अब सोचिए कि क्या होगा। ये कुछ समझने-मानने को तैयार ही नहीं हैं। वैसे ये मान ही लेते तो, इस हाल में थोड़े न पहुंचते। इतनी गंभीर बीमारी है और इनके शुभचिंतकों से लेकर आलोचक तक अलग-अलग तरीके से इन्हें आगाह कर रहे हैं। लेकिन, इनको क्यों फर्क पड़े आखिर पूरी तरह से स्वस्थ पार्टी को गंभीरमरीज जैसे हाल में पहुंचाने में इनके जैसे बड़े लोगों की पूरी टोली के सत्कर्मों का तो बड़ा योगदान रहा है।
ये हैं बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह जो, ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि भारतीय जनता पार्टी को भारतीय जनता की पार्टी बने रहने के लिए बड़े इलाज की जरूरत है। पार्टी के पेस्ट कंट्रोल की जरूरत हम जैसे लोग तो बहुत पहले से कह रहे हैं। अब तो, ये बात खुद - कम से कम भारतीय जनता पार्टी के तो, सबसे बड़े समाजविज्ञानी- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहनराव भागवत भी कह रहे हैं। पत्रकारों के सवाल पूछने पर भागवत जी ने कहा बीजेपी हमसे सलाह मांगेगी तो, हम देंगे। लेकिन, बिन मांगे सलाह दे ही दी कि भाजपा को बड़ी सर्जरी या कीमोथेरेपी तक की जरूरत है।
लेकिन, अभी करीब डेढ़-2 महीने तक और बीजेपी के ठेकेदार रहने वाले राजनाथ से जब पत्रकारों ने भागवत जी इस सलाह पर प्रतिक्रिया मांगी तो, उन्होंने कहा ये कौन कह रहा है कि बीजेपी का बुरा हाल है। अब पता नहीं राजनाथ सिंह अपने प्रदेश में चार लोगों से मिल बैठके बतियाते भी हैं या नहीं। क्योंकि, अगर जरा भी बतियाते रहते तो, उन्हें पता लग जाता कि उनकी पार्टी की बीमारी इतनी बड़ी हो गई है कि अब लोग पार्टी में रहने वाले लोगों को इस छूत से दूर रहने की सलाह देने लगे हैं। मैं अभी चार दिन पहले इलाहाबाद से लौटा हूं और कांग्रेस के लिए ये सुखद है कि लोग बीजेपी में पड़े अपने नजदीकियों को सलाह देने लगे हैं कि राहुल गांधी से कोई जुगाड़ खोजो ना। क्योंकि, ढंग की राजनीति करने वालों के लिए सपा-बसपा में तो पहले ही जगह नहीं बची है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Wednesday, October 28, 2009
Sunday, October 25, 2009
इलाहाबाद से बदलाव के संकेत
हिंदी ब्लॉगिंग पर 2 दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होने के लिए इलाहाबाद आया हूं। ब्लॉगिंग पर कुछ खट्टा-कुछ मीठा टाइप की चर्चा हुई। कुछ खुश हुए कुछ खुन्नसियाए। सबकी अपनी जायज वजह थी। लेकिन, हमको तो भई बड़ा मजा आया। अपने शहर में 2 दिन रहने का भी मौका मिला। और, शहर से कुछ संकेत भी मिले कि भई काफी कुछ बदल रहा है वैसे मेरे गांव की तरह कभी-कभी ठहराव का खतरा भी दिखता है।
इलाहाबाद दैनिक जागरण अखबार के पहले पेज पर खबर है- “वाह ताज नहीं अब बोलिए वाह संगम!”। वाह ताज तो दुनिया कह रही है खबर के जरिए समझने की कोशिश की वाह संगम क्यों। तो, पता चला कि घरेलू पर्यटकों की अगर बात करें तो, 2008 में दो करोड़ सैंतीस लाख से ज्यादा लोग संगम में एक डुबकी लगाने चले आए। बयासी हजा से ज्यादा विदेशी पर्यटकों को भी संगम का आकर्षण खींच लाया।
आगरा करीब साढ़े सात लाख विदेशी पर्यटकों के साथ विदेशियों का तो पसंदीदा अभी भी है लेकिन, देश से सिर्फ इकतीस लाख लोगों को ही ताज का आकर्षण खींच पाया। मथुरा 63 लाख से ज्यादा, अयोध्या 59 लाख से ज्यादा देसी पर्यटक पहुंचे। आगरा के साथ अगर इन स्थानों का टूरिस्ट मैप पर थोड़ा असर बढ़े तो, इस प्रदेश के लिए कुछ बेहतरी की उम्मीद हो सकती है।
जागरण में ही एक और खबर है कि “यहां से भी कटेगा टिकट टू बॉलीवुड”। खबर ये है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थिएटर का स्थाई सेंटर मंजूर हो गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इंदिरा गांधी सामाजिक विज्ञान संस्थान भवन में थिएटर एंड फिल्म इंस्टिट्यूट विभाग खुल रहा है। विश्वविद्यालय में अत्याधुनिक थिएटर सेंटर शुरू होगा और यहां से छात्रों को थिएटर में डिप्लोमा और डिग्री मिल सकेगी। विश्वविद्यालय के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे के निजी प्रयास से ये थिएटर यहां शुरू हो पा रहा है। गुलजार की इसमें अहम भूमिका होगी।
ये खबरें बदलाव का संकेत तो हैं ही मीडिया कितना आतुर होता है ऐसी खबरों के लिए ये भी दिखता है। दरअसल अगर अच्छी खबरें मिलती रहें और उन्हें पढ़ने सुनने का लोगों के पास समय हो तो, मीडिया अच्छी खबरें दिखाने से क्यों गुरेज करेगा। इस समय हिंदुस्तान अखबार उत्तर प्रदेश 10 साल बाद कैसे बेहतर हो सकता है। इसकी बहस चला रहा है। हिंदुस्तान समागम के नाम से हर दिन हिंदुस्तान अखबार के दफ्तरों में शहर के लोगों को बुलाकर उनसे इस पर चर्चा की जा रही है। ब्लॉगर सेमिनार के नाते इलाहाबाद में था इसी बहाने मुझे भी मित्रों ने इस परिचर्चा में बुला लिया। अच्छा पहलू ये था कि इस बहाने शहर के लोग बैठकर बेहतरी की चर्चा कर रहे थे। बुरा ये था कि चर्चा में राजनीति के भरोसे ही सारी समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश कर रहे थे। खुद से निराश लोगों की जमात कितनी बड़ी हो गई है यहां इसका अंदाजा साफ लग रहा था। आगे के लिहाज से मेरे तैयार होने की बात से बूढ़े साहित्यकार टाइप के लोग इसलिए नाराज हो रहे थे। आगे की दुनिया कुछ लोगों की दुनिया है। नेट का नाम सुनकर वो बिदक रहे थे। वो 20 साल पुरानी चीजों को लेकर ही जी रहे थे।
कुल मिलाकर साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी होने की वजह से धीरे-धीरे ही बदलाव आ रहा है। और, हर चीज में थोड़ी बहुत मठाधीशी भी बचाए रखने की कोशिश जारी है। और, जो मठाधीश बन गए हैं वो, चाहते ही नहीं कि नई पीढ़ी उनसे आगे निकलकर कुछ सोच पाए। बुद्धिप्रधान समाज है ये अच्छाई है लेकिन, मुश्किल भी है किसी चीज पर इतने तर्क-कुतर्क शुरू हो जाते हैं कि बात ही आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन, नई पीढ़ी है तो, वो मान नहीं रही है। धकियाते, उल्टाते बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद से संकेत अच्छे लेकर लौट रहा हूं। हां, ये जरूर है कि एक जोर के धक्के की जरूरत है। और, जरा ये पुराने गुमानों को संग्रहालय में रख दें तो, बेहतरी पक्की है।
इलाहाबाद दैनिक जागरण अखबार के पहले पेज पर खबर है- “वाह ताज नहीं अब बोलिए वाह संगम!”। वाह ताज तो दुनिया कह रही है खबर के जरिए समझने की कोशिश की वाह संगम क्यों। तो, पता चला कि घरेलू पर्यटकों की अगर बात करें तो, 2008 में दो करोड़ सैंतीस लाख से ज्यादा लोग संगम में एक डुबकी लगाने चले आए। बयासी हजा से ज्यादा विदेशी पर्यटकों को भी संगम का आकर्षण खींच लाया।
आगरा करीब साढ़े सात लाख विदेशी पर्यटकों के साथ विदेशियों का तो पसंदीदा अभी भी है लेकिन, देश से सिर्फ इकतीस लाख लोगों को ही ताज का आकर्षण खींच पाया। मथुरा 63 लाख से ज्यादा, अयोध्या 59 लाख से ज्यादा देसी पर्यटक पहुंचे। आगरा के साथ अगर इन स्थानों का टूरिस्ट मैप पर थोड़ा असर बढ़े तो, इस प्रदेश के लिए कुछ बेहतरी की उम्मीद हो सकती है।
जागरण में ही एक और खबर है कि “यहां से भी कटेगा टिकट टू बॉलीवुड”। खबर ये है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थिएटर का स्थाई सेंटर मंजूर हो गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इंदिरा गांधी सामाजिक विज्ञान संस्थान भवन में थिएटर एंड फिल्म इंस्टिट्यूट विभाग खुल रहा है। विश्वविद्यालय में अत्याधुनिक थिएटर सेंटर शुरू होगा और यहां से छात्रों को थिएटर में डिप्लोमा और डिग्री मिल सकेगी। विश्वविद्यालय के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे के निजी प्रयास से ये थिएटर यहां शुरू हो पा रहा है। गुलजार की इसमें अहम भूमिका होगी।
ये खबरें बदलाव का संकेत तो हैं ही मीडिया कितना आतुर होता है ऐसी खबरों के लिए ये भी दिखता है। दरअसल अगर अच्छी खबरें मिलती रहें और उन्हें पढ़ने सुनने का लोगों के पास समय हो तो, मीडिया अच्छी खबरें दिखाने से क्यों गुरेज करेगा। इस समय हिंदुस्तान अखबार उत्तर प्रदेश 10 साल बाद कैसे बेहतर हो सकता है। इसकी बहस चला रहा है। हिंदुस्तान समागम के नाम से हर दिन हिंदुस्तान अखबार के दफ्तरों में शहर के लोगों को बुलाकर उनसे इस पर चर्चा की जा रही है। ब्लॉगर सेमिनार के नाते इलाहाबाद में था इसी बहाने मुझे भी मित्रों ने इस परिचर्चा में बुला लिया। अच्छा पहलू ये था कि इस बहाने शहर के लोग बैठकर बेहतरी की चर्चा कर रहे थे। बुरा ये था कि चर्चा में राजनीति के भरोसे ही सारी समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश कर रहे थे। खुद से निराश लोगों की जमात कितनी बड़ी हो गई है यहां इसका अंदाजा साफ लग रहा था। आगे के लिहाज से मेरे तैयार होने की बात से बूढ़े साहित्यकार टाइप के लोग इसलिए नाराज हो रहे थे। आगे की दुनिया कुछ लोगों की दुनिया है। नेट का नाम सुनकर वो बिदक रहे थे। वो 20 साल पुरानी चीजों को लेकर ही जी रहे थे।
कुल मिलाकर साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी होने की वजह से धीरे-धीरे ही बदलाव आ रहा है। और, हर चीज में थोड़ी बहुत मठाधीशी भी बचाए रखने की कोशिश जारी है। और, जो मठाधीश बन गए हैं वो, चाहते ही नहीं कि नई पीढ़ी उनसे आगे निकलकर कुछ सोच पाए। बुद्धिप्रधान समाज है ये अच्छाई है लेकिन, मुश्किल भी है किसी चीज पर इतने तर्क-कुतर्क शुरू हो जाते हैं कि बात ही आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन, नई पीढ़ी है तो, वो मान नहीं रही है। धकियाते, उल्टाते बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद से संकेत अच्छे लेकर लौट रहा हूं। हां, ये जरूर है कि एक जोर के धक्के की जरूरत है। और, जरा ये पुराने गुमानों को संग्रहालय में रख दें तो, बेहतरी पक्की है।
Saturday, October 24, 2009
इलाहाबाद में हिंदी ब्लॉगिंग और पत्रकारिता पर चर्चा
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद की ओर से आयोजित राष्ट्रीय ब्लॉगर संगोष्ठी का पहला दिन कल बेहद शानदार रहा। देश भर के ब्लॉग लिक्खाड़ इस चर्चा में शामिल हुए। चर्चा के दौरान रवि रतलामी जी के सौजन्य से लगातार लाइव रिपोर्टिंग आप लोगों ने कल ज्यादा चित्रों के जरिए देखी। संजय तिवारी ने विस्फोट किया ब्लॉगरों के निशाने पर नामवर सिंह। उसके बाद विनीत ने विस्तार से एक रपट में पूरी चर्चा से आप लोगों को रूबरू कराया। उस चर्चा में मेरे विचार मैं विस्तार से यहां डाल रहा हूं। वैसे, जो वहां बोला वो तुरंत की स्थितियों के लिहाज से दिमाग में आई बात थी लेकिन, ज्यादातर इसी के इर्दगिर्द थी।
हिंदी पत्रकारिता विश्वसनीयता खोती जा रही है। कुछ इसके लिए टीवी की चमक दमक को दोष दिया जा रहा है। और, उसमें मिलने वाले पत्रकारों के पचाने लायक पैसे से ज्यादा पैसे मिलने को तो, कुछ TRP जैसा एक भयावह डर है जो, पत्रकारिता को अविश्वसनीय बना रहा है। लेकिन, सवाल ये है कि जब टीवी की चमक-दमक, पैसे या फिर TRP का दोष दिख रहा है तो, फिर अखबार-पत्रिका क्या कर रहे हैं।
इसका भी जवाब खोजने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। थोड़ा सा दिमाग दौड़ाइए तो, साफ दिखेगा कि दरअसल अखबार-पत्रिका टीवी को सुधारने की बात कहते-उस पर अंकुश लगाने की लंतरानी बतियाते कब टीवी टाइप खबरें पढ़ाने लगे पता ही नहीं चला। अब अखबार न अखबार जैसे रह गए और टीवी जैसे बनने की उनकी प्रकृति ही नहीं है। टीवी तो पहले ही हर सेकेंड ब्रेकिंग न्यूज के दबाव में काम कर रहा था।
