टेलीग्राफ
अखबार की ये सवाल-जवाब वाली शानदार तस्वीर वाली खबर नहीं देखी होती, तो इस विषय पर मैं
शायद ही कुछ लिखता। लेकिन, इसके बाद मेरे मन में जो था। वो लिखना जरूरी लगा। प्रधानमंत्री के साथ
तस्वीर होना किसी के लिए भी बड़ी खुशी की वजह हो सकती है। इसलिए #Selfie
लेना कोई गुनाह नहीं है। लेकिन, सेल्फी दौड़ मेरी
दिक्कत की वजह है। पिछले साल की सेल्फी भगदड़ पर भी मेरे यही विचार थे। लेकिन, उसके खारिज होने की
एक वजह ये जायज रही कि मुझे आमंत्रण ही नहीं मिला था। इस बार ससम्मान मैं भी
आमंत्रित था। और सेल्फी दौड़ छोड़िए, सेल्फी भीड़ में भी शामिल नहीं हुआ। हां, तारीफ
करनी चाहिए भारतीय जनता पार्टी के मीडिया विभाग की इतने सलीके वाले दीपावली मंगल
मिलन समारोह को करने के लिए। जिसमें प्रधानमंत्री @narendramodi बीजेपी अध्यक्ष @AmitShah के अलावा ढेर सारे
मंत्री भी पक्षकारों से सहज रूप से मिल रहे थे। थोड़ा बहुत बोलने के बाद
प्रधानमंत्री, अमित
शाह दोनों ही मंच से नीचे उतरकर पत्रकारों के बीच में आ गए। भाजपा के राष्ट्रीय
सचिव और मीडिया प्रभारी श्रीकांत शर्मा @ptshrikant
ने दो बार मंच से अपील की कि प्रधानमंत्री खुद
पत्रकारों के बीच जा रहे हैं। कृपया सभी महानुभाव अपनी जगह बैठे रहें।
प्रधानमंत्री नीचे उतरकर पत्रकारों के पास खुद आ रहे थे। लेकिन, लगातार की जा रही
अपील अनसुनी हो गई। प्रधानमंत्री के नीचे उतरते ही जैसे सारे पत्रकार टूट पड़ने के
लिए इंतजार कर रहे थे। इसलिए टेलीग्राफ अखबार ने निश्चित तौर पर उमर
अब्दुल्ला के सवाल को सवाल बनाकर जवाब सेल्फी लेने के लिए आतुर पत्रकारों के बीच
घिरे मोदी की तस्वीर डालकर पत्रकारिता का शानदार उदाहरण दिया है। मोदी के आने से
पहले सरकार के दो महत्वपूर्ण मंत्री रविशंकर प्रसाद और वेंकैया नायडू @rsprasad @MVenkaiaihNaidu सभी
पत्रकारों से खुद जाकर मिले। मेरी भी अच्छी मुलाकात हुई। दूसरे मंत्री भी घूम
घूमकर पत्रकारों से सहज भाव से मिल रहे थे। सत्तासीन पार्टी मेजबान की भूमिका सहज
भाव से निभा रही थी। सरकार के मंत्री सुलभ थे। इसलिए टेलीग्राफ की हेडलाइन का जवाब
पत्रकारों को ही खोजना है। सरकार या सत्तासीन पार्टी भारतीय जनता पार्टी की तरफ से
ऐसा कुछ नहीं किया गया। मुझे भी कभी प्रधानमंत्री के साथ निजी मुलाकात का मौका
मिलेगा, तो हो
सकता है कि एक अच्छी सी तस्वीर उनके साथ मैं भी खिंचवाऊं और उसे फेसबुक पर भी
लगाऊं। लेकिन, इस तरह
की सेल्फी दौड़ में न पहले कभी शामिल हुआ था। न इस बार शामिल हुआ। न आगे होऊंगा।
पत्रकार की भूमिका में रहूं या सामान्य भूमिका में। इससे भी फर्क नहीं पड़ेगा।
शानदार भोजन की व्यवस्था थी। और उसका भरपूर आनंद उठाया। हां, जो विद्वजन ये कह रहे
हैं कि पत्रकारों को कड़े सवाल पूछने चाहिए थे। तो उस पर भी मैं इतना ही कहूंगा कि
ये सवाल पूछने के लिए नहीं मंगल मिलन का समरोह था। वही अच्छे से होना चाहिए था।
सेल्फी दौड़ को छोड़ दें, तो वही हुआ भी। आपातकाल में दबाव में और अभी प्रेम में
पत्रकार ही दोहरे हुए हैं। आडवाणी जी की बात याद आ गई।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Sunday, November 29, 2015
Friday, November 27, 2015
इतनी असहिष्णुता देश में कभी नहीं रही
असहिष्णु भारत इस समय दुनिया में चर्चा का विषय है। भारत अचानक इतना
