Friday, May 29, 2015

दस प्रतिशत की तरक्की के सपने की मजबूत बनी बुनियाद



नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की आहट भर से भारतीय शेयर बाजार में जबर्दस्त तेजी देखने को मिली थी। पिछले तीन साल से लगातार सत्ताइस से अट्ठाइस हजार के बीच घूमने वाले सेंसेक्स ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में भरोसा दिखाते हुए तीस हजार का जादुई आंकड़ा पार कर लिया। लेकिन, संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में कई अहम बिलों के पास न हो पाने और टैक्स संबंधी मामलों पर अनिश्चितता से ये सवाल खड़ा होता है कि शेयर बाजार के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार कितनी अहम है। और क्या शेयर बाजार की अभी की गिरावट या प्रधानमंत्री बनने की आहट के समय की तेजी से सरकार के एक साल के कामकाज का आंकलन किया जा सकता है। इस सवाल का जवाब निश्चित तौर पर यही है कि भारत पी वी नरसिंहाराव के समय में जिस ग्लोबल विलेज में शामिल हुआ। उससे निश्चित तौर पर शेयर बाजार के संकेत अर्थव्यवस्था की मजबूती या कमजोरी का संकेत देते हैं। लेकिन, यहां एक बात समझनी होगी कि शेयर बाजार के एक दो दिन के कारोबार या एक दो महीने की गिरावट या तेजी से अर्थव्यवस्था में मजबूती या गिरावट का अंदाजा लगाना समझदारी नहीं होगी। नई सरकार के एक साल पूरे होने पर अगर हम शेयर बाजार के अभी के सूचकांकों के जरिये अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत तलाशने की कोशिश करेंगे तो हमें यूपीए के समय से भी ज्यादा निराशा हाथ लग सकती है। उसकी बड़ी वजह पिछले कुछ समय में बाजार में आई जबर्दस्त गिरावट है और इसकी वजह से शेयर बाजार की आशा भरी चमकती कहानी निराशा के बादल में छिपती दिखने लगती है। मोदी सरकार के एक साल के आखिरी एक महीने में शेयर बाजार में जो गिरावट आई है उसने पहले की सारी मजबूती को निगल लिया है। और अब अगर साल भर के शेयर बाजार के आंकड़े को देखें तो, सेंसेक्स और निफ्टी दोनों ही करीब ग्यारह प्रतिशत गिरे हुए नजर आ रहे हैं। तो क्या इंडिया ग्रोथ स्टोरी को मेक इन इंडिया की कहानी समर्थन नहीं दे रही है। मेक इन इंडिया में भरोसा जताने वाले, इंडिया ग्रोथ स्टोरी पर भरोसा जताने वाले खत्म हो गए हैं। इसका जवाब पूरी तरह से ना में है। इंडिया ग्रोथ स्टोरी की चमक अभी भी बनी हुई है। बावजूद इसके कि ढेर सारे आशंका के बादल इस पर मंडरा रहे हैं। और इस इंडिया ग्रोथ स्टोरी पर सबसे बड़ी खतरा तब होता है, जब संसद चल रही होती है। क्योंकि, राजनीतिक नफा-नुकसान का गुणा गणित विपक्ष को सरकार के उन फैसलों के भी खिलाफ खड़ा कर देता है। जिस पर खुद विपक्षी पार्टियां सरकार में होते हुए पूरी तरह आश्वस्त थीं। जीएसटी बिल का सेलेक्ट पैनल को भेजा जाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। भूमि अधिग्रहण बिल को भी इसी नजर से देखा जा सकता है। हालांकि, जिस तरह से संकेत मिल रहे हैं उसमें इन दोनों बिलों के कानून बनने में अड़चन तो होगी लेकिन, इसका पास होना तय है। शेयर बाजार के आंकड़े की बात करें तो भले ही साल भर में भारतीय बाजार का प्रदर्शन बेहतर नहीं दिख रहा है। लेकिन, सच्चाई ये है कि शेयर बाजार को मजबूती देने वाले जो बुनियादी तथ्य हैं वो बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। पिछले महीने भर में इतनी गिरावट के बाद भी भारतीय शेयर बाजार के कारोबार अगर डॉलर के लिहाज से देखें तो ये दुनिया भर में तीसरा सबसे बेहतर बाजार है। सिर्फ ब्राजील और चीन के बाजार ही हैं जो भारतीय शेयर बाजार से बेहतर मुनाफा देने में कामयाब रहे हैं।