निर्विवाद रूप से टीवी के सबसे बड़े पत्रकारों में से राजदीप सरदेसाई को भी लगने लगा है कि भारतीय पत्रकार- फिर चाहे वो उनके जैसे टीवी के संपादक हों या फिर अखबार के विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं' वहीं प्रिंट और टीवी दोनों माध्यमों में लगातार अपने हिसाब से पत्रकारिता गढ़ने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी को ये डर लगने लगा है कि पत्रकारिता कैसे की जाए। वैसे, वो खुद ही अपने ब्लॉग पर आगे ये कह देते हैं कि एक रहो, पत्रकार रहो। सब ठीक हो जाएगा। और, पुण्य प्रसून की ये सलाह उनके टीवी चैनल जी न्यूज के जरिए कैसे आई मैंने नहीं देखी लेकिन, उनके ब्लॉग पर उनका लिखा पत्रकार और राजनीतिक द्वंद पर बहस की सबसे बड़ी वजह बन गया।
यही ब्लॉग की ताकत है। ताकत ये कि इसका कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। न सरकार-न अखबार संपादक -न टीवी संपादक या फिर कोई मीडिया हाउस। पुण्य प्रसून बाजपेयी और राजदीप सरदेसाई इतने हल्के लोग नहीं हैं कि ये जहां काम करते हैं वहां उनके मालिक उन्हें इतना दबा दें कि वो, अपने मन की खबर-विश्लेषण दिखा-सुना नहीं सकते। राजदीप तो, अपने अंग्रेगी और हिंदी चैनलों के सह मालिक भी हैं। और, पुण्य प्रसून संपादक की हैसियत में हैं। लेकिन, मीडिया के टीवी माध्यम की मजबूरियां इन्हें अच्छे से पता है। और, ब्लॉग की पकड़ और पहुंच का भी इन्हें अच्छे से अंदाजा है कि ये वो, माध्यम है जिससे बात दुनिया के किसी भी कोने तक पहुंचाई जा सकती है।
अब अगर दुनिया में बैठे किसी व्यक्ति को भारतीय मीडिया के बारे में अंदाजा लगाना होगा तो, वो टीवी चैनल तक पहुंच तो बन नहीं सकता। वो, भरोसे होता है इंटरनेट के। और, इंटरनेट पर भी अगर विषय संबंधित खोज करनी है तो, किसकी सर्च इंजन की मदद लेता है। अब अगर आप किसी विषय पर गूगल अंकल या दूसरे सर्च इंजन परिवार की मदद लेते हैं तो, कमाल की बात ये सामने आती है कि अब किसी न्यूजपेपर-टीवी की वेबसाइट के साथ लगे हाथ ढेर सारे ब्लॉगों का वेब पता भी आपके सामने परोस दिया जाता है। अब आपकी इच्छा है जैसे चाहो चुन लो।
यानी कम से कम इंटरनेट पर तो, इंटरनेट की ही सबसे मजबूत पैदाइश ब्लॉग को तो, स्वीकार किया जा चुका है। और, इसी इंटरनेट के जरिए कुछ तो, टीवी-प्रिंट माध्यम के पत्रकार ही इस विधा को आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ एक नई जमात पैदा हो रही है। ये नई जमात है जो, टीवी चैनलों पर एक रुप में दिखती है- सिटिजन जर्नलिस्ट नाम से। टीवी चैनल के माध्यम की मजबूरी की ही तरह इसके सिटिजन जर्नलिस्टों की भी अपनी सीमा है लेकिन, ब्लॉग के अनंत आकाश में विचरने वाले सिटिजन जर्नलिस्ट इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि, कोई सीमा नहीं है।
पुण्य प्रसून बाजपेयी अपना खुद का ब्लॉग चलाते हैं और गंभीर मुद्दों पर वहां बहस की कोशिश करते हैं तो, राजदीप सरदेसाई अपने टीवी चैनल में काम करने वाले हर पत्रकार से चाहते हैं कि वो, जो खबर टीवी पर नहीं दिखा पा रहे हैं एयरटाइम की मजबूरी से या फिर किसी और वजह से उसे अपने ब्लॉग के जरिए चैनल की वेबसाइट पर पोस्ट करे। और, ये पोस्टिंग टेक्स्ट यानी सिर्फ लिखा हुआ या फिर उस लिखे को जीवंत बनाने वाली कुछ तस्वीरों और वीडियो के साथ का ब्लॉग।
मैंने खुद जब बतंगड़ नाम से अप्रैल 2007 में अपना ब्लॉग शुरू किया तो, उसके पीछे एक जो, सबसे बड़ी वजह ये थी कि बहुत सी बातें हैं जो, दिमाग में आती हैं लेकिन, स्वाभाविक तौर पर किसी चैनल-अखबार या पत्रिका में दिख छप नहीं सकती हैं। ययहां तक कि अगर उनका स्तर किसी भी छपे लेख या विश्लेषण से बेहतर भी है तो, इसलिए नहीं छप सकती कि फलाना अखबार या पत्रिका में छापने के अधिकार वाले संपादक से हमारी कोई जान-पहचान नहीं है।
अब इस ब्लॉग के असर को लेकर मुझे बेवजह का कोई गुमान तो नहीं है। लेकिन, गुमान करने लायक कुछ आंकड़े मेरे पास हो गए हैं। करीब हर महत्वपूर्ण खबर पर और दूसरे समसामयिक विषयों पर मेरे 300 लेख हो चुके हैं। 102 देशों में भले ही एक व्यक्ति ने ही सही बतंगड़ ब्लॉग को देखा है। देश के लगभग सारे हिंदी अखबारों में मेरे ब्लॉग का जिक्र हो चुका है। और, हिंदी के दो बड़े अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पर मैं दिखा तो, ये ब्लॉग लेखन की बदौलत है। और, ये कमाल मेरा नहीं है मैं इसे अपने ब्लॉग के उदाहरण से सिर्फ समझाने की कोशिश कर रहा है। ये कमाल है मेरे जैसे ढेर सारे पत्रकार-गैर पत्रकार- नागरिक पत्रकार ब्लॉगरों का। यही कमाल है कि किसी भी हिंदी अखबार, वेबसाइट का काम बिना ब्लॉग चर्चा, ब्लॉग कोना, ब्लॉग मंच जैसे कॉलम के नहीं चल रहा है। यानी इसे माध्यम के तौर पर मान्यता मिलना तो शुरू हो चुकी है।
अब इस ब्लॉगरी के अगर अच्छे पहलुओं को देखें तो, इस पर TRP जैसे डर का दबाव नहीं है। इसमें ब्लॉग पत्रकारिता करने वालों को पूंजी बहुत कम लगानी पड़ती है। टीवी-अखबार की तरह एक खबर का एक ही पहलू एक तरीके से बार-बार देखने की मजबूरी नहीं है। अलग-अलग ब्लॉग पर आपको अलग-अलग तरीके से खबर का विश्लेषण मिलेगा। किसी के विचार पर कोई रोक नहीं है।
लेकिन, इसके बुरे पहलू भी हैं जो, ब्लॉग जगत में अकसर देखने को भी मिल रहे हैं। TRP का दबाव नहीं है तो, कोई भी कुछ भी लिख रहा है। पूंजी लगानी बहुत कम पड़ती है तो, पूंजी मिलने की गुंजाइश उससे भी कम है जिससे फुलटाइम ब्लॉग पत्रकारिता के लिए हिम्मत जुटाना मुश्किल काम हो जाता है। अलग ब्लॉग पर अलग तरह से विश्लेषण मिलता है तो, कभी अति जैसा विश्लेषण होता है जो, पूरी तरह से किसी एजेंडे, अफवाह फैलाने या कम जानकारी की वजह से सिर्फ भावनात्मक तौर पर पोस्ट कर दिया जाता है।
इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है कि ब्लॉग हिंदी पत्रकारिता के खालीपन को भर सकता है। और, पूरी मजबूती के साथ आम जनता के माध्यम तौर पर स्थापित हो सकता है। लेकिन, जब मैं इसे पत्रकारिता के विकल्प के तौर पर देख रहा हूं तो, ये भी स्पष्ट है कि मैं बेनामी ब्लॉगों को इसमें शामिल नहीं कर सकता। बेनामी इसकी विश्वसनीयता के लिए खतरा बनता दिखता है। और, जब विश्वसनीयता पर चोट होगी तो, अभी की पत्रकारिता के खालीपन को भरने की एक जरूरी शर्त ये खो बैठेगा। बेनामी ब्लॉग मीडिया के तौर बमुश्किल दस कदम जाकर लड़खड़ा जाएगा और ये बस स्व आनंद का माध्यम भर बनकर रह जाएगा। अब इसका मतलब ये नहीं है कि मैं एकदम से बेनामी का विरोध कर रहा हूं। राज्य सत्ता के खिलाफ किसी जरूरी मुहिम को, खबर को बिना किसी का नाम दिए भी चलाया जा सकता है। कई बार ये जरूरी भी हो जाता है। कई बार अपनी बात रखने के लिए पहचान छिपानी भी पड़ सकती है। लेकिन, बेनामी बनकर किसी के खिलाफ साजिश रचने, किसी को अपमानित करने की बात ब्लॉग के लिए कलंक जैसी ही है।
अब सवाल ये है कि इन अच्छे-बुरे पहलुओं के बीच ब्लॉगिंग पत्रकारिता के मानदंडों पर कैसे खरा उतर पाएगी। तो, मेरा साफ मानना है कि जिस वैकल्पिक पत्रकारिता की बात अकसर होती है। वो, वैकल्पिक पत्रकारिता इसी ब्लॉग पगडंडियों से गुजर कर जवान होगी। इसमें सहयात्री मेरे जैसे पत्रकार भी होंगे जो, खबरों को अपने से जोड़कर उससे कुछ अच्छा विश्लेषण करके समझाने की कोशिश करते हैं। ज्ञानजी जैसे सामाजिक पत्रकार भी होंगे जो, रोज सुबह गंगा नहाने जाते हैं और गंगा किनारे की वर्ण व्यवस्था, आस्था के अंधविश्वास, सिमटती नदी पर लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं। सही मायनों में ब्लॉग पत्रकारिता – आज की पत्रकारिता के तेज भागते युग के अंधड़ में गायब हुई असल पत्रकारिता को वापस ला सकेगी। जमकर ब्लॉगिंग करिए, खुद पर अंकुश रखिए। बचा काम तो, अपने आप हो जाएगा।
हिंदी पत्रकारिता विश्वसनीयता खोती जा रही है। कुछ इसके लिए टीवी की चमक दमक को दोष दिया जा रहा है। और, उसमें मिलने वाले पत्रकारों के पचाने लायक पैसे से ज्यादा पैसे मिलने को तो, कुछ TRP जैसा एक भयावह डर है जो, पत्रकारिता को अविश्वसनीय बना रहा है। लेकिन, सवाल ये है कि जब टीवी की चमक-दमक, पैसे या फिर TRP का दोष दिख रहा है तो, फिर अखबार-पत्रिका क्या कर रहे हैं।
इसका भी जवाब खोजने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। थोड़ा सा दिमाग दौड़ाइए तो, साफ दिखेगा कि दरअसल अखबार-पत्रिका टीवी को सुधारने की बात कहते-उस पर अंकुश लगाने की लंतरानी बतियाते कब टीवी टाइप खबरें पढ़ाने लगे पता ही नहीं चला। अब अखबार न अखबार जैसे रह गए और टीवी जैसे बनने की उनकी प्रकृति ही नहीं है। टीवी तो पहले ही हर सेकेंड ब्रेकिंग न्यूज के दबाव में काम कर रहा था।
निर्विवाद रूप से टीवी के सबसे बड़े पत्रकारों में से राजदीप सरदेसाई को भी लगने लगा है कि भारतीय पत्रकार- फिर चाहे वो उनके जैसे टीवी के संपादक हों या फिर अखबार के विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं' वहीं प्रिंट और टीवी दोनों माध्यमों में लगातार अपने हिसाब से पत्रकारिता गढ़ने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी को ये डर लगने लगा है कि पत्रकारिता कैसे की जाए। वैसे, वो खुद ही अपने ब्लॉग पर आगे ये कह देते हैं कि एक रहो, पत्रकार रहो। सब ठीक हो जाएगा। और, पुण्य प्रसून की ये सलाह उनके टीवी चैनल जी न्यूज के जरिए कैसे आई मैंने नहीं देखी लेकिन, उनके ब्लॉग पर उनका लिखा पत्रकार और राजनीतिक द्वंद पर बहस की सबसे बड़ी वजह बन गया।
यही ब्लॉग की ताकत है। ताकत ये कि इसका कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। न सरकार-न अखबार संपादक -न टीवी संपादक या फिर कोई मीडिया हाउस। पुण्य प्रसून बाजपेयी और राजदीप सरदेसाई इतने हल्के लोग नहीं हैं कि ये जहां काम करते हैं वहां उनके मालिक उन्हें इतना दबा दें कि वो, अपने मन की खबर-विश्लेषण दिखा-सुना नहीं सकते। राजदीप तो, अपने अंग्रेगी और हिंदी चैनलों के सह मालिक भी हैं। और, पुण्य प्रसून संपादक की हैसियत में हैं। लेकिन, मीडिया के टीवी माध्यम की मजबूरियां इन्हें अच्छे से पता है। और, ब्लॉग की पकड़ और पहुंच का भी इन्हें अच्छे से अंदाजा है कि ये वो, माध्यम है जिससे बात दुनिया के किसी भी कोने तक पहुंचाई जा सकती है।
अब अगर दुनिया में बैठे किसी व्यक्ति को भारतीय मीडिया के बारे में अंदाजा लगाना होगा तो, वो टीवी चैनल तक पहुंच तो बन नहीं सकता। वो, भरोसे होता है इंटरनेट के। और, इंटरनेट पर भी अगर विषय संबंधित खोज करनी है तो, किसकी सर्च इंजन की मदद लेता है। अब अगर आप किसी विषय पर गूगल अंकल या दूसरे सर्च इंजन परिवार की मदद लेते हैं तो, कमाल की बात ये सामने आती है कि अब किसी न्यूजपेपर-टीवी की वेबसाइट के साथ लगे हाथ ढेर सारे ब्लॉगों का वेब पता भी आपके सामने परोस दिया जाता है। अब आपकी इच्छा है जैसे चाहो चुन लो।
यानी कम से कम इंटरनेट पर तो, इंटरनेट की ही सबसे मजबूत पैदाइश ब्लॉग को तो, स्वीकार किया जा चुका है। और, इसी इंटरनेट के जरिए कुछ तो, टीवी-प्रिंट माध्यम के पत्रकार ही इस विधा को आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ एक नई जमात पैदा हो रही है। ये नई जमात है जो, टीवी चैनलों पर एक रुप में दिखती है- सिटिजन जर्नलिस्ट नाम से। टीवी चैनल के माध्यम की मजबूरी की ही तरह इसके सिटिजन जर्नलिस्टों की भी अपनी सीमा है लेकिन, ब्लॉग के अनंत आकाश में विचरने वाले सिटिजन जर्नलिस्ट इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि, कोई सीमा नहीं है।
