देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Thursday, December 26, 2013
Wednesday, December 18, 2013
देवयानी खोब्रागड़े का अपमान या चुनाव की चिता ?
ज्यादातर भारतीयों का सीना इस वक्त 2 से 4 इंच चौड़ा
हुआ दिख रहा है। हुआ हो न हो, लग ऐसा ही रहा है। और ये सीना चौड़ा होने की अद्भुत
घटना रातोंरात हुई इसकी वजह हमारी मजबूत सरकार के फैसले हैं। जी, ठीक सुन रहे हैं
आप मजबूत सरकार। पिछले करीब दस सालों से अमेरिका की पिछलग्गू, कमजोर विदेश नीति
वाली सरकार के तमगे से हमारे ‘सरकार’ पक गए।
इसलिए इस बार जब मौका मिला तो वो भला क्यों छोड़ते। खुद को मजबूत दिखाने का। वो भी
सीधे मामला ये था पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश नहीं सीधे-सीधे दुनिया के दादा
को ही उठाकर पटकने का मौका था। कोई मनमोहन सिंह बराक ओबामा की कुश्ती नहीं थी ये।
दरअसल भारत सरकार गुस्से में अपने एक डिप्टी कांसुलर जनरल के साथ गलत व्यवहार से।
देवयानी खोब्रागड़े नाम की महिला हैं। दो बच्चों की मां हैं। भारतीय विदेश सेवा की
अधिकारी हैं। और इस सबके ऊपर चुनाव का समय है। अब कई लोग इस बात से मनमोहन सरकार
की तरह गुस्सा हो सकते हैं कि इसमें चुनाव क्यों घुसेड़ रहे हो। हमारे देश की एक
राजनयिक के साथ दुर्व्यवहार हुआ है और हमारी सरकार इसका कड़ा विरोध कर रही है। संयोग-दुर्योग
से अमेरिका से एक प्रतिनिधिमंडल भी आया हुआ है। टेलीविजन स्क्रीन पर ये भी चौड़े
से चमकने लगा। अमेरिका को करारा जवाब। अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल से नहीं मिले मीरा
कुमार, सुशील शिंदे, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी। खैर जब मैंने थोड़ा समझने की
कोशिश की तो ये समझ में आया कि ये जिसे अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल से मिलने से इनकार
किया टाइप चल रहा था। ये अमेरिका नॉर्थ कैरोलिना से आया प्रतिनिधिमंडल था। यानी
जैसे भारत के सांसदों का प्रतिनिधिमंडल अमेरिका जाता है। अब सोचिए ऐसे
प्रतिनिधिमंडलों की खबर कैसे बनती है। नरेंद्र मोदी ने भी ट्वीट करके देश पर आपदा
के समय सरकारके साथ मजबूती से खड़े होने का फैसला कर लिया। आपदा ही तो थी ये। एक
राजनयिक को इस तरह से हथकड़ी लगाई गई। अपराधियों के साथ उसे रखा गया। चुनाव के समय
देश के मजबूत नेताओं में नाम लिखाने की होड़ मची हुई है।
अभी-अभी लोकपाल पास करके उठी सरकार ईमानदार,
मजबूत हो गई है। ऐसी मजबूत कि दुनिया के दादा पर चला बुलडोजर जैसी हेडलाइन लिखने
का मसाला टीवी न्यूज चैनलों को दे दिया। एक पल को लगा कि हर दूसरे दिन पाकिस्तान
से लतियाई जाती सरकार अमेरिका बुलडोजर लेकर कब चली गई। हमारे सैनिकों का सिर काटकर
जब पाकिस्तानी ले गए थे तब भी इतनी गुस्से में नहीं थी सरकार। चीनी सैनिक आते और
लाल निशान लगाकर हमारी सीमा में चले जाते फिर भी कभी हमारी सरकार का खून नहीं
खौला। फिर अचानक क्या हो गया कि भारत सरकार अमेरिका पर बुलडोजर चलाने लगी। दरअसल
ध्यान से खबर देखने पर पता लगा कि दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के सामने बैरीकेडिंग
लगी हुई थी। जिसे हटाने के लिए बुलडोजर का इस्तेमाल दिल्ली पुलिस ने किया था।
बाकायदा टीवी कैमरों के सामने ये सब हुआ। फर्स्ट विजुअल लिखकर ज्यादातर टीवी न्यूज
चैनलों ने चलाया भी। दौड़दौड़कर खबरें आ रही थीं। इतनी तेजी में तो कभी ये सरकार
पिछले दस सालों में काम करती दिखी ही नहीं थी। न यूपीए 1 में न यूपीए 2 में यानी
अभी। अन्ना बेचारे मरते रह गए लेकिन, उनका असल वाला लोकपाल तक इस सरकार ने नहीं
दिया।
धांय धांय कड़े फैसले हो रहे थे दुनिया के दादा
के खिलाफ। एक डिप्टी कांसुलर जनरल की इज्जत कब देश की इज्जत बन गई पता ही नहीं
चला। मेरा भी सीना करीब 4 इंच से ज्यादा चौड़ा हो गया था। लेकिन, फिर मुझे याद आया
कि हमारे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की न्यूयॉर्क के एयरपोर्ट पर तलाशी ले
ली गई थी। और एक बार तो हमारी दिल्ली के ही चमकते एयरपोर्ट पर अमेरिकी कॉण्टिनेंटल
एयरलाइंस के लोगों ने तलाशी ले ली थी। रक्षामंत्री रहते जॉर्ज फर्नाण्डीज का तलाशी
वाली खबर भी आंखों के सामने घूम गई। प्रफुल्ल पटेल को भी तो विमानन मंत्री रहते ही
काफी मुश्किलों का सामना अमेरिकी एयरपोर्ट पर करना पड़ा था। फिर याद आया कि हमारे