नरेंद्र मोदी की सरकार के एक साल के कामकाज की समीक्षा करें तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या दस प्रतिशत की तरक्की का जो सपना भारतीयों ने देखा था। उसकी बुनियाद पिछले एक साल में बनी है या नहीं। ये वो सपना था जिसे मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के तौर पर दिखाया था और मनमोहन सिंह के ही प्रधानमंत्री रहते वो सपना ध्वस्त भी हो गया। दस प्रतिशत की तरक्की का सपना देखने वाले भारत की तरक्की की रफ्तार साढ़े पांच प्रतिशत पर आकर अंटक गई थी। अब एकबार फिर से वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दस प्रतिशत की तरक्की का सपना दिखाया है। भारत सरकार ने 2015-16 के लिए आठ से साढ़े आठ प्रतिशत की तरक्की का लक्ष्य रखा है। दस प्रतिशत की तरक्की का ये सपना भारतीयों के लिए इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि, इस सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते गुजरात ने 2003 से 2012 के दौरान लगातार दस प्रतिशत से ज्यादा की तरक्की की थी। जबकि, उस दौरान भारत की औसत तरक्की की रफ्तार आठ प्रतिशत के नीचे ही थी। और शायद ये नरेंद्र मोदी के पुराने कामों का भरोसा ही है कि दुनिया की महत्वपूर्ण संस्थाओं को ये भरोसा भारत में दिख रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के अनुमान साफ कर चुके हैं कि इसी वित्तीय वर्ष में भारत दुनिया का सबसे तेजी से तरक्की करने वाला देश बन जाएगा। ज्यादातर अनुमानों में भारत की तरक्की की रफ्तार इस वित्तीय वर्ष में साढ़े सात प्रतिशत या उससे ज्यादा रहने वाली है। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष दोनों का ही अनुमान है कि वित्त वर्ष 2016 में भारत की जीडीपी ग्रोथ साढ़े सात प्रतिशत से ज्यादा की होगी। हालांकि, सरकार ने साढ़े आठ प्रतिशत की तरक्की का अनुमान जताया है। जबकि, चीन पीछे छूटता दिख रहा है। चीन की तरक्की की रफ्तार सात प्रतिशत या उससे भी कम रहने का अनुमान है। अनुमानों में चमकती इंडिया ग्रोथ स्टोरी को धरातल पर देखें तो तस्वीर ज्यादा साफ होगी। धरातल पर भी हालात यही है कि सबसे तेजी से तरक्की करने वाले देश में दुनिया के सारे निवेशक रकम लगाने को आतुर हैं। इमर्जिंग मार्केट्स में भारत में ही सबसे ज्यादा विदेशी संस्थागत निवेशक आ रहे हैं। इस साल अब तक एफआईआई यानी विदेशी संस्थागत निवेशक भारत में करीब साढ़े छे बिलियन डॉलर का निवेश कर चुके हैं। इसके बाद मेक्सिको, ब्राजील, साउथ कोरिया और ताइवान का नंबर आता है। और ये भरोसा सिर्फ एफआईआई के मामले में ही नहीं है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई के आंकड़े इंडिया ग्रोथ स्टोरी पर ज्यादा भरोसा साबित करते हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले दस महीने में कुल 25.25 बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है। वित्तीय वर्ष 2013-14 में कुल 19 बिलियन डॉलर से कम का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ था।

दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार के लिए बहुत बड़े विदेशी निवेश की जरूरत है। फिर वो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या फिर संस्थागत विदेशी निवेश। इसलिए किसी भी तरह का विदेशी निवेश अगर भारत में इस तेजी से आ रहा है तो इसका सीधा सा मतलब है कि दुनिया के निवेशकों को इंडिया ग्रोथ स्टोरी भरोसे लायक दिख रही है। इसमें बड़ी भूमिका इस बात की भी है कि भारत में नीतियों में भ्रम की स्थिति अब नहीं रही है। नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार नीतियों के मामले में यूपीए सरकार बहुत ज्यादा साफ और दृढ़ दिखती है। यही वजह है कि दुनिया की रेटिंग एजेंसियां लगातार भारत की रेटिंग बेहतर कर रही हैं। मूडीज ने भारत की क्रेडिट रेटिंग स्टेबल से पॉजिटिव कर दी है। रेटिंग बेहतर करने पर मूडीज का कहना है कि भारत में रुके पड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट तेजी से पूरे होते दिख रहे हैं। और वो अगले साल भर में फिर रेटिंग बढ़ा सकता है। हालांकि, दूसरी रेटिंग एजेंसियों की नजर में अभी भी भारत स्टेबल ही है। एस एंड पी और फिच ने अभी तक भारत को पॉजिटिव रेटिंग नहीं दी है। हां, निगेटिव आउटलुक स्टेबल में बदला है।

