Saturday, July 22, 2017

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‘कृष्णा’ के दौर में भी ‘कृष्ण’ बने रहना मामूली बात नहीं

रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति हो गए। आज रामनाथ की ही चर्चा का समय है। लेकिन, इस समय मैं कृष्ण की बात कर रहा हूं। हालांकि, मैं कृष्ण भगवान की चर्चा मैं कतई नहीं करने जा रहा हूं कि कैसे कृष्ण इस्कॉन और अग्रेजों की संगत में पहुंचकर कृष्णा हो गए हैं। भारत में अभी हाल तक बहुतायत नाम में राम और कृष्ण जरूर लगता था। हालांकि, अब शायद ही कोई बच्चों का नाम राम, कृष्ण के नाम पर रखता हो। लेकिन, बीजेपी के दिग्गज नेता, बुनियाद की सबसे मजबूत ईंटों में से एक लालकृष्ण आडवाणी की पैदाइश उसी दौर की है, जब राम, कृष्ण लगभग हर हिन्दुस्तानी के नाम में लगा रहता था। संयोगवश हमारे पिताजी का नाम भी कृष्ण चन्द्र है। खैर, इस संयोग का अभी मेरे लिखने से कोई वास्ता नहीं है, सिवाय इसके कि उस दौर की पैदाइश वाले तो लगभग सारे ही लोगों के नाम राम, कृष्ण के नाम पर ही होते थे। आज लालकृष्ण आडवाणी की कुछ तस्वीरें भेजी, देखी जा रही हैं, जिसे लेकर सोशल मीडिया में खूब मजाक चल रहा है।
ताजा तस्वीर है राष्ट्रपति चुनाव में मत डालते लालकृष्ण आडवाणी की। इस तस्वीर को लेकर सोशल मीडिया में चुटकुला चल रहा है कि अपनी गर्लफ्रेन्ड की शादी में 101 रुपए का लिफाफा देते लालकृष्ण आडवाणी। एक और तस्वीर है, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी और फारुख अब्दुल्ला का हाथ पकड़े सुषमा स्वराज संसद के गलियारे में दिख रही हैं। ज्यादातर अखबारों ने भी इन दोनों तस्वीरों को छापा है। चूंकि, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों ही राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के दावेदार दिख रहे थे। और फारुख अब्दुल्ला भी विपक्ष के उम्मीदवार हो सकते थे। इसलिए संसद गलियारे में तीनों की एक साथ मिली तस्वीर सोशल मीडिया में चुटकी लेने की पक्की वजह देती है। 2009 के आसपास से भारतीय जनता पार्टी से जुड़े कार्यकर्ताओं को तो लालकृष्ण आडवाणी वैसे ही एक सत्तालोलुप नेता की तरह दिखते हैं। और, उन कार्यकर्ताओं के पास एक पक्का तर्क भी मौजूद है कि आखिर 2009 में तो पार्टी ने आडवाणी को ही चेहरा बनाया था। और, वो मनमोहन सिंह से हार गए। मनमोहन सिंह जैसी गैरराजनीतिक शख्सियत के सामने सीधी लड़ाई में हारने से लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक कद का कितना क्षरण हुआ, इस पर एक स्वतंत्र शोध होने की जरूरत है। लेकिन, इस क्षरण का खतरा खुद आडवाणी का तैयार किया हुआ था। उन्होंने मनमोहन को आमने सामने बहस की चुनौती दे दी थी। लालकृष्ण आडवाणी उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति शैली में भारतीय प्रधानमंत्री का चुनाव कराने के पक्षधर हो चले थे। 