सुपरस्टार शाहरुख खान को नेवार्क इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर घंटों रोककर पूछताछ की गई
थी। दूसरे सुपरस्टार आमिर खान के साथ भी ऐसे ही व्यवहार की खबर याद आ गई। जॉन
अब्राहम के साथ भी ऐसा ही बर्ताव याद आया। नेता, अभिनेता फिर मुझे लगा कि हो सकता
है अधिकारियों को लेकर ही हमारी सरकार ऐसे मजबूत बनती हो। तो तुरंत याद आ गया कि अमेरिका
में हमारी राजदूत रही मीरा शंकर के साथ भी कपड़ो उतारकर तलाशी जैसी ही खबर आई थी। ऐसी
ढेर सारी खबरें याद आ रहीं थीं। लेकिन, दिमाग पर बहुत जोर देने पर भी हमारी मजबूत
सरकार का कोई मजबूत कदम याद नहीं आया था। मेरा 4 इंच चौड़ा हुआ सीना तेजी से घट
रहा था।
फिर भी मैं पूरी खबर पढ़-देख रहा था। भारत ने देश
में सभी अमेरिकी कांसुलर दफ्तरों से पहचान पत्र वापस करने को कह दिया था। इरादा
उनके अधिकार और छूट की फिर से समीक्षा का। अमेरिकी राजनयिकों को दिए गए सारे
एयरपोर्ट पास भी वापस ले लिए गए थे। अमेरिकी दूतावास की गाड़ियों की पार्किंग के
अधिकार भी रद्द हो गए। जो आयात मंजूरी थी वो भी रद्द। अमेरिकी राजनयिकों को शराब
तक की किल्लत हो जाएगी खबर ऐसा बता रही थी। अमेरिकी दफ्तरों, स्कूलों में भारतीयों
को कितनी तनख्वाह मिल रही है इसकी जानकारी मांग ली गई। कोई नौकर/नौकरानी
रखी हो तो उसकी भी पूरी जानकारी। और सबसे बड़ा कड़ा फैसला वही जो टीवी पर पहली
तस्वीर लिखकर चला कि अमेरिकी दूतावास के सामने लगे सीमेंट के बैरीकेड को बुलडोजर
से हटाया गया। अब सवाल ये है कि अगर ये सब दो देशों के बीच संबंधों में जो कानून
लागू होता है उसके अंदर हमारी मजबूत सरकार ने किया तो अभी तक अमेरिकियों को ये
सारी सहूलियतें क्यों थीं। और अगर वियना समझौते के तहत दूसरे देश के राजनयिकों को
ये सहूलियतें मिलती हैं तो ये तरीका हमारी सरकार क्यों अपना रही है। क्या ये कड़ा रुख
हमारी विदेश नीति का नियमित हिस्सा बनेगा या फिर सिर्फ देवयानी खोब्रागड़े मामले
के चर्चा में रहने तक रहेगा। अमेरिकी विदेश विभाग से जो कहा गया- वो बहुत साफ है
कि कानूनों के तहत ही देवयानी खोब्रागड़े पर कार्रवाई हुई। क्या कभी किसी अमेरिकी
या विदेशी पर हमारी सरकार भी कानूनों के तहत कार्रवाई करके ऐसे बयान दे पाएगी। राज्यसभा
में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा है कि हमारी विदेश नीति की समीक्षा की जरूरत
है। मुझे लगता है कि विदेश नीति की नहीं देश नीति की समीक्षा की जरूरत है।
ये सबकुछ ऐसे समय में हो रहा है जब लोकपाल पास
करके सरकार ईमानदार रहने की हर कोशिश कर लेना चाहती है। सरकार के साथ विपक्षी
पार्टियां भी। ये ऐसा समय भी है जब आप वीआईपी कल्चर को ही खत्म करने की बात कर रही
है। ये ऐसा समय है जब लोगों को फिर से लगने लगा है कि आम लोग भी चुनाव जीत सकते
हैं। तो क्या हमारी सरकार (अभी की हो या आगे कोई और) ये तय कर सकती है कि ये समय
ऐसा भी बनेगा जिसमें वीआईपी होने से कुछ नहीं बदलेगा। कानून अपना काम करेगा।
लेकिन, इसके लिए पहले हमें अपनी देश नीति सुधारनी होगी। कानून हर किसी पर काम करे
ये दिखाना होगा। तब जाकर विदेशियों पर भी हम उसी तरह की कानूनी कार्रवाई कर
पाएंगे। और तभी देवयानी खोब्रागड़े या आगे किसी और को सचमुच न्याय मिल सकेगा।
हमारी बिना गलतियों और छोटी गलतियों पर भी अमेरिकी कानून हमारे बड़े नेताओं, अधिकारियों,
राजनयिकों, अभिनेताओं को अपमानित कर देता है। इसलिए देश नीति सुधरेगी तभी हमारे
जैसे लोगों सीना सचमुच चौड़ा हो पाएगा वरना वरना सिर्फ चुनाव
जीतने के लिए कड़े, मजबूत कदम उठाने से कुछ नहीं होगा। ऐसे
ही फूले गुब्बारे से हवा निकलेगी और कुपोषित छाती के साथ ही दुनिया में हमारी
पहचान होगी।
Monday, December 16, 2013
नए साल में अपने घर में जाइए
घर खरीदने का सपना हर किसी का होता है। लेकिन,
मुश्किल सबसे बड़ी यही कि महानगरों में लगातार बढ़ती कीमत से लोगों का ये सपना दूर
होता जा रहा है। 2013 बीत गया। अब सवाल ये है कि क्या घर खरीदने का सपना नए साल
में आसानी से पूरा हो पाएगा। या फिर घर की कीमतें कुछ घटेंगी। तो इसका जवाब थोड़ी
उम्मीद की रोशनी दिखाने वाला है। साल के अंत में महानगरों के रियल एस्टेट मार्केट
से जो खबरें आ रही हैं वो कुछ ऐसे ही संकेत दे रही हैं। मुंबई और दिल्ली-एनसीआर
में फिलहाल रियल एस्टेट बाजार में सुस्ती साफ नजर आ रही है। मुंबई के कई इलाकों
