गंगा
किनारे के छोरे के नर्मदा किनारे जाने का संयोग बना। करीब दो दिन रहा जबलपुर में।
कार्यक्रम तो शादी में शामिल होने का था। लेकिन, जाहिर है प्रयोजन कोई भी हो अपन
तो जहां भी गए मेल मिलाप का थोड़ा ज्यादा वाला हो ही जाता है। वहां भी हुआ। गंगा
किनारे के शहर से नर्मदा किनारे के शहर में यानी कनपुरिया से जबलपुरिया बन गए अनूप
शुक्ल भी आजकल (4 साल हो गए यही आजकल-आजकल करते) इसी शहर में पाए जाते हैं। पहले
दिन तो मोबाइल नंबर न होने से उनसे भेंट न हो सकी। दूसरे दिन हुई। उसी दिन मुझे
वापस भी लौटना था। लेकिन, फुरसतिया मिलने के लिए फुर्सत न निकाल सकें, ऐसा भला हो
सकता। तो नहीं हुआ ना। फुरसतिया वैसे तो साइकिल से घूमकर पुलिया की दुनिया सबको
दिखाते रहते हैं। लेकिन, सेना की गाड़ी फैक्ट्री में बड़का अधिकारी हैं, तो कार से
ही हमसे मिलने आए।
ये सिर्फ पुस्तक छापने की प्रेरणा के लिए है, प्रेरणा आप भी ले सकतेे हैं |
ये तस्वीर देखकर आपको भ्रम हो सकता है कि हमने पुलिया की दुनिया
किताब खरीद ली है या फिर इसका प्रचार कर रहे हैं। लेकिन, जो दिखता है वो होता नहीं
है। न हमने किताब खरीदी है और न ही इसका प्रचार कर रहे हैं। अनूप जी ने कहा वो
विशुद्ध रूप से मुझे किताब छापने की प्रेरणा देने के लिए आए हैं। प्रेरणा देना भी
पूरा काम हो गया है। तो वो काम उन्होंने किया और मैंने कहाकि कोशिश होगी कि इसी
साल मैं भी अपनी किताब उन्हीं के तरीके से छाप सकूं। छापूंगा तो गंभीरता से पूरी
जानकारी साझा करूंगा। खैर, उन्होंने ये भी कहा था कि वो पुलिया पर दुनिया का
प्रचार करने कतई नहीं आए हैं। तो ये भी पक्का माना जाए कि प्रचार नहीं सिर्फ
प्रेरणा के लिए ये तस्वीर यहां है।
बात
करते अनूप जी ने नर्मदा नदी की परिक्रमा के साथ उसके आसपास के जीवन को लिखकर
पुस्तक की शक्ल दे देने वाले अमूतलाल वेगड़ जी के बारे में बताया। कहा पास के
प्रेम बुक डिपो पर उनकी नर्मदा नदी पर लिखी तीनों किताबें मिल जाएंगी। मुझे लगा अब
तक की पैदाइश से ज्यादातर जिंदगी गंगा तीरे बिताने के बाद भी कहां गंगा पर कितना
लिख सका हूं। तो बनता है कि तीन किताबें लिखने वाले का लिखा पढ़ा जाए। लेकिन,
प्रेम बुक डिपो पर उनकी लिखी तीन में से एक ही किताब मिली। अमृतस्य नर्मदा। वेगड़
जी की ये दूसरी किताब थी। अनूप जी ने इसकी कीमत मुझे देने से मना किया। कहा वो तो
तीनों का सेट भेंट करना चाहते थे। शुभकामनाओं सहित मुफ्त में मुझे अमृतस्य नर्मदा
मिल गई। लेकिन, लगे हाथ मैंने वेगड़ जी अर्पण पढ़ डाला। जैसे घड़ों पानी पड़ गया
हो।
अमृतस्य नर्मदा का अर्पण
बंगाली या मराठीभाषी पाठकों की तुलना में
हिन्दीभाषी पाठकों का पुस्तक प्रेम
एक चौथाई भी नहीं होगा
पुस्तकें पढ़ना जिन्हें नहीं सुहाता
और खरीदना तो तनिक भी नहीं
यह जानते हुए भी
जो निष्ठापूर्वक लिख रहे हैं
हिन्दी के उन तमाम लेखकों को
हिन्दी में साहित्य की पुस्तकें बेचना
लोहे के चने चबाने जैसा दुष्कर कार्य है
यह जानते हुए भी
जो साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं
हिन्दी के उन तमाम प्रकाशकों को
और सर्वाधिक तो
जिनके भरोसे ये दोनों अपना कार्य जारी रख सके हैं
उन इने-गिने, बिरले हिन्दी पाठकों को
अपनी यह पुस्तक आदरपूर्वक अर्पण करता हूं।
राइट टाउन, जबलपुर वेगड़ जी के घर पर उनके साथ |
ऐसा
अर्पण लिखने वाले अमूतलाल वेगड़ की पहली किताब ही मेरे हाथ में बिना खरीदे भेंट
में आ गई थी। अब कितनी की सत्तर रुपये की कीमत बड़ी भारी हो रही थी। अच्छा हुआ
फुरसत से इसका समाधान भी मिल गया। अनूप जी ने कहा थोड़ा समय से आपसे मिलना हो
पाता, तो वेगड़ जी मिल लेते। 87 के ऊपर के हो गए हैं वेगड़ जी। और पहली नर्मदा
यात्रा 50 की उम्र में की। तब मुझे लगा कि फिर गंगा को अंशमात्र अर्पण करने के लिए