असहिष्णु हो गया है कि देश के सबसे ज्यादा पसंदीदा कलाकारों में से एक आमिर खान की
पत्नी उनसे कह देती हैं कि क्या उनको भारत छोड़ देना चाहिए। पत्रकारिता के सबसे
प्रतिष्ठित पुरस्कार रामनाथ गोयनका अवॉर्ड के मौके पर अभिनेता आमिर खान की इस बात
ने देश में उस बहस को तेज कर दिया है कि क्या सचमुच भारत असहिष्णु हो गया है।
खासकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ, उसमें भी खासकर मुसलमानों के खिलाफ। सांप्रदायिक
हिंसा पर गृह मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट इस बहस को और आगे बढ़ाती है। 2014 के पहले
पांच महीने और 2015 के पहले पांच महीने की बहस साफ करती है कि मोदी सरकार में
ज्यादा सांप्ररदायिक हिंसा बढ़ी है। मतलब असहिष्णुता बढ़ी है। हालांकि, भारतीय
जनता पार्टी इस बात पर बहस करना बेहतर समझेगी जिसमें 2015 में 2014 से कम जानें
सांप्रदायिक हिंसा में गई है। इसी बहस को थोड़ा और आगे बढ़ाने के लिए गृह मंत्रालय
की ताजा रिपोर्ट से पिछले पांच साल के आंकड़े देखते हैं। मोदी सरकार के इस साल
यानी 2015 के पहले पांच महीने में सांप्रदायिक हिंसा के 287 मामले सामने आए हैं।
इसमें 43 जानें गईं। और 961 लोग घायल हुए। 2014 में यूपीए के समय में ये आकड़े
देखने से लगता है कि मोदी सरकार में सांप्रदायिक हिंसा के मामले बढ़े हैं। 2014 के
पहले पांच महीने में सांप्रदायिक हिंसा के 232 मामले सामने आए थे। इसमें 26 जानें
गईं। और 701 लोग घायल हुए। गह मंत्रालय की इसी रिपोर्ट के आंकड़े जब थोड़ा और
बढ़ाते हैं, तो तस्वीर मोदी सरकार के पक्ष में थोड़ी बेहतर होती है। 2015 के पहले
आठ महीने यानी जनवरी से अक्टूबर के दौरान 86 जानें गईं हैं। जबकि, 2014 में जनवरी
से अक्टूबर के दौरान 90 लोगों को सांप्रदायिक हिंसा में अपनी जान गंवानी पड़ी थी।
हालांकि, सांप्रदायिक घटनाओं के मामले में मोदी सरकार सुधार नहीं ला सकी। जनवरी से
अक्टूबर 2015 के दौरान 630 मामले हुए। जबकि, 2014 में ऐसी 561 घटनाएं ही हुई थीं।
हालांकि, आंकड़ों के लिहाज से एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद से देश में कोई
भी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा की घटना नहीं हुई है। 2013 में यूपीए सरकार के रहने के
दौरान मुजफ्फरनगर दंगा हुआ था। सिर्फ इसी दंगे में 65 लोगों की जान चली गई थी। गृह
मंत्रालय के अधिकारिक आंकड़ों को 2014 और 2015 से पीछे ले जाएं, तो तस्वीर ज्यादा
साफ होती है। 2010 में 701, 2011 में 580, 2012 में 668 और 2013 में 823
सांप्रदायिक हिंसा के मामले हुए थे। मई 2014 में यूपीए से सत्ता हासिल करके एनडीए
का शासन शुरू हुआ था।
आंकड़ों इसका सीधा सा मतलब ये है कि नरेंद्र मोदी की सरकार के सत्ता
में आने के बाद भारत को असहिष्णु बताने की जो जबर्दस्त कोशिश हो रही है। उसमें
पक्षपाती आंकड़ों का बबड़ा योगदान है। क्योंकि, इन आंकड़ों पर तो बात होती है कि
देश में कुल कितनी घटनाएं हुईं। और उस समय केंद्र में किसकी सरकार थी। लेकिन,
सच्चाई ये भी है कि केंद्र में चाहे यूपीए की सरकार रही हो या फिर एनडीए की। कानून
व्यवस्था राज्यों का ही मसला है। इसलिए कानून व्यवस्था के साथ सांप्रदायिक हिंसा
पर बात करते हुए भी राज्यों की सरकारों पर बात किए बिना बात अधूरी ही रह जाती है।