नई सरकार के काम का असर साफ-साफ नजर आ रहा है। फरवरी महीने में औद्योगिक रफ्तार पांच प्रतिशत रही है जो पिछले तीन महीने में सबसे ज्यादा है। फरवरी महीने में कैपिटल गुड्स के उत्पादन की रफ्तार आठ प्रतिशत बढ़ी है। इसका सीधा सा मतलब अगर समझें तो, बड़ी मशीनों का ज्यादा उत्पादन हो रहा है। मतलब निर्माण और दूसरी गतिविधियां तेजी से बढ़ी हैं। मार्च महीने में कमर्शियल गाड़ियों की बिक्री में भी तेजी आई है। किसी अर्थव्यवस्था में कारोबारी इस्तेमाल के वाहनों की बिक्री बढ़ने का सीधा सा मतलब अर्थव्यवस्था में तेजी के अच्छे लक्षणों की तरह देखा जाता है। सर्विस सेक्टर में भी बेहतरी के संकेत मिल रहे हैं। सर्विस सेक्टर में इस वित्तीय वर्ष के पहले दस महीने में 2.64 बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है। कुल मिलाकर निर्माण हो या सेवा क्षेत्र, दोनों ही क्षेत्रों में फिलहाल बेहतरी के संकेत मिल रहे हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल के कामकाज में एक बात जो बेहतर हुई है वो है काम करने की आसानी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कारोबारियों को ढेर सारे कागजी चक्करों से मुक्त करने का। अभी तक कारोबार शुरू करने के लिए आठ अलग-अलग फॉर्म भरने पड़ते थे। एक मई से किसी भी कारोबार को शुरू करने के लिए सिर्फ एक फॉर्म की ही जरूरत होगी। कारोबार की राहत के लिए डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रोमोशन की तरफ से तीन हजार करोड़ रुपये तक के विदेशी निवेश प्रस्तावों को कैबिनेट की मंजूरी से छूट देने की भी मांग की है। अभी ये सीमा बारह सौ करोड़ रुपये ही है। भारत सरकार का खजाना नई सरकार में ज्यादा समृद्ध हुआ है। सरकार का विदेशी मुद्रा भंडार 344 बिलियन डॉलर का हो गया है। ये अब तक का रिकॉर्ड है। जिस देश की सरकार को किसी समय सोना गिरवी रखने की नौबत आ गई हो, उस देश के लोगों को ये जानकार राहत होगी कि देश के खजाने में इतनी बड़ी रकम सुरक्षित रखी है।

यूपीए की सरकार में एक बड़ी समस्या नीतियों को लेकर रही। जिसकी वजह से नए प्रोजेक्ट शुरू करने में कारोबारी डरने लगे थे। उनको डर ये था कि प्रोजेक्ट शुरू होने के बाद उससे संबंधित नीतियां बदल न जाएं। और इसका असर पुराने प्रोजेक्ट पर भी पड़ रहा था। ढेर सारे प्रोजेक्ट इसी वजह से शुरू हो ही नहीं पाए थे। अच्छी बात है कि मोदी सरकार में पुराने रुके पड़े प्रोजेक्ट को शुरू करने में तेजी आई है। 2014-15 में करीब दो लाख करोड़ रुपये की रुकी योजनाएं शुरू हुई हैं। जबकि, इससे पहले के साल में सिर्फ सत्ताइस हजार करोड़ रुपये की ही रुकी योजनाएं शुरू की जा सकी थीं। सिर्फ निर्माण क्षेत्र की शुरू हुई योजनाओं की लागत करीब साठ हजार करोड़ है। जो, यूपीए के शासन से साढ़े पांच गुना ज्यादा है। यही बुनियादी परियोजनाओं की बात करें तो करीब छिहत्तर हजार करोड़ रुपये की रुकी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं शुरू हुई हैं। जो, 2013-14 से छे गुना ज्यादा है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि रुकी परियोजनाएं तेजी से शुरू हो रही हैं। साथ में नए प्रोजेक्ट भी तेजी से शुरू हो रहे हैं। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि लोगों को रोजगार के नए मौके मिलने वाले हैं। मोदी सरकार के पहले दस महीने में करीब 1900 प्रोजेक्ट शुरू करने का एलान हुआ है। इन योजनाओं में करीब दस लाख करोड़ रुपये का निवेश होगा। पिछले साल के मुकाबले यानी यूपीए दो शासन के आखिरी साल के लिहाज से देखें तो ये अस्सी प्रतिशत ज्यादा है। सरकार नए भारत के निर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। देश के नौ शहरों में मेट्रो के विस्तार के लिए तिरासी हजार करोड़ रुपये का प्रावधान केंद्रीय सरकार ने किया है। लखनऊ, पुणे, नागपुर, अहमदाबाद, विजयवाड़ा जैसे शहरों के लोगों को जल्द ही दिल्ली-एनसीआर और मुंबई की तरह विश्वस्तरीय मेट्रो सेवा का आनंद मिल सकेगा। ये आंकड़े साफ बता रहे हैं कि दुनिया को ऐसे ही नहीं भारत के भरोसे अर्थव्यवस्था में तेजी की उम्मीद नजर आ रही है।