पुण्य प्रसून बाजपेयी अपना खुद का ब्लॉग चलाते हैं और गंभीर मुद्दों पर वहां बहस की कोशिश करते हैं तो, राजदीप सरदेसाई अपने टीवी चैनल में काम करने वाले हर पत्रकार से चाहते हैं कि वो, जो खबर टीवी पर नहीं दिखा पा रहे हैं एयरटाइम की मजबूरी से या फिर किसी और वजह से उसे अपने ब्लॉग के जरिए चैनल की वेबसाइट पर पोस्ट करे। और, ये पोस्टिंग टेक्स्ट यानी सिर्फ लिखा हुआ या फिर उस लिखे को जीवंत बनाने वाली कुछ तस्वीरों और वीडियो के साथ का ब्लॉग।
मैंने खुद जब बतंगड़ नाम से अप्रैल 2007 में अपना ब्लॉग शुरू किया तो, उसके पीछे एक जो, सबसे बड़ी वजह ये थी कि बहुत सी बातें हैं जो, दिमाग में आती हैं लेकिन, स्वाभाविक तौर पर किसी चैनल-अखबार या पत्रिका में दिख छप नहीं सकती हैं। ययहां तक कि अगर उनका स्तर किसी भी छपे लेख या विश्लेषण से बेहतर भी है तो, इसलिए नहीं छप सकती कि फलाना अखबार या पत्रिका में छापने के अधिकार वाले संपादक से हमारी कोई जान-पहचान नहीं है।
अब इस ब्लॉग के असर को लेकर मुझे बेवजह का कोई गुमान तो नहीं है। लेकिन, गुमान करने लायक कुछ आंकड़े मेरे पास हो गए हैं। करीब हर महत्वपूर्ण खबर पर और दूसरे समसामयिक विषयों पर मेरे 300 लेख हो चुके हैं। 102 देशों में भले ही एक व्यक्ति ने ही सही बतंगड़ ब्लॉग को देखा है। देश के लगभग सारे हिंदी अखबारों में मेरे ब्लॉग का जिक्र हो चुका है। और, हिंदी के दो बड़े अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पर मैं दिखा तो, ये ब्लॉग लेखन की बदौलत है। और, ये कमाल मेरा नहीं है मैं इसे अपने ब्लॉग के उदाहरण से सिर्फ समझाने की कोशिश कर रहा है। ये कमाल है मेरे जैसे ढेर सारे पत्रकार-गैर पत्रकार- नागरिक पत्रकार ब्लॉगरों का। यही कमाल है कि किसी भी हिंदी अखबार, वेबसाइट का काम बिना ब्लॉग चर्चा, ब्लॉग कोना, ब्लॉग मंच जैसे कॉलम के नहीं चल रहा है। यानी इसे माध्यम के तौर पर मान्यता मिलना तो शुरू हो चुकी है।
अब इस ब्लॉगरी के अगर अच्छे पहलुओं को देखें तो, इस पर TRP जैसे डर का दबाव नहीं है। इसमें ब्लॉग पत्रकारिता करने वालों को पूंजी बहुत कम लगानी पड़ती है। टीवी-अखबार की तरह एक खबर का एक ही पहलू एक तरीके से बार-बार देखने की मजबूरी नहीं है। अलग-अलग ब्लॉग पर आपको अलग-अलग तरीके से खबर का विश्लेषण मिलेगा। किसी के विचार पर कोई रोक नहीं है।
लेकिन, इसके बुरे पहलू भी हैं जो, ब्लॉग जगत में अकसर देखने को भी मिल रहे हैं। TRP का दबाव नहीं है तो, कोई भी कुछ भी लिख रहा है। पूंजी लगानी बहुत कम पड़ती है तो, पूंजी मिलने की गुंजाइश उससे भी कम है जिससे फुलटाइम ब्लॉग पत्रकारिता के लिए हिम्मत जुटाना मुश्किल काम हो जाता है। अलग ब्लॉग पर अलग तरह से विश्लेषण मिलता है तो, कभी अति जैसा विश्लेषण होता है जो, पूरी तरह से किसी एजेंडे, अफवाह फैलाने या कम जानकारी की वजह से सिर्फ भावनात्मक तौर पर पोस्ट कर दिया जाता है।
इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है कि ब्लॉग हिंदी पत्रकारिता के खालीपन को भर सकता है। और, पूरी मजबूती के साथ आम जनता के माध्यम तौर पर स्थापित हो सकता है। लेकिन, जब मैं इसे पत्रकारिता के विकल्प के तौर पर देख रहा हूं तो, ये भी स्पष्ट है कि मैं बेनामी ब्लॉगों को इसमें शामिल नहीं कर सकता। बेनामी इसकी विश्वसनीयता के लिए खतरा बनता दिखता है। और, जब विश्वसनीयता पर चोट होगी तो, अभी की पत्रकारिता के खालीपन को भरने की एक जरूरी शर्त ये खो बैठेगा। बेनामी ब्लॉग मीडिया के तौर बमुश्किल दस कदम जाकर लड़खड़ा जाएगा और ये बस स्व आनंद का माध्यम भर बनकर रह जाएगा। अब इसका मतलब ये नहीं है कि मैं एकदम से बेनामी का विरोध कर रहा हूं। राज्य सत्ता के खिलाफ किसी जरूरी मुहिम को, खबर को बिना किसी का नाम दिए भी चलाया जा सकता है। कई बार ये जरूरी भी हो जाता है। कई बार अपनी बात रखने के लिए पहचान छिपानी भी पड़ सकती है। लेकिन, बेनामी बनकर किसी के खिलाफ साजिश रचने, किसी को अपमानित करने की बात ब्लॉग के लिए कलंक जैसी ही है।
अब सवाल ये है कि इन अच्छे-बुरे पहलुओं के बीच ब्लॉगिंग पत्रकारिता के मानदंडों पर कैसे खरा उतर पाएगी। तो, मेरा साफ मानना है कि जिस वैकल्पिक पत्रकारिता की बात अकसर होती है। वो, वैकल्पिक पत्रकारिता इसी ब्लॉग पगडंडियों से गुजर कर जवान होगी। इसमें सहयात्री मेरे जैसे पत्रकार भी होंगे जो, खबरों को अपने से जोड़कर उससे कुछ अच्छा विश्लेषण करके समझाने की कोशिश करते हैं। ज्ञानजी जैसे सामाजिक पत्रकार भी होंगे जो, रोज सुबह गंगा नहाने जाते हैं और गंगा किनारे की वर्ण व्यवस्था, आस्था के अंधविश्वास, सिमटती नदी पर लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं। सही मायनों में ब्लॉग पत्रकारिता – आज की पत्रकारिता के तेज भागते युग के अंधड़ में गायब हुई असल पत्रकारिता को वापस ला सकेगी। जमकर ब्लॉगिंग करिए, खुद पर अंकुश रखिए। बचा काम तो, अपने आप हो जाएगा।
Wednesday, October 21, 2009
ठीक-ठीक सोच तो लो कि क्या करना है
आप करना क्या चाहते हैं। कुछ ढंग का है दिमाग में या बस ये सोच रखा है कि कुछ-कुछ ऐसा करते रहना है जिससे लोग ये तो, जानें कि ये बड़े मंत्री जी हैं। या आपको किसी ने ये समझा दिया है कि जो लोग ये वाले मंत्री जी बन जाते हैं। आगे सबसे बड़े मंत्री जी यानी प्रधानमंत्री जी बनने की रेस में उनका नाम तो आ ही जाता है भले ही वो बने ना बने। वरना एक के एक बाद एक ऐसी ऊटपटांग हरकतें भला आप क्यों करते।
आप समझ तो गए ही होंगे कि मैं अपने मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल साहब की बात कर रहा हूं। बड़े वकील हैं तो, किसी भी बात जलेबी की तरह कितना भी घुमाने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। लेकिन, आपको कुछ तो समझना ही होगा सिब्बल साहब। अभी आप अपने पिछड़ने के ब्लू प्रिंट को जस्टीफाई नहीं कर पाए थे तब तक एक और फॉर्मूला ठेल दिया आपने। अब कह रहे हैं कि IIT’s में दाखिला कैसे हो ये तय करना IIT’s का काम है, सरकार का नहीं। फिर क्यों आपने लंतरानी मार दी कि हम कोचिंग संस्थानों की दुकान बंद कराने के लिए IIT’s के दाखिले में 12वीं की परीक्षा के नंबरों को ज्यादा वरीयता देंगे। कुछ 80 प्रतिशत नंबर लाने पर ही IIT’s में दाखिले लायक समझने की बात आई।
जब बिहार के सारे नेता राशन-पानी लेके चढ़ बैठे। और, सिब्बल के फॉर्मूले को anti poor टाइप कहने लगे तो, सिब्बल साहब डर गए। एक बात बड़ी अच्छी है हमारे देश में गरीबों का भला करने को कोई भले न सोचे। गरीबों के खिलाफ जाने से डरते सब हैं सो, सिब्बल साहब भी डर गए। नीतीश मुख्यमंत्री हैं बिहार के तो, आंदोलन नहीं किया। मंच से मीडिया के जरिए बोला कि ये बिहार के छात्रों को IIT’s में जाने से रोकने की साजिश है। लालू प्रसाद यादव की पार्टी सत्ता में नहीं है तो, उन्होंने आंदोलन शुरू कर दिया।
खैर, अच्छी बात ये है कि चाहे जैसे बिहारी आंदोलित होना नहीं छोड़ रहे हैं। ये अलग बात है कि एक देश के सबसे बड़े आंदोलन से निकले नेताओं ने ही बिहार को नर्क बना दिया। और, अजीब टाइप का बिहारी गौरव-बिहारी उपेक्षा में बदल गया था। अब ठीक बात है कि उसी छात्र आंदोलन से निकला एक नेता ही बिहार को कुछ बदलने की कोशिश कर रहा है। सिब्बल के बेतुके फॉर्मूले के खिलाफ भले ही सिर्फ बिहार के लोग आंदोलित हुए और इसे anti poor टाइप कह रहे हों। सच्चाई ये है कि ये फॉर्मूला anti poor states और anti state education board तो है ही। क्योंकि, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे पिछड़े राज्यों की छोड़िए महाराष्ट्र बोर्ड के भी बच्चों के नंबर शायद ही CBSE, ICSE बोर्ड के छात्रों के नंबर का मुकाबला कर सकें।
अब हो सकता है कि सिब्बल अपने देश भर में एक बोर्ड के फैसले को लागू करने का इस तरह का घुमाके काम पकड़ने वाला तरीका आजमाने की सोच रहे हों। क्योंकि, जब यूपी-बिहार बोर्ड का बच्चा सारी मेहनत करके भी बोर्ड की परीक्षा के तरीके की वजह से 50-60% से ज्यादा नहीं जुटा पाएगा तो, वो CBSE, ICSE बोर्ड के स्कूलों में दाखिला लेकर 80% लाने का रास्ता खोजेगा। धीरे-धीरे करके एक बोर्ड हो जाएगा। अंग्रेजी स्कूलों की दुकान और तेजी से विस्तार ले लेगी। राज्यों के बोर्ड के स्कूल सरकारी विद्यालय जैसे हो जाएंगे। सिब्बल की दिल्ली की इलीट क्लास मानसिकता की विजय हो जाएगी।
और, मैं तो स्वार्थी हूं। मैं यूपी बोर्ड से पढ़ा हूं। नियमित रूप से सेकेंड डिविजनर रहा। अब मैंने तो रास्ता ही ऐसा चुना लिया कि इनके फर्स्ट सेकेंड, डिवीजन से मैं ऊपर उठ गया। लेकिन, अब क्या मुझे जिंदगी के किसी मोड़ पर फर्स्ट डिवीजन की तरफ बढ़ने का हक सिर्फ इसलिए नहीं मिलेगा क्योंकि, हाईस्कूल, इंटर या फिर ग्रैजुएशन में मैं सेकेंड डिविजनर रहा। और, यूपी या राज्यों का बोर्ड खत्म होगा तो, फिर प्रेमचंद या स्थानीय महापुरुषों से परिचय तो होने से रहा। परिचय उनसे होगा जिनका भारत-भारतीयता से वास्ता ही नहीं होगा। पता नहीं देश के सबसे अहम मानव संसाधन विकास मंत्रालय – बार-बार हम ये कहते रहते हैं कि देश की पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी जवान है, उसी पर देश का भविष्य टिका है और जवान होती आबादी को हम ऐसे तैयार करने की सोच रहे हैं - में ऐसे बेतुके फैसले लेने से पहले सिब्बल साहब सोच भी रहे हैं या सिर्फ इसीलिए कि पिछले मानव संसाधन मंत्रियों से ज्यादा चर्चा में बने रहने की सनक सवार है।
आप समझ तो गए ही होंगे कि मैं अपने मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल साहब की बात कर रहा हूं। बड़े वकील हैं तो, किसी भी बात जलेबी की तरह कितना भी घुमाने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। लेकिन, आपको कुछ तो समझना ही होगा सिब्बल साहब। अभी आप अपने पिछड़ने के ब्लू प्रिंट को जस्टीफाई नहीं कर पाए थे तब तक एक और फॉर्मूला ठेल दिया आपने। अब कह रहे हैं कि IIT’s में दाखिला कैसे हो ये तय करना IIT’s का काम है, सरकार का नहीं। फिर क्यों आपने लंतरानी मार दी कि हम कोचिंग संस्थानों की दुकान बंद कराने के लिए IIT’s के दाखिले में 12वीं की परीक्षा के नंबरों को ज्यादा वरीयता देंगे। कुछ 80 प्रतिशत नंबर लाने पर ही IIT’s में दाखिले लायक समझने की बात आई।
जब बिहार के सारे नेता राशन-पानी लेके चढ़ बैठे। और, सिब्बल के फॉर्मूले को anti poor टाइप कहने लगे तो, सिब्बल साहब डर गए। एक बात बड़ी अच्छी है हमारे देश में गरीबों का भला करने को कोई भले न सोचे। गरीबों के खिलाफ जाने से डरते सब हैं सो, सिब्बल साहब भी डर गए। नीतीश मुख्यमंत्री हैं बिहार के तो, आंदोलन नहीं किया। मंच से मीडिया के जरिए बोला कि ये बिहार के छात्रों को IIT’s में जाने से रोकने की साजिश है। लालू प्रसाद यादव की पार्टी सत्ता में नहीं है तो, उन्होंने आंदोलन शुरू कर दिया।
खैर, अच्छी बात ये है कि चाहे जैसे बिहारी आंदोलित होना नहीं छोड़ रहे हैं। ये अलग बात है कि एक देश के सबसे बड़े आंदोलन से निकले नेताओं ने ही बिहार को नर्क बना दिया। और, अजीब टाइप का बिहारी गौरव-बिहारी उपेक्षा में बदल गया था। अब ठीक बात है कि उसी छात्र आंदोलन से निकला एक नेता ही बिहार को कुछ बदलने की कोशिश कर रहा है। सिब्बल के बेतुके फॉर्मूले के खिलाफ भले ही सिर्फ बिहार के लोग आंदोलित हुए और इसे anti poor टाइप कह रहे हों। सच्चाई ये है कि ये फॉर्मूला anti poor states और anti state education board तो है ही। क्योंकि, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे पिछड़े राज्यों की छोड़िए महाराष्ट्र बोर्ड के भी बच्चों के नंबर शायद ही CBSE, ICSE बोर्ड के छात्रों के नंबर का मुकाबला कर सकें।