में तेजी से कीमतें गिरी हैं। कीमत बढ़ने की बात छोड़िए दक्षिण और मध्य मुंबई के
कई इलाकों में घर की कीमतें दस प्रतिशत तक गिरी हैं। परेल, लोअर परेल और
महालक्ष्मी जैसे इलाके में जहां घर खरीदने के लिए सोचना भी मुश्किल था वहां मांग
गिरने की वजह से बिल्डरों पर दबाव है कि वो किसी भी तरह घरों को बेच सकें।
प्रॉपर्टी कंसल्टेंसी नाइट फ्रैंक इंडिया की रिपोर्ट में ये बात सामने आई है कि
सौदेबाजी करके सस्ते में घर खरीदने के लिए ये सबसे बेहतर समय है। इसकी वजह बड़ी
साफ है। 2010 के बाद रियल एस्टेट मार्केट जब सुधरना शुरू हुआ तो बिल्डर ने 2008 की
मंदी की रिकवरी के लिए तेजी से कीमतें बढ़ाईं। अर्थव्यवस्था सुधरने के अंदेशे में
लोगों ने रियल एस्टेट मार्केट में दांव लगाया। जिन लोगों के पास एक घर थे उन्होंने
दूसरे घर खरीदकर बुरे समय के लिए निवेश समझकर छोड़ दिया। और ऐसा नहीं है कि ये हाल
सिर्फ मुंबई के पॉश इलाकों में है जहां अब जमीनें कम बची हैं। सच बात तो ये है कि
नियमों में बदलाव का फायदा उठाकर इन इलाकों में भी बिल्डरों ने ढेर सारे फ्लैट
तैयार करने शुरू कर दिए। इसलिए दक्षिण और मध्य मुंबई में तो घर के खरीददार
बमुश्किल खोजे मिल रहे हैं। इसीलिए अगर कोई डाउनपेमेंट पर पचीस प्रतिशत तक की रकम
देने के तैयार है तो उसे बिल्डर अच्छी खासी छूट देने को तैयार हैं।
मुंबई में घरों के बाजार की स्थिति कितनी खराब है
इसका अंदाजा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मुंबई में करीब डेढ़ लाख फ्लैट
ऐसे हैं जो बनकर तैयार हैं लेकिन, इनको खरीदने वाला कोई नहीं है। उस पर बिल्डरों
की लागत लगातार बढ़ रही है। ब्याज दरें कम होती नहीं दिख रही हैं क्योंकि, सरकार
या रिजर्व बैंक की तरफ से ब्याज दरें घटने के फिलहाल कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। बिल्डरों
के पास फंड की कमी से वो नए प्रोजेक्ट नहीं ला पा रहे हैं। 2013 में जनवरी से
सितंबर के दौरान मुंबई में कुल 47488 फ्लैट लॉन्च हुए जो पिछले साल से 28 प्रतिशत
कम है। 2010, 2011 के लिहाज से देखें तो सीधे-सीधे नए लॉन्च आधे हो गए हैं। फंड की
कमी का दबाव बिल्डरों पर इस कदर बढ़ गया है कि इसीलिए बिल्डर जल्दी से जल्दी अपने
पूरे हो रहे प्रोजेक्ट को बेचकर कम मुनाफे पर ही काम करना ज्यादा बेहतर समझ रहे
हैं। इसीलिए इस समय घर का बाजार खरीददारों का बाजार है। ये हाल सिर्फ मुंबई के
बाजार का नहीं है। यही हाल दिल्ली-एनसीआर के बाजार का भी है। दिल्ली-एनसीआर में
हालांकि, मुंबई जैसी गिरावट की वजह नहीं बन रही है। लेकिन, दिल्ली-एनसीआर में भी
खरीददारों के लिए ये सबसे बेहतर समय है। क्योंकि, जिस दिल्ली-एनसीआर के बाजार में
हर दिन तेजी से कीमतें बढ़ रही थीं। वहां भी पूरी तरह से कीमतों की तेजी रुक गई है
ये भले न कहें लेकिन, कीमतों का बढ़ना बहुत कम हो गया है। दिल्ली-एनसीआर में भी बने
हुए ढेर सारे घर खाली पड़े हुए हैं।
नेशनल हाउसिंग बैंक का आंकड़ा रियल एस्टेट
मार्केट में कमजोरी के संकेत और पुख्ता करता है। नेशनल हाउसिंग बैंक के ने देश के
15 शहरों के आंकड़े जारी किए हैं। इसमे से 11 शहरों में घर की कीमतें गिरी हैं।
नेशनल हाउसिंग बैंक के आंकड़े भी साफ कह रहे हैं कि मुंबई में आधा प्रतिशत और
दिल्ली में डेढ़ प्रतिशत तक कीमतें गिरी हैं। जबकि, चेन्नई में घर करीब ढाई
प्रतिशत और कोलकाता में चार प्रतिशत से ज्यादा घर सस्ता हुआ है। और ये तब है जब
इसमें महंगाई के आंकड़े शामिल नहीं हैं। अगर दस प्रतिशत की औसत महंगाई जोड़ दी जाए
तो घरों की कीमत का अंदाजा लगाया जा सकता है। पूरे देश में करीब सवा करोड़ फ्लैट
बनकर तैयार हैं लेकिन, उनको खरीददार नहीं मिल रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में जहां नोएडा
एक्सटेंशन और दिल्ली से सटे राज्यों के बाहरी हिस्सों में कम कीमत फ्लैट आने से
तेजी से बिक्री बढ़ी थी। वहां भी अब की कीमतों पर खरीददार नहीं मिल रहे हैं।
दिल्ली-एनसीआर में 13 प्रतिशत कम नए घर बुक हुए हैं। मुंबई में ये आंकड़ा करीब 12
प्रतिशत है। जबकि, पुणे में नए घरों की बिक्री में 15 प्रतिशत की गिरावट आई है।
इन आंकड़ों का मतलब कहीं से ये नहीं है कि घरों
के बाजार में मुफ्त में आपको घर मिल जाएगा। लेकिन, इतना जरूर है कि जो घर रहने के
लिए खरीदना चाहते हैं। उनके लिए ये बेहद अच्छा समय है। क्योंकि, बिल्डर फंड की कमी
की वजह से जल्दी से जल्दी अपने घर बेचना चाहता है। और अर्थव्यवस्था में फिलहाल
