हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi
अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। चंद्रमा दर्शन के उपरांत ही कुछ ग्रहण करती हैं। भारत भी चाँद पर पहुँच चुका है, लेकिन इससे हिन्दू स्त्रियों के मन में अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखने और चंद्रमा देखकर व्रत तोड़ने में अंतर नहीं आया है। व्रत के अगले दिन सुबह संतान तिल-गुड़ से बना पहाड़ तोड़ते हैं। पूजा में तिल-गुड़ के अलावा गन्ना, गाजर, अमरूद, शकरकंद, बैगन आदि मौसमी खाद्य ही इस पूजा में चढ़ाया जाता है। यह सब मंदिर में ही जाता है। जाहिर है, इसे अकेले पुजारी/पंडित तो खा नहीं जाएगा। ऐसी ही व्रत-परंपरा के मंदिर से जुड़े होने से भारत में मंदिरों से कोई भूखा नहीं लौटता था, तब भी जब लंगर/भंडारा जैसे आयोजन के चित्र सोशल मीडिया पर नहीं डाले जाते थे। मंदिर, परिवार और इसे सँभालने वाली महिलाएं हमारे हिन्दू समाज की रीढ़ हैं। अब यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि, इसीलिए सारे हमले उन्हीं को लक्षित करके होते रहे हैं। इसका एक और आवश्यक पहलू जानना चाहिए और उसे दुरुस्त करना चाहिए। किन्हीं वजहों से यह व्रत रखने की मान्यता अधिकांशतः पुत्रों की लंबी आयु के लिए ही रखती रही हैं, लेकिन मेरी पत्नी हमारी दोनों पुत्रियों के लिए रखती है। हिन्दू धर्म निरंतर सुधार का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। सुधार हम हिन्दू स्वयं करते रहते हैं। किसी क्रांति, गोली चलाने, विद्रोह करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। हिन्दू व्रत-परंपरा में मूल प्रकृति, समाज विज्ञान जुड़ा हुआ है, उसके इर्द गिर्द समाज में अलग-अलग कहानियाँ हो सकती हैं। और इसमें यह जोड़ना आवश्यक है कि, बहुत सी हिन्दू स्त्रियाँ यह व्रत नहीं रखती हैं तो उन पर यह बाध्यता भी नहीं होती है।