2012, 13 और 2014 में देश में हुए कुल सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में एक तिहाई
सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही हुए हैं। लेकिन, कभी भी देश में असहिष्णुता या
सांप्रदायिकता के लिए उत्तर प्रदेश की सरकारों पर कहीं से भी सवाल खड़े नहीं होत। मुलायम
सिंह यादव की सरकार रही हो या फिर मायावती की और अब अखिलेश यादव की। कभी भी देश की
असहिष्णुता पर चर्चा करने वालों ने उस तरफ उंगली नहीं उठाई। इस उंगली न उठाने से
ही देश में अभी चल रही असहिष्णुता की सारी बहस का पक्षपात साफ समझ में आ जाता है।
यही पक्षपाती दृष्टिकोण कर्नाटक की कांग्रेस सरकार में हुई हत्या को केंद्र में
नरेंद्र मोदी के सिर मढ़ने की कोशिश करता है। यही पक्षपाती दृष्टिकोण 2013 में हुई नरेंद्र
दाभोलकर की हत्या को भी भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता नरेंद्र मोदी पर थोपने की
कोशिश करता है। असहिष्णुता की बहस में ज्यादातर मंचों पर गला फाड़ने वाले भूल ही
जाते हैं कि 20 अगस्त 2013 को जब दाभोलकर की हत्या की गई। तो उस समय केंद्र में
कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार थी। और महाराष्ट्र में भी कांग्रेस और
एनसीपी की साझा सरकार थी। लेकिन, ये तय दृष्टिकोण असहिष्णुता के मामले सिर्फ
भारतीय जनता पार्टी की सरकार में खोजता है।
असहिष्णुता और अल्पसंख्यकों के प्रति असुरक्षा की भावना की बात करने
वाले ये भूल जाते हैं कि इस तरह की एकांगी बहस ने ही देश के उन नौजवानों को भी
भारतीय जनता पार्टी के चुनाह चिन्ह पर मत डालने के लिए तैयार कर दिया। जो इससे
पहले कभी भारतीय जनता पार्टी के साथ नहीं थे। असहिष्णुता इस समय देश में सबसे
ज्यादा है। इस पर बहस की कोई वजह नहीं दिखती। क्योंकि, एक ऐसे व्यक्ति के
प्रधानमंत्री बन जाने से हर मसले को उस व्यक्ति के खिलाफ वजह बताने की ऐसी
असहिष्णुता देश में शायद ही कभी देखने को मिली हो। और इसी असहिष्णुता की बहस को
मजबूत आधार देते हैं भारतीय जनता पार्टी के वो नेता। जिन्हें बहुत अच्छे से पता है
कि क्षेत्र का विकास, नौजवान की जेब की ताकत बढ़ाना ये सब कठिन तरीका है। सबसे
आसान है हिंदू राष्ट्र के लिए दो-चार बयान दे देना। और उसी बयान के आधार पर मीडिया
के जरिए भारतीय जनता पार्टी का बड़ा नेता बन जाना। इस तरीके की राजनीति करने के
लिए न पढ़ने-लिखने की जरूरत है। न कुछ ठोस काम करने की। न किसी अच्छे दृष्टिकोण
की। भारतीय जनता पार्टी के ऐसे नेताओं के छोटे फायदे भारतीय जनता पार्टी और सही
मायने में भारतीय राजनीति के बड़े फायदे पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। ये किस तरह से
भारी पड़ रहे हैं। अभी हाल के बिहार चुनावों में ये साफ हो गया है। अच्छा होगा कि
नीतीश कुमार अपनी सुशासन बाबू वाली छवि इस बार भी बनाए रख पाएं। लेकिन, राष्ट्रीय
जनता दल के सर्वोच्च नेता लालू प्रसाद यादव जब अपनी ताकत दिखाने की इच्छा पर जरा
सा भी अंकुश नहीं लगा सके। तो मुश्किल ही है कि राष्ट्रीय जनता दल के विधायक,
मंत्री अपनी ताकत दिखाने की इच्छा पर अंकुश लगा सकेंगे। राजद के नेता सत्ता की
इतनी जल्दी में हैं कि कुछ दिनों का इंतजार करने के बजाए मनपसंद बंगलों पर कब्जा
करने की कोशिश में लग गए हैं। लेकिन, असहिष्णुता की बहस में इस पर बात शायद ही हो।