अगले छे महीने तक कोई बहुत बड़ा सुधार होने की वजह नहीं दिख रही है। शेयर बाजार भी
इसी वजह से कुछ उछाल लेता है लेकिन, इक्कीस हजार का सेंसेक्स ऐसी ऊंचाई बना हुआ है
जिस पर बाजार झूल रहा है। ब्याज दरें अभी काफी ऊपर हैं जिसका नुकसान घर के
खरीददारों को भी है कि उन्हें सस्ता कर्ज नहीं मिल रहा है। लेकिन, अगर जिस तरह के
संकेत मिल रहे हैं वो बने रहे और 2014 में एनडीए की सरकार बनती है तो एक बार फिर
से शेयर बाजार के साथ रियल एस्टेट बाजार में भी तेजी आएगी। फिर तेजी से भाग रहे
घरों की कीमत पकड़ना मुश्किल हो जाएगा। यहां तक कि अगर छे महीने बाद कर्ज सस्ता भी
मिलता है तो भी इस समय घरों की कीमत में सौदेबाजी से जो फायदा खरीददारों को मिल
सकता है वो ज्यादा ही होगा। इसलिए निवेशकों के लिए भले ही ये बाजार डरावना दिख रहा
हो लेकिन, खुद के रहने के लिए घर खरीदने वालों के लिए ये बेहतर समय है। अपनी जेब,
जगह के मुताबिक घर खोजिए। सौदेबाजी कीजिए और घर खरीद लीजिए। नए साल में अपने घर
में जाने के लि 2014 बेहतर साल साबित हो रहा है।
Friday, December 13, 2013
प्रतीकों की राजनीति करते प्रतीक न बन जाएं अरविंद केजरीवाल
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दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन की एक तस्वीर |
प्रतीकों का इस देश में बड़ा महत्व है। एक धोती
से पूरा शरीर ढंकने, सबकुछ त्याग कर देने और बिना लड़े (अहिंसक) लड़ाई के प्रतीक
महात्मा गांधी ऐसे बने कि आज तक देश के राष्ट्रपिता बने हुए हैं। यहां तक कि
मोहनदास करमचंद गांधी के प्रयोगों को भी प्रतीकों के तौर पर त्याग के प्रयोग मान
लिया जाता है। ऐसे ही कांग्रेस भी प्रतीक बन गई। देश की आजादी की लड़ाई वाली
पार्टी का। फिर नेता के तौर पर प्रतीक बन गए जवाहर लाल नेहरु, सोनिया गांधी यहां
तक कि राजीव गांधी और अब सोनिया, राहुल गांधी भी। सोचिए कितने ताकतवर विचार,
व्यवहार के रहे होंगे लोहिया, जयप्रकाश नारायण और अटल बिहारी वाजपेयी लेकिन, कितनी
मुश्किल हुई इन्हें नेता के तौर पर प्रतीक बनने में। चूंकि नेता के तौर पर तो वही
प्रतीक बन सके थे इस देश में जो कांग्रेसी नेता थे। ये प्रतीकों के हम भारतीयों के
दिमाग में जम जाने का मसला तो कुछ ऐसा है कि मुझे ध्यान में है कि इलाहाबाद में एक
भी विधायक कांग्रेस का नहीं जीतता था। सांसद होने का तो सवाल ही नहीं। लेकिन, फिर
भी नेता कांग्रेस के ही शहर में बड़े थे। बड़ी मुश्किल से ये प्रतीक टूटा है।
हालांकि, वो भी पूरी तरह से नहीं।
इस बात को आज के दौर के दोनों बड़े नेताओं ने समझ
लिया कि या तो प्रतीक बन जाओ या प्रतीकों को ध्वस्त करो। ये दोनों नेता हैं
नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल। नरेंद्र मोदी ने खुद को विकास का प्रतीक बना
दिया। खुद को देश की हर समस्या के निदान का प्रतीक बना दिया। प्रतीक बना दिया नई
तकनीक से जुड़ने वाले नेता। प्रतीक बना दिया कि ये स्वयंसेवक भले है लेकिन, विकास
की बात हो तो मंदिर-मस्जिद कुछ भी तोड़वा सकता है। प्रतीक बना दिया खुद को इस कदर
कि एक ही समय में कॉर्पोरेट और आम जनता दोनों के हितों का पैरोकार नजर आने लगा।
नरेंद्र मोदी दुनिया में प्रतीक बन गए हैं ऐसे भारतीय नेता के जो आया तो सब ठीक कर
देगा। वो ऐसे प्रतीक बने हैं कि शेयर बाजार सिर्फ इस सर्वे भर से उछाल मारने लगता
है कि नरेंद्र मोदी 2014 में सरकार के मुखिया हो सकते हैं। दुनिया भर की रेटिंग
एजेंसियां इसी अंदाजे में भारत के शेयर बाजार के अनुमान लगाने लगती है कि 2014 में
नरेंद्र मोदी आएंगे या नहीं। वो कारोबार के प्रतीक बन गए हैं। भारत के प्रतीक बन
गए हैं। नरेंद्र मोदी ऐसे प्रतीक बन गए हैं कि अमेरिका वीजा भले न दे लेकिन, हर
दूसरे चौथे वहां का कोई सीनेटर ये बोल देता है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री
बनने पर वो उनके साथ अच्छे संबंध रखेंगे। वो ऐसे बोलते हैं जैसे अमेरिका के वीजा
देने न देने से ही नरेंद्र मोदी के भारत का प्रधानमंत्री बनने का फैसला रुका हुआ
हो।
प्रतीकों की राजनीति के मामले में बाजी मार ली है
अरविंद केजरीवाल ने। राजनीति के नायक अभी अरविंद केजरीवाल बने हों या न बने हों।
लेकिन, मेरी निजी राय यही है कि प्रतीकों की राजनीति का इस समय का सबसे बड़ा नायक
