Wednesday, November 30, 2011

बंटवारे की राजनीति !

सूट पहने आधुनिक मुहम्मद अली जिन्ना
राजनीति भी गजब है। अलग-अलग संदर्भों में एक ही बात किसी को अच्छी या बुरी लगती है। मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान में उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा हासिल है। हो भी क्यों ना। आखिर पाकिस्तान की पैदाइश तो, उन्हीं के बूते हुई। बूते इसलिए कि बड़ी मेहनत मशक्कत करके भारत से अलग पाकिस्तान बनवा लिया। वैसे, जो ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं वो, यही हैं कि जिन्ना को अगर सत्ता सुख मिलने की गुंजाइश दिखती तो, वो सांप्रदायिक न होते। जिन्ना तो, सांप्रदायिक थे भी नहीं। ठीर नेहरू जैसे थे। जवाहर लाल नेहरू को तो, लोग सेक्युलर ही मानते हैं ना। तो, जिन्ना भी सेक्युलर ही थे। जिन्ना भी विलायती थे। सिगार पीते थे। सूट पहनते थे। अतिआधुनिक थे। ये कहां से इस्लामिक हो गया। लेकिन, जब सत्ता नहीं मिली तो, जिन्ना घोर मुसलमान हो गए। पाकिस्तान बना दिया। 
जिन्ना बड़ा बदमाश था। ऐसा हम भारतीय मानते हैं- सबसे बड़ी वजह उसने अपने राजनीतिक फायदे के लिए भारत-पाकिस्तान का बंटवारा करा दिया। लेकिन, अगर इस कसौटी पर कसेंगे तो, बड़ी मुश्किल होगी। आज के नेताओं को ले लीजिए। क्या कहेंगे। मायावती राजनीतिक फायदे के लिए यूपी 4 टुकड़े में करना चाहती हैं। ठीक यूपी चुनाव के पहले याद आया है। करीब पांच साल होने जा रहे हैं। पूर्ण बहुमत की मायावती जी की सरकार है। फिर भी कह रही हैं  कि बड़ा राज्य होने से प्रशासन और विकास में मुश्किल आ रही है। सत्ता में आते ही बांट दिया होता। अब तक 4 टुकड़े हुए यूपी का कुछ विकास भी हो गया होता।

शीला दीक्षित दिल्ली को 3 टुकड़ों में बांट रही हैं। बहाना, बहनजी की तरह ही शीला दीक्षित का भी है 3 टुकड़े MCD हुई तो, प्रशासन सुधरेगा, विकास होगा। ऐसे ही तो, राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे, बाल ठाकरे भी बोलते हैं कि सिर्फ मराठी रहेगा तो, मुंबई के विकास का ज्यादा हिस्सा उन्हें मिलेगा। क्षेत्रवादी घोषित हैं। लीजिए अब यूपी चुनाव आया तो, राहुल गांधी भी कह रहे हैं कि यूपी के लोग भिखारी क्यों बने रहना पसंद कर रहे हैं। पता नहीं शायद वो, ये कहना चाह रहे हैं कि भिखारी ही बने रहना है तो, कांग्रेस राज में बने रहो। वो, भूल जाते हैं देश पर उन्हीं के हाथ वाली पार्टी और उन्हीं के पिता, नानी, परनाना का शासन लंबे समय तक रहा है। सत्ता ही है जो, नहीं मिल रही है तो, यूपी में राहुल गुस्सा जाते हैं। दिल्ली में ठंडा जाते हैं गुस्से से। बांटना ये सब चाहते हैं सत्ता मिली रहे तो, बांटना कोई नहीं चाहेगा। फिर जिन्ना और इन आज के नेताओं में कितना फर्क है।