किसी भी सरकार के बेहतर काम में सबसे बड़ी बात होती है कि आखिर सरकार के अच्छे कामों से उनके अच्छे दिन आ रहे हैं या नहीं। लोगों के लिए अच्छे दिन का सबसे बड़ा पैमाना होता है जरूरी सामानों की महंगाई। पेट्रोल-डीजल के मामलें में लोगों को जबर्दस्त राहत मिली है। दूसरे जरूरी सामानों की महंगाई के मामले में लोगों को बड़ी राहत मिली है। हर पैमाने पर महंगाई घटी है। मार्च 2014 में कंज्यूमर प्राइस इंफ्लेशन करीब साढ़े आठ प्रतिशत था जो, मार्च 2015 में घटकर सवा पांच प्रतिशत के आसपास रह गया है। ये रिटेल महंगाई के आंकड़े हैं। यानी वो महंगाई दर जो हर बाजार में सामान खरीदने पर हमें महसूस होती है। लेकिन, अगर थोक मंडी की बात करें तो, एक साल की इस सरकार में थोक महंगाई दर चमत्कारिक तरीके से घटी है। होलसेल प्राइस इंडेक्स मार्च 2014 में 6 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ता दिख रहा था। जबकि, मार्च 2015 में होलसेल प्राइस इंडेक्स बढ़ने की बजाय घटता दिख रहा है। मार्च 2015 में होलसेल प्राइस इंडेक्स निगेटिव 2 प्रतिशत रह गया है।

महंगाई दर
मार्च 2014
मार्च 2015
CPI
8.31%
5.17%
WPI
6%
-2.06%

महंगाई घटी है और लोगों की जेब में पैसे भी आ रहे हैं। इसका एक अंदाजा कार-मोटरसाइकिल की खरीद से मिलता है। दो साल से कम बिक्री से जूझ रही ऑटो इंडस्ट्री को इस साल राहत मिली है। ऑटो बिक्री में चार प्रतिशत से ज्यादा की तेजी देखी गई है। मारुति ने अप्रैल 2015 में पिछले साल के इसी महीने के मुकाबले सत्ताइस प्रतिशत ज्यादा कारें बेची हैं। टोयोटा ने तिरसठ प्रतिशत, होंडा ने चौदह प्रतिशत, ह्युंदई ने दस प्रतिशत ज्यादा कारें बेची हैं। ये दिखा रहा है कि फिर से भारतीयों की जेब में आने वाली रकम बढ़ी है।

गर्मियों के समय ही नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई थी। और अब गर्मियों में एक साल बाद इस सरकार की समीक्षा हो रही है। ऐसे में बिजली की समस्या कितनी सुधरी, इसकी चर्चा के बिना सरकार के कामकाज की सही समीक्षा नहीं हो सकती। ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल के मुताबिक, सरकार ने पिछले साल भर में साढ़े बाइस हजार मेगावॉट बिजली उत्पादन का काम शुरू किया है। जिससे 2019 तक आपूर्ति होने लगेगी। ये बड़ी उपलब्धि है। सरकार के तौर पर गैस कीमतों को  कुछ इसी तरह की उपलब्धि नितिन गडकरी का परिवहन मंत्रालय भी हासिल करने की कोशिश कर रहा है। परिवहन मंत्रालय ने अगले दो साल में हर दिन तीस किलोमीटर सड़कें बनाने का लक्ष्य रखा है। हालांकि, अभी सरकार इसके आधे लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर सकी है। लेकिन, यूपीए सरकार के प्रतिदिन 3-4 किलोमीटर आसत सड़क बनाने से इस सरकार का एक साल काफी बेहतर रहा है। बिना सड़क और बिजली के प्रधानमंत्री का मेक इन इंडिया धरातल पर नहीं उतर सकता। इसलिए इन दोनों क्षेत्रों में हो रहे काम से ये माना जा सकता है कि नरेंद्र मोदी सरकार के पहले साल में दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार हासिल करने की बुनियाद मजबूत रखने में कामयाब रहे हैं। पक्की बुनियाद रखने का भरोसा नरेंद्र मोदी के विदेश दौर पर साफ नजर आता है। जर्मनी के हनोवर व्यापार मेले में एक तस्वीर की चर्चा भारतीय मीडिया में कम ही हुई। वो तस्वीर थी हनोवर मेले में फॉक्सवैगन की वेंटो कार। वो वेंटो कार जिसको कंपनी भारत के पुणे में बनी कार के तौर पर शोकेस कर रही थी। फॉक्सवैगन अगर जर्मनी के मेले में दुनिया को बता रहा है कि ये भारत में बनी कार है तो ये मेक इन इंडिया की ताकत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भारत में बनी वेंटो कार की खूबियां जर्मनी की चांसलर भी समझ रही थीं। यही मेक इन इंडिया की ताकत है कि बॉम्बार्डियर 450 मेट्रो कोच भारत से तैयार करके ऑस्ट्रेलिया भेज रहा है। दूसरी कंपनी एल्सटॉम ने भी 132 मेट्रो कोच के लिए ऑस्ट्रेलिया से समझौता किया है। ये सभी मेट्रो कोच भारत में ही बनेंगे।

