Wednesday, July 25, 2007

उत्तर प्रदेश में राजनीति के जरिए विकास का गणित

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती राज्य के विकास के लिए केंद्र सरकार से 80 हजार करोड़ रुपए मांग रही हैं। वो भी अखबारों में विज्ञापन देकर। शायद ये पहली बार हो रहा है कि कोई मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से राज्य के विकास के लिए विज्ञापन के जरिए पैसे मांग रहा है। इस बार सरकार संभालने के साथ ही मायावती ने इस बात की कोशिश शुरू कर दी थी कि राज्य का विकास कैसे किया जाए (कम से कम बोलकर)। जब मायावती राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं, तभी से लोग इस बात का अंदाजा लगाने लगे थे कि आखिर मायावती केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को समर्थन देकर क्या हासिल करना चाहती हैं। लोगों को लग यही रहा था कि केंद्र सरकार को मायावती का ये समर्थन कहीं सिर्फ राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ तक ही न सीमित रह जाए। लेकिन, इस बार मायावती साफ संदेश दे रही हैं कि वो लंबी पारी खेलने के मूड में है। और, वो उत्तर प्रदेश के जरिए पूरे देश में ये संदेश दे रही हैं कि उन्हें इस बात अच्छी तरह अहसास है कि जिस सर्वजन के फॉर्मूले पर चुनाव जीतकर वो यूपी में सत्ता में आई हैं, आगे के पांच साल का शासन सिर्फ उसी के बूते नहीं हो सकता।
मायावती के हाथ में एक ऐसे राज्य की बागडोर है जो, मानव संसाधन से तो, पूरी तरह संपन्न है। राज्य की आबादी 18 करोड़ हो चुकी है। लेकिन, इसके अलावा राज्य के पास ऐसा कुछ खास नहीं है जिससे वो विकास के मामले में दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के आसपास भी खड़ा हो सके। उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां एग्री बेस्ड इंडस्ट्री ही अच्छे से चल सकती है। खेती पर आधारित उद्योग इसलिए भी सफल हो सकते हैं क्योंकि, उत्तर प्रदेश उन राज्यों में से है जो, जल संपदा के मामले में संपन्न हैं। देश की 9 प्रतिशत जमीन उत्तर प्रदेश के पास ही है। इसीलिए खेती पर आधारित चीनी उद्योग के मामले में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। फल-सब्जियां उगाने के मामले में भी उत्तर प्रदेश आगे है। लेकिन, चीनी को लेकर सरकारों की गलत नीतियों के चलते सभी चीनी घाटा उठा रही हैं। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मायावती ने नफा-नुकसान का हिसाब लगाकर समझ लिया कि इन्हें चलाना अब सरकार के लिए किसी भी तरह से फायदे का सौदा नहीं है। इसलिए मायावती ने चीनी मिलों को उद्योगपतियों को बेचने का फैसला किया है। औद्योगिक सुधार की मायावती सरकार की नीति का ये पहला प्रभावी कदम है।
राज्य के विकास के लिए केंद्र से मांगे गए 80 हजार करोड़ रुपए में 22 हजार करोड़ रुपए मायावती ने बेहतर खेती की सुविधाओं पर खर्च करने के लिए ही मांगे हैं। राज्य की बड़ी आबादी अभी भी गांवों में रहती है इसलिए गांवों तक सभी सभी विकास योजनाएं समय से पहुंचे ये, राज्य के तेज विकास के लिए बहुत जरूरी है। गांव में पंचायती राज लागू करने और सुविधाएं बेहतर करने के लिए मायावती ने 6 हजार 5 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। खेती की सुविधा और गांव-पंचायती राज पर अगर 28 हजार 5 सौ करोड़ रुपए की ये रकम सलीके से खर्च हो पाई तो, शायद विकास की गाड़ी दौड़नी तो, शुरू हो ही जाएगी।


वैसे मुलायम सिंह यादव के राज में भी उत्तर प्रदेश के विकास के लिए उत्तर प्रदेश औद्योगिक विकास निगम बना था। और, अमर सिंह, अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी के प्रभाव में देश के कई बड़े औद्योगिक घराने इसमें शामिल भी हो गए थे। लेकिन, अनिल अंबानी के दादरी प्रोजेक्ट को छोड़कर एक भी ऐसा प्रोजेक्ट सुनाई नहीं दिया जिससे राज्य की बेहतरी की उम्मीद की जा सकती। मुलायम सत्ता का सुख भोगकर सत्ता से बाहर भी हो गए लेकिन, राज्य का भला नहीं हो सका। राज्य की खराब कानून व्यवस्था की हालत की वजह से किसी भी उद्योगपति की राज्य में उद्योग लगाने की हिम्मत ही नहीं हुई। कानपुर, भदोही, बनारस, मुरादाबाद जैसे पुराने औद्योगिक नगर भी सिर्फ सरकारी वसूली का केंद्र बनकर रह गए। बची-खुची कसर पूरी कर दी केंद्र सरकार से खराब रिश्तों ने। जिससे केंद्र से आने वाली विकास की धारा भी रुक गई।
अब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं। सामाजिक समीकरण भी ऐसे बन गए हैं कि कहीं से भी मायावती के खिलाफत के स्वर अभी सुनाई नहीं दे रहे हैं। केंद्र सरकार से मायावती के रिश्ते राष्ट्रपति चुनाव के बाद और भी बेहतर हो गए हैं। लेफ्ट पार्टियों को संतुलित रखने के लिए मायावती सोनिया के लिए बेहतर साबित हो सकती हैं, इसलिए आगे भी मायावती और सोनिया मैडम के रिश्ते बेहतर होते ही दिख रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, मायावती के सत्ता में आते ही दिल्ली और उत्तर प्रदेश के बीच बसों का विवाद सुलझ गया। ये सांकेतिक ही था लेकिन, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा जिस तरह से सटी हुई है, उसमें दिल्ली से अच्छे संबंध राज्य के विकास की गाड़ी दौड़ाने में मददगार हो सकते हैं।