2004 का चुनाव हारने से बीजेपी कार्यकर्ताओं के मनोबल में कोई कमी नहीं आई थी। लेकिन, 2009 में अपने सबसे मजबूत नेता का ऐसे गैरराजनीतिक और कमजोर माने जाने वाले मनमोहन सिंह के सामन हारने से बीजेपी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा। वो मनोबल इस कदर टूटा कि फिर आडवाणी से लेकर देश के किसी भाजपा नेता में उनका भरोसा नहीं बन पा रहा था। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर अकेले नरेंद्र मोदी ही थे जो, बीजेपी कार्यकर्ताओं के लिए उम्मीद की आखिरी किरण थे। इसलिए जब 2013 की सितम्बर में नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनावों के लिए उम्मीदवार बने, तो कार्यकर्ताओं को लगा कि संजीवनी मिल गई। हालांकि, उस समय आडवाणी ने उसका जमकर विरोध किया। इतना कि लगा पार्टी दोफाड़ हो जाएगी। लेकिन, अब ये बात अच्छे से समझी जा सकती है कि आडवाणी कभी बीजेपी को दो हिस्से में करने के बारे में सोच भी नहीं सकते।
भारतीय राजनीति में सफलता के चरण पर स्थापित हो चुकी आज की मोदी-शाह वाली बीजेपी में आडवाणी का चित्र एक सत्तालोलुप नेता या फिर सहानुभूति वाले नेता के तौर पर ही बनता है। लेकिन, बस 2009 से पहले की भारतीय राजनीति, उस समय की भारतीय जनता पार्टी और उसमें लालकृष्ण आडवाणी के बारे में पता करने पर चित्र बदल जाता है। तब आडवाणी का चित्र भारतीय राजनीति के उस महान नेता के तौर पर बनता है, जिसने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की कांग्रेस के विकल्प पर रखी गई बुनियाद पर शानदार इमारत तैयार की। वो नेता जिसने इस देश में राष्ट्रीयता, धर्म को परदे के पीछे की राजनीति से पारदर्शी तरीके से करना शुरू किया। लालकृष्ण आडवाणी को उस नेता के तौर पर याद किया जाना चाहिए, जिसने आगे बढ़कर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपी। अगर आडवाणी को सत्ता का ऐसा मोह रहा होता, तो उस समय आडवाणी बीजेपी के सबसे ताकतवर नेता था। दिल्ली से लेकर हर राज्य तक उन्हीं की तैयार की पौध, पेड़ बन चुकी थी। उसी समय आडवाणी ने पार्टी तोड़ दी होती। लेकिन, आडवाणी अपने राजनीतिक विचार, मूल्य और आदर्शों की राजनीति करने वाले नेता हैं। इसीलिए हर लड़ाई के बाद आडवाणी ने कभी अपने विचार, मूल्य, आदर्श को धूल धूसरित नहीं किया। जाने कितनों को सांसद, विधायक बनाने वाले आडवाणी ने अपने परिवार, बच्चों के लिए कभी कुछ नहीं किया। ये वो लालकृष्ण आडवाणी हैं, जिन्होंने 1996 में जैन डायरी में नाम आने के बाद हवाला का आरोप लगने भर की वजह से इस्तीफा दे दिया था। वो लालकृष्ण आडवाणी आज के दौर में भी कृष्ण बने हुए हैं। ये कहा जा सकता है कि इस उम्र में अब जाएंगे भी कहां। और पार्टी ने उन्हें सबकुछ तो दिया है। इस तरह से सोचने वालों के लिए लालकृष्ण आडवाणी की 89 साल की उम्र सबसे बड़ा आधार बनती है। उनके लिए एक तथ्य ये है कि कांग्रेस के शासन में लगभग सबकुछ हासिल कर चुके एस एम कृष्णा 85 साल के होने के बाद भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। एस एम कृष्णा विदेश मंत्री, राज्यपाल, उप मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री सब रह चुके हैं। ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जिनका जिक्र किया जा सकता है। लेकिन, उसकी शायद जरूरत नहीं है। 2009 के बाद से भारतीय जनता पार्टी और भारतीय राजनीति देखने वालों से विनम्र निवेदन है कि विचार, मूल्य, आदर्श के लिए समर्पित भारतीय राजनीति के इस महानतम नेता का चित्र मजाकिया मत बनाइए। राजनीति के कृष्णा दौर में कृष्ण बने रहना आसान काम नहीं है।

