Wednesday, June 24, 2020

दलित राजनीति का एक और चक्र पूरा हो चुका है


बसपा प्रमुख मायावती ने आजमगढ़ में दलितों की बेटियों से उत्पीड़न के मामले में किंतु परंतु के साथ ही सही, लेकिन उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की प्रशंसा की है। उन्होंने कहाकि दलित बहन बेटियों के साथ हुए उत्पीड़न का मामला हो या अन्य किसी भी जाति व धर्म की बहन बेटी के साथ हुए उत्पीड़न का मामला हो, उसकी जितनी निंदी की जाए, कम है। मायावती का यह बयान सामान्य दिखता है, लेकिन मायावती बदलती दलित राजनीति की उस नब्ज को पकड़ने की कोशिश कर रही हैं जो उनके पारंपरिक दलित-मुस्लिम गठजोड़ से थोड़ा हटकर है। कमाल की बात यह है कि भारतीय राजनीति में दलितों की ठेकेदारी का दावा करने वाले दूसरे राजनीतिक दल, समूह या दलित बुद्धिजीवी के नाम पर प्रतिष्ठा पाने वाले भी इसे समझने को तैयार नहीं हैं। अभी भी दलित राजनीति को मुसलमान के साथ और हिन्दू विरोध में करने की कोशिश उन्हें स्पष्ट तौर पर भारी पड़ रही है और इस राजनीति के चक्कर में उन्हें गुजरात में कई बरस पहले दलित पर हुआ अत्याचार याद रहता है, लेकिन उत्तर प्रदेश के जौनपुर और आजमगढ़ में दलितों का घर फूंकने और दलित बेटियों के साथ उत्पीड़न पर जुबान बंद हो जाती है। और, इसी फर्जी सेक्युलर राजनीति ने दलित राजनीति करने वाले नेताओं का बुरा हाल कर दिया है। इस कदर कि उनकी पहचान ही खत्म होती जा रही है और दलित नेताओं को जनप्रतिनिधि के तौर पर उनके दलित समाज से ही मान्यता मिलती कम होती जा रही है। पहली नजर में यह बात बड़ी अजीब लगती है, लेकिन भारत में दलित राजनीति करने वाले नेताओं की स्थिति दरअसल कुछ ऐसी ही हो गई है, इसे ठीक से समझना जरूरी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने गायक हंसराज हंस को टिकट दिया और उदित राज कांग्रेस के टिकट पर हार गये। यहां यह जानना जरूरी है उदित राज ऑल इंडिया कनफेडरशन ऑफ एससी एसटी ऑर्गनाइजेशंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और भाजपा के टिकट पर सांसद बने हंसराज हंस की कोई दलित पहचान नहीं है। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि दलित राजनीति का एक च्कर पूरा हो चुका है। उदित राज भी अपने जीवन में सिर्फ एक बार सांसद बने तो भाजपा के साथ की ही वजह से। उदित राज उदाहरण हैं कि देश में दलितों के नाम पर ठेकेदारी करने वालों को समाज के निचले पायदान पर रह गये लोगों का जीवनस्तर उठाने में कितनी दिलचस्पी है और इसी वजह से दलितों की राजनीति का दावा करने वाले नेताओं का प्रभाव हर बीतते दिन के साथ दलितों में ही घटता जा रहा है। दलित राजनीति करने वाले नेता पहले कांग्रेस पार्टी और अभी सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी का विरोध करके राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू, हिन्दुत्व और मनुवादी, ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गाली देकर दलित नेता अपनी राजनीति बढ़ाने की भोथरी कोशिश कर रहे हैं। दरअसल दलित राजनीति करने वालों ने दलितों का भरोसा जीतने के बजाय सवर्ण और दूसरी जातियों का भरोसा तोड़ने की राजनीति पर मजबूती से कदम आगे बढ़ाया और यह कदम बढ़ते हुए हिन्दू बनाम दलित तक गया और फिर सेक्युलर राजनीतिक स्थान को भरने की कोशिश में हिन्दू बनाम दलित और आगे जाकर दलित और मुसलमान गठजोड़ के हिन्दू विरोधी होने तक चला गया। फौरी तौर पर और कांग्रेस की घिसी पिटी राजनीति से उकताये और भाजपा में सवर्ण राजनीति का बढ़ा हुआ प्रभाव देखकर कुछ समय तक दलितों ने ऐसे राजनीतिक नेताओं और दलों के साथ अपनी प्रतिबद्धता दिखाई, लेकिन बदलती राजनीति में सामाजिक समीकरण बदले तो राजनीतिक समीकरण पर भी उसका असर स्पष्ट दिखने लगा।