मायावती के केंद्र से अच्छे रिश्तों की वजह से ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश में विकास की संभावनाएं खोजने के लिए एक कमेटी भी बना दी है। इस कमेटी की रिपोर्ट में जो सबसे जरूरी बात निकलकर आई है कि कानून व्यवस्था की हालत दुरुस्त हुए बिना राज्य में कोई भी पैसे लगाने को तैयार नहीं होगा। और, मायावती ने सत्ता संभालते ही ये दिखा दिया है कि कानून तोड़ने वाले बख्शे नहीं जाएंगे, चाहे वो कोई भी हों। उत्तर भारत के वीरप्पन कहे जाने वाले ददुआ ने पिछले तीस सालों में हर सरकार को ठेंगा दिखाया, वो मारा गया। इलाहाबाद की फूलपुर सीट से लोकसभा सांसद अतीक अहमद को हत्या के मामले में भगोड़ा घोषित कर दिया गया है। माफिया अतीक अहमद का छोटा भाई अशरफ भी बसपा के इलाहाबाद शहर पश्चिमी से विधायक रहे राजू पाल की हत्या के इसी मामले में आरोपी है। वैसे इन मामलों में लोग समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए थे। लेकिन, मायावती के इस साहस का स्वागत किया जाना चाहिए। वैसे मायावती ने अपनी पार्टी के सांसद उमाकांत यादव को भी नहीं बख्शा है, जमीन कब्जे की कोशिश में वो जेल भेज दिए गए। कुल मिलाकर मायावती विकास की पहली जरूरी शर्त पूरी कर रही हैं। लेकिन, विकास की सबसे जरूरी शर्त है राज्य में सड़क-पानी-बिजली यानी बुनियादी सुविधाओं का ठीक होना। इन सभी मानकों पर उत्तर प्रदेश देश के दूसरे राज्यों से पीछे जाने की रेस लगाता दिखता है।


केंद्र सरकार की कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो, विकास के मामले में फिर भी बेहतर है लेकिन, बुंदेलखंड और पूर्वांचल का हाल तो, एकदम ही बुरा है। इसीलिए मायावती ने पूर्वांचल के इलाकों में सड़क-बिजली-पानी की सुविधा ठीक करने के लिए 9 हजार 4 सौ करोड़ रुपए और बुंदेलखंड में इस काम के लिए 4 हजार 7 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। लेकिन, इन सबके साथ ही मायावती को एक काम जो, और विकास के लिए तेजी से करना होगा वो, है पहले से चल रही केंद्र की विकास योजनाओं को तेजी से पूरा करना। उत्तर प्रदेश और बिहार वो राज्य हैं जहां एनडीए के शासनकाल में शुरू हुई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का काम सबसे धीमे चल रहा है। दिल्ली से कोलकाता के 8 लेन वाले इस रास्ते में उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा आता है। कानपुर और बनारस जैसे औद्योगिक विकास की संभावनाओं वाले शहर इससे जुड़ रहे हैं।


अपने सर्वजन हिताय के चुनाव जिताऊ फॉर्मूले को ध्यान में रखकर मायावती ने राज्य में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले SC/ST/OBC और अल्पसंख्यकों के साथ ऊंची जातियों का जीवन स्तर बेहतर करने के लिए 23 हजार 8 सौ करोड़ रुपए मांगे है। ये अच्छा है कि लोगों की बेहतरी में जाति आड़े नहीं आ रही है। मायावती ने विज्ञापन के जरिए केंद्र सरकार से ये भी अपील की है कि देश में खाली पड़े सभी आरक्षित पदों को भरा जाए। चमत्कार ये है कि मायावती ने उसी विज्ञापन में गरीबी रेखा के नीचे की ऊंची जातियों को भी आरक्षण का लाभ देने के लिए संविधान में संशोधन की भी मांग की है। कुल मिलाकर मायावती और सोनिया मैडम की राजनीतिक जरूरतों के लिहाज से जो रिश्ते बन रहे हैं, उसमें ये रकम मायावती को आसानी से मिल जाएगी। क्योंकि, असली परीक्षा तो, यही होगी क्या मायावती उत्तर प्रदेश को BIMARU राज्य की श्रेणी से बाहर ला पाएगीं। उनके पड़ोसी नीतीश कुमार बिहार को इस दाग से बाहर निकालने के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं।
वैसे उत्तर प्रदेश का विकास मायावती के साथ केंद्र सरकार की भी मजबूरी है। क्योंकि, देश के सबसे बड़े प्रदेश के पिछड़े रहने पर मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी देश की अर्थव्यवस्था को कैसे भी करके 10 प्रतिशत की विकास की रफ्तार नहीं दे पाएगी। लेकिन, राज्य के विकास की ज्यादा जरूरत मायावती के लिए इसलिए भी है कि पांच साल बाद सिर्फ ब्राह्मण, SC/ST, अल्पसंख्यक के जोड़ से उन्हें फिर सत्ता नहीं मिलने वाली। और, इससे पहले 2009 के लोकसभी चुनाव में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। क्योंकि, गुंडाराज से मुक्त जनता को दो जून की रोटी भी चाहिए। और, अगर उत्तर प्रदेश के निवासियों को घर में ही दो जून की रोटी के साथ अच्छी सड़क, जरूरत का बिजली-पानी और उनके हिस्से की विकास की खुराद मिले तो, फिर भला मुंबई में टैक्सी चलाकर मराठियों की गाली और असम में मजदूरी करके उल्फा की गोली कौन खाना चाहेगा। कुल मिलाकर पिछले ढाई दशक में राजनीति ने उत्तर प्रदेश का बेड़ा गर्क कर दिया। अब शायद समय चक्र घूम चुका है। अब राजनीति की ही मजबूरी से उत्तर प्रदेश देश में अपना खोया स्थान पा सकेगा। लेकिन, इसमें भी अगर राजनीति हावी न हो गई तो......