आईएमएफ चीफ क्रिस्टीन लागार्ड ने ऐसे ही नहीं कहा कि भारत काले घने बादलों के बीच चमकता सितारा है। दरअसल भारत में ये ताकत है कि वो दुनिया की अर्थव्यवस्था के घने बादलों को साफ कर सके। लेकिन, इसके लिए एक जो सबसे जरूरी बात है कि सरकारी नीतियों में भ्रम या बार-बार बदलाव की स्थिति न बने। वो देसी और विदेशी दोनों ही निवेशकों, कारोबारियों के लिए जरूरी शर्त है। अभी तक के नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले देखें तो ये भरोसा बनता है। और अगर ये भरोसा बना रहा तो दस प्रतिशत की तरक्की का मनमोहिनी सपना नरेंद्र मोदी की सरकार में पूरा होता दिख सकता है। हालांकि, सरकार के एक साल के आखिरी दो महीने में जो बाधाएं दिखीं वो साफ करती हैं कि इस सरकार का दूसरा साल ज्यादा मुश्किल होगा।
(ये लेख योजना पत्रिका के जून अंक में छपा है।)

Saturday, May 23, 2015

ऊं नम: शिवाय!

लगभग हर रोज इनसे पार्क में मुलाकात हो जाती थी। इनके सामने से कोई आ रहो वो इनसे बच जाए, संभव ही नहीं है। उसे रोककर ऊं नम: शिवाय बोलकर अभिवादन करेंगे और प्रयास ये कि वो भी यही अभिवादन करके आगे बढ़े। दूध का एक डब्बा इनके हाथ में होता है। वेशभूषा से मुझे हमेशा यही लगा कि किसी बगल के गांव के होंगे और सामने की किसी सोसायटी में दूध देने जा रहे होंगे। खैर, ये न पूछना बनता था। न मैंने कभी पूछा। और ये गजब के शिव भक्त हैं। एक दिन तो मैंने देखा एक मोहतरमा अपने कुत्ते के साथ टहल रहीं थीं। उस कुत्ते को भी इन्होंने ऊं नम: शिवाय बोला। मोहतरमा ने भी मुस्कुराते हुए सकुचाते हुए ऊं नम: शिवाय बोला। एक दिन मैं अपने सामने की सोसायटी में गया। अमोली वहां ओडिशी नृत्य सीख रही है। नीचे लॉबी में वो फिर मिल गए। मेरे साथ छोटी बिटिया नवेली भी थी। उन्होंने मुझे ऊं नम: शिवाय कहा मैंने भी वही अभिवादन किया। फिर वो नवेली से ऊं नम: शिवाय का अभिवादन कर रहे थे। नवेली ने ऊं नम: शिवाय नहीं बोला तो, उन्होंने कहाकि बिटिया को घर में मंत्र सिखाइए। मैंने कहा घर में सीखती है। उन्होंने कहा कि ये बड़ी मुश्किल है आजकल के बच्चे इस सबको समझते ही नहीं। उनके मां बाप भी नहीं समझते। हम तो रोज कम से कम सौ लोगों को ऊं नम: शिवाय का जाप करा देते हैं। मैंने पूछा आपका नाम क्या है। उन्होंने कहा ऊं नम: शिवाय नाम से ही सब जानते हैं। मैंने कहा फिर भी कुछ तो नाम होगा। उन्होंने नाम बताया। लेकिन, मैं भू गया। बात करते पता चला कि वो मेरे सामने की सोसायटी में रहते हैं। बेटा इंजीनियर है। उसी के साथ रहते हैं। मूलत: गाजीपुर के यादव जी है। उन्होंने कहा गााजीपुर बनारस की सीमा पर गांव है। अब लगभग पूरा परिवार यहीं आ गया है। दूसरा बेटा नैनीताल में पंप इंजीनियर है।

Sunday, May 10, 2015

बेवकूफ कौन- आम आदमी पार्टी या दिल्ली की जनता?