अब हो सकता है कि सिब्बल अपने देश भर में एक बोर्ड के फैसले को लागू करने का इस तरह का घुमाके काम पकड़ने वाला तरीका आजमाने की सोच रहे हों। क्योंकि, जब यूपी-बिहार बोर्ड का बच्चा सारी मेहनत करके भी बोर्ड की परीक्षा के तरीके की वजह से 50-60% से ज्यादा नहीं जुटा पाएगा तो, वो CBSE, ICSE बोर्ड के स्कूलों में दाखिला लेकर 80% लाने का रास्ता खोजेगा। धीरे-धीरे करके एक बोर्ड हो जाएगा। अंग्रेजी स्कूलों की दुकान और तेजी से विस्तार ले लेगी। राज्यों के बोर्ड के स्कूल सरकारी विद्यालय जैसे हो जाएंगे। सिब्बल की दिल्ली की इलीट क्लास मानसिकता की विजय हो जाएगी।
और, मैं तो स्वार्थी हूं। मैं यूपी बोर्ड से पढ़ा हूं। नियमित रूप से सेकेंड डिविजनर रहा। अब मैंने तो रास्ता ही ऐसा चुना लिया कि इनके फर्स्ट सेकेंड, डिवीजन से मैं ऊपर उठ गया। लेकिन, अब क्या मुझे जिंदगी के किसी मोड़ पर फर्स्ट डिवीजन की तरफ बढ़ने का हक सिर्फ इसलिए नहीं मिलेगा क्योंकि, हाईस्कूल, इंटर या फिर ग्रैजुएशन में मैं सेकेंड डिविजनर रहा। और, यूपी या राज्यों का बोर्ड खत्म होगा तो, फिर प्रेमचंद या स्थानीय महापुरुषों से परिचय तो होने से रहा। परिचय उनसे होगा जिनका भारत-भारतीयता से वास्ता ही नहीं होगा। पता नहीं देश के सबसे अहम मानव संसाधन विकास मंत्रालय – बार-बार हम ये कहते रहते हैं कि देश की पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी जवान है, उसी पर देश का भविष्य टिका है और जवान होती आबादी को हम ऐसे तैयार करने की सोच रहे हैं - में ऐसे बेतुके फैसले लेने से पहले सिब्बल साहब सोच भी रहे हैं या सिर्फ इसीलिए कि पिछले मानव संसाधन मंत्रियों से ज्यादा चर्चा में बने रहने की सनक सवार है।
Sunday, October 18, 2009
दौड़ादौड़ी की झमाझम चर्चा
बहुत साल बाद ऐसा हुआ कि इस बार इलाहाबाद से वापस दिल्ली लौटने का मन नहीं कर रहा था। खैर, वापसी तो करनी ही थी। रोजी-रोजगार- वापस लौटा लाया। लेकिन, 2 दिनों का भरपूर इस्तेमाल मैंने किया या यूं कह लें कि ऐसे संयोग बने कि दो दिनों का पूरा इस्तेमाल हो गया। 2 दिन में विश्वविद्यालय टाइप की राजनीति, अड्डेबाजी से लेकर कराह की पूड़ी तक खाने का अवसर हाथ लग गया। मस्त कंजरवेटिव भारत के दीपावली मौज से मनाने के उत्साह का दर्शन भी हो गया। वैसे, इस साल तो दीपावली पर- वो क्या कहते हैं न कि सेंटिमेंट सुधर गया है- यानी मंदी भाग गई है- ऐसा मानने से सभी दिवाली मजे से मना गए। पिछले साल तो, कैसा डरावना माहौल था याद है ना। लेकिन, इसी कंजरवेटिव भारत ने दिवाली की रोशनी बचा ली थी।
अब इलाहाबाद पहुंचे थे तो, राजनीति के बिना बात कहां बनती। उस पर पता चला कि अपने प्राणेश जी इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन का चुनाव लड़ रहे हैं। प्राणेश दत्त त्रिपाठी अनुभवी वकील हैं। और, पिछली बार भी बहुत कम वोटों से सचिव बनते-बनते रह गए थे। इस बार चुनाव लगभग पक्का दिख रहा था। अब चूंकि ज्यादातर विश्वविद्यालय के नेता जो, इलाहाबाद रह गए हैं और रोजगार का दूसरा जरिया नहीं ढूंढ़ सके हैं तो, काला कोट पहनकर हाईकोर्ट में उनको अपना सम्मान सबसे आसानी से बचता दिख रहा है तो, पूरा का पूरा चुनाव भी बार का होते हुए भी विश्वविद्यालय जैसा हो गया था। खांटी विश्वविद्यालय के नेताओं की भाषा में- धोवावा कुर्ता जैसे धोवावा काला कोट पहिर के- कॉफी हाउस से हाईकोर्ट चौराहे तक जमावड़ा था।
मेरे भीतर के भी विश्वविद्यालय के अंदर वाले राजनीतिक कीटाणु अइसे सक्रिय भए कि करीब 4 घंटे हम भी कॉफी हाउस, सिविल लाइंस से हाईकोर्ट चौराहा तक पेंडुलम की तरह टहलते रहे। 4 घंटे की टहलाई ने भूख भी बढ़ा दी थी। अब गरम चाय पेट को कितना सहारा दे पाती सो, लगे हाथ हाईकोर्ट के सामने एक के बाद एक सजी बाटी-चोखा की दुकानों पर बैठकी का भी मौका वक्त की जरूरत बन गया। वैसे, हम लोग के विश्वविद्यालय टाइम में एकै दुकान थी। अब तो, पूरा बाटी-चोखा स्पेशियलिटी मॉल रोड जैसा अहसास दे रहा था- इलाहाबाद बैंक के पीछे वाली सड़क पर। बढ़िया घी में सना दिव्य बाटी औ चोखा के साथ मूली, प्याज, मिर्च, चटनी परोसी गई। जिह्वा पेट पर भारी पड़ रही थी 2 में मान नहीं रही थी लेकिन, थोड़ा संयम का ध्यान किया तो, कुछ रोक लगी।
खैर, दो-तीन बार मतगणना रुकने और दो दिन के बाद मतगणना पूरी होने के बाद प्राणेश जी के जीतने की खबर आई। लगा बढ़िया भवा- काफी टाइम बाद कउनौ चुनाव लगे दुइयै-चार घंटा बिना सही- नतीजा पॉजिटिव आवा। ई पॉजिटिव बड़ी सही चीज है- कुछौ पॉजिटिव होत रहै तो, ऊर्जा मिल जाथै। भले सीधे कुछ फायदा होय न होय। का कहथैं ऊ सेंटिमेंट ठीक होए जाथै। वही जइसे मार्केट, देश के मंदी भागै के संकेत से सेंटिमेंट सुधर गवा है। ढाई महीना पहिले तक सावधान, खतरा क बोर्ड लगाए घूमै वाले एनलिस्ट अब मौका हाथ से जाने न दीजिए टाइप सलाह निवेशकों को देने लगे हैं।
खैर, ई एनलिस्ट के सलाह पे बमुश्किल 5-7% इंडिया चल रहा है। कंजरवेटिव भारत मस्त है। सिविल लाइस की महात्मा गांधी रोड अइसे जगमग थी दिवाली में कि मंदी टाइप बात कभो भ रही देश में यादे नै पड़त रहा। पिछली बार की ही तरह मेला भी लगा है औ खरीदारी भी जमकर भई। घर आए तो, पता चला
दरअसल धर्मपत्नी जी को घर छोड़ने जाना था। तो, शनिवार की शिफ्ट करके प्रयागराज से इलाहाबाद के लिए निकल लिए। इलाहाबाद का कार्यक्रम में लगे हाथ मास कम्युनिकेशन के बच्चों की क्लास लेने का आमंत्रण मिला। पहली बार गुरु जी बनने का अवसर था तो, मैं भी भला चूकता कैसे। आर्थिक पत्रकारिता की करीब डेढ़ घंटे की एक बेसिक बातचीत भी हो गई। लेकिन, पता नहीं क्यों- आर्थिक पत्रकारिता इतनी महत्व रखते हुए भी भावी पत्रकारों में रुचि पैदा नहीं कर पा रही है। फिर वो मुंबई, दिल्ली हो या इलाहाबाद- खास फर्क नहीं दिखता।
अब इलाहाबाद पहुंचे थे तो, राजनीति के बिना बात कहां बनती। उस पर पता चला कि अपने प्राणेश जी इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन का चुनाव लड़ रहे हैं। प्राणेश दत्त त्रिपाठी अनुभवी वकील हैं। और, पिछली बार भी बहुत कम वोटों से सचिव बनते-बनते रह गए थे। इस बार चुनाव लगभग पक्का दिख रहा था। अब चूंकि ज्यादातर विश्वविद्यालय के नेता जो, इलाहाबाद रह गए हैं और रोजगार का दूसरा जरिया नहीं ढूंढ़ सके हैं तो, काला कोट पहनकर हाईकोर्ट में उनको अपना सम्मान सबसे आसानी से बचता दिख रहा है तो, पूरा का पूरा चुनाव भी बार का होते हुए भी विश्वविद्यालय जैसा हो गया था। खांटी विश्वविद्यालय के नेताओं की भाषा में- धोवावा कुर्ता जैसे धोवावा काला कोट पहिर के- कॉफी हाउस से हाईकोर्ट चौराहे तक जमावड़ा था।
मेरे भीतर के भी विश्वविद्यालय के अंदर वाले राजनीतिक कीटाणु अइसे सक्रिय भए कि करीब 4 घंटे हम भी कॉफी हाउस, सिविल लाइंस से हाईकोर्ट चौराहा तक पेंडुलम की तरह टहलते रहे। 4 घंटे की टहलाई ने भूख भी बढ़ा दी थी। अब गरम चाय पेट को कितना सहारा दे पाती सो, लगे हाथ हाईकोर्ट के सामने एक के बाद एक सजी बाटी-चोखा की दुकानों पर बैठकी का भी मौका वक्त की जरूरत बन गया। वैसे, हम लोग के विश्वविद्यालय टाइम में एकै दुकान थी। अब तो, पूरा बाटी-चोखा स्पेशियलिटी मॉल रोड जैसा अहसास दे रहा था- इलाहाबाद बैंक के पीछे वाली सड़क पर। बढ़िया घी में सना दिव्य बाटी औ चोखा के साथ मूली, प्याज, मिर्च, चटनी परोसी गई। जिह्वा पेट पर भारी पड़ रही थी 2 में मान नहीं रही थी लेकिन, थोड़ा संयम का ध्यान किया तो, कुछ रोक लगी।
खैर, दो-तीन बार मतगणना रुकने और दो दिन के बाद मतगणना पूरी होने के बाद प्राणेश जी के जीतने की खबर आई। लगा बढ़िया भवा- काफी टाइम बाद कउनौ चुनाव लगे दुइयै-चार घंटा बिना सही- नतीजा पॉजिटिव आवा। ई पॉजिटिव बड़ी सही चीज है- कुछौ पॉजिटिव होत रहै तो, ऊर्जा मिल जाथै। भले सीधे कुछ फायदा होय न होय। का कहथैं ऊ सेंटिमेंट ठीक होए जाथै। वही जइसे मार्केट, देश के मंदी भागै के संकेत से सेंटिमेंट सुधर गवा है। ढाई महीना पहिले तक सावधान, खतरा क बोर्ड लगाए घूमै वाले एनलिस्ट अब मौका हाथ से जाने न दीजिए टाइप सलाह निवेशकों को देने लगे हैं।
खैर, ई एनलिस्ट के सलाह पे बमुश्किल 5-7% इंडिया चल रहा है। कंजरवेटिव भारत मस्त है। सिविल लाइस की महात्मा गांधी रोड अइसे जगमग थी दिवाली में कि मंदी टाइप बात कभो भ रही देश में यादे नै पड़त रहा। पिछली बार की ही तरह मेला भी लगा है औ खरीदारी भी जमकर भई। घर आए तो, पता चला
मामा के यहां गजेंद्र मोक्ष जाप हुआ है। शाम को निमंत्रण है। पूछा कि हम्हीं लोग हैं या लंबा कार्यक्रम है पता चला कि 100 लोग तो लगभग हो ही जाएंगे। हमारे मामा जी जैसे लोग कंजरवेटिव भारत के वही लोग जो, हर चौथे-छठएं सत्यनारायम पूजा सुनके पंजीरी बांट देते हैं तो, गजेंद्र मोक्ष जाप कराके 100 लोगों को भोजन पर बुल लेते हैं। अब जिस इंडिया में तब्दील होने के लिए भारत मशक्कत कर रहा है वहां तो, जिस शाम कोई एक आदमी भोजन पे आ जाए- मियां-बीवी में झगड़ा होने की संभावना बढ़ जाती है। औ बहुत बड़े लोगों के यहां भी सालाना जलसे में बमुश्किल 100 लोग बुलाए जाते हैं।
कॉलोनी में मामा जी का घर है। कॉलोनी की छत पर ही भोजन का इंतजाम था। बढ़िया कड़ाहा चढ़ा था। ज्यादा तामझाम नहीं टाट पट्टी पे मजे से बैठके गले तक चांप के भोजन हुआ वरना तो, ऊ खड़े होके खाने वाले में – का कहते हैं बुफे सिस्टम – तो, न खाना खाया जाता है औ जितना खाया वो पच भी नहीं पाता है। जमकर खाया। काम की नीरसता से दूर दो दिन का इतना एनर्जेटिक दौरा था कि मजा आ गया। लेकिन, ऑफिस भी लौटना था। रात की राजधानी पकड़ी और, दूसरे दिन ऑफिस पहुंच गए। दिवाली तक फुर्सत नहीं थी आज रविवार की छुट्टी मिली तो, लिख मारा।
कॉलोनी में मामा जी का घर है। कॉलोनी की छत पर ही भोजन का इंतजाम था। बढ़िया कड़ाहा चढ़ा था। ज्यादा तामझाम नहीं टाट पट्टी पे मजे से बैठके गले तक चांप के भोजन हुआ वरना तो, ऊ खड़े होके खाने वाले में – का कहते हैं बुफे सिस्टम – तो, न खाना खाया जाता है औ जितना खाया वो पच भी नहीं पाता है। जमकर खाया। काम की नीरसता से दूर दो दिन का इतना एनर्जेटिक दौरा था कि मजा आ गया। लेकिन, ऑफिस भी लौटना था। रात की राजधानी पकड़ी और, दूसरे दिन ऑफिस पहुंच गए। दिवाली तक फुर्सत नहीं थी आज रविवार की छुट्टी मिली तो, लिख मारा।
Friday, October 09, 2009
ई बतकही के बड़ मनई हैं
बराक ओबामा क शांति पुरस्कार मिला है। दुनिया क सबसे बड़ा पुरस्कार है ई। अरे वही वाले का एक हिस्सा है ई पुरस्कार जिसमें हम इत्ते भर से खुश हो जाते हैं कि का भवा अमेरिका में रहि के मिला तो, भारत म पढ़ाई तो किहे रहा। अब भई तब तो बनथ भाई हम सबके खुश होएके चाही।
ई उही वाले ओबामा तो हैं जो, be the change! का जुमला हर बार बोलथैं जरूर। कर केत्ता पावथैं पता नहीं। साल भर में का भवा भइया। भवा ना दुनिया भर में घूम-घूम के कहिन be the change! औ ई बड़ मनई हैं जब बोलेन हर बार दुनिया सुनिस। ऐसा गूंजा be the change! जैसे राखी का थप्पड़ अभिषेक क गाल प। चड्ढी पहिर नहात-धोवत तस्वीरो देखके लगा कि be the change! लेकिन, का सही म कुछ चेंज भवा। इरान म तो अहमदीनेजाद से पूछो-- पाकिस्तान में आसिफ अली जरदारी, जनरल कियानी, यूसुफ रजा गिलानी-- चीनौ म पूछ लेओ। हमरे वसुधैव कुटुंबकम वाले भारत क छोड़ कउनौ से पूछे लेओ- ए भइया कहां भवा ई be the change!