Friday, November 18, 2011

काटजू और मीडिया को एक दूसरे का दोस्त ही बनना होगा

बड़ी मुश्किल होती है जब, आप किसी व्यक्तित्व के बेहद प्रभाव में रहें और उस व्यक्तित्व की बेबाकी की तारीफ करते रहें। और, अचानक ऐसा मौका आए जब वो, व्यक्ति आपकी भी कमियों पर बेबाक टिप्पणी करने लगे। उसकी बात सही होते हुए भी आप उस बेबाकी के खिलाफ ढेर सारे कुतर्क लाने की कोशिश करने लगते हैं। यहां संदर्भ है जस्टिस मार्कंडेय काटजू का। जो, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के ताजा-ताजा अध्यक्ष बने हैं। अध्यक्ष बनते ही जस्टिस काटजू का अदालत में फैसला सुनाने वाला अंदर का न्यायाधीश जग गया और उन्होंने अपने मन  में बनी और समाज के मन में तेजी से बसती जा रही इस धारणा के आधार पर बयान दे डाला कि मीडिया में कम जानकार लोग हैं। कुछ भी लिखते-दिखाते रहते हैं। अब तो, वो मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाने की बात भी कर रहे हैं।

फिर क्या टीवी वाले पहले गरजे कि काटजू होते कौन हैं, उन पर टिप्पणी करने वाले। सबको पता है न कि अब काटजू साहब जज तो रहे नहीं जो, अवमानना होगी। काटजू साहब भी जितनी जल्दी ये समझ लें, उतना बेहतर है। मार्कंडेय काटजू ने यहां तक कह दिया है कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दायरे में टीवी मीडिया भी लाया जाना चाहिए। खैर, टीवी के संपादक तो, पहले से बीईए, एनबीए जैसी संस्थाएं बनाकर खुद को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के बराबर खड़ा कर चुके हैं। अब टीवी तो, छोड़िए प्रेस यानी प्रिंट के घरानों को भी काटजू की बेबाकी बर्दाश्त नहीं हो रही है। उनकी अध्यक्षता में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की पहले बैठक में काउंसिल के चार सदस्यों संजय गुप्ता (दैनिक जागरण), डॉक्टर आर लक्ष्मीपति (दिनामलार), वी के चोपड़ा (फिल्मी दुनिया) और पंजाब केसरी ने काटजू के वक्तव्य कि मीडिया कम जानकार लोग हैं, पर कड़ा विरोध जताया है।

ये वही टीवी, प्रिंट मीडिया है जो, न्यायाधीश रहते काटजू के ऑबजर्वेशंस का कायल था। सिस्टम पर काटजू की टिप्पणी मीडिया के लिए बहस का विषय देती थी और मीडिया से प्रशंसा भी पाती थी। लेकिन, अब जब वही काटजू मीडिया को आइना दिखा रहे हैं तो, मीडिया तिलमिला रहा है। मैं मीडिया में हूं और जानता हूं कि कई बार अपनी स्थिति बचाए रखने के लिए लोगों के बीच मीडिया की न बातों पर भी समर्थन करना पड़ता है जिसका मैं खुद विरोधी होता हूं। काटजू की टिप्पणी के मामले में भी ऐसा ही है। काटजू ने जो बातें कही हैं वो, ज्यादातर सही है। लेकिन, मीडिया शायद डर इसी बात रहा है कि अगर काटजू को तुरंत नहीं टोंका तो, आगे भी किसा मौके पर मीडिया, खासकर टीवी मीडिया की स्व नियंत्रण की अवधारणा को काटने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। काटजू मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाने की बात इस आधार पर कहे हैं कि न्यायाधीश पर स्वनियंत्रण नहीं करते। उन पर भी महाभियोग चलाया जाता है। लेकिन, काटजू साहब को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया स्वनियंत्रण की बात इसलिए भी कहता है कि मीडिया पर नियंत्रण की कोशिशें अगर एक बार सफल हुईं तो, सरकार से लेकर हर तरह के प्रभावी लोग कैसे इस पर नियंत्रण की बेजा कोशिश करेंगे। ये सबको पता है। सरकार बार-बार मीडिया को चेतावनी देती ही रहती है। सच्चाई ये भी है मीडिया और न्यायपालिका पर नियंत्रण इसीलिए ठीक नहीं होता कि ये लोकतंत्र बचाने के लिए सचमुच जरूरी स्तंभ हैं।

