विचार ही असल है।
विचार कभी मरता नहीं है। विचार जीवित रहे तो सब जीवित रहता है। हममें से ज्यादातर
की सोच कुछ ऐसी ही रहती है। और शायद यही वजह है कि हम ज्यादातर घटनाओं, बदलावों को
दूसरे नजरिये से ही देखते, समझते रहते हैं। हमारी सारी लड़ाई, तर्क यहीं जाकर अंटक
जाते हैं कि फलाना विचार सफल हो गया है और ढिमकाना विचार असल हो गया है। फिर उस
विचार को हम नाम दे देते हैं। धर्म (धर्म के नाम पर जो, जो याद आ रहा हो जोड़
लीजिए मैं कितना लिख सकूंगा और मुझे तो सब पता भी नहीं है), कर्मकांड, पंथ (दक्षिणपंथ,
वामपंथ, तटस्थ, तुष्टीकरण ... ऐसे और ढेर सारे)। फिर बात होती है कि इस विचार की
ताकत देखिए कि इतनी बड़ी क्रांति हो गई। बात होती है कि उस विचार की ताकत देखिए सब
क्रांति धरी की धरी रह गई। फिर बात होती है कि ये विचार ही तो है कि इतनी बड़ी पार्टी
हर झटके से उबर गई। उसी में ये भी बात होती है कि वो विचार ही तो उस पार्टी को ले डूबा।
हम ऐसे ही बात करते हैं। विचार, विचारक- हम इसी में निपटे जाते हैं।
फिर हम नाम जोड़कर
विचार को जोड़ देते हैं। राम का विचार, कृष्ण का विचार, दयानंद, विवेकानंद का
विचार, मार्क्स, लेनिन का विचार, गांधी का विचार, नेहरू का विचार फिर ऐसे चले आइए
तो दुनिया के नेताओं की छोड़ें, भारत में अभी नरेंद्र मोदी का विचार। लगता है कि
सब विचार ही है जो सब करता है। और विचार ही महत्वपूर्ण है। और तो और बुखारी का
विचार, आसाराम का विचार और ताजा-ताजा बात करें रामपाल का विचार। हिसार के बरवाला
में जो कुछ हुआ उसे विचारक इस तौर पर देख ले रहे हैं कि ये दो विचारों की लड़ाई
थी। आर्यसमाजी विचार और कबीरपंथी विचार। इससे भी आगे मामला बढ़ गया। कहा ये भी जा
रहा है कि कांग्रेस की सरकारी रामपाल के विचारों की थी। इसलिए सब मस्त रहा। अब आई
बीजेपी की सरकार के विचार आर्यसमाजी हैं। इसलिए रामपाल के लिए सब पस्त हो गया।
लेकिन, मैं जब देख
पा रहा हूं तो दरअसल दुनिया की हर लड़ाई व्यवहार की लड़ाई है। विचार की कोई लड़ाई
ही नहीं है। विचार तो जबरदस्ती, ऐसे ही रामपाल टाइप बरवाला गांव जैसा अपना
किलानुमा आश्रम बनाने के लिए बता दिया जाता है। विचार तो लगभग सब एक ही हैं। आप
किसी भी धर्म, विचार की बुराई खोजने चलिए तो लाख मिलेंगी। लगे हाथ अच्छाई खोजिए।
सबमें लगभग एक जैसी ही अच्छाई मिलेगी। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि दरअसल ये सब विचार
से ज्यादा व्यवहार का मसला है। विचार मैं मानता हूं कि वो उतना ही आवश्यक है जैसे
कि बिना स्नातक हुए आईएएस की परीक्षा में शामिल ही नहीं हो सकते। बस उतना ही। उसके
आगे क्या स्नातक होने का विचार किसी को आईएएस बना सकता है। नहीं ना। उसके लिए
व्यवहार चाहिए। व्यवहार आईएएस पास करने के लिए जरूरी पढ़ाई करने का। हम मानें
तर्कों के आधार पर कि, अलग-अलग विचार हैं तो फिर एक विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते
अलग-अलग क्यों हो जाते हैं। दिखने लगते हैं। मतलब विचार जरूरी है लेकिन, तय
व्यवहार करता है। वरना अलग-अलग विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते एक से क्यों
दिखने लगते हैं। अब सोचिए, सब अगर विचार से ही तय होता है तो, नरेंद्र मोदी को
महात्मा गांधी के व्यवहारों की आड़ क्यों लेनी पड़ती। सफाई को ही ले लें तो, सफाई
को विचार मानेंगे या व्यवहार। अब अगर सफाई विचार मानेंगे तो दुनिया के किसी भी
विचार के बारे में बताइए जहां विचार के तौर पर सफाई को जरूरी न माना गया हो।
लेकिन, व्यवहार के तौर पर ही सफाई किसी का विचार बन जाती है, किसी का नहीं। ऐसे ही
ईमानदारी की बात करें। बताइए ना विचार के तौर पर कौन बेईमान होना, दिखना चाहता है।
लेकिन, व्यवहार के तौर पर। इसीलिए मैं बहुत गंभीरता ये बात मानने लगा हूं कि सारा