be the change! बस एत्तै भवा कि गांधी के साथ ओबामा के dream date क बात सुनके हम भारतीय अइसन भाव विभोर भए। कइउ दिन तक लहराए घूमत रहे। सबके लगा कि एसे बड़ी खबर का होई औ ओबामा के गांधी के साथ dream date वाली खबर के दिन सारा मीडिया अइसा कइ दीहिस कि उम्मीद बंध गई कि भवा तो change!
ओबामा के मेहरारू मिशेल के dress sense से लैके ओबामा के दुइनौ गदेलन (बेटियों) तक की बात औ व्हाइट हाउस म कूकुर क नई नस्ल तक जमके भवा be the change! दिसंबर 10 क जब ओबामा शांति क नोबल लेइहैं तो, देखो का कहथि। पता नहीं ई याद रही कि नहीं कि दलाई लामा से मिल तक नहीं सके भइया। चीन के डर म।
ए भाई हम तो बेचारे भारतीय हैं हमार तो समझ म आवथै कि हमार जमीन कब्जाए तक बैठे हैं ई हिंदी-चीनी भाई-भाई वाले चीनी। लेकिन, भई ओबामा तुम केसे डेराए रहे हो। बताओ न। अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लैके दुनिया क कौने देश म तुम्हार be the change! वाला नारा काम कर रहा है। बताओ न सबसे बड़का वाला शांति पुरस्कार काहे मिला तुमका। सिर्फ बड़-बड़ बोलै के वजह से। सबसे बड़का देस का बड़का मनई बनै के वजह से। पता नहीं हम तो न समझ पाए रहे हैं आप समझे हों भइया तो, बताएओ जरूर। be the change
ई उही वाले ओबामा तो हैं जो, be the change! का जुमला हर बार बोलथैं जरूर। कर केत्ता पावथैं पता नहीं। साल भर में का भवा भइया। भवा ना दुनिया भर में घूम-घूम के कहिन be the change! औ ई बड़ मनई हैं जब बोलेन हर बार दुनिया सुनिस। ऐसा गूंजा be the change! जैसे राखी का थप्पड़ अभिषेक क गाल प। चड्ढी पहिर नहात-धोवत तस्वीरो देखके लगा कि be the change! लेकिन, का सही म कुछ चेंज भवा। इरान म तो अहमदीनेजाद से पूछो-- पाकिस्तान में आसिफ अली जरदारी, जनरल कियानी, यूसुफ रजा गिलानी-- चीनौ म पूछ लेओ। हमरे वसुधैव कुटुंबकम वाले भारत क छोड़ कउनौ से पूछे लेओ- ए भइया कहां भवा ई be the change!
be the change! बस एत्तै भवा कि गांधी के साथ ओबामा के dream date क बात सुनके हम भारतीय अइसन भाव विभोर भए। कइउ दिन तक लहराए घूमत रहे। सबके लगा कि एसे बड़ी खबर का होई औ ओबामा के गांधी के साथ dream date वाली खबर के दिन सारा मीडिया अइसा कइ दीहिस कि उम्मीद बंध गई कि भवा तो change!
ओबामा के मेहरारू मिशेल के dress sense से लैके ओबामा के दुइनौ गदेलन (बेटियों) तक की बात औ व्हाइट हाउस म कूकुर क नई नस्ल तक जमके भवा be the change! दिसंबर 10 क जब ओबामा शांति क नोबल लेइहैं तो, देखो का कहथि। पता नहीं ई याद रही कि नहीं कि दलाई लामा से मिल तक नहीं सके भइया। चीन के डर म।
ए भाई हम तो बेचारे भारतीय हैं हमार तो समझ म आवथै कि हमार जमीन कब्जाए तक बैठे हैं ई हिंदी-चीनी भाई-भाई वाले चीनी। लेकिन, भई ओबामा तुम केसे डेराए रहे हो। बताओ न। अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लैके दुनिया क कौने देश म तुम्हार be the change! वाला नारा काम कर रहा है। बताओ न सबसे बड़का वाला शांति पुरस्कार काहे मिला तुमका। सिर्फ बड़-बड़ बोलै के वजह से। सबसे बड़का देस का बड़का मनई बनै के वजह से। पता नहीं हम तो न समझ पाए रहे हैं आप समझे हों भइया तो, बताएओ जरूर। be the change
Monday, October 05, 2009
करीब 3 घंटे तो ‘अमितमय’ ही रह गए
बिग बॉस फिर आ गए हैं। और, इस बार तो सचमुच के बिग बॉस, बिग बॉस के शो में आए हैं। इसीलिए बिग बॉस, अरे वही जिनके घर में 13 लोग 84 दिन रुकेंगे, के पुराने सारे नियम कायदे-कानून टूट रहे हैं। 84 दिन पूरा होते-होते समझ में आएगा कि बिग बॉस सीजन 3 नहीं ... नहीं असली वाले बिग बॉस ने इसे बिग बॉस तृतीय कर दिया है।
बिग बॉस का कॉन्सेप्ट ही ऐसा है कि TRP तो, मिलेगी ही मिलेगी। लेकिन, बच्चन साहब ही इस बार शो की असली जान होंगे। एक राजू श्रीवास्तव को छोड़ दें तो, कोई भी बिग बॉस के घर का मेहमान नहीं है जो, TRP रखता हो। हॉ, ये जरूर है पिछली बार बिग बॉस का घर लोगों के पाप धुलने का जरिया बना था तो, इस बार वो, भूली दास्तां लो फिर याद आ गई वाले अंदाज के लोग बिग बॉस के घर में हैं।
घर के अंदर जाने वाले लोगों की बात फिर कभी। आज तो, बात सिर्फ बच्चन यानी असली बिग बॉस की। जो, भी शो में आ रहा था लटपटाकर बच्चन साहब के चरणों में गिरा पड़ रहा था किसी को उनकी गाड़ी का नंबर याद था तो, कोई दुनिया के सामने बच्चन साहब को टेनिस के मैच की याद दिला रहा था। अब ये जरा कम समझ में आया कि राखी सावंत की मां को उनकी मां के इलाज के लिए बच्चन साहब ने किस आधार पर और कैसे 2 लाख रुपए दे दिए थे।
वैसे तो, मैं खुद भी बच्चन साहब का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। जीती-जागती पूरी इंडस्ट्री हैं वो, अपने आप में। लेकिन, जिस तरह से जितने प्रतिभागी आए सबके पास अमिताभ बच्चन से जुड़े किस्से सुनाने को थे लगा, सबकुछ स्क्रिप्टेड है। देखिए इस बार का बिग बॉस क्या-क्या दिखाता है। वैसे आपको पायल रोहतगी और संभावना शेठ की कमी ज्यादा खलनी नहीं चाहिए पहले ही दिन जिस तरह से शर्लिन चोपड़ा ने प्रदर्शन किया उससे तय है कि TRP का सारा मसाला इस बार के बिग बॉस में भी है। वो, भी इंडस्ट्री के बिग बॉस बच्चन की मौजूदगी में। हर शुक्रवार वो घर के अंदर भी जाएंगे।
बिग बॉस का कॉन्सेप्ट ही ऐसा है कि TRP तो, मिलेगी ही मिलेगी। लेकिन, बच्चन साहब ही इस बार शो की असली जान होंगे। एक राजू श्रीवास्तव को छोड़ दें तो, कोई भी बिग बॉस के घर का मेहमान नहीं है जो, TRP रखता हो। हॉ, ये जरूर है पिछली बार बिग बॉस का घर लोगों के पाप धुलने का जरिया बना था तो, इस बार वो, भूली दास्तां लो फिर याद आ गई वाले अंदाज के लोग बिग बॉस के घर में हैं।
घर के अंदर जाने वाले लोगों की बात फिर कभी। आज तो, बात सिर्फ बच्चन यानी असली बिग बॉस की। जो, भी शो में आ रहा था लटपटाकर बच्चन साहब के चरणों में गिरा पड़ रहा था किसी को उनकी गाड़ी का नंबर याद था तो, कोई दुनिया के सामने बच्चन साहब को टेनिस के मैच की याद दिला रहा था। अब ये जरा कम समझ में आया कि राखी सावंत की मां को उनकी मां के इलाज के लिए बच्चन साहब ने किस आधार पर और कैसे 2 लाख रुपए दे दिए थे।
वैसे तो, मैं खुद भी बच्चन साहब का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। जीती-जागती पूरी इंडस्ट्री हैं वो, अपने आप में। लेकिन, जिस तरह से जितने प्रतिभागी आए सबके पास अमिताभ बच्चन से जुड़े किस्से सुनाने को थे लगा, सबकुछ स्क्रिप्टेड है। देखिए इस बार का बिग बॉस क्या-क्या दिखाता है। वैसे आपको पायल रोहतगी और संभावना शेठ की कमी ज्यादा खलनी नहीं चाहिए पहले ही दिन जिस तरह से शर्लिन चोपड़ा ने प्रदर्शन किया उससे तय है कि TRP का सारा मसाला इस बार के बिग बॉस में भी है। वो, भी इंडस्ट्री के बिग बॉस बच्चन की मौजूदगी में। हर शुक्रवार वो घर के अंदर भी जाएंगे।
Sunday, October 04, 2009
आडवाणी जी, आपके पास एक बड़ा मौका और है
bjp.org |
पेजावर मठ के स्वामी के बयान मीडिया की सबसे बड़ी खबर बने हुए हैं। स्वामी जी बीजेपी के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी के गुरु हैं और, वो कह रहे हैं कि आडवाणी जी ने उनसे संन्यास लेने की इच्छा व्यक्त की है। लेकिन, उन्होंने मना किया कि भारतीय राजनीति और बीजेपी को उनकी अभी बड़ी जरूरत है। अब लालकृष्ण आडवाणी अपने गुरु का कहा मानते हैं या अपने मन की- ये तो आने वाले दिन में ही पता चलेगा। लेकिन, क्या आडवाणी इतने असहाय-कमजोर और अकेले हो गए हैं कि खुद के राजनीति छोड़ने की बात कहने के लिए भी उन्हें अपने गुरु का सहारा लेना पड़ रहा है।
लगता ये है कि आडवाणी एक ऐसी भ्रमस्थिति के शिकार हो गए हैं जिसमें उनकी महत्वाकांक्षा और उनके मन के बीच का द्वंद न तो, उन्हें कुछ करने दे रहा है लेकिन, शांत भी नहीं बैठने दे रहा है। यही वजह है कि चुनाव हारने के बाद आडवाणी सक्रिय राजनीति से संन्यास की बात करने लगते हैं। नेता विपक्ष का पद छोड़ने की बात भी हुई लेकिन, ये द्वंद ही था कि जब वो, विपक्ष का नेता बने रहने के लिए मान गए तो, उन्होंने बयान दे दिया कि वो, फिर से देश भर की यात्रा करेंगे और भाजपा कार्यकर्ताओं से हार की वजह जानेंगे और भाजपा को नए सिरे से खड़ा करने की कोशिश करेंगे। देश के सबसे सफल रथयात्री की ये यात्रा अगर होती भी है तो, शायद ही राजनीतिक तौर पर इसका कोई महत्व इतिहास दर्ज करेगा।
दरअसल, 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा में इस कदर बवंडर मचा कि पार्टी के टूटने-संघ के नई भाजपा बनाने तक की चर्चा शुरू हो गई और सबके केंद्र बिंदु में लालकृष्ण आडवाणी ही थे। यानी साफ है कि ऐसे कमजोर, असहाय नहीं थे और न हैं जितनी मीडिया और खुद भाजपा के ही एक वर्ग में लगातार चर्चा हो रही है। सच्चाई तो ये है कि भाजपा में भले ही इस बात की चर्चा बल पा गई है कि अब अटल-आडवाणी युग से भाजपा को आगे बढ़ाने के समय आ गया है। लेकिन, उस आगे बढ़ाने में बागडोर थामने वाला कोई नेता है ही नहीं। और, जिनके नाम आ रहे हैं वो, ये चाहते हैं कि आडवाणी उनके सिर पर हाथ रखकर कह दें कि वही उनका असली उत्तराधिकारी है। आडवाणी के भक्त के तौर पर बयान देने वाले और आडवाणी को ही लोकसभा चुनाव की हार का दोषी मानने वाले दोनों ही खेमे दरअसल अभी भी इतना साहस नहीं रख पा रहे हैं कि वो, आडवाणी से इतर भाजपा की कल्पना भी कर लें।
आडवाणी के दो प्रमुख सिपहसालार- सुधींद्र कुलकर्णी और जसंवत सिंह- पार्टी से बाहर जा चुके हैं। तो, एक जमाने में आडवाणी के मुरीद दिग्गज पत्रकार अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा पार्टी में रहकर भी आडवाणी पर लगातार निशाना साध रहे हैं। तो, क्या आडवाणी की अभी और किरकिरी होनी बाकी है। कम से कम अटल बिहारी वाजपेयी की अस्वस्थता ने उनकी किरकिरी होने से तो बचा ही ली है। लेकिन, अटल-आडवाणी युग से आगे निकलने का साहस भाजपा में शून्य है। ये इससे साफ समझ में आता है कि अभी महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के ऑडियो-वीडियो कैसेट जनता से भाजपा के लिए वोट मांगेंगे। अब अटल जी तो, भाजपा के लिए इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते हैं। लेकिन, आडवाणी के पास एक बड़ा मौका है जो, इस रथयात्री की अंतिम राजनीतिक यात्रा को शानदार बना सकता है।