Tuesday, July 24, 2007

टीवी न्यूज चैनल को टीआरपी के भूत से बचा लो

जर्नलिज्म में एक्सलेंस का मतलब क्या है। क्या हम एक्सलेंट जर्नलिज्म कर रहे हैं। रामनाथ गोयनका एक्सलेंस इन जर्नलिज्म अवॉर्ड्स दिए गए और अवॉर्ड्स के बाद हुए पैनल डिस्कशन में सबने एक-दूसरे से यही सवाल पूछा या यूं कहें कि खुद को कसौटी पर कसने की कोशिश की। उस मंच पर एक साथ बड़े-बड़े पत्रकार बैठे हुए थे। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों को चलाने वाले लोग थे। कुछ ऐसे थे जो, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों में ही अपनी अच्छी छाप छोड़ चुके हैं।

एक्सलेंट ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट का अवॉर्ड पाने वाले राजदीप सरदेसाई के साथ बरखा दत्त बहस को चला रही थीं। इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता, द हिंदू के एन राम, टाइम्स ग्रुप के रवि धारीवाल जैसे दिग्गज मंच पर थे। तो, अखबारों-टीवी चैनलों की सुर्खियां बनने वाले बड़े-बड़े नेता बहस को सुनने वालों में थे। बहस की शुरुआत ही इसी से हुई कि क्या बाजार टीवी चैनलों या पूरे मीडिया को ही इस तरह से चला रहा है कि उसमें इस बात की कोई जगह ही नहीं बची है कि एक्सलेंट जर्नलिज्म किया जा सके। या फिर बदलते जमाने के साथ जर्नलिज्म के पैमाने भी बदल रहे हैं और इसी दौर की वजह से मीडिया भटका हुआ दिख रहा है। एक सवाल और था कि क्या सीरियस जर्नलिज्म बिकता नहीं या फिर सीरियस जर्नलिज्म के नाम पर सिर्फ ऐसा हो रहा है जिससे दूरदर्शन के जमाने से आगे निकलने की गुंजाइश ही नहीं बन पा रही है। बरखा दत्त ने तो, द हिंदू के एन राम से सवाल भी कर दिया कि आपको कैसा लगता है जब कोई ये कहता है कि हिंदू सम्मानित अखबार है लेकिन, बोरिंग है। लेकिन, बहस का रूप तब बदल गया जब राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम बीच में सवाल पूछते हुए मंच पर ही टेक लगाकर बैठ गए।

कलाम ने मीडिया के दिग्गजों से सिर्फ एक ही सवाल पूछा कि क्या वो देश के लोगों को ऊपर उठाने में कोई मदद कर पा रहे हैं। क्या वो गरीब रेखा के नीचे बसने वाले देश के बाइस करोड़ लोगों को ऊपर उठाने के लिए भी कोई खबर दिखाते हैं। कलाम ने A+B+C पर मीडिया को काम करने की सलाह दी। A यानी देश की जीडीपी, देश के विकास में मीडिया का योगदान, B यानी देश की बाइस करोड़ जनता जो, गरीबी रेखा से नीचे है, उनके लिए मीडिया क्या कर सकता है और C जो, कलाम ने सबसे जरूरी बताया वो, ये कि देश में वैल्यू सिस्टम को बनाए रखने में मीडिया की भूमिका। सवाल जायज था लेकिन, मीडिया के दिग्गजों में से किसी से भी इस बात का जवाब देते नहीं बना। हां, पंकज पचौरी ने बेतुका सवाल जरूर कर डाला कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग न तो अखबार पढ़ते हैं और न ही टीवी देखते हैं। और, शायद यही बेतुका सवाल सारी बहस का मूल था कि हम अखबार या टीवी कारोबार के लिहाज से चला रहे हैं इसलिए नहीं कि हम लोकतंत्र के चौथे खंभे हैं। हमारी जिम्मेदारी है कि हम समाज को आगे बढ़ाने में मदद करें। एक्सलेंसी का मतलब भी यही है कि हम सिर्फ अपना ही नहीं अपने आसपास के जीवन स्तर को भी उठाने में कुछ मदद कर सकें। शायद यही वजह है कि मीडिया का प्रभाव तो लोगों पर खूब पड़ रहा है लेकिन, मीडिया की विश्वसनीयता और मीडिया का सम्मान खत्म हो रहा है।