अरविंद केजरीवाल की एक के बाद एक क्रांतिकारी हरकतों के बाद कई लोग दिल्ली की जनता का मजाक उड़ाते दिख रहे हैं। क्योंकि, दिल्ली की जनता ने साल भर में ही दो बार अरविंद और उनकी आम आदमी पार्टी को सत्ता सौंपी। अब जरा सोचकर देखिए कि दिल्ली की जनता कितनी समझदार है। उसका मजाक उड़ाने वाले मूर्खता कर रहे हैं। लोकतंत्र संतुलित रहे, इसे दिल्ली की जनता ने तय कराया। बीजेपी दिल्ली चुनाव के समय जिस तरह का व्यवहार कर रही थी, क्या उस समय बीजेपी का दिल्ली जीतना लोकतंत्र के लिए बेहतर होता। अरविंद को राजनीति के एक नए प्रयोग के तौर पर दिल्ली की जनता ने परखने की कोशिश की। एक बार अल्पमत में और दोबारा बहुमत में सत्ता देकर। भारतीय राजनीति और लोकतंत्र की यही खूबी है। जब कांग्रेस पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ लोकतंत्र में राजशाही जैसा व्यवहार करने लगी थी। तभी क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हो गया। और ऐसा उदय हुआ कि कांग्रेस को इन क्षेत्रीय पार्टियों के सामने नाक रगड़नी पड़ी। राष्ट्रीय पार्टियों की तानाशाही से क्षेत्रीय पार्टियों के चंगुल में फंसी राष्ट्रीय पार्टियों की सरकार का चक्र पूरा हुआ। लगने लगा था कि अब तो देश में पूर्ण बहुमत की सरकार आने से रही। उत्तर प्रदेश, बिहार से लेकर राष्ट्रीय परिदृष्य तक ऐसा ही दिखने लगा। फिर अचानक उत्तर प्रदेश, बिहार से लेकर राष्ट्रीय सरकार तक परिपक्व लोकतंत्र की परिपक्व जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकारें बनाना शुरू कर दिया।
 फिर लगने लगा कि लोकतंत्र में तो विकल्प ही खत्म हो गया है। 160-180 या अधिकतम 200 के खांचे में पड़ी दिखने वाला बीजेपी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई और देश की स्वयमेय सिद्ध सत्ताधारी पार्टी के तौर पर स्थापित कांग्रेस 44 सांसदों वाला दल बनकर रह गया। महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना का मुकाबला देश ने देखा। उस समय महाराष्ट्र की जनता ने लोकतंत्र परिपक्व करने का काम किया। हरियाणा की जनता ने भी साबित कर दिया कि विकल्प देने में जनता का कोई जोड़ नहीं है। हरियाणा में चमत्कारिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल गया। ये दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बनने से बड़ा चमत्कार था। लेकिन, पहले से बीजेपी भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका में थी। दूसरे राज्यों में बीजेपी की सरकार रही। इसलिए राजनीतिक पंडितों को ये क्रांति नहीं लगी। फिर जब भारतीय जनता पार्टी को ये लगने लगा था कि अब तो जीत के अलावा कुछ कमल के निशान पर होगा ही नहीं। तब दिल्ली की जनता ने वो किया जो, मोदी-शाह की कल्पना से भी परे था। 70 में से 67 सीटें दे दीं। ये परिक्व दिल्ली की जनता का शानदार फैसला था। जो, लोकतंत्र का अद्भुत संतुलन कर रहा था। अब अरविंद अगर उस विकल्प, संतुलन के महत्व को अपनी बेवकूफियों से दरकिनार करना चाह रहे हैं तो, ये दिल्ली की जनता के फैसले की गलती नहीं है। हां, ये जरूर है कि जनता नेताओं को विकल्प देती है। लेकिन, अगर जनता को बेवकूफ समझने की कोशिश की तो, बेवकूफियों को खारिज करती है ये, भारतीय राजनीति में लालू प्रसाद यादव के हश्र से समझा जा सकता है। पता नहीं अरविंद और आम आदमी पार्टी की समझ में अभी ये बात थोड़ा बहुत भी आ रही है या नहीं।

Saturday, May 09, 2015

पप्पू पंडित की दुकान!

वैसे तो ये देखने में जय श्रीराम हनुमान का मन्दिर दिखता है। लेकिन, असल में ये पप्पू पंडित की निजी दुकान है और वो भी पक्का वाला अतिक्रमण करके। नोएडा सिटी सेंटर से सेक्टर 70 चौराहे की और चलेंगे तो, होशियारपुर बाजार के सामने सड़क के बीच की जगह में ये मंदिर बना है। ऐसा मंदिर, मस्जिद या फिर ऐसा कोई भी धर्म स्थान अधर्म को बढ़ावा दे रहा है। अधिकारी भी इसके पक्की तौर हिंदुओं की भावना में बसे श्रीराम, हनुमान हो जाने का इंतजार करेंगे। तब तक नहीं तोड़ेंगे।

Sunday, May 03, 2015

एकाकार!


ये दिल्ली के एक बड़े होटल की तस्वीर है। महिला, पुरुष के लिए प्रसाधन के दरवाजे पर HE या SHE की बजाए M और W लिखा है। लिखावट ऐसी है कि अलग-अलग दोनों एक दूसरे के एकदम उलट दिखते हैं। और थोड़ा समझ लें तो दोनों एक दूसरे के साथ ऐसे फिट हो जाते हैं कि लगता है एकाकार हो गए हैं। बस यही समझ का फर्क है स्त्री-पुरुष के रिश्ते के किसी भी हाल में पहुंचने का।

Saturday, May 02, 2015

मेक इन इंडिया का भगवान है ग्राहक!

