दिल्ली को देश की राजधानी होने से खास सहूलियत मिली हुई
है। यहां सब खास होते हैं। कमला ये कि उस खास दिल्ली में आम आदमी की बात करके एक
पार्टी सत्ता में पहुंच गई। सत्ता में यूं ही नहीं पहुंच गई, सत्ता में वो आम आदमी
पार्टी नाम रखकर देश की सबसे ईमानदार पार्टी होने का वातावरण तैयार करके पहुंची।
इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बैनर पर अन्ना को चेहरा बनाकर शुरू हुई लड़ाई से निकली
पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने 70 में से 67 सीटें दे दीं।
2 साल से भी कम समय के संघर्ष में खास दिल्ली में राजनीति करने की वजह से अरविन्द
केजरीवाल को देश में बदलाव के सबसे बड़े नेता के तौर पर देखा जाने लगा। लेकिन,
पहले पंजाब, गोवा और अब दिल्ली नगर निगम के चुनाव में तगड़ी हार के बाद अरविन्द को
पूरी तरह से राजनीति में बाहर होता देखा जाने लगा है। सवाल ये है कि क्या
विश्लेषकों ने तब जल्दी की थी या अब जल्दी कर रहे हैं ? सवाल ये भी है कि 2011 से 2017, मात्र 6 साल में किसी
व्यक्ति, पार्टी के इस तरह से सत्ता के शिखर पर पहुंचने और जनता का आकांक्षाओं पर
इतनी बुरी तरह से खरा न उतर पाने का क्या ये अकेला उदाहरण है। जब इस सवाल का जवाब
हम खोजने की कोशिश करते हैं, तो पाते हैं कि ये अकेला उदाहरण नहीं है। ठीक ऐसा ही
एक उदाहरण भारत में ही देखने को मिला। लेकिन, वो उदाहरण देश के पूर्वोत्तर राज्य
से आता है, इसलिए उस पर उतनी चर्चा देश में नहीं हुई।
अरविन्द की आम आदमी पार्टी को सत्ता मिलने में 2 साल से
भी कम का समय लगा। हालांकि, 6 साल से भी कम समय में पराभव की भी बड़ी कहानी लिखी
जा चुकी है। लेकिन, अरविन्द और उनकी आम आदमी पार्टी से भी 3 दशक से ज्यादा पहले
असम में भी ऐसी ही चमकदार कहानी लिखी गई थी। छात्रसंघों से निकले नेताओं की पार्टी
बनी थी, असम गण परिषद। छात्रों ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन बनाकर 1979 से आन्दोलन
करना शुरू किया। आन्दोलन का मुद्दा था असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को
निकाल बाहर करना, उनका नाम मतदाता सूची से बाहर करना। इसी आन्दोलन के दौरान 1983 में
असम में चुनाव हुए और कांग्रेस के हितेश्वर सैकिया मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन, ऑल
असम स्टूडेंट्स यूनियन ने ऑल असम गण संग्राम परिषद के बैनर तले दूसरे संगठनों को
एकजुट करके इसे मानने से इनकार कर दिया। लम्बे समय तक चले शांतिपूर्ण प्रदर्शन के
बाद 15 अगस्त 1985 को असम समझौता हुआ। ऑल असम गण संग्राम परिषद में असम साहित्य
सभा, असम जातीयबादी दल, पूर्बान्चलिया लोक परिषद, असम कर्मचारी परिषद, युवा छात्र
परिषद, असम युवक समाज और ऑल असम सेंट्रल- सेमी सेंट्रल एम्प्लॉई यूनियन के लोग
शामिल हुए थे। राजीव गांधी के साथ आसू का समझौता हुआ और हितेश्वर सैकिया की सरकार
को बर्खास्त किया गया। 14 अक्टूबर 1985 को गोलाघाट में हुई राष्ट्रीय कार्यसमिति
में बाकायदा असम गण परिषद का एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के तौर पर जन्म हुआ और
आसू अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महन्त इसके अध्यक्ष बने। असम गण परिषद ने दिसम्बर 1985
में हुए विधानसभा चुनावों में 126 में से 67 सीटें जीत लीं। साथ ही असम की 14 में
से 7 लोकसभा सीटों से भी असम गण परिषद के प्रतिनिधि चुनकर पहुंचे। दिल्ली की 70
में से 67 के मुकाबले 126 में से 67 सीटें उतनी प्रभावी भले न दिखती हों लेकिन, उस
समय इससे चमत्कारिक जीत लोकतंत्र में नहीं हुई थी। कुछ समय पहले बनी पार्टी ने सत्ता
हासिल कर ली थी। मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महन्त सहित ज्यादातर मंत्री और विधायक