बहस को चला रहे सर्वश्रेष्ठ टीवी जर्नलिस्ट राजदीप सरदेसाई भी कलाम के सवाल का जबाव नहीं दे सके। यहां तक कि जब किसी ने उनसे सवाल पूछ लिया कि ibn7 पर आखिर भूत-प्रेत या फिर इस तरह की ही टीआरपी वाली खबरें दिखाकर कौन सा एक्सलेंस इन जर्नलिज्म किया जा रहा है। तो, उन्होंने अपना बचाव ये कहकर किया कि वो दूरदर्शन के जमाने का बोरिंग जर्नलिज्म करने के लिए नहीं आए हैं। टीआरपी से कब तक चैनल चलते रहेंगे जब ये सवाल बीजेपी नेता रविशंकर प्रसाद ने किया तो, राजदीप ने उल्टे ये कहकर कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला से ही ये सवाल कर डाला कि आप चैनल लाने जा रहे हैं क्या आप खुद को टीआरपी की दौड़ से दूर रख पाएगे। राजीव शुक्ला टीआरपी की दौड़ से दूर रहने का साहस तो नहीं दिखा पाए। लेकिन, राजीव शुक्ला ने बड़ी काम की बात कही जो, घंटी बांधने की शुरुआत हो सकती है। राजीव शुक्ला ने कहा कि टीवी न्यूज को टीआरपी से बाहर होना चाहिए। टीआरपी का चक्कर एंटरटेनमेंट टीवी के लिए ही हो। शायद एक्सलेंस इन जर्नलिज्म की शुरुआत यहीं से हो सकती है। क्योंकि, टीआरपी के भय से ही कभी भी कोई भी हिंदी चैनल लगातार चार-पांच घंटे तक या शायद फिर दिन भर भूत-प्रेत-आत्मा-हवेली में घुंघरू की झनकार-हत्यारा प्रेमी/प्रेमिका-हिला देना वाला खुलासा-टीवी की अब तक की सबसे सनसनीखेज खबर-टेलीविजन इतिहास में पहली बार-14 साल के गांव के बच्चे में अमेरिकी वैज्ञानिक की आत्मा, जैसे शीर्षकों से खुद को बेचने की कोशिश करता रहता है।

इसी टीआरपी की वजह से टीवी इस्तेमाल भी हो रहा है। कोई राखी सावंत और मीका कई हफ्तों तक टीवी की सबसे बड़ी सुर्खी बने रहते हैं। और, साफ है कि दोनों ने पब्लिसिटी के लिए ये काम किया नहीं तो, एक दूसरे के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाए हर सार्वजनिक मंच पर उसी बात को उछालने की कोशिश क्यों करते। उदाहरण एक नहीं है। ताजा उदाहरण है टीवी एक्ट्रेस श्वेता तिवारी और उसके पति राजा का। राजा ने पत्नी श्वेता से मारपीट की। ये पता लगते ही सारे टीवी चैनल वाले पहुच गए। राजा की प्रतिक्रिया लेने। क्योंकि, प्रतिक्रिया मिलने तक टीवी एंकर को बिना किसी अच्छी बाइट या विजुअल के ही उस खबर को कई घंटे तक खींचना पड़ता। राजा ने पत्रकारों को बेइज्जत किया। बस सबके लिए अच्छा मसाला हो गया। बाद में फ्लॉप टीवी एक्टर राजा ने कहा कि उसने मीडिया को अपनी पब्लिसिटी के लिए इस्तेमाल किया। इस पर भी टीवी वाले नहीं माने, ये भी जमकर चलाया।

टीआरपी की ही वजह से गड्ढे से निकलकर प्रिंस लोगों की आंखों का तारा बन गया। उसके बाद पता नहीं कितने प्रिंस गड्ढे में ही दफन हो गए। लेकिन, टीआरपी के भूखे टीवी चैनलों का कैमरा तभी गड्ढे पर स्थिर हो पाता है। जब कोई गड्ढे में दफन होने के लिए तैयार हो। या फिर गड्ढे से इस तरह निकले कि बस मौत के मुंह से निकला हो क्योंकि, इससे पहले टीआरपी नहीं बनती। वरना, क्या टीवी चैनलों को इस पर स्टोरी नहीं करनी चाहिए कि देश भर में इस तरह के गड्ढे कैसे मौत के कुएं बन रहे हैं। क्या किसी टीवी चैनल की हिम्मत है कि देश के एक भी ऐसे गड्ढे के, बिना किसी बच्चे के गिरे, बंद होने तक और इसके लिए जिम्मेदार अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई तक अपना कैमरा उसी गड्ढे पर रखे रहे।