अरविंद केजरीवाल ही है। अरविंद केजरीवाल प्रतीक खुद भी बनते हैं। प्रतीक बनाते भी
हैं। और प्रतीकों का बखूबी इस्तेमाल भी करते हैं। अरविंद ने पहला प्रतीक बनाया-
आईआरएस की नौकरी छोड़कर समाजसेवा। मैगसेसे अवॉर्ड विजेता का प्रतीक। यानी त्याग का
प्रतीक और श्रेष्ठ पुरस्कार का भी प्रतीक। अरविंद केजरीवाल देश में बदलाव के सबसे
बड़े प्रतीक बन रहे थे। लेकिन, मुश्किल ये देश उन्हें त्याग, बदलाव का प्रतीक मान
तो रहा था लेकिन, पूरी तरह स्वीकार नहीं रहा था। अरविंद खोज लाए एक और बड़े प्रतीक
को। महाराष्ट्र में बरसों से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक अन्ना हजारे
हवाई जहाज से दिल्ली आ गया। धोती-कुर्ता, गांधी टोपी लगाए, सादा जीवन उच्च विचार
के प्रतीक अन्ना के कभी बगल तो कभी पीछे खड़े अरविंद एक बड़े संगठनकर्ता के प्रतीक
बन रहे थे। इस कदर कि जो भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई में उनके साथ नहीं आया वो
बदलाव की लड़ाई में बाधा का प्रतीक बनता गया। शुरुआत स्वामी अग्निवेश जैसे संदिग्ध
चरित्र वालों से हुई। फिर कोई मौलाना तो कोई और। अंत में तो किरन बेदी और अन्ना
हजारे को भी बदलाव की लड़ाई में बाधा का प्रतीक अरविंद ने बना दिया। अरविंद
केजरीवाल निश्चित तौर पर आज प्रतीकों की राजनीति के सबसे बड़े नायक हैं। इसीलिए वो
किरन बेदी से पूरी तरह किनारा कर लेने के बाद भी किनारा किए दिखना नहीं चाहते।
यहां तक कि किरन बेदी को दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी भी निस्वार्थ भाव से
सौंपे दिखना चाहते हैं। वही त्याग के प्रतीक लेकिन, किरन बेदी ये अच्छे से समझ रही
थीं। उन्होंने बड़े सलीके से चुनावी राजनीति में न जाने के अपने पक्ष को ठुकरा
दिया। Arvind Kejriwal बिना बहस बड़े बुद्धिमान और आत्मविश्वास वाले नेता हैं। सत्ता के लालची न
होने का प्रतीक बने रहने के लिए वो बिना शर्त दिए जा रहे कांग्रेस के समर्थन को
जंतर मंतर पर जाकर जोर से ठुकरा देते हैं। जंतर-मंतर पर- मतलब वही कि यहां सबकुछ ‘आप’ तय करते
हैं वाले भ्रम का प्रतीक। लेकिन, जब वो दिल्ली की
मुख्यमंत्री के लिए किरन बेदी को बुलाते हैं। जब वो हरियाणा में जाने के लिए अशोक
खेमका और उत्तर प्रदेश में #AAP के विस्तार के
लिए दुर्गा शक्ति नागपाल का आह्वान करते हैं। तो मुझे लगता है कि प्रतीकों को ध्वस्त
करते-करते अरविंद केजरीवाल कहीं सिर्फ प्रतीकों की ही राजनीति तो नहीं करना चाहते।
अब सोचिए क्या उन्हें नहीं पता था कि
किरन बेदी किसी कीमत पर फिर से उनके साथ नहीं जाएंगी। फिर भी उन्होंने सिर्फ
प्रतीक के लिए किरन बेदी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने की बात कही। अब सोचिए वो
अशोक खेमका की ईमानदारी के जरिए हरियाणा में जाना चाहते हैं। हरियाणा खुद उनका भी
गृहप्रदेश है। लेकिन, यहां की राजनीति में भी पांव जमाने के लिए उन्हें खेमका जैसा
ईमानदारी का प्रतीक चाहिए। ऐसे ही वो यूपी कैडर की अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल को AAP पार्टी
में शामिल होने के लिए बुलाते हैं। सिर्फ प्रतीक के लिए। अब सोचिए जो दुर्गाशक्ति
नागपाल अपना निलंबन वापस कराने के लिए आईएएस पति के साथ जाकर मुख्यमंत्री आवास में
समझौता कर आती है। उसके भरोसे अरविंद केजरीवाल अपनी ‘ईमानदार’ पार्टी
को उत्तर प्रदेश में शीर्ष पर देखना चाहते हैं। दुर्गाशक्ति नागपाल ने अपनी
अधिकारी वाली पारी की शुरुआत भर की है। और जो कुछ नोएडा में हुआ वो एक बहुत छोटा
सा अधिकारों को समझकर किया गया काम था। अरविंद दूसरी पार्टियों के भी ‘ईमानदारों’ को अपनी
पार्टी से बगावत कर उनकी पार्टी में आने को कह रहे हैं। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि प्रतीकों
की राजनीति का इस समय का सबसे नायाब चेहरा नए प्रतीक भी अब नहीं खोज पा रहा है।
उसे कहां ईमानदार अधिकारियों की छवि पर भरोसा होता दिख रहा है। तो कहीं दूसरी
पार्टियों के भी ईमानदार लोगों पर भरोसा करने की नौबत आ रही है। दरअसल इससे वही
खतरा साबित होता दिख रहा है जिसको लेकर मैं आशंकित होता था।
दरअसल अरविंद केजरीवाल बड़ी जल्दी
में हैं। इतनी जल्दी में कि अन्ना से अलग होने के बाद जल्दी से पार्टी बनाकर
दिल्ली में सरकार बना लेना चाह रहे थे। अब दिल्ली विधानसभा जीतने से रह गए तो
जल्दी से लोकसभा चुनाव लड़कर ‘दिल्ली की सरकार’ पर काबिज हो जाना चाह रहे हैं। अब मुश्किल