छात्रसंघों के प्रतिनिधि से सीधे जनप्रतिनिधि बन गए थे। पूर्ण बहुमत की सरकार थी,
इसलिए 5 साल चली। लेकिन, 5 साल बाद हुए चुनाव में असम गण परिषद सत्ता से बाहर हो
गई। 1991 में भृगु कुमार फूकन के नेतृत्व में पूर्व केंद्रीय मंत्री दिनेश
गोस्वामी, राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री बृंदाबन गोस्वामी, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष
पुलकेश बरुआ ने मिलकर नई असम गण परिषद बनाकर चुनाव लड़ा। 1992 में ये लोग फिर
पार्टी में आ गए। लेकिन, पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महन्त पर गम्भीर
भ्रष्टाचार और राजनीतिक विरोधियों की हत्या तक के आरोप लगे। पूर्ण बहुमत से
दिसम्बर 1985 में सत्ता में आई असम गण परिषद को 1991 में सिर्फ 19 सीटें मिलीं। खुद
प्रफुल्ल महन्त 2 सीटों से लड़े लेकिन, एक ही सीट से जीत पाए थे। कांग्रेस 66
सीटों के साथ सत्ता में लौटी थी। बीजेपी के 10 विधायक चुनकर आए थे। एजीपी से टूटकर
बनी एनजीएपी के भी 5 विधायक चुनकर पहुंचे थे। हालांकि, 1996 में फिर से संयुक्त असम
गण परिषद में सत्ता में आ गई। असम गण परिषद के 59 और कांग्रेस के 34 विधायक जीते
थे। 2001 से 2016 तक लगातार तीन बार कांग्रेस के तरुण गोगोई मुख्यमंत्री रहे। 2016
में बीजेपी पहली बार असम में सत्ता में आई और सर्बानन्द सोनोवाल मुख्यमंत्री बने। असम
गण परिषद केवल 10 सीटें हासिल कर सकी।
दिल्ली नगर निगम चुनाव नतीजों के बाद जब देश आम आदमी
पार्टी की समीक्षा कर रहा है, तो मुझे असम गण परिषद की कहानी इसीलिए कहना ठीक लगा।
आम आमी पार्टी नगर निगम चुनाव के बाद खत्म हो गई, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन, इतना
तो जरूर है कि जिस ऊंचे भ्रष्टाचार विरोधी, ईमानदार नेता की छवि को लेकर अरविन्द
भारतीय राजनीति में विकल्प के तौर पर दिख रहे थे, वो ध्वस्त हो गया है। ठीक वैसे
ही जैसे अमस गण परिषद ने खुद को असम के हितों को एकमात्र चैम्पियन घोषित कर लिया
था। असम गण परिषद में एक बार 5 साल की सरकार चलने के बाद टूट शुरू हुई थी। अरविन्द
ज्यादा तेजी से सत्ता तक पहुंचे थे, इसलिए इसकी जरा सी भी मलाई वो दूसरे
महत्वाकांक्षी नेताओं को नहीं दे सके। नतीजा योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद
कुमार जैसे नेता शुरुआत में ही नमस्ते हो गए। स्वराज इंडिया नई पार्टी बन गई और
निगम चुनाव भी लड़ गई। अब फिर से आम आदमी पार्टी बाहर गए नेताओं पर थोड़ी नरम दिख
रही है। हो सकता है कल को दोनों कमजोर होकर एक भी हो जाएं। अरविन्द ने विधायकों को
संसदीय सचिव बनाकर लाभ दे दिया। 21 विधायक अयोग्य हो गए तो, दिल्ली विधानसभा की
शकल बदल सकती है। अरविन्द पर नियुक्तियों में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के जमकर
आरोप लगे हैं। आम आदमी पार्टी ठीक उसी रास्ते पर जाती दिख रही हैं, जिस पर चलकर
असम गण परिषद आज 126 विधायकों वाली असम विधानसभा में 10 सीटों पर सिमट गई है। हां,
अब ये जरूर देखने की बात होगी कि क्या अरविन्द को आम आदमी पार्टी से निकालने की
ताकत किसी नेता ने बना ली है। ये थोड़ा मुश्किल इसलिए दिखता है क्योंकि, असम गण
परिषद छात्र आन्दोलन से निकली पार्टी थी, जिसके नेता छात्रसंघों से संघर्ष करके आए
थे, यहां आम आदमी पार्टी ढेर सारे एनजीओ को जोड़कर बनी है। इसीलिए एनजीओ
एक्टिविस्टों से ऐसी उम्मीद मुझे थोड़ी मुश्किल दिखती है। कुल मिलाकर अरविन्द
केजरीवाल अभी भी नहीं सुधरे तो, आम आदमी पार्टी दिल्ली में असम गण परिषद की राह पर
जाती दिख रही है। और इतनी बुरी हार के बाद भी ईवीएम में गड़बड़ी चिल्लाकर अरविन्द
मेरी कही बात को सच करते दिख रहे हैं।