महत्व व्यवहार का है। विचार के तौर पर दुनिया के सारे विचार अच्छा ही विचारते हैं।
अब सोचिए। ये
व्यवहार है या विचार कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी प्रचंड
बहुमत हासिल कर लेती है। और यही भारतीय जनता पार्टी 160-180 के ऊपर किसी भी विचार
से, किसी विचारक को नहीं जाती दिख रही थी। सब अगर विचार ही तय करता तो महात्मा गांधी,
जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के विचार तो कांग्रेस की बुनियाद हैं। लेकिन, ये
व्यवहार ही था। जो, विदेशी मूल की सोनिया वाली विचार ही असल है।
विचार कभी मरता नहीं है। विचार जीवित रहे तो सब जीवित रहता है। हममें से ज्यादातर
की सोच कुछ ऐसी ही रहती है। और शायद यही वजह है कि हम ज्यादातर घटनाओं, बदलावों को
दूसरे नजरिये से ही देखते, समझते रहते हैं। हमारी सारी लड़ाई, तर्क यहीं जाकर अंटक
जाते हैं कि फलाना विचार सफल हो गया है और ढिमकाना विचार असल हो गया है। फिर उस
विचार को हम नाम दे देते हैं। धर्म (धर्म के नाम पर जो, जो याद आ रहा हो जोड़
लीजिए मैं कितना लिख सकूंगा और मुझे तो सब पता भी नहीं है), कर्मकांड, पंथ (दक्षिणपंथ,
वामपंथ, तटस्थ, तुष्टीकरण ... ऐसे और ढेर सारे)। फिर बात होती है कि इस विचार की
ताकत देखिए कि इतनी बड़ी क्रांति हो गई। बात होती है कि उस विचार की ताकत देखिए सब
क्रांति धरी की धरी रह गई। फिर बात होती है कि ये विचार ही तो है कि इतनी बड़ी पार्टी
हर झटके से उबर गई। उसी में ये भी बात होती है कि वो विचार ही तो उस पार्टी को ले डूबा।
हम ऐसे ही बात करते हैं। विचार, विचारक- हम इसी में निपटे जाते हैं।
फिर हम नाम जोड़कर
विचार को जोड़ देते हैं। राम का विचार, कृष्ण का विचार, दयानंद, विवेकानंद का
विचार, मार्क्स, लेनिन का विचार, गांधी का विचार, नेहरू का विचार फिर ऐसे चले आइए
तो दुनिया के नेताओं की छोड़ें, भारत में अभी नरेंद्र मोदी का विचार। लगता है कि
सब विचार ही है जो सब करता है। और विचार ही महत्वपूर्ण है। और तो और बुखारी का
विचार, आसाराम का विचार और ताजा-ताजा बात करें रामपाल का विचार। हिसार के बरवाला
में जो कुछ हुआ उसे विचारक इस तौर पर देख ले रहे हैं कि ये दो विचारों की लड़ाई
थी। आर्यसमाजी विचार और कबीरपंथी विचार। इससे भी आगे मामला बढ़ गया। कहा ये भी जा
रहा है कि कांग्रेस की सरकारी रामपाल के विचारों की थी। इसलिए सब मस्त रहा। अब आई
बीजेपी की सरकार के विचार आर्यसमाजी हैं। इसलिए रामपाल के लिए सब पस्त हो गया।
लेकिन, मैं जब देख
पा रहा हूं तो दरअसल दुनिया की हर लड़ाई व्यवहार की लड़ाई है। विचार की कोई लड़ाई
ही नहीं है। विचार तो जबरदस्ती, ऐसे ही रामपाल टाइप बरवाला गांव जैसा अपना
किलानुमा आश्रम बनाने के लिए बता दिया जाता है। विचार तो लगभग सब एक ही हैं। आप
किसी भी धर्म, विचार की बुराई खोजने चलिए तो लाख मिलेंगी। लगे हाथ अच्छाई खोजिए।
सबमें लगभग एक जैसी ही अच्छाई मिलेगी। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि दरअसल ये सब विचार
से ज्यादा व्यवहार का मसला है। विचार मैं मानता हूं कि वो उतना ही आवश्यक है जैसे
कि बिना स्नातक हुए आईएएस की परीक्षा में शामिल ही नहीं हो सकते। बस उतना ही। उसके
आगे क्या स्नातक होने का विचार किसी को आईएएस बना सकता है। नहीं ना। उसके लिए
व्यवहार चाहिए। व्यवहार आईएएस पास करने के लिए जरूरी पढ़ाई करने का। हम मानें
तर्कों के आधार पर कि, अलग-अलग विचार हैं तो फिर एक विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते
अलग-अलग क्यों हो जाते हैं। दिखने लगते हैं। मतलब विचार जरूरी है लेकिन, तय
व्यवहार करता है। वरना अलग-अलग विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते एक से क्यों
दिखने लगते हैं। अब सोचिए, सब अगर विचार से ही तय होता है तो, नरेंद्र मोदी को