दलित और मुसलमान गठजोड़ की राजनीति से दलित अंदर ही अंदर चिढ़ने लगा था और उसकी बड़ी वजह मुसलमानों के साथ दलित गठजोड़ की बात नहीं थी, उसकी असली वजह दलितों को मुसलमानों के साथ खड़ा करके हिन्दुओं, हिन्दू आराध्यों, हिन्दू प्रतीकों को उसी के जरिये अपमानित करने की कोशिश थी। सोशल मीडिया पर हिन्दू विरोधी ट्रेंड में दलितों की आड़ लेकर सेक्युलर और कट्टर मुसलमान हिन्दुओं, हिन्दू आराध्यों, हिन्दू प्रतीकों का हर चौथे रोज मजाक बनाने दिखने लगे। जाने-अनजाने हिन्दू विरोधी बनते दलित-मुस्लिम गठजोड़ ने उनको हिन्दुओं के बीच सम्मान दिलाने की जगह दलितों की पहचान, विरासत, संस्कृति ही पूरी तरह से खत्म करना शुरू किया और जब दलित राजनीति करने वाले वोटबैंक तलाशकर दलित-मुसलमान समीकरण तलाश रहे थे, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों के साथ भारतीय जनता पार्टी लगातार दलितों को किसी के विरोध में खड़ा करने के बजाय अपने साथ खड़ा करने की योजना पर काम कर रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत हिन्दू एकता पर काम कर रहे थे। एक मंदिर, एक कुंआ और एक श्मशान के जरिये पूरे हिन्दू समाज को जोड़ने पर काम कर रहे थे। यह भी चौंकाने वाली बात थी कि संघ और पूरा संघ परिवार, जिसमें राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी भी शामिल है, जाहिर तौर पर मुसलमान विरोधी दिखने के बजाय हिन्दू एकता के आधार पर आगे बढ़ना चाह रही थी। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि केंद्र में दोबारा भारतीय जनता पार्टी की प्रचण्ड बहुमत की सरकार के साथ देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी और भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व भी पिछड़ी जाति से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास था। मोदी निर्विवाद तौर पर भाजपा के शीर्ष नेता थे और नरेंद्र मोदी की हर योजना की प्राथमिकता में वंचित तबका था और उस वंचित तबके में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उसी दलित समाज की थी, जिसे मुसलमान के साथ खड़ा करके दलित राजनीति करने वाले हिन्दू विरोधी कर देना चाह रहे हैं।
दलितों को यह बात स्पष्ट तौर पर समझ आ रही थी। अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयडड की हत्या पर हिंसक प्रदर्शन हुआ तो यहां सेक्युलर जमात मुस्लिम लाइव मैटर जैसा आन्दोलन चलाने की इच्छा जाहिर करने लगी। बाद में इसमें दलित लाइव मैटर भी जोड़ने की कोशिश हुई। इससे पहले नागरिकता कानून के जरिये पड़ोसी मुस्लिम देशों के हिन्दू दलितों को नागरिकता मिलने को भी मुस्लिम विरोधी पेश किया गया। देश के दलितों में यह गहरे बैठ गया कि जिन मुस्लिम देशों में हिन्दू दलित होने की वजह से उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, उन्हीं मुस्लिम देशों के मुसलमानों को भारत में नागरिक बनाने के लिए देश के मुसलमान सड़कों पर बवाल काट रहे थे। दलितों को यह बात स्पष्ट समझ आ रही थी कि जिस भारतीय जनता पार्टी को दलित विरोधी बताया जा रहा था, उस भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं के सवर्ण होते हुए भी दलित नेता रामनाथ कोविंद को प्राथमिकता दे दी। अभी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में भदेठी गांव में मुसलमानों ने दलितों का घर फूंक दिया और दलित नेता सिर्फ इसलिए चुप रहे कि इसमें हिन्दू विरोध, सवर्ण विरोध कहीं नहीं है और उस समय योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सभी दोषियों पर रासुका के तहत कार्रवाई की और दलितों को आर्थिक मदद भी की। और, यह सब तब हो रहा था जब अमेरिकी ब्लैक लाइव मैटर आन्दोलन की तर्ज पर दलित लाइव मैटर चलाकर उसके निशाने पर भारतीय जनता पार्टी की केंद्र और राज्यों की सरकार को लेने की कोशिश हो रही थी। दलित सब स्पष्ट देख पा रहा है, समझ रहा है, इसीलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में 131 आरक्षित सीटों में से 77 सीटें भाजपा को जिता दीं। भाजपा की 2014 में आरक्षित सीटों में जीती सीटों में 10 सीटें और जोड़कर 2019 में दलितों ने दे दी। उदित राज भाजपा की वजह से दलितों के जनप्रतिनिधि बन पाये थे और भाजपा से बाहर गये तो दलितों ने उन पर भरोसा नहीं किया। दलित राजनीति का एक चक्र पूरा हो चुका है।

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