हां, असहिष्णुता की बहस में मलेशिया में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी के रंगीन परिधान की चर्चा जरूर होगी। भले ही इस बहस के आगे बढ़ने से लोगों को
ये साफ पता चल गया कि दरअसल वैसे रंगीन परिधान सभी मेहमान राष्ट्राध्यक्षों को
वहां की परंपरा के लिहाज से पहनने होते हैं। असहिष्णुता शायद ही इस देश में पहले
कभी किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ इस कदर रही होगी। असहिष्णुता पर बहस करने वाले कह
रहे हैं कि मोदी राज में भारत में लोगों के खाने-पहनने-बोलने पर रोक लग गई है। यहां
तक कि एक साहब ने तो लंदन के अखबार में भारत में हिंदू तालिबान का राज बता दिया।
हालांकि, इस हिंदू तालिबान के शासन का राज तब खुल गया। जब भारतीय जनता पार्टी की
ही राजस्थान सरकार ने उसी लेखक को अपने यहां की एक प्रमुख संस्था में नियुक्त करने
का मन बन लिया था। बाद में मीडिया में खबरें आ जाने के बाद सारे नाम वापस ले लिए
गए। असहिष्णुता इस समय देश में किस कदर है। इसके ढेर सारे उदाहरण हैं। देश के सबसे
बड़े आलोचकों में शुमार नामवर सिंह जब कहते हैं कि पुरस्कार लौटाना ठीक नहीं है।
तो सोचिए सहिष्णुता के पक्षधर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। वो प्रतिक्रिया देते हैं
कि संघी हो गया है नामवर सिंह। मुनव्वर राणा का नाम ऐसे शायरों में शामिल है।
जिनको हर कोई पसंद करता है। लेकिन, जैसे ही मुनव्वर कहते हैं कि जो पुरस्कार लौटा
रहे हैं। उनके कलम की स्याही सूख गई है। वो थक गए हैं। पूरी तथाकथित सहिष्णु जमात
मुनव्वर को असहिष्णु साबित कर देती है। इस कदर कि सहिष्णु बने रहने के लिए वो एक
टीवी चैनल पर नाटकीय अंदाज में अपना सम्मान वापस करते हैं। फिर कहते हैं कि वापस
नहीं करूंगा।
इस तरह की असहिष्णुता देश ने कभी नहीं देखी है। ये असहिष्णुता कैसे
है। समझने की जरूरत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर आरोप लग
रहा है कि देश में कोई भी मोदी सरकार के खिलाफ बोले, तो उसे पाकिस्तान भेजने की
धमकी दी जाती है। राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है। इस तरह का व्यवहार करने
वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी को
लगाम लगानी ही होगी। लेकिन, इसका दूसरा पक्ष देखें। नामवर सिंह, मुनव्वर राणा के
बाद अब तथाकथित सहिष्णु जमात के निशाने पर हैं जावेद अख्तर साहब। ये वही जावेद
अख्तर हैं जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हर जगह मजबूती से खड़े रहते हैं।
दक्षिणपंथी जमात की जबर्दस्त आलोचना झेलते हैं। लेकिन, जब वही जावेद अख्तर कहते
हैं कि निजी जीवन में उन्होंने कभी सांप्रदायिक भेदभाव नहीं देखा है। तो वो
तथाकथित सहिष्णु जमात के निशाने पर आ जाते हैं। कुछ तो ये भी कह देते हैं कि
राज्यसभा का कार्यकाल इस सरकार में भी बना रहे। इसी की कोशिश जावेद अख्तर कर रहे
हैं। जावेद साहब ने ये भी कहाकि उनका निजी अनुभव है कि अगर कोई पूरी ईमानदारी और
मेहनत से काम करता है तो कोई भी सांप्रदायिकता या नफरत व्यक्ति को सफल होने से रोक
नहीं सकती। उन्होंने ये भी कहाकि भेदभाव हैं। कई तरह के हैं। उनको मिटाना इतना
आसान नहीं है। बहस इस पर होनी चाहिए थी। लेकिन, इसकी बजाए आलोचना जावेद अख्तर की
ही होने लगी। जरूरी है कि इस असहिष्णुता को कम किया जाए। देश को सहिष्णु बनाए जाने
की बड़ी जरूरत है।