ये कि पूरी तरह शहरी दिल्ली और सभासदों के इलाके जितने छोटे विधानसभा क्षेत्रों
में उके बनाए प्रतीक काम कर गए। लेकिन, आम आदमी पार्टी का न तो ढांचा है न ही देश
भर में काम करने वाले लोग। सरकार न बने तो पार्टी/ संगठन में ही अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री
या दूसरे पदों के जरिए कुछ करने का अहसास दूसरी पार्टियां देती हैं। लेकिन, अरविंद
की आप में तो कोई कुछ है ही नहीं। अकेला प्रतीक अरविंद केजरीवाल। यही प्रतीक
दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी, यही प्रतीक लोकसभा चुनाव हुआ तो उसमें भी और यही
प्रतीक होगा अगर दिल्ली नगर निगम के चुनाव लड़ने हुए तो उसमें भी। घोर परिवारवाद
वाली पार्टियों में भी अकेले प्रतीक से काम नहीं चलता। लेकिन, अरविंद दूसरा कोई
प्रतीक खड़ा नहीं करना चाहते। क्योंकि, बड़ी मुश्किल से तो सारे प्रतीक उन्होंने
ध्वस्त किए हैं। अरविंद केजरीवाल को इस समय इस बात को सलीके से समझना होगा कि
प्रतीकों को ध्वस्त करते-बनाते वो अकेले प्रतीक रह गए हैं। दूसरी पार्टियों के
हाईकमान, आलाकमान को गरियाते-गरियाते वो स्वयं उसी तरह के हो गए हैं। डर लग रहा है
कि कहीं आज के समय प्रतीकों की राजनीति का सबसे बड़ा नायक आने वाले समय में खुद भी
प्रतीक भर बनकर न रह जाए।
Tuesday, December 10, 2013
राज'नीति' और विरोध'नीति' की मानसिकता
कांग्रेस ही क्यों देश में राज करती है। ऐसा तो है नहीं कि कांग्रेस का विरोध करने वाले आज ही अरविंद केजरीवाल की शक्ल में जन्म लिए हों। आजादी के बाद से ही कांग्रेस के भीतर नेहरू-गांधी परिवार का विरोध करने वाले और बाहर पार्टी की शक्ल में कांग्रेस पार्टी का विरोध करने वाले बहुतेरे रहे हैं। सामाजिक संगठन के तौर पर दुनिया में मिसाल बना राष्ट्रीय स्वयंसेवक कै पैदाइश ही कांग्रेस विरोध से हुई है। फिर सवाल ये है कि आखिर इतने विरोध, विरोधियों के बाद भी कांग्रेस ही राज कैसे करती रहती है। मुझे लगता है कि इसका जवाब ये है कि कांग्रेस सारी कमियों के बाद राजनीति करती है और विरोध करने वाले ढेर सारी अच्छाइयों के बाद भी विरोधनीति। ये विरोधनीति कई बार राजनीति पर हावी होती है और समय-समय पर देश में जेपी आंदोलन, अन्ना आंदोलन या फिर अंत में 'आप' की अप्रत्याशित सफलता दिख जाती है। हर बार लगा है कि कांग्रेस खत्म हो गई। लेकिन, फिर वही सवाल खड़ा हो जाता है कि विरोध नीति से सरकार कैसे चल सकती है। उसके लिए तो राजनीति करनी होगी। आजादी के 65-66 सालों में लटपटाते, गिरते, पड़ते, कांग्रेस से बार-बार पिटते-पिटते विरोधनीति की अगुवा पार्टी भारतीय जनता पार्टी थोड़ा बहुत राजनीति भी सीख गई और अब ये कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी कर रहा है। लेकिन, जब भी सिर्फ विरोधनीति से दूसरी पार्टियां कांग्रेस की राजनीति उलटने की कोशिश में लगीं तो वो थोड़ी दूर चलकर लड़खड़ाकर गिर गईं।
ऐसा नहीं है कि राजनीति में अच्छे लोग आते नहीं हैं या अच्छे लोग आना नहीं चाहते। होता ये है कि चाहे जो पार्टी हो अच्छे लोग चाहते हैं कि सबकुछ उनके लिहाज से हो। उनको सबकुछ अच्छा मिले जिसमें वो अच्छे से काम कर सकें। कभी अच्छे लोगों को नहीं देखा कि वो खराब करने वालों से ज्यादा मेहनत करके अच्छे को अच्छा रहने दें। यहां तक कि अच्छे लोग जरा सा खराब होती परिस्थितियों में हाथ बांधकर बैठ जाते हैं कि ये सब खराब हो रहा है। ये विरोधनीति है। जबकि, जो खराब लोग होते हैं वो खराब स्थितियां बनाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। सबकुछ इतना खराब कर देते हैं कि लगता है कि इतनी खराब स्थितियों में तो कोई अच्छा आदमी काम ही नहीं कर सकता। दरअसल इसमें राजनीति और विरोधनीति के साथ आने वाले यश अपयश का भी बड़ी भूमिका होती है। होता ये है कि विरोधनीति करने वाले ज्यादातर लोगों को अगर देखा जाए तो वो जवाबदेही से लगभग बच जाना चाहते हैं। वो ये चाहते हैं कि चूंकि वो आदर्श नेता हैं इसलिए आदर्श स्थितियां पहले बनें तब वो आदर्श तरीके से राजनीति करेंगे वरना वो विरोधनीति से ही काम चलाएंगे। अब सोचिए- अरविंद केजरीवाल या फिर उनके दबाव में बीजेपी के डॉक्टर हर्षवर्धन क्या कर रहे हैं। दोनों में कोई भी विरोधनीति छोड़कर राजनीति की तरफ बढ़ना नहीं चाह रहा है। क्यों- क्योंकि, दोनों ही अच्छे लोग हैं। दोनों राजनीति में आदर्श स्थितियों में