टीआरपी के चक्कर में टीवी चैनल टीवी पत्रकारों को बेकार भी बना रहे हैं। किसी भी बिकाऊ वीडियो पर न्यूजरूम में सिर्फ एक ही आवाज आती है सीधे चला दो। इसमें करना ही क्या है। चैनलों पर तो, आधे-एक घंटे तक देश के किसी भी हिस्से में लोगों को हंसा रहे राजू श्रीवास्तव या फिर कोई दूसरा कॉमेडी कलाकार लाइव कटा रहता है। उससे छूटे तो, कहीं कोई सुंदर बाला देह दर्शना नृत्य या कृत्य कर रही हो तो, उसे लाइव काट दीजिए। कुछ एक न्यूज चैनल में तो, कुछ प्रोड्यूसर इसीलिए रखे जाते हैं कि उन्होंने एंटरटेनमेंट चैनलों को ध्यान से देखा उसको रिकॉर्ड कराया। उसके बीच-बीच में तीस-चालीस सेकेंड के कुछ लच्छेदार एंकर लिंक डाले और 9 मिनट का ब्रेक मिलाकर तीस मिनट का बढ़िया टीआरपी वाला बुलेटिन तैयार कर डाला। अब इस जमात के बीच में एक्सलेंस इन जर्नलिज्म कैसे निकलकर आ सकता है।

जर्नलिज्म में एक्सलेंस की शुरुआत वही लोग कर सकते हैं। जो, रामनाथ गोयनका के नाम पर दिए जा रहे एक्सलेंस इन जर्नलिज्म अवॉर्ड के मौके पर इस बहस में शामिल थे। और, वो एक्सलेंट जर्नलिज्म कर भी रहे हैं। लेकिन, बाजार के दबाव में उनके काम करने की वजह से उनके साथ आने वाली नई पीढ़ी के जर्नलिस्ट शायद एक्सलेंस के मायने अलग समझने लगे हैं। बहस की शुरुआत में ही शेखर गुप्ता ने कहा कि अखबार या टीवी चैनल ऐसा होना चाहिए जिसमें रोटी-दाल-चावल-सब्जी-अचार-मसाला सबकुछ हो। लेकिन, क्या कभी भी किसी खाने की थाली में अचार या मसाला सबसे ज्यादा हो सकता है। तीखा से तीखा खाने वाले भी दो-तीन मिर्च या छोटी कटोरी में अचार से ज्यादा नहीं पचा पाते। लेकिन, रोटी-दाल-चावल तो सबको पेट भरके चाहिए ही। और, एक्सलेंस इन जर्नलिज्म के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया सचमुच एक बड़ा उदाहरण है जो, बाजार और पढ़ने वालों की जरूरतों के लिहाज से खुद को लगातार एक्सलेंट बनाता जा रहा है। लेकिन, अंग्रेजी और अग्रेजी बिजनेस जर्नलिज्म (द इकोनॉमिक टाइम्स) में बेहतर काम करने वाला टाइम्स ग्रुप भी हिंदी (नवभारत टाइम्स) में ये काम नहीं कर पा रहा है। देश के सबसे बड़े हिंदी अखबारों दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर को अग्रेजी के टाइम्स ऑफ इंडिया से सबक लेना चाहिए। टाइम्स ऑफ इंडिया भी ज्यादातर इसी बात के लिए चर्चा में रहता है कि उसके दिल्ली या मुंबई टाइम्स या फिर सप्लीमेंट के रंगीन पन्नों पर सुंदर फोटो होते हैं। लेकिन, इसी के बीच जैसे-जैसे अखबार मजबूत(सर्कुलेशन के लिहाज से) और कमाऊ (विज्ञापनों के लिहाज से) बनता गया। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबरों की गुणवत्ता बेहतर होती गई। अब तो, शनिवार-रविवार के टाइम्स के अतिरक्त पन्ने इंडियन एक्सप्रेस को भी कई बार मात देते दिखते हैं। इसी रविवार को टाइम्स ऑफ इंडिया ने चौरी चौरा पर आधा पेज दे दिया था। टाइम्स ऑफ इंडिया चौरी चौरा में तो, शायद ही किसी घर में आता होगा या पूरे गोरखपुर मंडल में भी टाइम्स ऑफ इंडिया इतना नहीं बिकता होगा कि इसे छापा जाए।
इसलिए जरूरत इस बात की है कि हिंदी में भी टीवी न्यूज चैनल और अखबार इस दबाव से बाहर निकलें कि टीआरपी के लिए अपना मन मारकर शो चलाना ही पडेगा नहीं तो, मुकाबले में नहीं रह पाएंगे। क्योंकि, अगर टीआरपी और सर्कुलेशन के दबाव में टीवी-अखबार कुछ भी भौंडा सा चलाकर ये तर्क देकर बचते रहे कि लोग यही पसंद करते हैं। तो, फिर मीडिया में काम करने वालों को लोकतंत्र का चौथा खंभा समझने की गलती कोई क्यों करे। कोई क्यों मीडिया के लोगों का सम्मान करे। अगर ये बात बहस में शामिल एक्सलेंट जर्नलिस्ट्स की समझ में आती है तो, शायद एक्सलेंट जर्नलिस्ट की पुरानी जमात से बेहतर एक्सलेंट जर्नलिस्ट की नई जमात बन पाएगी। भूत-प्रेत और टीआरपी की खबरें दिखाने वाले टीवी चैनलों को चलाने वाले और उसमें काम करने वाले भी इससे ऊब चुके हैं और इस वजह से टीवी चैनलों में आई एक बड़ी जमात इससे भागने की भी तैयारी में है। 100 करोड़ से ज्यादा का देश है। टीवी चैनल और अखबार हिम्मत तो, करें देश में भूत-प्रेत-अपराध पसंद करने वाले टीवी देखने और अखबार पढ़ने वालों से कई गुना ज्यादा लोग अभी एक्सलेंट जर्नलिज्म को गुड बिजनेस बनाने के लिए तैयार हैं।

