साक्षात्कार में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा कि, भारी संख्या में शरणार्थी आने की वजह से भारत में बड़ी समस्या खड़ी हो गई है। संयुक्त राष्ट्र की उस समय की रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा, मेघालय जैसे सीमावर्ती राज्यों के साथ मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश में भी शरणार्थी शिविर बनाए गए थे। सिर्फ एक राज्य पश्चिम बंगाल में 492 शिविरों में करीब 50 लाख बांग्लादेशी शरणार्थी रह रहे थे। त्रिपुरा में 276 शिविरों में करीब साढ़े आठ लाख, मेघालय में 17 शिविरों में करीब 6 लाख, असम में 28 शिविरों में करीब ढाई लाख, बिहार में आठ शिविरों में छत्तीस हजार से अधिक, मध्य प्रदेश में तीन शिविरों में करीब सवा दो लाख और उत्तर प्रदेश में एक शिविर में दस हजार से अधिक शरणार्थी रह रहे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बीबीसी से साक्षात्कार में अवश्य कड़ा रुख दिखाया, लेकिन जमीन पर बांग्लादेशियों को चिन्हित करके उन्हें भारत से बांग्लादेश भेजने का ठोस कार्य कभी नहीं हो पाया। धीरे-धीरे अधिकतर बांग्लादेशी राजनीतिक मतदाता समूह बनते चले गए। अस्थाई बस्तियों से कब बांग्लादेशी भारतीय नागरिक बन गए, इसका अनुमान लगाना कितना कठिन है, यह बात असम में एनआरसी बनाते समय समझ में आई। भारतीय मुसलमान और बांग्लादेशी मुसलमान में भेद करना कठिन हो चला था। भारत के नेता अपने छोटे हितों के लिए अस्थाई तौर बसे बांग्लादेशियों को राशन कार्ड की सुविधा दे रहे थे। वोट के बदले राशन कार्ड की यह व्यवस्था देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए कितना खतरनाक होती जा रही थी, इसका अनुमान शायद ही किसी भारतीय नेता को लगा हो या फिर जानबूझकर अपने छोटे हितों के लिए नेताओं ने आँखें मूँद लीं थीं। 1971 से लेकर 2017 और फिर अभी 2022 तक अवैध बांग्लादेशी लगातार घुसे चले आ रहे हैं और अब अवैध बांग्लादेशियों की कड़ी अवैध रोहिंग्या भी शामिल हो गए हैं। रोहिंग्या के समर्थन में हमने देश के अलग-अलग मुस्लिम बहुल इलाकों में बड़ी-बड़ी रैलियाँ देखीं थीं, उससे स्पष्ट हो गया था कि, भारतीय मुसलमानों ने बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को बिना सोचे-समझे अपना लिया है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि, 1971 में भारत घुसे एक करोड़ बांग्लादेशी धीरे-धीरे अपनों को लगातार भारत लाते रहे। राशन कार्ड से आधार कार्ड तक की यात्रा भारत ने भले लंबे समय में पूरी की हो, लेकिन अवैध घुसपैठियों को राशन कार्ड से आधार कार्ड तक बनवाने में बहुत मुश्किल शायद ही आती हो। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए इस गंभीर खतरे को समझते हुए नरेंद्र मोदी की सरकार ने नागरिकता पंजीकरण की योजना बनाकर कानून बनाया, लेकिन पूरे देश में राजनीतिक वजहों से मुस्लिम बहुल इलाकों में इसका जमकर विरोध हुआ। राजनीतिक वजहों से पूर्वोत्तर से लेकर देश के किसी भी हिस्से में अवैध घुसपैठियों की पहचान और उन्हें वापस भेजने का काम कठिन हो चला है। यहाँ बस गए घुसपैठिये लगातार अपने लोगों को भारत में किसी न किसी तरीके से बुला रहे हैं। नोएडा और दूसरे दिल्ली के आसपास बसे शहरों की ही तरह देश के हर राज्य में घुसपैठिये चुपचाप पाँव पसार रहे हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में आजकल कबाड़ खरीदने वाले नये कबाड़ी दिखने लगे हैं। वैसे भी गाँवों में रहने वालों की संख्या कम होती जा रही है। ऐसे में पुराने लोग धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं जो किसी भी अनजान की पूरी पहचान करना जरूरी समझते थे। बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ रोहिंग्या भी अब देश के भीतरी राज्यों में पहुँच चुके हैं। अभी जब असम और बांग्लादेश जैसे भारत के सीमावर्ती राज्यों में ही बांग्लादेशी और रोहिंग्या शरणार्थियों को पहचानने और उन्हें वापस भेजने का कार्य नहीं हो पा रहा है तो आसानी से कल्पना की जा सकती है कि, देश के भीतरी राज्यों में इसकी तरफ सोचा भी नहीं जा रहा है। यहाँ तक कि, देश की राजधानी दिल्ली में भी घुसपैठियों को लेकर कितनी भ्रम की स्थिति है कि, देश के शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी के ऐतिहासिक निर्णय वाले बयान पर गृह मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी। 1971 के अस्थाई शरणार्थी शिविरों से देश में घुसपैठ की कहानी शुरू हुई थी जो आज देश के जाने किन मोहल्लों, बस्तियों में स्थाई हो गई है और बदस्तूर जारी है। नरेंद्र मोदी से लड़ने का कोई रास्ता न खोज पाने वाली विपक्षी पार्टियाँ, दुर्भाग्य से जिसमें कांग्रेस शामिल है, देश के नागरिकों की सुरक्षा पर भी कोई गम्भीर निर्णय लेने के रास्ते में बाधा बनती दिख रही हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा को दरकिनार कर अपने हितों के लिए नेताओं का व्यवहार कैसे देश के लिए खतरा बन रहा है, यह साफ दिखता है। एनआरसी लागू करने के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कह दिया कि, इससे गृह युद्ध जैसे हालात बन जाएँगे जबकि ममता बनर्जी ने विपक्ष में रहते हुए 2005 में लोकसभा में कहा था कि, बांग्लादेशी घुसपैठियों की वजह से पश्चिम बंगाल में भयानक हालात बन रहे हैं। हरदीप पुरी और गृह मंत्रालय के एकदम विपरीत ट्वीट से सरकार की स्थिति भले असहज हुई हो, लेकिन अच्छी बात यही है कि, रोहिंग्या घुसपैठियों के लिए फ्लैट का प्रस्ताव पारित करने वाली आम आदमी पार्टी हो या फिर केंद्र की भारतीय जनता पार्टी रोहिंग्या घुसपैठियों को जल्द से जल्द वापस भेजने के पक्ष में हैं। केंद्र सरकार को इस गम्भीर खतरे से निपटने के लिए सभी राजनीतिक दलों के साथ सहमति बनाकर आंतरिक सुरक्षा की इस गम्भीर चुनौती का समाधान जल्द खोजना होगा। जितनी देर होगी, देश के लिए खतरा उतना ही बढ़ता ही जाएगा।
सार्थक लेख
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा त्रिपाठी जी, टीवी पर डिबेट में आपकी बात बहुत ही सटीक होती हैं, एकदम दोटूक
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