काम करना चाहते हैं। इसके पहले भी हर्षवर्धन के सामने से बीजेपी के केंद्रीय नेताओं ने दिल्ली बीजेपी के नेतृत्व की डोर खींचकर किसी और को थमा दी थी। वो आदर्श राजनीति करना चाहते थे। इसलिए विरोधनीति तो चलाते रहे। लेकिन, राजनीति करने के लिए कुछ नहीं किया। बीजेपी के ही विजय गोयल ने राजनीति करने के लिए काफी कुछ किया। अरविंद जो विरोधनीति के तहत दिल्ली सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन करते रहे। वो विजय गोयल राजनीति के लिए करते रहे। वो बेशर्मी से अरविंद क उठाए हर मुद्दे को हथियाते रहे। वो तो बुरा हो नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा का। वरना विजय गोयल तो अरविंद की पार्टी से 2-4 ज्यादा क्या बराबरी की सीटों पर भी होते तो अब तक जोड़तोड़ से सरकार बनाने की पूरी कोशिश कर रहे होते। मैं विजय गोयल की राजनीति का पक्षधर नहीं हूं। लेकिन, डॉक्टर हर्षवर्धन जैसे विरोधनीति से राजनीति की ओर बढ़ें ये जरूर चाहता हूं। अब अरविंद केजरीवाल को ही लीजिए बार-बार वो ये कह रहे हैं कि जनता ने कांग्रेस विरोधी जनादेश दिया है लेकिन, हमें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। हम विपक्ष में बैठेंगे। उन्हीं की तरह के लेकिन, बीजेपी के नेता डॉक्टर हर्षवर्धन की तरफ से भी यही बयान आ रहा है कि हमने भी दिल्ली की जनता के लिए बड़े सपने मन में संजोए थे लेकिन, हमें वैसा जनादेश नहीं मिला इसलिए हम भी विपक्ष में बैठेंगे। ये विरोधनीति की राजनीति करने वाले दोनों नेताओं के बयान हैं। और जरा खांटी राजनीति करके सबको विरोधी बना देने वाली कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बयान सुनिए। वो ‘आप’ को बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हैं। वो किसी भी तरह राजनीति करना चाह रहे हैं। सरकार बनाना चाह रहे हैं। दिक्कत यही है राज’नीति’ और विरोध‘नीति’की मानसिकता की। अब सोचिए आठ सीटों वाली कांग्रेस किसी भी तरह राजनीति करना चाह रही है सरकार बनाना चाह रही है और 34 और 28 सीटों वाली बीजेपी और आप विरोधनीति करके ही चेहरा चमका रहे हैं। सरकार बनाने से बचना चाह रहे हैं। फिर बताइए जनता चुनाव किसलिए करती है। सिर्फ विरोध के लिए या चुनाव के लिए।
मात्र यही राज'नीति' और विरोध'नीति' का फर्क है जिसकी वजह से Congress ने देश में सबसे लंबे समय तक राज किया। मेरी नजर में सबसे बड़ी वजह ये कि उसने लोगों के दिमाग में ये भर दिया कि सरकार चलाना तो कांग्रेस को ही आता है। BJP के लिए शानदार विपक्ष और फिर हमारी नीतियों जैसी ही सरकार वाली पार्टी का ठप्पा लगाने का काम भी कांग्रेस के प्रचार तंत्र ने बड़े सलीके से कर दिया। अब AAP इसी में फंसती दिख रही है। अभी तो नैतिकता के ऊंचे आदर्श पर सफल हुए अरविंद केजरीवाल को ये नहीं दिखेगा लेकिन, सच्चाई यही है कि चुनाव खत्म होते ही फिर चुनाव की आहट से कुछ अरविंद समर्थक भारतीयों पर ये जुमला काम करता दिख रहा है कि सरकार चलाना तो कांग्रेस को ही आता है। और सबसे बड़ी बात कांग्रेस ये प्रचार करेगी ही। Social Media पर सलीके से काबिज BJP का प्रचार तंत्र भी 'आप' की मिट्टी पलीद करने में लग गया है। जहां तक सार्वजनिक पैंतरे की बात है तो डॉक्टर हर्षवर्धन की शक्ल में बीजेपी के पास भी अरविंद केजरीवाल से कम साफ सुथरा चेहरा नहीं है। सोचिए कि अरविंद को तो अभी राजनीति को दलदल में पूरी तरह उतरना है बमुश्किल सवाल साल की बनी पार्टी के नेता हैं अरविंद। डॉक्टर हर्षवर्धन पिछले करीब तीन दशक से दिल्ली की राजनीति के जाने-पहचाने चेहरे हैं फिर भी बेदाग हैं। इसलिए AAP, BJP दोनों को समझना होगा कि देश में कांग्रेस विरोधी लंबे समय से बहुत हैं फिर भी कांग्रेस ही क्यों अल्पमत, बहुमत, जोड़ तोड़ की सरकार चलाने में कामयाब रहती है। #AAP हो या BJP दोनों को ये समझना होगा कि जनभावना पर खरे उतरने के लिए सरकार बनानी पड़ती है, चलानी पड़ती है। विरोधनीति से सरकार बनाने के करीब पहुंचा जा सकता है। सरकार बन भी सकती है। लेकिन, सरकार चलाने के लिए राजनीति चाहिए। कांग्रेस विरोधी पार्टियों को जनता के साथ, जनता के लिए राजनीति करनी होगी। वरना विरोधनीति का गुब्बारा फूटेगा और कांग्रेस फिर से राजनीति के जरिए सरकार बनाएगी, राज करेगी। विरोधनीति वाले बस विरोध करने के लिए बचे रह जाएंगे।
Monday, December 09, 2013
2014 में ‘आप’ क्या करेंगे ?