Monday, July 23, 2007

पश्चिम बंगाल में लाल सलाम के ३० साल

21 जून 2007 को पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के तीस साल हो गए। ये दुनिया की अकेली ऐसी कम्युनिस्ट सरकार बन गई। जो, चुनकर इतने सालों तक शासन में रही। ये रिकॉर्ड शासन इतने सालों का रहा कि इस शासन की शुरुआती बागडोर संभालने वाले मुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु को हटाकर (बूढ़ा हो जाने का हवाला देते हुए ) दूसरे खांटी कामरेड बुद्धदेब भट्टाचार्य को राज्य की बागडोर देनी पड़ी। लेकिन, जब वामपंथी शासन के तीस सालों पर नजर डालें तो, साफ दिख जाएगा कि शासन तो, भले ही पश्चिम बंगाल में कहने को वामपंथियों का ही चल रहा है। लेकिन, दरअसल ये शासन पूरी तरह से पूंजीवादियों के हाथ में है। और, ये बात में नहीं कह रहा हूं। ये बात निकलकर आई है अभी के पश्चिम बंगाल के मुखिया बुद्धदेब भट्टाचार्य के श्रीमुख से।

तीस साल पूरे होने पर अलग-अलग टीवी चैनलों-अखबारों ने बुद्धदेब से जानना चाहा कि आखिर दुनिया की सबसे ज्यादा समय तक चुनकर चलने वाली वामपंथी सरकार की दिशा-दशा क्या है। बुद्धदेब ने कहा पुराने वामपंथी लकीर के फकीर रह गए हैं। उन्हें आज के जमाने की समझ नहीं है। आज की जरूरतों की समझ नहीं है। और, समय आ गया है कि जब वामपंथी बुद्धिजीवियों को ये समझना होगा कि राज्य के विकास के लिए उद्योगों की जरूरत है और उद्योग लगाने के लिए पूंजी चाहिए। बुद्धदेब बाबू ने कहा इसलिए साफ है कि हमें पूंजीपतियों के लिहाज से ही चलना होगा। उन्होंने इसके लिए राज्य के नौजवानों के रोजगार का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि कुछ पुराने वामपंथियों को खुश रखने के लिए वो राज्य के लाखों नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते हैं।


बुद्धदेब बाबू को तीस साल के लाल सलाम के बाद ये बात समझ में आ गई कि अब सिर्फ लाल सलाम से बात नहीं बनने वाली। अब रेट कार्पेट बिछाने की आदत डालनी होगी। बुद्धदेब बाबू ने रेड कार्पेट बिछाया तो, सस्ती जमीन, सस्ता मजदूर पसंद करने वाले उद्योगपतियों की मनमांगी मुराद पूरी हो गई। टाटा-अंबानी से लेकर देश-दुनिया के सारे बड़े उद्योगपति राइटर्स बिल्डिंग के सामने लाइन लगाए खड़े हो गए। टाटा देश की सबसे सस्ती कार कोलकाता में ही बनाना चाहते हैं तो, मुकेश अंबानी को कोलकाता से ही पूरे बंगाल में रिटेल चेन फैलाने का आसान रास्ता दिखा जिससे वो, किसानों से सस्ते में खरीदकर उन्हीं को बेचकर मुनाफा कमा सकते। लेकिन, बात यहीं बिगड़ने लगी। क्योंकि, इन सभी को बंगाल में अपने उद्योग लगाने-अपनी दुकान खोलने के लिए जमीन चाहिए थी। और, इस जमीन पर काबिज थे वो लोग, जिन्होंने पहले ज्योति बसु और फिर बाद में बुद्धदेब बाबू को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया था। ये वो लोग थे जिनको लेफ्ट ने जमीन देकर पहले कैडर बनाया और फिर उसी कैडर को भरोसा दिलाकर बार-बार सत्ता में आते रहे। लेकिन, जब उनकी चुनी लेफ्ट की सरकार ने उनको दी जमीन, उद्योगपतियों के लिए मांगनी शुरू की तो, मामला पलट गया। उन्होंने जमीन देने से साफ इनकार कर दिया। और, अपनी जमीन बचाने के लिए जान लेने-देने पर उतारू हो गए। राजनीति भी उनके साथ खड़ी हुई और सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति बनाने वाला लेफ्ट कैडर ममता बनर्जी की अगुवाई में खड़ा हो गया और उसके सामने पुलिस-सत्ता से लैस लेफ्ट का कैडर गोली चलाने लगा।