दरअसल अभी भी भाजपा कार्यकर्ता पूरे देश में अगर किसी एक नेता के कहने पर कुछ भी करने को तैयार हो सकते हैं तो, वो लालकृष्ण आडवाणी ही हैं। हो सकता है कि अभी इसमें बहस ये हो कि इतना ही होता तो, भाजपा चुनाव जीत गई होती और भाजपा के लौहपुरुष प्रधानमंत्री बन गए होते लेकिन, ये तर्क इसलिए गलत लगता है कि आडवाणी के नेतृत्व वाली भाजपा ने इतना भी खराब प्रदर्शन नहीं किया जितना मीडिया और राजनीति समाज में हल्ला हुआ। 116 सांसद लोकसभा में इतने भी कम नहीं होते। लेकिन, जिस तरह से आडवाणी के राजनीतिक सलाहकारों ने इस चुनाव को आडवाणी के राजनीतिक जीवन की अंतिम लड़ाई जैसा पेश कर दिया था उसमें हारने के बाद आडवाणी हारे हुए योद्धा अपने आप ही साबित हो गए। फिर क्या था जिसे देखो हर किसी ने आडवाणी को सत्ता लोभी तक घोषित कर दिया।
लेकिन, थोड़ा सा पीछे जाकर देखें तो, ये लालकृष्ण आडवाणी ही थे जिन्होंने हवाला कांड में अपना नाम भर आने पर लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। सोनिया तो, त्याग की मूर्ति बन गई हैं लेकिन, आडवाणी के राजनीतिक जीवन का अंत सत्तालोलुप बने होता दिख रहा है। ये तो सर्वविदित तथ्य है कि उस दौर में संघ के सबसे प्रिय स्वयंसेवक होने के बावजूद आडवाणी ने खुले तौर पर कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी को बौना साबित करने की कोशिश कहीं नहीं की। सर्वमान्यता की वजह से भले वाजपेयी स्वयंसेवक प्रधानमंत्री बन गए लेकिन, सच्चाई यही है कि पूरे देश का भाजपा कार्यकर्ता आडवाणी को ही नेता मानता-जानता था।
अब आडवाणी के पास एक बड़ा मौका है। लेकिन, इसके लिए आडवाणी को अपना मन बड़ा करना होगा। और, अपने मन से निकली देश भर के भाजपा कार्यकर्ताओं से बात की इच्छा को अमली जामा पहनाने की रणनीति बदलनी होगी। रणनीति बस इतनी कि इस यात्रा की शुरुआत से पहले उन्हें चुप्पी तोड़नी होगी। उन्हें खुद बोलना होगा। अपने गुरु, अपने सलाहकारों के मुंह से अपनी मंशा व्यक्त करने के बजाए पुराने लौह पुरुष को सामने आना होगा। लेकिन, राजनीति के इस प्रयोगधर्मी नेता को एक और प्रयोग करना होगा। आडवाणी का राजनीति से संन्यास लेकर राजनीति की नई परिभाषा गढ़नी होगी। अब समय ये है कि आडवाणी भाजपा के अभिभावक बनें लेकिन, ऐसा अभिभावक जो, बिना किसी इच्छा के अपने बच्चों को उनके लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता। लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति की ऐसी शख्सियत नहीं हैं कि गुमनामी में राजनीतिक पारी का अंत हो जाए। आडवाणी जी एक नया प्रयोग आपका इंतजार कर रहा है ये बड़ा मौका है आप बोलकर तो देखिए देश आपको अभी भी सुनने को तैयार है। आपके गुरु जी की ये बात एकदम सही है कि भारतीय राजनीति और भाजपा को आपकी अभी बहुत जरूरत है। लेकिन, थोड़ा बदले रोल में ...
Saturday, October 03, 2009
बच्चे-बच्चे को जो बात पता है वो, सीएम साहब को नहीं पता!
बहुत गलत हुआ। करण जौहर को राज ठाकरे के घर माफी मांगने नहीं जाना चाहिए था। करण को सीधे थाने जाना चाहिए था। थाने जाना चाहिए था- किसलिए। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण साहब कह रहे हैं कि राज ठाकरे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के खिलाफ करण जौहर को पुलिस थाने में जाकर रिपोर्ट लिखानी चाहिए थी। क्या रिपोर्ट लिखाते कि राज ठाकरे को wake up sid! में बांबे को बांबे कहने पर एतराज है। अब वो कह रहे हैं कि मुंबई करो।
अच्छा मान लो कि करण जौहर ये रिपोर्ट लिखा भी देते तो, क्या होता। होता ये कि चुनावी मौसम में MNS के लफंगे कार्यकर्ताओं को गुंडागर्दी का मौका मिल जाता वो, मराठी माणुस का स्वाभिमान बचाने के झूठे तर्क के नाम पर। आप क्या कर पाते चव्हाण साहब कुछ नहीं। बस इतना हो पाता कि राज और उद्धव दोनों मराठी माणुस को लेकर लड़ते तो, कट्टर मराठी माणुस वोटबैंक बंट जाता और आपकी कांग्रेस फिर से सत्ता में आ जाती। इसके अलावा थोड़ा बहुत ये होता कि एकाध घंटे के लिए शायद राज ठकरे को अदालत तक ले जाया जाता। बिना दमड़ी खर्च किए राज ठाकरे को चुनाव के समय निर्विरोध घंटों की टीवी कवरेज लाइव मिल जाती।
अगर आपको अब भी ये भ्रम है कि राज ठाकरे की गुंडागर्दी के खिलाफ आप कुछ कर पाने की हैसियत में हैं तो, मामलों की तो, फेहरिस्त है। क्यों, कुछ कर नहीं पा रहे हैं। अभी ताजा मामले को ज्यादा समय नहीं हुआ है जब एक मराठी महिला के शादी से इनकार करने पर राज ठाकरे की MNS शैतानों ने मिलकर उसके साथ बलात्कार किया फिर उसे आग के हवाले कर दिया। MNS के गुंडों की नीच हरकत की ये कोई पहली घटना नहीं है। और, अब तो, आप मुख्यमंत्री हैं भूल गए क्या कि आपके पहले के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख- जो, अपने को शरद पवार से भी बड़ा मराठा क्षत्रप साबित करने की हर कोशिश में जुटे रहते हैं- के समय राज ठाकरे ने क्या नंगा नाच किया था।
कई दिनों की मारामारी के बाद गिरफ्तारी भी हुई तो, गेस्ट हाउस में ससम्मान रखा गया। विक्रोली की अदालत में आते-आते जैसे सरकार ने आत्मसमर्पण सा कर दिया था कि महाराष्ट्र में भले कांग्रेस की सरकार है। सड़कों पर राज का ही राज चलेगा। राज ठाकरे की गिरफ्तारी और जमानत के कांग्रेसी स्क्रिप्टेड ड्रामे का सच लाइव टेलीविजन के जरिए पूरे देश ने देखा। कांग्रेस-NCP का घोषणा पत्र कह रहा है कि 2012 तक पूरे राज्य में बिजली नहीं कटेगी। महाराष्ट्र में गलती से एक बार सत्ता में पहुंचे शिवसेना-भाजपा गठजोड़ की सरकार छोड़ दें तो, लगातार कांग्रेसी ही राज कर रहे हैं। ऐसे कांग्रेसी शासन में महाराष्ट्र का असली हाल खुद ही पढ़ लीजिए तब कांग्रेसी वादों पर भरोसा कीजिए।
नए साल पर गुजरात की एक युवती के साथ हुए हद दर्जे की नीचता और उसके बाद ऐसे संवेदनशील मुद्दे को भी राज ठाकरे ने मराठी-उत्तर भारतीय बना दिया था। उस समय भी कांग्रेसी सरकार कुछ करने के बजाए राज ठाकरे को शांत करने में जुट गई थी। अब मुख्यमंत्री चव्हाण कह रहे हैं तो, शायद इसलिए कह रहे होंगे कि करण जौहर तो बड़े आदमी हैं उनकी इज्जत तो सरकार बचा लेती। लेकिन, भइया करण जौहर बहुत पैसा लगाकर फिल्म बनाते हैं। धंधा करते हैं जानते हैं कि जब पूरी मुंबई को राज ठाकरे के गुंडे बंधक बना सकते हैं तो, सिर्फ सिनेमाहालों में तांडव कितनी बड़ी हात है। जया बच्चन ने सही कहाकि करण जौहर ने सही काम किया। आखिर पहले बच्चन परिवार भी तो, राज ठाकरे की आग में झुलस चुका है। वो, भी कोई छोटे लोग तो, थे नहीं। सरकार निकम्मी हो तो क्या छोटा-क्या बड़ा सबको अन्याय सहना पड़ता है। महाराष्ट्र में तो बहुत सालों से यही चल रहा है।
अच्छा मान लो कि करण जौहर ये रिपोर्ट लिखा भी देते तो, क्या होता। होता ये कि चुनावी मौसम में MNS के लफंगे कार्यकर्ताओं को गुंडागर्दी का मौका मिल जाता वो, मराठी माणुस का स्वाभिमान बचाने के झूठे तर्क के नाम पर। आप क्या कर पाते चव्हाण साहब कुछ नहीं। बस इतना हो पाता कि राज और उद्धव दोनों मराठी माणुस को लेकर लड़ते तो, कट्टर मराठी माणुस वोटबैंक बंट जाता और आपकी कांग्रेस फिर से सत्ता में आ जाती। इसके अलावा थोड़ा बहुत ये होता कि एकाध घंटे के लिए शायद राज ठकरे को अदालत तक ले जाया जाता। बिना दमड़ी खर्च किए राज ठाकरे को चुनाव के समय निर्विरोध घंटों की टीवी कवरेज लाइव मिल जाती।
अगर आपको अब भी ये भ्रम है कि राज ठाकरे की गुंडागर्दी के खिलाफ आप कुछ कर पाने की हैसियत में हैं तो, मामलों की तो, फेहरिस्त है। क्यों, कुछ कर नहीं पा रहे हैं। अभी ताजा मामले को ज्यादा समय नहीं हुआ है जब एक मराठी महिला के शादी से इनकार करने पर राज ठाकरे की MNS शैतानों ने मिलकर उसके साथ बलात्कार किया फिर उसे आग के हवाले कर दिया। MNS के गुंडों की नीच हरकत की ये कोई पहली घटना नहीं है। और, अब तो, आप मुख्यमंत्री हैं भूल गए क्या कि आपके पहले के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख- जो, अपने को शरद पवार से भी बड़ा मराठा क्षत्रप साबित करने की हर कोशिश में जुटे रहते हैं- के समय राज ठाकरे ने क्या नंगा नाच किया था।
कई दिनों की मारामारी के बाद गिरफ्तारी भी हुई तो, गेस्ट हाउस में ससम्मान रखा गया। विक्रोली की अदालत में आते-आते जैसे सरकार ने आत्मसमर्पण सा कर दिया था कि महाराष्ट्र में भले कांग्रेस की सरकार है। सड़कों पर राज का ही राज चलेगा। राज ठाकरे की गिरफ्तारी और जमानत के कांग्रेसी स्क्रिप्टेड ड्रामे का सच लाइव टेलीविजन के जरिए पूरे देश ने देखा। कांग्रेस-NCP का घोषणा पत्र कह रहा है कि 2012 तक पूरे राज्य में बिजली नहीं कटेगी। महाराष्ट्र में गलती से एक बार सत्ता में पहुंचे शिवसेना-भाजपा गठजोड़ की सरकार छोड़ दें तो, लगातार कांग्रेसी ही राज कर रहे हैं। ऐसे कांग्रेसी शासन में महाराष्ट्र का असली हाल खुद ही पढ़ लीजिए तब कांग्रेसी वादों पर भरोसा कीजिए।
नए साल पर गुजरात की एक युवती के साथ हुए हद दर्जे की नीचता और उसके बाद ऐसे संवेदनशील मुद्दे को भी राज ठाकरे ने मराठी-उत्तर भारतीय बना दिया था। उस समय भी कांग्रेसी सरकार कुछ करने के बजाए राज ठाकरे को शांत करने में जुट गई थी। अब मुख्यमंत्री चव्हाण कह रहे हैं तो, शायद इसलिए कह रहे होंगे कि करण जौहर तो बड़े आदमी हैं उनकी इज्जत तो सरकार बचा लेती। लेकिन, भइया करण जौहर बहुत पैसा लगाकर फिल्म बनाते हैं। धंधा करते हैं जानते हैं कि जब पूरी मुंबई को राज ठाकरे के गुंडे बंधक बना सकते हैं तो, सिर्फ सिनेमाहालों में तांडव कितनी बड़ी हात है। जया बच्चन ने सही कहाकि करण जौहर ने सही काम किया। आखिर पहले बच्चन परिवार भी तो, राज ठाकरे की आग में झुलस चुका है। वो, भी कोई छोटे लोग तो, थे नहीं। सरकार निकम्मी हो तो क्या छोटा-क्या बड़ा सबको अन्याय सहना पड़ता है। महाराष्ट्र में तो बहुत सालों से यही चल रहा है।
Friday, October 02, 2009
बस इत्ते के ही गांधी जी
कभी ओबामा गांधी को अपना हीरो बता देते हैं तो, हम खुश हो जाते हैं। कभी दुनिया के किसी कोने में गांधी का नाम कोई बड़ा आदमी ले लेता है तो, हम गांधी और आज की प्रासंगिकता खोजने लगते हैं। कभी 2 अक्टूबर आ जाता है तो, अखबारों के पन्ने रंग जाते हैं। तो, हम आलोचना पर उतर आते हैं।