Tuesday, November 17, 2015
बाजार बड़ा भला कर सकता है
गीता प्रतियोगिता की विजेता मरियम सिद्दीकी |
बाजार की बात करिए और एक सांस में कोई भी बाजार
की बुराई ही बुराई गिना देगा। वो भी जो बाजार में सिर से पांव तक डूबा है। वो भी
जो बाजार के बिना जी नहीं सकता। वो भी जो बाजार की हर सुविधा के लिए सारी जिंदगी
कसरत करते रहते हैं। खैर, मैं तो आमतौर पर बाजार का समर्थक ही हूं। बाजार की
सुविधाओं का भी। हां, ये भी उतना ही दृढ़ विश्वास है कि बाजार में भी दूसरी सारी
व्यवस्थाओं की तरह ढेर सारी कमियां हैं। जिसे सुधारते रहना जरूरी है। इस रविवार को
स्टार प्लस पर आने वाला आज की रात है जिंदगी शो देख रहा था। अमिताभ बच्चन हैं, तो
आकर्षण बढ़ जाता है। और अमिताभ बच्चन की तराकी भी अद्भुत है। खैर, मैं जो शो देख
रहा था। उसमें गीता प्रतियोगिता जीतने वाली मरियम सिद्दीकी थी। मरियम है तो सिर्फ
13 साल की लेकिन, मरियम का ज्ञान किसी बड़े विद्वान का आभास दे रहा था। 13 साल की
उम्र में मरियम कह रही थी कि किसी को चोट लगे और हिंदू मुसलमान पूछकर उसका इलाज
हुआ तो, इंसानियत मर जाएगी।
मरियम के माता-पिता |
और शो में जब अमिताभ बच्चन ने मरियम के पिता आरिफ
सिद्दीकी से पूछा कि उन्हें क्यों लगा कि बेटी को इस तरह के धार्मिक ग्रंथों को
पढ़ाना चाहिए। आरिफ का जवाब आया कि एक दिन स्कूल से लौटकर बेटी ने पूछा कि हमारे
साथ ज्यादातर बच्चे हिंदू क्यों हैं। इसके बाद लगा कि बच्ची को धर्म की समझ होनी
जरूरी है। कमाल ये है कि इस उम्र में मरियम ढेर सारे धर्मग्रंथ पढ़ चुकी है। अब वो
गुरुग्रंथ साहिब का अध्ययन कर रही है। ढेर सारा ज्ञान, पढ़ाई और दबाव भी शायद ही
उतने लोगों पर असर करे जितना उस दिन स्टार प्लस पर आज की रात है जिंदगी देखने
वालों पर हुआ होगा। जाहिर है ये धर्मार्थ नहीं हो रहा है। दूसरे मनोरंजन चैनलों को
मात देने के लिए ये कार्यक्रम स्टार प्लस ने बनाया है। लेकिन, इतने सुंदर तरीके से
कोई क्या धर्म बताएगा। इसलिए बाजार को खारिज मत कीजिए। मैं तो बाजार को लेकर इतना
आशावादी हूं कि कश्मीर की सारी मुश्किलों का हल इसी बाजार में देख रहा हूं।
Saturday, November 14, 2015
काहे का OccupyUGC
एक #OccupyUGC
आंदोलन चल रहा है। ज्यादातर मैं छात्र आंदोलन के
पक्ष में ही खड़ा रहता हूं। वजह कि ज्यादातर छात्र आंदोलन के मुद्दे सही होते हैं।
लेकिन, ये
मुद्दा पूरी तरह से राजनीतिक दिख रहा है। इसलिए इसके घोर विरोध में हूं। कई
वामपंथी और इस मुद्दे के पक्षधर विद्वानों से मैंने पूछा कि भावनात्मक विरोध, साजिश की बात छोड़कर
तथ्य बताइए कि इस नॉन नेट फेलोशिप को क्यों जारी रखना चाहिए। शोध करने के लिए कुछ
तो न्यूनतम योग्यता होनी चाहिए और उसी आधार पर सरकारी सहायता भी। मेरा ज्ञान इस
मामले में बहुत कम है। फिर भी बताइए कि ये आंदोलन सिवाय सरकार विरोध के एक और
फ्रंट के क्या है। लेकिन, किसी ने भी जवाब नहीं दिया है। 5
से 8 हजार रुपये सरकार की सब्सिडी से घर चलाते रहो। उसी में शादी-ब्याह भी
हो जाए। बच्चे भी पैदा कर लो। और फिर गरियाओ कि भारत में पढ़े-लिखे लोगों की
अहमियत नहीं। जो JRF या फिर
कम से कम NET की
परीक्षा नहीं पास कर पा रहे हैं उन्हें क्यों शोध करने के लिए सरकार पैसे दे। सवाल
बड़ा है पर कोई सरोकारी साथी बता नहीं पा रहा है Why #OccupyUGC
Friday, November 06, 2015