दरअसल आज से तीस साल पहले जब पश्चिम बंगाल में लेफ्ट ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था तो, सामंतवाद को हटाने और सबको जमीन की बराबर हिस्सेदारी देने का ही नारा बुलंद हुआ था। लेफ्ट की ये अपील काम कर गई और 21 जून 1977 को लंदन से ऊंची पढ़ाई करके लौटा 64 साल का कामरेड ज्योति राज्य का मुख्यमंत्री बन गया। बसु को सत्ता में पहुंचने की वजह साफ मालूम थी और बसु की सरकार ने सबसे पहले राज्य में भूमिहीन किसानों को जमीन बांटना शुरू किया। बसु सरकार ने राज्य में 13 लाख एकड़ जमीन गरीबों और भूमिहीन किसानों को बांट दी। ये रिकॉर्ड है, ऐसा काम देश का कोई राज्य नहीं कर पाया है। पश्चिम बंगाल ही देश का पहला राज्य था जहां सत्ता के विकेंद्रीकरण की शुरुआत हुई और सबसे पहले त्रिस्तरीय पंचायत राज लागू हुआ। यही वजह है कि आज पश्चिम बंगाल में खेती की जमीन का 83 प्रतिशत हिस्सा ऐसे ही छोटे किसानों के पास है। और ये किसान किसी भी कीमत पर उद्योगों के लिए अपनी जमीन देने कौ तैयार नहीं हैं। वो, जान देने को तैयार हैं लेकिन, जमीन किसी भी कीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं है। नतीजा सिंगुर, नंदीग्राम, पुरुषोत्तमपुर, आसनसोल जैसे हालात राज्य के हर उस हिस्से में बन रहे हैं जहां सरकार उद्योग लगाना चाहती है। सिंगुर में टाटा को कार फैक्ट्री के लिए जमीन देना इज्जत का सवाल बन गया है। टाटा को भी बंगाल में मुनाफा ही मुनाफ दिख रहा है इसलिए 18 साल बाद कोलकाता में दूसरा ताज होटल खुलने जा रहा है। टाटा इतने मेहरबान हैं इसलिए राज्य सरकार का साफ कह रही है कि किसी भी कीमत पर ये मौका छोड़ा नहीं जा सकता। राज्य के उद्योग मंत्री निरुपम सेन का कहना है कि टाटा को राज्य में निवेश के लिए रास्ता तैयार न कर पाना बहुत बड़ी भूल होगी। शायद इसीलिए इस रास्ते में आने वाले हर किसी को जान से हाथ धोना पड़ सकता है। इसका सबूत है सीपीएम के जोनल हेड सुरीद दत्ता का नाम, सिंगुर में तापसी मलिक की हत्या और बलात्कार के मामले में सामने आना। तापसी मलिक सिंगुर की जमीन बचाओ समिति की सदस्य थी।


30 साल के लाल सलाम का परिणाम ये हुआ कि दुनिया भर में क्रांति का झंडा लहराने के लिए कॉलेज कैंपसों में मार्क्स-लेनिन के नारे बुलंद करने वाली लेफ्ट के रिकॉर्ड शासन वाले राज्य में सबसे पहले कॉलेज कैंपस पर ही हमला हुआ। एजुकेशन सिस्टम फेल हो गया है। पुराने वामंपथी दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इकट्ठा होकर मार्क्स लेनिन के सिद्धांत पढ़ा रहे हैं लेकिन, बंगाल के कॉलेजों में गुंडागर्दी और सीपीएम के कैडर के अलावा कुछ नहीं बचा है। यहां तक कि सीपीएम और सीपीआई के अलावा दूसरे लेफ्ट संगठनों की छात्र शाखाएं भी अगर कैंपस में कुछ करने की कोशिश करती हैं तो, उसे पुलिस के साथ मिलकर सीपीएम-सीपीआई के कैडर के गुंडे दबा देते हैं। इसलिए सरकार को चेताने वाली विरोध की युवा ताकत नहीं रह गई।


लेफ्ट सरकार ने किसानों को जमीनें तो, बांट दीं। लेकिन, उनकी फसल लोगों तक, मंडियों तक बिकने के लिए पहुंच सके। इसका इंतजाम नहीं हो सका। जिसका नतीजा ये हुआ कि बंगाल में जमीन वितरण तो, हो गया लेकिन, वहां का एक भी किसान पंजाब के किसान की तरह कोई ऐसा मॉडल नहीं पेश कर सका। जिससे राज्य की बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के मौके भी बनते। लगातार सरकार बनाने के लिए ऐसी बुनियादी सुविधाओं के लिए विकास को, सत्ता के मद में चूर वामपंथियों ने कभी मुद्दा ही नहीं बनने दिया। जमीन पाए गरीबों, किसानों को अपनी चुनी हुई सरकार पर पूरा भरोसा भी था। लोकिन, इस सरकार के राज में पूरे बंगाल में ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम का जिस तरह से बंटाधार हुआ। उससे पहले से वहां जमी कंपनियों ने भी दूसरे राज्यों का रुख कर लिया। लेकिन, लेफ्ट उस समय भी नहीं चेता। क्योंकि, बंगाल अकेला राज्य था जिसके आदर्श के बूते वो पूरे देश में अपनी विचारधारा की दुहाई देते घूमते थे। हालात, ये हुए कि देश में सबसे पहले मेट्रो रेल और ट्रॉम गाड़ी जैसी अत्याधुनिक यातायात सुविधा की शुरुआत करने वाले कोलकाता में भी जमाने के रफ्तार को पकड़ने वाली सड़कें भी नहीं रह पाईं। राज्य के दूसरे हिस्सों में तो सड़कों का विकास ना के बराबर हो पाया। आज कोलकाता का सीवेज सिस्टम शायद देश के किसी भी शहर की तुलना में सबसे खराब है। बुनियादी सुविधाओं का हाल ऐसा है कि अंग्रेजों को जमाने से ही संपन्न बंगाल के गांवों में आज तक बिजली नहीं पहुंच सकी है। राज्य में चालीस लाख से ज्यादा पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगार हैं। जो, राज्य के पढ़े-लिखे नौजवानों का सत्तर प्रतिशत है।