कभी किसी नौजवान की टीशर्ट पर गांधी का टेढ़ा-मेढ़ा चश्मा दिखता है तो, गांधी को आज के नौजवानों से जोड़ देने की कोशिश शुरू हो जाती है। लेकिन, क्या गांधी सचमुच प्रासंगिक हैं। अभी सुबह एक मित्र का मोबाइल संदेश आया जो, नौजवानों की भाषा में light hearted कहा जा सकता है। लेकिन, लगता है कि सही में गांधी जी बस इत्ते के ही हैं- संदेश पढ़ लीजिए
Dear frnd! For 2nd oct. I m collecting Gandhiji’s Photos. I need ur Contributn 2my collectn. Bas Ghar men jitney bhi 10/50/100/500/1000 k note ho bhej dena
गांधी नोट पर हैं बिकाऊ हैं। गांधी पर वोटबैंक भी मिल जाता है इसीलिए, कांग्रेस उनको तो फिर भी याद कर लेती है। गांधी के ही दिन पैदा हुए और त्याग-नैतिकता के बड़े उदाहरण लालबहादुर शास्त्री जी को तो याद करना भी सब छोड़ देते हैं। अपने पिता का इस तरह से असम्मान देखने के बावजूद पता नहीं कैसे उनके बेटे कांग्रेस में पड़े रहते हैं।
कभी किसी नौजवान की टीशर्ट पर गांधी का टेढ़ा-मेढ़ा चश्मा दिखता है तो, गांधी को आज के नौजवानों से जोड़ देने की कोशिश शुरू हो जाती है। लेकिन, क्या गांधी सचमुच प्रासंगिक हैं। अभी सुबह एक मित्र का मोबाइल संदेश आया जो, नौजवानों की भाषा में light hearted कहा जा सकता है। लेकिन, लगता है कि सही में गांधी जी बस इत्ते के ही हैं- संदेश पढ़ लीजिए
Dear frnd! For 2nd oct. I m collecting Gandhiji’s Photos. I need ur Contributn 2my collectn. Bas Ghar men jitney bhi 10/50/100/500/1000 k note ho bhej dena
गांधी नोट पर हैं बिकाऊ हैं। गांधी पर वोटबैंक भी मिल जाता है इसीलिए, कांग्रेस उनको तो फिर भी याद कर लेती है। गांधी के ही दिन पैदा हुए और त्याग-नैतिकता के बड़े उदाहरण लालबहादुर शास्त्री जी को तो याद करना भी सब छोड़ देते हैं। अपने पिता का इस तरह से असम्मान देखने के बावजूद पता नहीं कैसे उनके बेटे कांग्रेस में पड़े रहते हैं।
Thursday, October 01, 2009
टीवी के तिलिस्म को समझना होगा, भागने से नुकसान ही होगा
विस्फोट पर एक लेख पढ़ा - टूट रहा है टेलीविजन पत्रकारिता का तिलिस्म पढ़ा तो, मुझे लगा कि एक पक्ष है ये। टीवी के दूसरे पहलू पर चर्चा ही नहीं। मैं प्रिंट में काम करने के बाद टीवी की तरफ आया। मुझे जो लगता है वो, मैंने विस्फोट के लिए लिखा था। उसे यहां अपने ब्लॉग पर भी डाल रहा हूं।
बहस ये कि क्या टेलीविजिन अपने उद्भव के 10 सालों बाद ही भारत में चुक गया है। क्या टेलीविजन पत्रकारिता से सरोकार पूरी तरह से गायब हो गए हैं। क्या ये बात अब सही साबित हो रही है कि टेलीविजिन बुद्धू बक्से से आगे नहीं बढ़ पाया। क्या पत्रकारिता का जिम्मा सिर्फ और सिर्फ अखबारों के ही कंधों पर है। मुझे भी धीरे-धीरे 5 साल टीवी की पत्रकारिता में पूरे हो रहे हैं। कभी-कभी इन उछल रहे सवालों का जवाब मेरे अंदर भी निगेटिव एनर्जी के तौर पर ही आते हैं। लेकिन, क्या ये सच्चाई है। जब इस सवाल पर दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालता हूं तो, लगता है कि ये टेलीविजन पत्रकारिता पर एक ऐसा फैसला सुनाया जा रहा है। जिसकी पूरी सुनवाई भी नहीं हुई और फैसला सुनाने वाले वो लोग है जो, या तो टीवी से दूर-अनजान हैं या फिर वो, जो टीवी के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं।
अब एक बात तो पक्की है कि टीवी और प्रिंट- फिर चाहे वो अखबार हो या पत्रिका- की पत्रकारिता एकदम अलग है। इन दोनों को एक तरह से काम करने की चाहत रखने वाले लोग गलत शुरुआत ही करते हैं। आजादी के आंदोलन या फिर उसके बाद इमर्जेंसी आंदोलन से निकले लोगों में से जो, राजनीतिक जीवन नहीं शुरू करना चाहते थे। उन्हें लगा कि समाज को जागरुक बनाने, आंदोलित रखने का एक बेहतर जरिया पत्रकारिता हो सकती है। वो, आए प्रिंट ही था तो, प्रिंट की ही पत्रकारिता शुरू की और अपने नियम गढ़े। आंदोलन की पृष्ठभूमि से आए लोग थे इसलिए सामाजिक सरोकार उनमें जिंदा था। लेकिन, उसके बाद जब प्रिंट की पत्रकारिता ने पांव पसारना शुरू किया तो, एक और जमात इसमें शामिल हुई जो, अफसर बनने की कोशिश में असफल हो गई या जीवन में कुछ न कर पाने वाले लोग। थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना आता था प्रेस रिलीज समझ लेते थे और प्रेस रिलीज में लिखे नामों के साथ जनसंपर्क बना लेते थे और उस आधार पर कुछ खबरें निकालकर कुछ आगे बढ़ा देते थे।
अखबारों में थोड़े बहुत पैसे मिलते थे और झौआ भर तिलिस्मी सम्मान। तिलिस्मी सम्मान इसलिए कह रहा हूं कि जिले के अफसर-दरोगा या तोड़ा राजनीतिक-सामाजिक चाहत रखने वाले लोग उन्हें-उनके सामने इसलिए सम्मान देते थे। इस सम्मान मिलने-मिलाने में कभी-कबी कुछ ऐसी खबरें होती थीं जो, उनके सम्मान में थोड़ी और बढ़ोतरी कर देती थीं। इस सबके बीच देश में अखबारी पत्रकारों का एक ऐसा समूह बना जो, लोगों का आदर्श बना लेकिन, प्रिंटाई पत्रकारों को मिलने वाली छोटी रकम किसी भी अच्छे घर के-सुविधासंपन्न बच्चे को ये करियर बनाने से रोकती रहती थी। उस पर कुछ आदर्शवादी पत्रकार, पत्रकारिता को मिशन बनाए रखने की वकालत करते कुछ इस तरह का पेश करते रहे कि पत्रकारिता में आने का मतलब रूखी-सूखी खाए के ठंडा पानी पीव- भर ही दिखता रहा।
फिर प्रिंटाई पत्रकारिता को समझने के बीच-बीच में जाने कब टीवी की तिलिस्म आ गया। खांटी प्रिंटाई पत्रकारों को पता ही नहीं चला। पहले-पहल तो, तकनीक से अनजान, कीबोर्ड देखकर घबराने वाले पत्रकारों ने टीवी को एकदम से ही खारिज करने की कोशिश की। लेकिन, टीवी के साथ-साथ बाजार-पैसा भी आया था। उसकी ताकत और नए प्रयोग ने प्रिंटाई पत्रकारों के ही एक बड़े वर्ग में कुछ अलग करने की इच्छा पैदा कर दी। इस अलग करने की इच्छा ने टेलीविजन की अवधारणा को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये विधा मजबूत होने लगी। चकाचौंध थी इसलिए नए जमाने के बच्चे जो, कुछ लिखना-पढ़ना चाहते थे। जिनका मन आंदोलन के दौर के प्रिंट के बड़े पत्रकार पर मोहता था। वो, टीवी में आने की इच्छा रखने लगे। उनको लगा पैसा भी है और पत्रकार भी कहलाएंगे।
टीवी चलाने वाले जो लोग थे वो, सबके सब प्रिंट की बेहतर पत्रकारिता करके ही इस नई विधा में हाथ आजमाने आए थे। पैसे ने प्रिंट और टीवी के पत्रकारों के बीच खाई भी बढ़ाई-खुन्नस भी। फिर एक साफ सा फैसला अपने आप तैयार होता गया कि पैसे के लिए पत्रकारिता करनी है तो, टीवी में जाओ। सचमुच की पत्रकारिता करनी है तो, अखबार में काम करो। इसके साथ एक पुछल्ला भी जुड़ा होता है कि प्रिंट की पत्रकारिता में सुकून है। यही सुकून और सचमुच की पत्रकारिता की बात कर ली जाए तो, कुछ मसला समझ में आ जाएगा।
चलिए पहले बात ये कर लेते हैं कि अखबार की पत्रकारिता करने के लिए आपमें क्या काबिलियत होनी चाहिए। खबरों की समझ ये तो, टीवी के लिए भी चाहिए। कंप्यूटर पर लिखना। सीधे-सीधे खबर की तरह- ये अखबार-पत्रिका के लिए जरूरी है। खबर में गलती न जाए- इसके लिए अखबार पूरा मौका देता है दिन भर का- देर रात सारी खबरों को परखकर-समझकर अगले दिन के लिए एक दिन पहले की सारी खबर कुछ इस तरह देना कि लोगों को पूरी खबर समझ में आए। उसे इत्मीनान से पढ़ा जा सकता है इसलिए सब कुछ विस्तार में देना।
अब टीवी की बात करें तो, खबरों की समझ और कंप्यूटर पर लिखना छोड़ दें तो, सबकुछ बदल जाता है। यहां सारा खेल प्रजेंटेशन का हो जाता है। खबरों का प्रजेंटेशन मतलब क्या। मतलब ये कि खबर अधूरी आई या पूरी आई जितनी भी आई उसे दर्शकों को बताना है। सबसे पहले- ये कॉन्सेप्ट और साथ में खबर दिखे ऐसे कि ये न लगे कि कुछ छूटा है। अभी की खबर है इसमें 24 घंटे का समय नहीं है। आराम से सोकर 2 बजे के बाद ऑफिस पहुंचकर टीवी तो, चलने से रहा। यहां 24 घंटे के व्हील पर सबकुछ चलता है। कुछ छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि, जो छोड़ा वही खबर दिखाकर दूसरा चौनल TRP बटोर लेगा।
मैंने दोनों माध्यमों में काम किया है। और, 5-6 साल प्रिंट में काम करने के बाद टीवी देखने समझने की इच्छा हुई। आया और ठीक ठाक ही कर रहा हूं। यहां जो, लोग काम कर रहे हैं वो, अखबार से ज्यादा तकनीकी ज्ञान वाले हैं, खबरों ज्यादा चौकन्ने हो जाते हैं, मशीन के साथ उनका संपर्क, मनुष्य के साथ के संपर्क से ज्यादा हो जाता है। और, इस सबके साथ ढेर सारे तनाव का बोनस मुफ्त में मिलता है। और, इस तनाव की कीमत टीवी चुकाता है ज्यादा पैसे देकर।
ऊबता आदमी हर जगह है। थोड़ा सा पत्रकारिता अंदर घुसी तो, हर जगह ही कुछ दिन बाद बोर करने लगती है। नयापन नहीं दिखता। भले अपनी ओर से नयापन करने का रंचमात्र भी प्रयास न हो। अचानक अखबार की झिकझिक से ऊबे पत्रकार कहते हैं कि यार जब यही झिकझिक झेलनी है तो, चलो टीवी में ही चलते हैं। वहां जाते हैं कुछ तो, ज्यादा तनाव लेकर टीवी से मिले इंसेंटिव (ज्यादा सैलरी) को जस्टिफाई करते रहते हैं। और, कुछ जो इस तनाव को झेल नहीं पाते- टीवी को गरियाते हुए फिर से किसी अखबार में सुकून की नौकरी करने चले जाते हैं। बहुत से सचमुच के काबिल लोग इसलिए टीवी छोड़कर अखबार में जाते हैं कि सचमुच टीवी में सर्फ बहुतअच्छा लिखने-पढ़ने वाले लोगों के लिए ज्यादा जगह नहीं है।
अब बात टीवी के तिलिस्म की। मैं जब टीवी चैनल में काम करने आया तो, लगा कि यार सब जादू है। चंद्रकांता संतति जैसी तिलिस्मी दुनिया लग रही थी। लगा कि गलत फैैसला तो, नहीं ले लिया प्रिंट से टीवी में आने का। जुटे और बमुश्किल 6 महीने लगे होंगे। टीवी की ज्यादातर तिलिस्मी एयारी की काट समझ में आने लगी। टीवी का उस्ताद तो नहीं कह सकता उस्ताद जी लोग तो टीवी चला रहे हैं लेकिन, काम भर का टीवी सीख गया। और, ये भरोसा पक्का हुआ कि अगर टीवी में नहीं आते तो, पत्रकारिता के इस बेहद सश्कत माध्यम से अनजाने रह जाते और छाती फुलाए टीवी को गरियाते रहते कि टीवी की पत्रकारिता कोई पत्रकारिता है।
अब अगर आप जरा दिमाग पर जोर डालकर याद करिए तो, पिछले 5-6 सालों में सरकारों-सत्ता को परेशान करने वाली खबरें टीवी की उसी बाइट से पैदा हुईं जिनके बारे में कहा जाता है खबर तो, पत्रकार खोजकर निकालता है। बाइट मिली तो खबर कहां। लेकिन, सोचिए कि प्रिंट में सूत्रों के हवाले से छपी खबर और टीवी पर किसी की बाइट के साथ टलती खोजी खबर में से कौन खबर ज्यादा प्रभाव पैदा करती है। हां, ये भी सही है कि टीवी में बहुत सी खबरें बाइट न मिल पाने से दब जाती हैं।