चुनाव के शोर में दब गई अर्थव्यवस्था की अच्छी खबरें
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 6 नवंबर 2015 को छपा लेख |
भारत में सर्विस इंडस्ट्री अक्टूबर महीने में आठ महीने की सबसे तेज
रफ्तार में रही है। ताजा सर्वे में ये बात सामने आई है। इसकी सबसे बड़ी वजह नए
कारोबार का उभरना है। निक्केई इंडिया कंपोजिट इंडेक्स से ये बात साफ हो रही है।
इसके मुताबिक, अक्टूबर महीने में भारत में ज्यादातर आर्थिक गतिविधियां तेजी से
बढ़ी हैं। साथ ही देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एसबीआई इंडेक्स
के मुताबिक, देश में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ भी अक्टूबर महीने में बेहतर
हुई है। एसबीआई कंपोजिट इंडेक्स में मैन्युफैक्चरिंग डेढ़ प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा
है। ये लगातार तीसरा महीना है जब मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में तेजी देखने को मिल रही
है। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की इस तेजी को एक और आंकड़ा बल देता है। इकतीस
अक्टूबर तक के आंकड़ों के मुताबिक, सरकारी खजाने में साढ़े छत्तीस प्रतिशत ज्यादा
अप्रत्यक्ष कर आया है। इसका सीधा सा मतलब है कि कंपनियों की बैलेंसशीट बेहतर हुई
है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इसे मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में तेजी का बड़ा
आधार बताया है। स्टेट बैंक की रिपोर्ट ये भी बता रही है कि आने वाली तिमाही में
पावर, स्टील, ग्रीन एनर्जी, हाइड्रोकार्बन और टेलीकॉम सेक्टर में तेज क्रेडिट
ग्रोथ देखने को मिलेगी। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि इन क्षेत्रों में तेज हलचल होगी।
बैंक घर और कार कर्ज में भी तेज मांग देख रहा है। इन छोटी-छोटी खबरों को जोड़कर
आसान भाषा में समझें, तो इसका मतलब ये हुआ कि लंबे समय से मंदी की ओर बढ़ता दिख
रहा भारतीय कारोबारी जगत बेहतरी की ओर बढ़ रहा है। पावर, स्टील, ग्रीन एनर्जी,
हाइड्रोकार्बन और टेलीकॉम सेक्टर में तेज क्रेडिट ग्रोथ का सीधा सा मतलब हुआ कि
कोल ब्लॉक और स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद से ठप पड़ गए क्षेत्रों में फिर से नई
संभावनाएं बन रही हैं। यानी इंडिया इंक हरकत में है। इसी तरह घर और कार कर्ज की
मांग बढ़ने का मतलब ये हुआ कि इंडियन मिडिल क्लास फिर से अपनी जेब से पैसे निकालने
लगा है। जो, वो पूरी तरह से बचाकर रखने लगा था। क्योंकि, यूपीए शासन में साढ़े
पांच प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार ने इंडियन मिडिल को डरा दिया था। नरेंद्र मोदी
की सरकार के लालफीताशाही को खत्म करने की कोशिशों के बाद फिर से भारतीय उद्योग
बेहतरी करते दिखने लगे हैं। और इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ऑटोमोबाइल उद्योग का। सोसायटी
ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि सितंबर महीने
में देश में कार की बिक्री करीब दस प्रतिशत ज्यादा रही है। ये पिछले साल के इसी
महीने के मुकाबले है। सितंबर महीने में कार कंपनियों ने करीब एक लाख सत्तर हजार
कारें बेच ली हैं। देश की अर्थव्यवस्था का असल हाल समझने में यात्री कारों से
ज्यादा वाणिज्यिक वाहनों यानी ट्रकों की बिक्री मददगार होती है। सितंबर महीने में
वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री में बारह प्रतिशत से ज्यादा की तेजी देखने को मिली है।
इसका सीधा सा मतलब हुआ कि उद्योगों को अपने सामान लाने ले जाने के लिए ज्यादा
ट्रकों की जरूरत पड़ रही है। लोगों का जीवन किस तरह चल रहा है। इसका अंदाजा भारत
में त्योहारों के दौरान लगाना बेहद आसान होता है। अगर बाजार लोगों से भरे हुए हैं
और बाजार से लौटते हुए लोग खरीदारी करके लौट रहे हैं, तो इसका सीधा सा मतलब हुआ कि
लोगों का जीवन स्तर बेहतर हुआ है। शहरी लोगों की खरीदारी का तरीका ई कॉमर्स के आने
से बदला है। भारत सात बिलियन डॉलर का डिजिटल बाजार बन चुका है। इसीलिए अक्टूबर
महीने में फ्लिपकार्ट, स्नैपडील और अमेजॉन के बीच शहरी ग्राहक को पकड़ने की होड़
लगी थी। अक्टूबर महीने में फ्लिपकार्ट ने बिग बिलियन सेल में 30 करोड़ डॉलर यानी
करीब दो हजार करोड़ रुपये के सामान बेच लिए। इन वेबसाइट पर आने वाले हर ग्राहक ने
एक हजार से लेकर पांच हजार रुपये तक की खरीदारी की है। और भारत में वेबसाइट के
जरिये सामान खरीदने वाले सिर्फ एक प्रतिशत लोग ही हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा
सकता है कि इस त्योहारी मौसम में भारतीय कितनी खरीदारी कर रहा है।
कारोबारी गतिविधियों के बेहतर होने का साफ असर महत्वपूर्ण आंकड़ों में
दिख रहा है। तेरह अक्टूबर को आए आईआईपी यानी औद्योगिक उत्पादन आंकड़े साफ करते हैं
कि अर्थव्यवस्था पर छाई धुंध काफी हद तक साफ हो चुकी है। तेरह अक्टूबर को आए
औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े के मुताबिक, अगस्त महीने में उत्पादन करीब साढ़े छे
प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से बढ़ा है। ये इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
क्योंकि, औद्योगिक उत्पादन में ये तेजी करीब चौंतीस महीने के बाद देखने को मिल रही
है। औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों में सबसे अच्छी बात ये है कि कैपिटल गुड्स यानी
उद्योगों के काम में आने वाली मशीनरी का उत्पादन करीब बाइस प्रतिशत बढ़ा है। इस
वित्तीय वर्ष के पहले पांच महीने के औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने की कुल रफ्तार भी
अर्थव्यवस्था की मजबूती का भरोसा दिलाती है। 2015-16 के पहले पांच महीने यानी
अप्रैल से अगस्त के दौरान औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने की रफ्तार चार प्रतिशत से
ज्यादा रही है। 2014-15 के पहले पांच महीने में औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने की
रफ्तार तीन प्रतिशत ही रही थी। अच्छी बात ये भी है कि महंगाई में कमी की वजह से
रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में कमी की है। और आगे भी ब्याज दरें घटने के संकेत हैं। इससे
कारोबारी गतिविधि की बेहतरी में मदद मिलेगी। बिहार के चुनाव के शोर में देश में
बेहतर हुए कारोबारी माहौल की बात बिल्कुल ही नहीं हुई। लेकिन, अक्टूबर महीने में
आए आंकड़े साफ कर रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की कहानी दमदार हो रही है।
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एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी
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