महात्मा गांधी के व्यवहारों की आड़ क्यों लेनी पड़ती। सफाई को ही ले लें तो, सफाई
को विचार मानेंगे या व्यवहार। अब अगर सफाई विचार मानेंगे तो दुनिया के किसी भी
विचार के बारे में बताइए जहां विचार के तौर पर सफाई को जरूरी न माना गया हो।
लेकिन, व्यवहार के तौर पर ही सफाई किसी का विचार बन जाती है, किसी का नहीं। ऐसे ही
ईमानदारी की बात करें। बताइए ना विचार के तौर पर कौन बेईमान होना, दिखना चाहता है।
लेकिन, व्यवहार के तौर पर। इसीलिए मैं बहुत गंभीरता ये बात मानने लगा हूं कि सारा
महत्व व्यवहार का है। विचार के तौर पर दुनिया के सारे विचार अच्छा ही विचारते हैं।
अब सोचिए। ये
व्यवहार है या विचार कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी प्रचंड
बहुमत हासिल कर लेती है। और यही भारतीय जनता पार्टी 160-180 के ऊपर किसी भी विचार
से, किसी विचारक को नहीं जाती दिख रही थी। सब अगर विचार ही तय करता तो महात्मा गांधी,
जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के विचार तो कांग्रेस की बुनियाद हैं। लेकिन, ये
व्यवहार ही था। जो, विदेशी मूल की सोनिया वाली कांग्रेस भी लगातार दस साल भारत पर
राज कर गई। और ये भी व्यवहार ही था कि सबकुछ सजाकर मिलने के बाद भी राहल गांधी
वाली कांग्रेस की समाप्ति की घोषणा लोग करने लगे। अरविंद केजरीवाल भी कोई विचार
हैं क्या। नहीं अरविंद केजरीवाल शुद्ध तौर पर व्यवहार हैं। अगर शुद्ध तौर पर अरविंद
केजरीवाल व्यवहार न होते तो वही अरविंद केजरीवाल देश हिलाते दिखते रहे और चार-छह
महीने में क्या होगा कि अरविंद के विचार सुनने को देश तैयार नहीं। अरविंद के
अस्तित्व का संकट टाइप खड़ा हो गया। ये सब व्यवहार ही है। विचार एक ही है। उसी
विचार को कोई विचारक कैसे व्यवहार करता है यही तय करता है कि आखिर वो विचारक, उस
विचार, व्यवहार के साथ कितना आगे तक, कितनी देर तक चलेगा। तय व्यवहार से होता है
लेकिन, जिस विचार को विचारक आगे रख देता है। वही विचार मजबूत हो जाता है। जबकि,
असल तो यही है कि व्यवहार ही माने रखता है। इसलिए व्यवहार बेहतर की बात करिए। वरना
विचार के तौर पर तो रामपाल जैसा गुंडा भी सारी बुराइयों के खिलाफ था। लेकिन, अपने ही
विचार को मानने वालों के साथ उसका व्यवहार अपहरणकर्ता जैसा रहा। ऐसे अनगिनत उदाहरण
हैं।
खैर, मैं किसी विचार के वशीभूत न हो जाऊं। इसलिए प्रयास बस यही कि व्यवहार
अच्छा चलता रहे। विचार तो अच्छा ही चलता है।कांग्रेस भी लगातार दस साल भारत पर
राज कर गई। और ये भी व्यवहार ही था कि सबकुछ सजाकर मिलने के बाद भी राहल गांधी
वाली कांग्रेस की समाप्ति की घोषणा लोग करने लगे। अरविंद केजरीवाल भी कोई विचार
हैं क्या। नहीं अरविंद केजरीवाल शुद्ध तौर पर व्यवहार हैं। अगर शुद्ध तौर पर अरविंद
केजरीवाल व्यवहार न होते तो वही अरविंद केजरीवाल देश हिलाते दिखते रहे और चार-छह
महीने में क्या होगा कि अरविंद के विचार सुनने को देश तैयार नहीं। अरविंद के
अस्तित्व का संकट टाइप खड़ा हो गया। ये सब व्यवहार ही है। विचार एक ही है। उसी
विचार को कोई विचारक कैसे व्यवहार करता है यही तय करता है कि आखिर वो विचारक, उस
विचार, व्यवहार के साथ कितना आगे तक, कितनी देर तक चलेगा। तय व्यवहार से होता है
लेकिन, जिस विचार को विचारक आगे रख देता है। वही विचार मजबूत हो जाता है। जबकि,
असल तो यही है कि व्यवहार ही माने रखता है। इसलिए व्यवहार बेहतर की बात करिए। वरना
विचार के तौर पर तो रामपाल जैसा गुंडा भी सारी बुराइयों के खिलाफ था। लेकिन, अपने ही
विचार को मानने वालों के साथ उसका व्यवहार अपहरणकर्ता जैसा रहा। ऐसे अनगिनत उदाहरण
हैं। खैर, मैं किसी विचार के वशीभूत न हो जाऊं। इसलिए प्रयास बस यही कि व्यवहार
अच्छा चलता रहे। विचार तो अच्छा ही चलता है।