अब सवाल ये है कि क्या इसी बिना पर टीवी को पूरी तरह से खारिज किया जाना चाहिए। क्या ये समय नहीं है जब टीवी और प्रिंट के पत्रकार दोनों ही नए जमाने की पत्रकारिता और टीवी के तिलिस्म को बेहतर तरीके से समझें जिससे पत्रकारिता के एक तुरंत समाज पर प्रभाव डालने वाले माध्यम टीवी को मजबूत किया जा सके। मैं भी हो सकता है कि कल को किसी अखबार में काम करता दिखूं लेकिन, वो टीवी के तिलिस्म के टूटने का सबूत नहीं होगा। वो, मेरी सहूलियत-मेरी जरूरत के साथ पत्रकारिता के दोनों माध्यमों टीवी और अखबार के बेहतर तालमेल का सबूत होगा। अमर उजाला देहरादून में काम करते हुए 12-14 घंटे काम करने का जो, अभ्यास लगा और जो, खबरों के रियाज का नुस्खा मिला उसने टीवी में बड़ी मदद की। और, टीवी में खबरों पर तेजी रिएक्ट करना और प्रजेंटेशन बेहतर करने की जो ट्रेनिंग मिली है वो, अखबार में भी फायदा ही करेगी। अभी तो, भारतीय टीवी को बहुत से पड़ाव पार करने हैं इसके तिलिस्म के टूटने की बात जमनी नहीं।
बहस ये कि क्या टेलीविजिन अपने उद्भव के 10 सालों बाद ही भारत में चुक गया है। क्या टेलीविजन पत्रकारिता से सरोकार पूरी तरह से गायब हो गए हैं। क्या ये बात अब सही साबित हो रही है कि टेलीविजिन बुद्धू बक्से से आगे नहीं बढ़ पाया। क्या पत्रकारिता का जिम्मा सिर्फ और सिर्फ अखबारों के ही कंधों पर है। मुझे भी धीरे-धीरे 5 साल टीवी की पत्रकारिता में पूरे हो रहे हैं। कभी-कभी इन उछल रहे सवालों का जवाब मेरे अंदर भी निगेटिव एनर्जी के तौर पर ही आते हैं। लेकिन, क्या ये सच्चाई है। जब इस सवाल पर दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालता हूं तो, लगता है कि ये टेलीविजन पत्रकारिता पर एक ऐसा फैसला सुनाया जा रहा है। जिसकी पूरी सुनवाई भी नहीं हुई और फैसला सुनाने वाले वो लोग है जो, या तो टीवी से दूर-अनजान हैं या फिर वो, जो टीवी के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं।
अब एक बात तो पक्की है कि टीवी और प्रिंट- फिर चाहे वो अखबार हो या पत्रिका- की पत्रकारिता एकदम अलग है। इन दोनों को एक तरह से काम करने की चाहत रखने वाले लोग गलत शुरुआत ही करते हैं। आजादी के आंदोलन या फिर उसके बाद इमर्जेंसी आंदोलन से निकले लोगों में से जो, राजनीतिक जीवन नहीं शुरू करना चाहते थे। उन्हें लगा कि समाज को जागरुक बनाने, आंदोलित रखने का एक बेहतर जरिया पत्रकारिता हो सकती है। वो, आए प्रिंट ही था तो, प्रिंट की ही पत्रकारिता शुरू की और अपने नियम गढ़े। आंदोलन की पृष्ठभूमि से आए लोग थे इसलिए सामाजिक सरोकार उनमें जिंदा था। लेकिन, उसके बाद जब प्रिंट की पत्रकारिता ने पांव पसारना शुरू किया तो, एक और जमात इसमें शामिल हुई जो, अफसर बनने की कोशिश में असफल हो गई या जीवन में कुछ न कर पाने वाले लोग। थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना आता था प्रेस रिलीज समझ लेते थे और प्रेस रिलीज में लिखे नामों के साथ जनसंपर्क बना लेते थे और उस आधार पर कुछ खबरें निकालकर कुछ आगे बढ़ा देते थे।
अखबारों में थोड़े बहुत पैसे मिलते थे और झौआ भर तिलिस्मी सम्मान। तिलिस्मी सम्मान इसलिए कह रहा हूं कि जिले के अफसर-दरोगा या तोड़ा राजनीतिक-सामाजिक चाहत रखने वाले लोग उन्हें-उनके सामने इसलिए सम्मान देते थे। इस सम्मान मिलने-मिलाने में कभी-कबी कुछ ऐसी खबरें होती थीं जो, उनके सम्मान में थोड़ी और बढ़ोतरी कर देती थीं। इस सबके बीच देश में अखबारी पत्रकारों का एक ऐसा समूह बना जो, लोगों का आदर्श बना लेकिन, प्रिंटाई पत्रकारों को मिलने वाली छोटी रकम किसी भी अच्छे घर के-सुविधासंपन्न बच्चे को ये करियर बनाने से रोकती रहती थी। उस पर कुछ आदर्शवादी पत्रकार, पत्रकारिता को मिशन बनाए रखने की वकालत करते कुछ इस तरह का पेश करते रहे कि पत्रकारिता में आने का मतलब रूखी-सूखी खाए के ठंडा पानी पीव- भर ही दिखता रहा।
फिर प्रिंटाई पत्रकारिता को समझने के बीच-बीच में जाने कब टीवी की तिलिस्म आ गया। खांटी प्रिंटाई पत्रकारों को पता ही नहीं चला। पहले-पहल तो, तकनीक से अनजान, कीबोर्ड देखकर घबराने वाले पत्रकारों ने टीवी को एकदम से ही खारिज करने की कोशिश की। लेकिन, टीवी के साथ-साथ बाजार-पैसा भी आया था। उसकी ताकत और नए प्रयोग ने प्रिंटाई पत्रकारों के ही एक बड़े वर्ग में कुछ अलग करने की इच्छा पैदा कर दी। इस अलग करने की इच्छा ने टेलीविजन की अवधारणा को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये विधा मजबूत होने लगी। चकाचौंध थी इसलिए नए जमाने के बच्चे जो, कुछ लिखना-पढ़ना चाहते थे। जिनका मन आंदोलन के दौर के प्रिंट के बड़े पत्रकार पर मोहता था। वो, टीवी में आने की इच्छा रखने लगे। उनको लगा पैसा भी है और पत्रकार भी कहलाएंगे।
टीवी चलाने वाले जो लोग थे वो, सबके सब प्रिंट की बेहतर पत्रकारिता करके ही इस नई विधा में हाथ आजमाने आए थे। पैसे ने प्रिंट और टीवी के पत्रकारों के बीच खाई भी बढ़ाई-खुन्नस भी। फिर एक साफ सा फैसला अपने आप तैयार होता गया कि पैसे के लिए पत्रकारिता करनी है तो, टीवी में जाओ। सचमुच की पत्रकारिता करनी है तो, अखबार में काम करो। इसके साथ एक पुछल्ला भी जुड़ा होता है कि प्रिंट की पत्रकारिता में सुकून है। यही सुकून और सचमुच की पत्रकारिता की बात कर ली जाए तो, कुछ मसला समझ में आ जाएगा।
चलिए पहले बात ये कर लेते हैं कि अखबार की पत्रकारिता करने के लिए आपमें क्या काबिलियत होनी चाहिए। खबरों की समझ ये तो, टीवी के लिए भी चाहिए। कंप्यूटर पर लिखना। सीधे-सीधे खबर की तरह- ये अखबार-पत्रिका के लिए जरूरी है। खबर में गलती न जाए- इसके लिए अखबार पूरा मौका देता है दिन भर का- देर रात सारी खबरों को परखकर-समझकर अगले दिन के लिए एक दिन पहले की सारी खबर कुछ इस तरह देना कि लोगों को पूरी खबर समझ में आए। उसे इत्मीनान से पढ़ा जा सकता है इसलिए सब कुछ विस्तार में देना।
अब टीवी की बात करें तो, खबरों की समझ और कंप्यूटर पर लिखना छोड़ दें तो, सबकुछ बदल जाता है। यहां सारा खेल प्रजेंटेशन का हो जाता है। खबरों का प्रजेंटेशन मतलब क्या। मतलब ये कि खबर अधूरी आई या पूरी आई जितनी भी आई उसे दर्शकों को बताना है। सबसे पहले- ये कॉन्सेप्ट और साथ में खबर दिखे ऐसे कि ये न लगे कि कुछ छूटा है। अभी की खबर है इसमें 24 घंटे का समय नहीं है। आराम से सोकर 2 बजे के बाद ऑफिस पहुंचकर टीवी तो, चलने से रहा। यहां 24 घंटे के व्हील पर सबकुछ चलता है। कुछ छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि, जो छोड़ा वही खबर दिखाकर दूसरा चौनल TRP बटोर लेगा।
मैंने दोनों माध्यमों में काम किया है। और, 5-6 साल प्रिंट में काम करने के बाद टीवी देखने समझने की इच्छा हुई। आया और ठीक ठाक ही कर रहा हूं। यहां जो, लोग काम कर रहे हैं वो, अखबार से ज्यादा तकनीकी ज्ञान वाले हैं, खबरों ज्यादा चौकन्ने हो जाते हैं, मशीन के साथ उनका संपर्क, मनुष्य के साथ के संपर्क से ज्यादा हो जाता है। और, इस सबके साथ ढेर सारे तनाव का बोनस मुफ्त में मिलता है। और, इस तनाव की कीमत टीवी चुकाता है ज्यादा पैसे देकर।
ऊबता आदमी हर जगह है। थोड़ा सा पत्रकारिता अंदर घुसी तो, हर जगह ही कुछ दिन बाद बोर करने लगती है। नयापन नहीं दिखता। भले अपनी ओर से नयापन करने का रंचमात्र भी प्रयास न हो। अचानक अखबार की झिकझिक से ऊबे पत्रकार कहते हैं कि यार जब यही झिकझिक झेलनी है तो, चलो टीवी में ही चलते हैं। वहां जाते हैं कुछ तो, ज्यादा तनाव लेकर टीवी से मिले इंसेंटिव (ज्यादा सैलरी) को जस्टिफाई करते रहते हैं। और, कुछ जो इस तनाव को झेल नहीं पाते- टीवी को गरियाते हुए फिर से किसी अखबार में सुकून की नौकरी करने चले जाते हैं। बहुत से सचमुच के काबिल लोग इसलिए टीवी छोड़कर अखबार में जाते हैं कि सचमुच टीवी में सर्फ बहुतअच्छा लिखने-पढ़ने वाले लोगों के लिए ज्यादा जगह नहीं है।
अब बात टीवी के तिलिस्म की। मैं जब टीवी चैनल में काम करने आया तो, लगा कि यार सब जादू है। चंद्रकांता संतति जैसी तिलिस्मी दुनिया लग रही थी। लगा कि गलत फैैसला तो, नहीं ले लिया प्रिंट से टीवी में आने का। जुटे और बमुश्किल 6 महीने लगे होंगे। टीवी की ज्यादातर तिलिस्मी एयारी की काट समझ में आने लगी। टीवी का उस्ताद तो नहीं कह सकता उस्ताद जी लोग तो टीवी चला रहे हैं लेकिन, काम भर का टीवी सीख गया। और, ये भरोसा पक्का हुआ कि अगर टीवी में नहीं आते तो, पत्रकारिता के इस बेहद सश्कत माध्यम से अनजाने रह जाते और छाती फुलाए टीवी को गरियाते रहते कि टीवी की पत्रकारिता कोई पत्रकारिता है।
अब अगर आप जरा दिमाग पर जोर डालकर याद करिए तो, पिछले 5-6 सालों में सरकारों-सत्ता को परेशान करने वाली खबरें टीवी की उसी बाइट से पैदा हुईं जिनके बारे में कहा जाता है खबर तो, पत्रकार खोजकर निकालता है। बाइट मिली तो खबर कहां। लेकिन, सोचिए कि प्रिंट में सूत्रों के हवाले से छपी खबर और टीवी पर किसी की बाइट के साथ टलती खोजी खबर में से कौन खबर ज्यादा प्रभाव पैदा करती है। हां, ये भी सही है कि टीवी में बहुत सी खबरें बाइट न मिल पाने से दब जाती हैं।
अब सवाल ये है कि क्या इसी बिना पर टीवी को पूरी तरह से खारिज किया जाना चाहिए। क्या ये समय नहीं है जब टीवी और प्रिंट के पत्रकार दोनों ही नए जमाने की पत्रकारिता और टीवी के तिलिस्म को बेहतर तरीके से समझें जिससे पत्रकारिता के एक तुरंत समाज पर प्रभाव डालने वाले माध्यम टीवी को मजबूत किया जा सके। मैं भी हो सकता है कि कल को किसी अखबार में काम करता दिखूं लेकिन, वो टीवी के तिलिस्म के टूटने का सबूत नहीं होगा। वो, मेरी सहूलियत-मेरी जरूरत के साथ पत्रकारिता के दोनों माध्यमों टीवी और अखबार के बेहतर तालमेल का सबूत होगा। अमर उजाला देहरादून में काम करते हुए 12-14 घंटे काम करने का जो, अभ्यास लगा और जो, खबरों के रियाज का नुस्खा मिला उसने टीवी में बड़ी मदद की। और, टीवी में खबरों पर तेजी रिएक्ट करना और प्रजेंटेशन बेहतर करने की जो ट्रेनिंग मिली है वो, अखबार में भी फायदा ही करेगी। अभी तो, भारतीय टीवी को बहुत से पड़ाव पार करने हैं इसके तिलिस्म के टूटने की बात जमनी नहीं।
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