Tuesday, June 23, 2015

शिमला, सोनिया गांधी और सुविचार

ये कल्पना से बाहर की बात थी। भला ये कैसे सोचा जा सकता है कि सोनिया गांधी हिंदी पर महान विचारक हो सकती हैं। वो भी केंद्र सरकार के अधीन एक सरकारी कंपनी के अतिथि विश्राम गृह में। शिमला में एनएचपीसी के अतिथि विश्राम गृह के तीनों तलों पर सीढ़ियों की शुरुआत में एक विचार पट्टिका लगी हुई है। 
सबसे पहले मेरा ध्यान मुंशी प्रेमचद के विचार पर गया। अच्छा लगा कि सरकारी कंपनी के अतिथि गृह में इस तरह के सद्विचार लिखने का यत्न किया है। लेकिन, एक दूसरी ऐसी ही सद्विचार वाली तख्ती पर नजर पड़ी तो पहले उस कहे को कहने वाले से मैं जोड़ने में थोड़ा असहज हुआ। 



उसके बाद में सोचने लगा कि आखिर सोनिया गांधी के ये विचार किस हैसियत से एक केंद्र सरकार की कंपनी के अतिथि गृह में लिखे हुए हैं। अब जरा सोचिए कि क्या बीजेपी के किसी राष्ट्रीय अध्यक्ष के विचार ऐसे किसी सरकारी कंपनी के अतिथि गृह में लिखे जा सकते हैं। अभी के संदर्भ में सोचिए तो बीजेपी पूर्ण बहुमत से केंद्र की सरकार में है। अब अगर सरकारी कंपनियों के दफ्तरों और अतिथि गृहों में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का कहा सुविचार के तौर पर ऐसे चिपका दिया जाए तो कैसा लगेगा। सुविचार का बड़ा मतलब होता है। इस मतलब को ही सोनिया गांधी का हिंदी पर कहा और एक केंद्र सरकार की कंपनी के अतिथि गृह में लिखा होना ध्वस्त कर देता है। कमाल ये भी है कि कांग्रेस की अब सरकार भी नहीं है फिर भी वो तख्ती वहां शोभा दे रही है। 
इसके बाद तो और कमाल हो गया। कोई जानसन साहब हैं उन्होंने भी कुछ कहा है कि जिसको एनएचपीसी ने अपने अतिथि गृह में लिखना जरूरी समझा है। 

Wednesday, June 03, 2015

ये अर्थव्यवस्था कमजोर हो तो, असल अर्थव्यवस्था मजबूत हो!

कुछ ही महीने में ये दूसरी बार हुआ। मैं फिर से धोखाधड़ी का शिकार हो गया। पहली बार एक पूरे परिवार ने मिलकर बेवकूफ बनाया था। इस बार अकेली बूढ़ी महिला ने बेवकूफ बना दिया। दोनों बार मेट्रो स्टेशन के बाहर मेरे साथ ये धोखाधड़ी हुई। पहली बार बॉटैनिकल गार्डेन मेट्रो स्टेशन से निकलते और दूसरी बार अभी ताजा-ताजा पटेल चौक मेट्रो स्टेशन से निकलते। मुझे धोखा हुआ ये मुश्किल नहीं है। मुश्किल ये है कि इन धोखेबाजों की वजह से किसी जरूरतमंद पर भी भरोसा नहीं होगा। रात में दिल्ली से लौटा। पार्किंग के पहले ही पूरा सामान लिए बैठे एक परिवार ने रोक लिया। कहा- ठेकेदार ने पैसे नहीं दिए। हम सब मजदूर हैं। महाराष्ट्र से आए हैं। खाने तक का पैसा नहीं है। वापस घर जाना है। खाने भर का पैसा मिल जाए तो, सुबह किसी भी ट्रेन से निकल जाएंगे। पत्नी, बच्चे सब थे। मैंने पूछा कितने में खान खा लोगे। बोला- पाँच सौ। मेरी करीब तीन सौ रुपये थे। पार्किंग के तीस रुपये छोड़कर सब मैंने उसे दे दिया। कई बार खुद को भरोसा दिलाता रहा। हालांकि, बार-बार लगता रहा कि ये मुझे बेवकूफ बना रहा है। लेकिन, बच्चे की शकल देखकर पैसे दे दिए। थोड़ी दूर जाकर फिर लौटा और मैंने कहा कि मेरे सामने खाओ। खैर, इस बात के कुछ महीने बाद अभी पिछले शुक्रवार को पटेल चौक मेट्रो स्टेशन से निकला तो, इस बूढ़ी महिला की करुण आवाज ने फंसा लिया। महिला ने कहा पानीपत की हूं। घर वापस जाना है, उतने पैसे नहीं है। उसने तीस रुपये किराया बताया। मैंने दे दिया। मैंने देखा कि पैसे लेने के बाद भी वो वहीं बैठी है। दूसरों से भी पैसे मांग रही है। मैं लौटा और उसे डांटा कि अब यहां से हटो- घर जाओ। बड़बड़ाते हुए वो बुढ़िया उठ गई।
 
मंगलवार को फिर वही बुढ़िया पटेल चौक मेट्रो स्टेशन के बाहर दिख गई। वही राग गा रही थी। मैंने कहा बुढ़ापे में सबका भरोसा क्यों उठा रही हो। उसने मेरी बात अनसुना करने की कोशिश की तो, मैंने मोबाइल से उसकी तस्वीर ली। उसने कोशिश की कि शक्ल न दिखे। लेकिन, तब तक शक्ल मोबाइल में कैद हो चुकी थी। एक मित्र ने बताया कि ऐसे ही सपरिवार महाराष्ट्र से आए मजदूरों ने उससे पाँच सौ रुपये वसूल लिए थे। एक तो भीख की अर्थव्यवस्था से देश परेशान है। उस पर इस अंदाज में ठगी करने वाले तो सारी अर्थव्यवस्था का तंत्र ही बिगाड़ रहे हैं। सोचिए, बस हर रोज जगह बदलनी है। बेशर्म बन जाना है। और शाम तक 4-6 भी फंस गए तो, हजार-दो हजार की ठगी कर ली। इनका सही इलाज मैं भी नहीं समझ पा रहा हूं। ये भी सलाह नहीं दे पा रहा हूं कि किसी की मदद मत करो। लेकिन, कुछ तो करना होगा। निकम्मों की अर्थव्यवस्था चलती रहेगी तो असल अर्थव्यवस्था तो मजबूत होने से रही।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...