अच्छी बात ये है कि काटजू साहब ये भी कह रहे हैं कि मीडिया के वो दोस्त हैं। उन्होंने टाइम्स नाऊ पर 100 करोड़ रुपए के जुर्माने को आदरपूर्ण तरीके से नकारते हुए इसका सबूत भी दे दिया कि काटजू वही वाले काटजू हैं जो, मीडिया को बड़े अच्छे लगते थे। जरूरत ये है कि इस बात को मीडिया भी समझे। क्योंकि, मीडिया तो, सरकार से लेकर सिस्टम में हर किसी का परम आलोचक ही होता है। और, इसी आलोचना के बूते समाज को स्वस्थ रखने का दावा भी करता है। इसलिए निंदक नियरे राखिए ... लागू करते हुए अच्छा है कि काटजू जैसा निंदक प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का चेयरमैन है। और, अगर काटजू कुछ कह रहे हैं तो, उनकी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया सुधार करके देनी चाहिए। यानी, खोखली बयानबाजी से नहीं काटजू की टिप्पणी का जवाब कार्रवाई से देना चाहिए।

और, ऐसा नहीं है। मीडिया पर भी दबाव है इसीलिए बीईए ने इस बार जो, निर्देश जारी किए उसके बाद टीवी चैनलों ने ऐश्वर्या के बच्चे को पैदा होते ही देश का सबसे चर्चित बच्चा नहीं बनाया। इसके लिए अमिताभ बच्चन ने मीडिया का धन्यवाद भी किया। इसलिए मीडिया और काटजू दोनों को एक दूसरे का दोस्त ही सचमुच बनना होगा। वरना तो, टिप्पणी और प्रति टिप्पणी में लोकतंत्र की शक्लो सूरत बिगाड़ने की कोशिश में लगे सत्ता से जुड़े लोग इसका फायदा उठा लेंगे।

Tuesday, November 15, 2011

अगर नरेंद्र मोदी-राहुल गांधी की टक्कर हुई तो ...

फूलपुर, इलाहाबाद में सभा के दौरान राहुल गांधी
राहुल गांधी ने फूलपुर में 14 नवंबर को जो, बोला वो, पार्टी की 22 सालों से सत्ता से जो, दूरी हैं उसे कम करने के लिए बोला। लेकिन, जवानी का जोश ऐसा रहा कि सब उल्टा पड़ता दिख रहा है। सब राशन-पानी लेकर चढ़ दौड़े। राहल गांधी ने फूलपुर में यूपी के लोगों को उत्तेजित करने की गरज से बोला दिया कि कब तक महाराष्ट्र में जाकर भीख मांगोगे। कब तक पंजाब में जाकर मजदूरी करोगे। राहल समझ ही नहीं पाए होंगे कि ये बयान किस तरह से लिया जा सकता है। उत्तर प्रदेश पिछड़ा है। उत्तर प्रदेश के लोग महाराष्ट्र, पंजाब में जाकर नौकरियां, मजदूरी कर रहे हैं। ये सब जानते हैं। जरूरत भी है। क्योंकि, आज के समय में जहां बेहतर रोजी-रोटी का बंदोबस्त होगा, वहीं जाएगा। लेकिन, राहुल जोश में भूल गए कि किसी की एक आंख की रोशनी जा रही हो तो, उसे काना कहकर उसे और पीड़ा नहीं देते हैं। उसे कोशिश करके ऐसे समझाते हैं कि दोनों आंखों की रोशनी जरूरी है। ये बात राहुल नहीं समझा पाए। और, यही वजह है कि बार-बार ये सवाल खड़ा होता रहता है कि राहुल राजनीति में अभी नौसिखिए ही हैं या परिपक्व हो गए हैं। क्षेत्रवाद की राजनीति पर फले-फूले शिवसेना जैसे दल भी कहने लगे कि राहुल प्रांतवाद फैला रहे हैं। दरअसल, राजनीति में तरह-तरह के वाद के सहारे अपना वोटबैंक बढ़ाने की कोशिश हर कोई करता है लेकिन, कुछ शिवसेना की तरह एक ही वाद में सिमटकर रह जाते हैं। तो, कुछ मायावती की तरह दलितवाद से दलित-ब्राह्मणवाद तक चले जाते हैं। मायावती ठसके से मंच से ब्राह्मण सम्मेलन में कह देती हैं कि कांग्रेस, बीजेपी की सरकार बनी तो, ठाकुर ही मुख्यमंत्री होगा।