सच यही है कि बुद्धदेब भट्टाचार्यकी ये बात एकदम सही है कि पश्चिम बंगाल हो या फिर कोई भी राज्य उसे विकास के लिए, युवाओं को रोजगार देने के लिए उद्योगों को बढ़ावा देना ही होगा। क्योंकि, तीस साल के खेती के अनुभवों से कम से कम बंगाल में तो विकास नहीं ही आया है। लेकिन, सवाल यही है कि क्या बुद्धदेब जिस तरह से इंडस्ट्रियलाइजेशन के पक्ष में उद्योगपतियों की तरफदारी में खड़े हैं क्या वो, जनता के खिलाफ जाता नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल के ही ईस्ट मिदनापुर के सालबोनी गांव में अपना स्टील प्लांट लगाने जा रही JSW स्टील और राज्य के ही दूसरे हिस्से में टाउनशिप बनाने आ रही DLF का मॉडल अपनाया गया होता तो, शायद ही उद्योगों के आने के इस तरह से विरोध होता, जैसे आज लोग जमीन न देने के लिए जान भी देने पर उतारू हैं। लेकिन, गुजरात और महाराष्ट्र से विकास की दौड़ लगाने में जुटे बुद्धदेब उद्योगपतियों की शर्त पर राज्य के उस तबके की जमीन बांटने चल पड़े, जिसका पूरा परिवार सिर्फ उसी जमीन के भरोसे अपनी रोटी पा रहा था। JSW स्टील को ईस्ट मिदनापुर में करीब 4,500 एकड़ जमीन चाहिए जिसमें से 450 एकड़ कंपनी गांव के 700 किसान परिवारों से करीब तीन लाख रुपए एकड़ के भाव पर खरीद रही है। किसानों को जमीन की कीमत के बराबर के शेयर भी कंपनी में मिलेंगे और घर के एक सदस्य को नौकरी भी। अब भला इस औद्योगीकरण का विरोध कोई क्यों करेगा।


लेकिन, क्या बंगाल के वामपंथी शासक सचमुच में राज्य के लोगों का भला चाहते हैं और उनके विकास के बारे में सोचते हैं। देश में माओवादी आंदोलन की शुरुआत करने वाले कानू सान्याल ऐसा नहीं मानते। कानू सान्याल कहते हैं कि सीपीएम ने सत्ता पाने के सिर्फ पांच सालों तक ही अच्छा काम किया। उसके बाद उन्होंने कभी भी राज्य के लोगों का भला नहीं किया। बंगाल के बहुचर्चित जमीन सुधार (लैंड रिफॉर्म) आंदोलन की शुरुआत करने वाले सान्याल का कहना है कि सीपीएम और यहां तक कि सीपीआई पूरी तरह से जमीन सुधार के पक्ष में कभी रहा ही नहीं। अपने घर से सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) आंदोलन चला रहे सान्याल की बात काफी हद तक इसलिए भी सही लगती है कि पश्चिम बंगाल देश का वो राज्य है जहां ग्रामीण इलाकों में साल के कुछ महीनों में हर दिन सबसे ज्यादा लोग भूखे सोते हैं। भुखमरी के लिए बदनाम उड़ीसा इस मामले में दूसरे नंबर पर है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के जून 2004 से जून 2005 के बीच हुए सर्वे के मुताबिक, बंगाल गांवों में 10.6 प्रतिशत घरों में साल के कई महीनों में खाने को नहीं मिलता है।


बुद्धदेब भट्टाचार्य अब उद्योगों की वकालत उसी तरह कर रहे हैं जैसे, आज से तीस साल पहले कामरेडों ने खेती के जरिए विकास का नारा देकर दुनिया में सबसे लंबे समय तक चुनकर चली वामपंथी सरकार का तमगा हासिल कर लिया। लेकिन, क्या ये तमगा आज से कुछ साल बाद भी उपलब्धि के तौर पर जाना जाएगा या फिर ये सत्ता पर कब्जे के रिकॉर्ड के लिए ही जाना जाएगा। क्योंकि, बुराई न तो, आज के उद्योगों के जरिए विकास के मॉडल में है और बुराई न तो, तीस साल पहले के लिए खेती, ज्यादा से ज्यादा लोगों को जमीन बांटकर विकास के मॉडल में थी। लेकिन, सवाल यही है कि क्या वामपंथी विकास के किसी भी फॉर्मूले पर एक साथ काम करने के लिए अपने को कभी तैयार कर पाएंगे। खासकर बुद्धदेब के इस नए वामपंथी फॉर्मूले (उद्योगों के जरिए ही विकास हो सकता है) पर। क्योंकि, तीस साल पहले जमीन सुधार के जरिए विकास के फॉर्मूले पर तो, सारे वामपंथी एक थे। आज तो, तीस साल पहले जमीन सुधार के आंदोलन में पला-बढ़ा वामपंथी—इस नए बुद्धदेब स्टाइल के वामपंथी विकास के मॉडल के एकदम खिलाफ खड़ा है। जहां लाल सलाम नारा नहीं जमीन की खूनी लड़ाई में बदल गया है।

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