मेरे पास अभी समय है। कोशिश होगी। जय गंगा मइया। मैंने पूछा कितना समय लगेगा। पता
लगा वेगड़ जी का घर राइट टाउन में करीब पंद्रह मिनट की दूरी पर है। हम चल पड़े। कम
से कम हजार गज में बड़ा सुंदर सा प्रकृति संजोए घर था वेगड़ जी का। उन्हीं के
बगीचे में ये वेगड़ जी और अनूप जी की तस्वीरें हैं। अमृतस्य नर्मदा के अर्पण वेगड़
जी का थोड़ा अंदाजा तो ही गया था। अमृतस्य नर्मदा में ही मेरे पति यानी अमृतलाल वेगड़
के बारे में उनकी पत्नी कान्ता जी ने लिखा है – 45 वर्षों के साथ में मैंने
उनके विविध रूप देखे। मैंने उन्हें खुश देखा, नाराज देखा, उदास और दु:खी देखा और
खिलखिलाकर हंसते देखा। मन के दृढ़ नहीं हैं। अतिशयोक्ति बहुत करते हैं,
आत्मप्रशंसा उससे भी अधिक। मैं रोकती हूं तो कहते हैं, मैं किसी की निंदा तो नहीं
करता। परनिंदा से आत्मप्रशंसा अच्छी। ऐसे हैं मेरे पति- सीधे और सरल, भावुक और
नाजुक। आडंबरहीन और डरपोक- से लगने वाले इस इनसान को देखकर मेरे मन में यही बात
आती है कि नर्मदा- तट की 2624 किमी. की कठिन और खतरनाक पदयात्रा इन्होंने कैसे की
होगी।
कान्ता
जी के इस लिखे से वेगड़ जी काफी कुछ बिना मिले समझ में आ गए थे। जो बचा था मिलने
से समझ आया। अनूप जी ने जैसे इशारा किया कि वो कुछ इने-गिने, बिरले खरीदने वालों
में से एक कौ मैं पकड़कर लाया हूं। वेगड़ जी गए और नर्मदा पर लिखी तीन में से बची
दो किताबें और तीसरी उनकी कोलॉज की पुस्तिका उठा लाए। 800 रुपये की कोलॉज पुस्तिका
है। तीनों ही मैंने ले लिया। कुल मिलाकर तीनों की इतनी ही कीमत उन्होंने ली। अनूप
जी ने कहा मैंने आपसे 100 किताबें बिकवाने का वादा किया है वो, मैं पूरा करूंगा।
तब मुझे इस अनोखे सेल्स टार्गेट के बारे में पता चला। और ये बिना कमीशन का सेल्स
टार्गेट है। जबलपुर जाइए तो इस बिना कमीशन वाले सेल्समैन के साथ फुरसत से वेगड़ जी
के पास तक पहुंचिए। 87 साल के नौजवान से मिलकर आपकी ऊर्जा बढ़ेगी, ये भरोसा तो मैं
अब दे ही सकता हूं। हां, समय ज्यादा लेकर जाएंगे तो बेहतर रहेगा। अपनी लिखी
किताबों का चौथाई किस्सा तो वो सुना ही डालेंगे। मुझे ट्रेन पकड़ने की जल्दी है,
ये जानने के बाद भी मुझे उन्होंने जब तीसरा किस्सा सुनाना शुरू किया तो कांता जी
मंद-मंद मुस्कुरा रहीं थीं। अब क्या मंद-मंद। उन्होंने तो पूरी दुनिया को बता ही
दिया कि पति आत्मप्रशंसा, अतिशयोक्ति वाले मिले हैं। वेगड़ जी संयुक्त परिवार में
रहते हैं। उनके दोनों छोटे भाइयों से भी भेंट हो गई। रसोईघर एक ही है। बीस के करीब
का परिवार एक साथ रहता है।
कनपुरिया
से जबलपुरिया भए अपन के फुरसतिया की मुलाकात ने किताब खुद छापने की प्रेरणा के साथ
प्रेरणा की गठरी दे दी है। देखिए ये गठरी का बोझ कब तक मैं प्रेरणा के तौर पर
दूसरों को दे पाता हूं। तब तक तो ये मेरे पास ही रहेगा। छोटी सी मुलाकात में बहुत
कुछ लिखने को है लेकिन, खत्म करता हूं। नर्मदात्रयी की तीसरी पुस्तक तीरे- तीरे नर्मदा
के पीछे अमृतलाल वेगड़ और उनकी पत्नी कान्ता जी के बेहद उर्जावान चित्र के नीचे
लिखी लाइनों से खत्म करता हूं।
अगर सौ या दो सौ साल बाद किसी को एक दंपती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई
दे, पति के हाथ में झाड़ू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी और खुरपी; पति घाटों की सफाई
करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फेंकती हो और दोनों वृक्षारोपण भी करते हों,
तो समझ लीजिए कि हमीं हैं – कान्ता और मैं।
कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार
इस जन्म में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जनम से
करेंगे।
नर्मदा
क्या हमारी तो जबलपुर यात्रा ही अच्छे से बाकी है। हम इसी जनम में करेंगे।