2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान
खैर, बात मैं राहुल की कर रहा था। बार-बार ये चर्चा होती है कि 2014 के चुनाव में राहुल गांधी ही कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। और, बीजेपी में भले ही इस पद की दावेदारी को लेकर पटकापटकी मची हो। लेकिन, अभी के हालात में 2014 में बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी की ही दावेदारी बनती दिख रही है। अब अगर ये परिदृश्य बना तो, राहुल- नरेंद्र मोदी जैसे नेता के सामने कितनी देर टिक पाएंगे। मैं ये इसलिए कह रहा हूं कि 2012 के चुनाव के लिए राहुल गांधी यूपी के लोगों की जिस भावना को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं वो, काम नरेंद्र मोदी 2007 के चुनाव में ही कर चुके हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव में हमारे मित्र मनीष शुक्ला जौनपुर की खुटहन विधानसभा से चुनाव लड़ रहे थे। नरेंद्र मोदी को सभा के लिए आना था। नरेंद्र मोदी ने भी भावनाएं भड़काईं। मोदी ने कहा- आप लोगों से मेरा बड़ा नजदीकी रिश्ता है। गुजरात की तरक्की में आपकी पसीने की खुशबू आती है। लेकिन, गंगा, जमुना और सरस्वती मइया की इस धरती से जब लोग गुजरात में आते हैं तो, मुझे अच्छा नहीं लगता। क्योंकि, ये वो धरती है जिसने देश का रास्ता दिखाया है। माया-मुलायम जैसे राहु-केतु इस उर्वर धरती पर ग्रहण की तरह हैं। मेरे गुजरात में तो, सिर्फ एक नर्मदा मइया हैं। उनके भरोसे मैंने गुजरात को लहलहा दिया है। अगर, गंगा-यमुना की उर्वर जमीन मेरे पास होता तो, सोचिए क्या हो सकता था। और, मुझे उस दिन अच्छा लगेगा जब कोई उत्तर प्रदेश का नौजवान आकर मुझसे कहेगा कि मैं यूपी छोड़कर नहीं जा सकता। यही फरक है, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी में।

Monday, November 14, 2011

सुशील कुमार के ब्रांड अबैंसडर बनने से क्या होगा ?

सुशील कुमार मनरेगा के ब्रांड अबैंसडर बने

ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश दुखी हैं कि मनरेगा की चर्चा पत्रकार, मीडिया सिर्फ गलत संदर्भों में करते हैं। जयराम रमेश ने पत्रकारों से पूछा कि आप लोग मनरेगा की अच्छी बातों की चर्चा क्यों नहीं करते।
ये बातें उन्होंने तब कहीं जब वो सुशील कुमार को मनरेगा का ब्रांड अंबैसडर बना रहे थे।

सुशील कुमार वही हैं जो, कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन के पूछे सवालों का जवाब देकर 5 करोड़ जीत गए हैं। सुशील कुमार चूंकि इत्तेफाक से मनरेगा में डाटा एंट्री ऑपरेटर हैं। बस इसी मौके को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने लपक लिया है। लेकिन, सवाल ये है कि 5 करोड़ रुपए की लॉटरी जीतने वाला ब्रांड अंबैसडर बनकर 100 रुपया रोजाना 100 दिन पक्के तौर पर कमाने की गारंटी वाले लोगों को कैसी प्रेरणा देगा। कौन बनेगा करोड़पति में दे दनादन मैसेज भेजकर केबीसी की हॉट सीट पर बैठने की प्रेरणा और तुक्के पे तुक्का मारकर 5 करोड़ जीतने की प्रेरणा। जयराम रमेश विद्वान मंत्रियों में हैं लेकिन, उनका ये दर्शन मुझे तो समझ में नहीं आया।

सुशील कुमार  भी दार्शनिक हो गए हैं। जब उनसे ये पूछा कि आप मनरेगा का ब्रांड अबैंसडर बनकर उसके लिए कैसे मददगार होंगे तो, उनका जवाब ऐसा था कि दर्शन की किताबें कम पड़ें। आखिरी लाइन लिख रहा हूं। मनरेगा में काम करना ईश्वर की अराधना जैसा है।

Friday, November 11, 2011

इन मदेरणाओं का क्या कुछ बिगड़ेगा?

राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा और भंवरी देवी
राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा की नर्स भंवरी देवी के साथ रंगरेलियां मनाते चर्चित सीडी अब मीडिया के जरिए सबके सामने आ गई। और, शायद यही सबूत रहा कि अब तक भंवरी को न जानने की बात करने वाले मदेरणा ने माना कि भंवरी से उनके संबंध थे। लेकिन, अब वो कह रहे हैं कि भंवरी के गायब होने में उनका हाथ नहीं है। शक ये भी मजबूत हो रहे हैं कि भंवरी की हत्या हो गई है। कहा ये भी जा रहा है कि भंवरी देवी ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने भी गुहार लगाई थी। फिर भंवरी कहां गई और किसने भंवरी को मरवाया या फिर क्या भंवरी अभी जिंदा भी हो सकती है।

खबरें हैं कि भंवरी कांग्रेस के टिकट के लिए मदेरणा पर दबाव बना रही थी। तो, क्या किसी महिला के लिए राजनीति में जाने का बिस्तर के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा है। या इन नेताओं की फितरत ऐसी है क्योंकि, भंवरी की महत्वाकांक्षा रही होगी वो, टिकट चाहती होगी। नारायण दत्त तिवारी, अमरमणि से लेकर आनंदसेन तक ऐसी सेक्स स्कैंडल की ढेरों कहानियां है जिसमें नेताओं ने दूसरी महिलाओं के साथ संबंध बनाए और अपने राजनीतिक हित पर जब उन्हें भारी पड़ता देखा तो, उनसे कन्नी काट ली या उनकी जिंदगी की डोर काट दी।

गहलोत के बारे में है कि वो भले मुख्यमंत्री हैं तो, फिर क्या उन्होंने भंवरी देवी और महिपाल मदेरणा के अनैतिक संबंधों को मदेरणा को दबाने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। एक और बात इस मामले से साफ होती है कि राजनीति में गुनाह तब तक छिपे रहते हैं जब तक नेता ताकतवर है। महिपाल मदेरणा के पिता परसराम मदेरणा भी अपने समय में राजस्थान की जाट राजनीति और कांग्रेस के बड़े नेता था। उनकी सत्ता में महिपाल को अदालत ने हत्या का भी दोषी पाया था। सवाल यही है कि ऐसे आदमी को इतने दिनों तक कांग्रेसी सत्ता क्यों पालती रही। और, ये भी कि भंवरी देवी जैसी अतिमहत्वाकांक्षी महिलाएं क्या देह के इस्तेमाल से कुछ भी करती रहेंगी। क्योंकि, कहा ये भी जाता है कि इस साधारण सी नर्स के आगे इसी ताकत की वजह से राजस्थान के बड़े-बड़े अधिकारी नतमस्तक रहते थे।

सवाल मीडिया पर भी है क्योंकि, खबरें ये भी हैं कि कई राजस्थान के मीडियाकर्मियों ने इस सीडी को उजागर करने के बजाए उसे दबाने  के लिए पैसे खाए।

Thursday, November 03, 2011

राहुल जी गुस्से में हैं !

यूपी दौरे पर राहुल गांधी

 आजकल राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में हैं। बड़े गुस्से में थे। यूपी के लोगों से पूछ रहे थे माया सरकार के खिलाफ उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता। दिल्ली रहते हैं, पता नहीं उनकी बोलती क्यों बंद हो जाती है। गुस्सा कहां चला जाता है। जबकि, देश की जनता दिल्ली (यूपीए) की सरकार से बड़ी गुस्से में है। राहुल गांधी जी गुस्सा सबको आता है और गुस्से का परिणाम भी देर सबेर दिखता है। अच्छा है आपने पूछ लिया कि यूपी के लोगों को गुस्सा क्यों नहीं आता।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...