बड़ा
सवाल है कि आखिर अरविंद केजरीवाल का करिश्माई आप पार्टी 2014 में क्या करेगी। सवाल
इसलिए भी खड़े हो रहे हैं कि एक लंबे समय बाद कांग्रेस की एकदम से मिट्टी पलीद
होती दिख रही है। और ये साबित कर रहा है कि देश की जनता ऊब गई है कांग्रेस के
वादों और दावों से। लेकिन, सवाल इसी के साथ ये भी खड़ा होता है कि क्या नरेंद्र
मोदी इतनी ऊंचाई तक जनभावना को ले जा पाएंगे कि लोगों को मतदान केंद्र में 2014
में कांग्रेस का हाथ दिखे ही नहीं। लेकिन, अब इससे भी बड़ा सवाल 2014 को लेकर 2013
में ही खड़ा हो गया है कि आखिर 2013 की करिश्माई जीत वाली पार्टी झाड़ू का निशान
भी क्या मतदाताओं को देखने से रोक पाएंगे नरेंद्र मोदी। भारतीय राजनीति में
जनभावनाओं को अपने पक्ष में करने और रणनीति से बुरे को भी अच्छे में बदल देने वाले
दोनों नेताओं को जनता ने पसंद किया है। ये 2013 के चार राज्यों के विधानसभा चुनाव
परिणामों से साफ है कि भारतीय जनता को नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही
खूब भा रह हैं। और एक बात अगर आप लोगों ने गौर की हो तो नरेंद्र मोदी भी आप पर या
अरविंद केजरीवाल पर सीधा हमला करने से अब तक बचते रहे हैं और अरविंद केजरीवाल भी बीजेपी
को चाहे जितना गरियाएं। नरेंद्र मोदी को सीधे गरियाने से बचते हैं। अरविंद
केजरीवाल की तरफ से एक प्रयास हुआ था ये बताने का कि नरेंद्र मोदी गुजरात
उद्योगपतियों को बेच दे रहे हैं। अरविंद केजरीवाल की हर बात पर झंड बुलंद करने
वाली जनता गायब हो गई। अरविंद ये समझ गए। लेकिन, अब कैसे समझेंगे।
दिल्ली
में #AAP या #BJP
किसी की सरकार बन गई होती तो शायद स्थितियां थोड़ी अलग हो जातीं। लेकिन, अब अगर
किसी तरह से अल्पमत की सरकार बीजेपी के डॉक्टर हर्षवर्धन बना भी लेते हैं तो शायद
अरविंद केजरीवाल की आप के लिए हंगामा करना आसान नहीं होगा कि डॉक्टर हर्षवर्धन और
शीला दीक्षित की सरकार में फर्क नहीं है। क्योंकि, आप के हंगामे के जवाब में
बीजेपी का ये तर्क कुछ काम करेगा कि जब हमें पूर्ण बहुमत मिला नहीं तो हम दिल्ली
की भलाई के लिए उतनी बेहतरी से काम कैसे करें। आप अगर फिर चुनाव की ही बात पर अड़ा
रहता है तो फिर नरेंद्र मोदी के सामने देश के चुनावों के समय 543 लोकसभा सीटों का
मामला होगा सिर्फ दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों का नहीं। फिर सवाल ये भी है कि आप
देश में भी बीजेपी के नरेंद्र मोदी की संभावना को कितना धूमिल करेगी। मेरा हमेशा
ये मानना रहा है कि नरेंद्र मोदी की मजबूती दिल्ली में अरविंद को कमजोर करेगी। क्योंकि,
इस आंकलन का एक विरोधी तर्क ये भी है कि अरविंद केजरीवाल 2014 में दिल्ली के
मुख्यमंत्री के तौर पर लड़ेंगे या देश के प्रधानमंत्री के तौर पर। फिर सिर्फ 7
लोकसभा सीटों वाली दिल्ली और बची 536 लोकसभा सीटों वाले देश के मिजाज में फर्क भी
तो है। मान लें कि दिल्ली की तरह मुंबई, बंगलुरू, कोलकाता में कुछ आप कर भी पाए तो
बाकी देश का क्या। इसलिए सवाल ये भी खड़ा होता है कि सरकार न बनाना न बनने देना
2014 के पहले का 2013 में ये रुख देश का मिजाज किस तरह बदलेगा। फिर सवाल ये भी है
कि 2013 में अरविंद केजरीवाल का बड़ा समर्थक वर्ग (नौजवान पढ़ें) 2014 का नेता तो
सिर्फ नरेंद्र मोदी को मानता है। इसीलिए सवाल ये है कि 2014 में ‘आप’
क्या करेंगे। मुझे लगता है कि इस सवाल का जवाब इस सवाल से निकलेगा कि ‘आप’ 2013
में क्या करेंगे। इसलिए अरविंद केजरीवाल को चाहिए कि वो दिल्ली की राजनीति में ‘आप’ को
जीवित रखें, स्वस्थ रखें। राजनीति कोई साल दो साल का मसला नहीं है। इंतजार करें।
2014 के बाद 2019 भी आएगा। और अगर बीजेपी और नरेंद्र मोदी की राजनीति इतनी ही खराब
रही जितना अरविंद केजरीवाल को भरोसा है तो 2019 में अरविंद देश के हीरो होंगे।
लेकिन, अगर अरविंद को इतनी जल्दी ही कि 2013 में दिल्ली पूरी भले न जीत पाएं लेकिन,
2014 में दिल्ली और देश दोनों एक साथ चाहिए तो इतनी हड़बड़ी वाले नेता के बारे में
देश फिर से सोचने पर मजबूर हो जाएगा। मैं निजी तौर पर ये चाहूंगा कि अरविंद
केजरीवाल एक स्वस्थ लोकतंत्र वाली राजनीति को जिंदा रखें। मिसाल बनें।
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