ग्राहक भगवान है। ये ज्यादातर दुकानों पर लिखा दिख जाता है। अब थोड़ा आधुनिक भारत में मार्केटिंग के उस्तादों ने कंज्यूमर इज किंग में इसे बदल दिया है। अब कंज्यूमर इज किंग कहें या ग्राहक को भगवान। सच्चाई यही है कि ग्राहक देवता या किंग कंज्यूमर को अगर ठीक से समझ लिया जाए तो मेक इन इंडिया की प्रधानमंत्री की योजना अद्भुत तरीके से अर्थव्यवस्था के हक में असर दिखा सकती है। भारत में कंज्यूमर ड्यूरेबल पूरा सेक्टर है जिसकी तरक्की अगर सही तरीके से हो और इसका सही इस्तेमाल मेक इन इंडिया की महत्वाकांक्षी योजना में हो पाए तो, चमत्कार हो सकता है। देश में कंज्यूमर ड्यूरेबल्स लोगों के खर्च का चालीस प्रतिशत हिस्सा है। और सबसे बड़ी बात ये है कि कंज्यूमर ड्यूरेबल उद्योग जबर्दस्त तरीके से रोजगार के मौके बढ़ाने वाला है। कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री में मिलने वाले हर एक रोजगार के मौके से तीन अप्रत्यक्ष रोजगार के मौके भी बनते हैं। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि अगर कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री में 100 लोगों को रोजगार मिला दिखता है तो, ये सीधे-सीधे चार सौ लोगों को रोजगार मिलता है। देश की कुल उद्योगों की तरक्की में कंज्यूमर ड्यूरेबल की हिस्सेदारी कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कंज्यूमर ड्यूरेबल सेक्टर औद्योगिक तरक्की के सूचकांक में 5.5% हिस्सेदारी रखता है। CAD यानी चालू वित्तीय घाटे को कम करने में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

ग्राहक देवता को साधने की बात मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि, भारत में कंज्यूमर ड्यूरेबल का कारोबार 2015 आते-आते करीब एक लाख करोड़ रुपये में का हो गया है। और इसमें कंज्यूमर ड्यूरेबल सेक्टर के चार सबसे महत्वपूर्ण उत्पादों को ही मैं शामिल कर रहा हूं। टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन और एयरकंडीशनर। और सबसे अच्छी बात ये है कि तेजी से शहरीकरण वाले भारत में इन चारों ही उत्पादों में चमत्कारिक वृद्धि की उम्मीद की जा सकती है। भारत सरकार ने सौ से ज्यादा स्मार्ट शहर बनाने की बात कही है। उस पर काम भी शुरू हो गया है। इसके अलावा भी तेजी से बढ़ती औद्योगिक गतिविधियों की वजह से बड़े शहरों और उससे छोटे शहरों में भी तेजी से इन कंज्यूमर ड्यूरेबल्स का बाजार तेजी से बढ़ा है। और धीरे-धीरे कंज्यूरेबल्स की पहुंच गांवों तक भी बढ़ रही है। इस लिहाज से अगर ये समझना हो कि भारत में कंज्यूमर ड्यूरेबल सेक्टर की तरक्की कितनी हो सकती है तो, इसके लिए पहले दुनिया में कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री की तरक्की की औसत रफ्तार जाननी होगी। कंज्यूमर ड्यूरेबल के चार सबसे महत्वपूर्ण उत्पादों की चर्चा करें तो, एक टेलीविजन का ही बाजार है जहां, भारतीय दुनिया के मुकाबबले में कुछ नजदीक दिखते हैं। मतलब ये हुआ कि भारतीयों के घरों में टीवी की पहुंच तेजी से बढ़ी है। फिर भी दुनिया के मुकाबले ये काफी कम है। भारत में साठ प्रतिशत घरों में टेलीविजन है। जबकि, दुनिया में औसत 89 प्रतिशत घरों में टेलीविजन है। इसका मतलब इस कंज्यूमर ड्यूरेबल इंडस्ट्री में भी अभी तरक्की की काफी संभावनाएं हैं। टीवी के बाद भारतीय दूसरा कोई उत्पाद खरीद रहा है तो वो है रेफ्रिजरेटर। इक्कीस प्रतिशत भारतीयों के घर में फ्रिज है। लेकिन, इसमें तरक्की की अपार संभावनाओं को इससे समझा जा सकता है कि दुनिया में औसत 85 प्रतिशत घरों में फ्रिज है। फ्रिज के बाद भारतीयों के घर में वॉशिंग मशीन का स्थान है। लेकिन, ये इतना कम है कि तरक्की की इसमें संभावनाएं ही संभावनाएं हैं। नौ प्रतिशत से भी कम भारतीयों के घर में वॉशिंग मशीन है। यानी 91 प्रतिशत भारत कपड़े धुलने के लिए अभी भी मशीन का इस्तेमाल नहीं करता है। जबकि, दुनिया में सत्तर प्रतिशत लोग कपड़े धुलने के लिए मशीन का ही इस्तेमाल करते हैं। कंज्यूमर ड्यूरेबल में सबसे ज्यादा संभावनाओं वाला उद्योग है एयरकंडीशनर। भारत में सिर्फ तीन प्रतिशत लोगों को ही अभी एयरकंडीशनर का सुख मिल रहा है। जबकि, दुनिया में औसतन साठ प्रतिशत लोग एयरकंडीशनर की ठंडी हवा ले रहे हैं।

कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र के इन चारों महत्वपूर्ण उत्पादों में तरक्की की जबर्दस्त संभावनाएं हैं। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि पिछले तीन वर्षों में टेलीविजन को छोड़ दें तो, बाकी तीनों उत्पादों का उत्पादन घटा है। सिर्फ टेलीविजन ही है जो, 2012 में सालाना 19 लाख उत्पादन से तरक्की करते हुए 2014 में सालाना 49 लाख तक पहुंचा है। और 2012 से 2013 में तेज तरक्की हुई जो, 19 लाख टीवी सेट से 31 लाख टीवी सेट तक पहुंच गई। हालांकि, टीवी का बाजार तीनों उन्य उत्पादों के मुकाबले लगभग उच्चतम स्थिति तक पहुंच गया है। यानी ये लगभग इसी के आसपास बना रहेगा। रेफ्रिजरेटर का उत्पादन भी 2012 में 77 लाख से बढ़कर 2014 में 84 लाख हो गया लेकिन, साल 2013 के मुकाबले रेफ्रिजरेटर के उत्पादन में 2014 में  गिरावट आई है। 2012 में सालाना 30 लाख वॉशिंग मशीन का उत्पादन हुआ था। 2013 में ये बढ़कर 32 लाख और 2014 में 34 लाख तक पहुंच गया। इस मामले में सबसे कमजोर प्रदर्शन एयरकंडीशनर क्षेत्र का रहा है। 2012 में 17 लाख एयरकंडीशनर का उत्पादन हुआ था। जो, 2013 और 2014 में भी 19 लाख एयरकंडीशनर का ही रहा। यानी सबसे ज्यादा संभावना वाले क्षेत्र में लगभग स्थिरता सी आ गई है।

 मेक इन इंडिया के लिए कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र की इसी स्थिरता को गति देने की जरूरत है। लेकिन, इसके साथ ही एक और संतुलन बेहतर करने की जरूरत है। और वो है कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र के उत्पादों के आयात-निर्यात का संतुलन। क्योंकि, मेक इन इंडिया के जरिए चालू खाते का घाटा भी दूर हो इसके लिए जरूरी है कि आयात-निर्यात का असंतुलन दूर किया जाए। जबकि, सच्चाई ये है कि ये असंतुलन दूर होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। 2012 में टेलीविजन उद्योग ने तीन हजार करोड़ रुपये का सामान आयात किया। जबकि, निर्यात सिर्फ 170 करोड़ रुपये का रहा। 2014 में आयात बढ़कर 3300 करोड़ रुपये का हो गया। जबकि, निर्यात बढ़कर 220 करोड़ रुपये पर ही पहुंचा। एक रेफ्रिजरेटर के मामले ही ये संतुलन बेहतर दिखता है। 2012 में रेफ्रिजरेटर क्षेत्र ने 120 करोड़ रुपये का आयात किया तो, 340 करोड़ रुपये का निर्यात किया। 2014 में आयात बढ़कर 140 करोड़ रुपये हुआ तो, निर्यात भी तेजी से बढ़कर 720 करोड़ रुपये हो गया। वॉशिंग मशीन के मामले में भी आयात-निर्यात का असंतुलन बहुत ज्यादा है। 2012 में वॉशिंग मशीन उद्योग ने 800 करोड़ रुपये का आयात किया। जबकि, निर्यात सिर्फ 22 करोड़ रुपये का रहा। हालांकि, 2014 में आयात घटकर 700 करोड़ हुआ और निर्यात बढ़कर 146 करोड़ रुपये हो गया। लेकिन, अभी भी दोनों के बीच का अंतर तेजी से घटाने की जरूरत है। भारतीय बाजार के लिहाज से सबसे ज्यादा संभावना वाले उद्योग एयरकंडीशनर में ही सबसे ज्यादा आयात-निर्यात का भी असंतुलन है। 2012 में 3800 करोड़ रुपये का आयात 2014 में बढ़कर 4800 करोड़ रुपये सालाना हो गया। जबकि, 2012 में किया गया 351 करोड़ रुपये का निर्यात 2014 में भी 643 करोड़ रुपये तक ही पहुंचा। इसमें भी सबसे ज्यादा चिंता वाली बात ये है इन उद्योगों के लिए ज्यादातर सामान का आयात चीन से ही किया जा रहा है। अब अगर इसी आयात निर्यात के असंतुलन को मेक इन इंडिया उलटने में कामयाब हो जाए तो, हर साल सिर्फ इन्हीं चार उत्पादों से भारतीय अर्थव्यवस्था को शुद्ध दस हजार करोड़ रुपये के चालू खाते के घाटे में कमी आ सकती है। जाहिर है ये आंकड़ा सिर्फ अभी के आयात निर्यात के आंकड़े को उलटने भर से दिख रहा है। अगर भारतीय और दुनिया भर की कंपनियां भारत में सामान बनाती हैं और भारत की पूरी जरूरत के बाद दुनिया की भी जरूरत पूरी करने की वजह मेक इन इंडिया बनता है तो, ये आंकड़ा चमत्कारिक तौर पर बढ़ सकता है।

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Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी  9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...