Wednesday, July 19, 2017

मायावती को इस्तीफा देने की याद क्यों आई ?

बहुजन समाज पार्टी के ट्विटर खाते से
ये बात मायावती को लोकसभा चुनाव परिणाम के तुरन्त बाद अच्छे से ध्यान में आना चाहिए था। क्योंकि, उत्तर प्रदेश ने हाथी निशान पर एक भी व्यक्ति को संसद में पहुंचने लायक नहीं माना। चलिए उस समय ध्यान में नहीं आया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे के तुरन्त बाद ये बात पक्के तौर पर ध्यान में आ जाना चाहिए था। लेकिन, उस समय भी मायावती को ये समझ नहीं आया कि वो दलितों की बात नहीं कह पा रही हैं। अब जाकर मायावती को समझ में आया, जब वो लोकसभा चुनाव में साफ हो गईं और विधानसभा में भी बहुजन समाज पार्टी के सिर्फ 19 विधायक चुनकर पहुंचे। 1984 में बीएसपी के अस्तित्व में आने के बाद से पार्टी का इतना बुरा हाल कभी नहीं रहा। 1989 में भी बीएसपी के 2 सांसद चुनकर लोकसभा में पहुंचे थे और 13 विधायक उत्तर प्रदेश विधानसभा में थे। वो उठान पर जाती बीएसपी थी। अब 2014 में बीएसपी का एक भी सांसद लोकसभा में नहीं है और 2017 में सिर्फ 19 विधायक उत्तर प्रदेश में बीएसपी के हैं। बीएसपी के इस हाल पर पुनर्मूषको भवएकदम सटीक बैठता है।
पुनर्मूषको भव होने के बाद भी मायावती को कतई याद नहीं आया कि मायावती दलितों की बात कह नहीं पा रही हैं या फिर दलित सुन नहीं पा रहा है कि वो उनकी बात कह रही हैं। मायावती को ये भ्रम बने रहने की 2 वजहें थीं। पहली बड़ी वजह कि सबके बाद वो देश की सबसे बड़ी दलित नेता थीं। और दूसरी वजह ये कि, उत्तर प्रदेश में भले मायावती की पार्टी के सिर्फ 19 विधायक चुने गए। मायावती की बहुजन समाज पार्टी को 2017 विधानसभा चुनावों में मत प्रतिशत के लिहाज से खास नुकसान नहीं हुआ। बीएसपी को 22.2 प्रतिशत मत मिले। लेकिन, मायावती को डर तब लगना शुरू हुआ जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली बीजेपी ने सबको चौंकाते हुए रामनाथ कोविंद को रायसीना पहाड़ी पर पहुंचाने का फैसला किया। मायावती के लिए ये उबले आलू के गले में अंटक जाने जैसी स्थिति थी। न उगलते बन रहा था, न निगलते बन रहा था। मायावती की प्रतिक्रिया थी- कोविंद जी से बेहतर दलित उम्मीदवार विपक्ष उतारेगा, तो हम उसको समर्थन देंगे। विपक्ष ने मीरा कुमार को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर मायावती को दलित धर्मसंकट से उबार लिया। लेकिन, अन्दर ही अन्दर मायावती को डर लगने लगा था। रामनाथ कोविंद उत्तर प्रदेश के कानपुर से होने और सक्रिय राजनीति में होते भी मायावती को उतना नहीं डरा रहे थे, जितना वो रायसीना पहाड़ी पर बैठने के बाद डराते दिख रहे थे। देश की सबसे बड़ी दलित नेता की पदवी छिनने का डर मायावती को बुरी तरह से परेशान कर रहा था।
इस डर का अन्दाजा राष्ट्रपति चुनाव के दिन भी मिला। 17 जुलाई को मायावती ने कहा- चुनाव कोई भी जीते, राष्ट्रपति एक दलित ही होगा। ये देन किसकी है? ये देन परमपूज्यनीय बाबा साहब अम्बेडकर की है, मान्यवर कांशीराम जी की है। ये देन बहुजन समाज पार्टी की है। मायावती ने राष्ट्रपति चुनाव वाले दिन कहाकि ये सब बहुजन आन्दोलन, पार्टी की जीत है। लेकिन, देश की सबसे बड़ी दलित नेता को देश के सबसे ऊंचे पद पर एक दलित के, वो भी भारतीय जनता पार्टी की राजनीति करते शीर्ष तक पहुंचे, रायसीना पहाड़ी पर विराजने से अपना कद छोटा होने का डर बढ़ने लगा था। ये डर इतना बढ़ा कि दलित के राष्ट्रपति बनने का सारा श्रेय बहुजन आन्दोलन को देने वाली मायावती को राज्यसभा में अहसास हुआ कि दलित की बात सुनी नहीं जा रही है। और अगर अपने समाज की बात ही नहीं रख पा रही हैं, तो उन्हें राज्यसभा में रहने का कोई हक नहीं है। 18 जुलाई 2017 बीएसपी प्रमुख मायावती राज्यसभा से इस्तीफा देने के तुरन्त बाद पत्रकारों से कहा- दलितों के हितों में सहारनपुर जिले में शब्बीरपुर गांव में जो दलित उत्पीड़न हुआ है। और आप लोगों को मालूम है कि मैं दलित समाज से ताल्लुक रखती हूं। जब मैं अपने समाज की बात उधर नहीं रख सकती हूं। सत्ता पक्ष के द्वारा मुझे बोलने का मौका नहीं दिया जा रहा। मंत्री लोग खड़े हो गए। सभी वहां के जो सदस्य है, सत्ता पक्ष के सब खड़े हो गए। मैं समझती हूं कि ये ठीक नहीं हुआ है। तो जब मुझे अपनी बात रखने का सत्तापक्ष मौका नहीं दे रहा है। मुझे बोलने नहीं दिया जा रहा है, तो मैंने आज राज्यसभा से इस्तीफा देने का फैसला किया है। हाउस में भी कहा और अभी मैं माननीय सभापति जी इस्तीफा देकर आ रही हूं। दलितों की बात राज्यसभा में न कह पाने की टीस के साथ मायावती ने उस राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया है, जिस पर अप्रैल 2018 के बाद उनका रह पाना वैसे भी सम्भव नहीं दिखता है। क्योंकि, अब उन्हें राज्यसभा में पहुंचाने के लिए जरूरी विधायक ही उनके पास नहीं हैं। हालांकि, मायावती को ये बात बहुत देर से समझ आई कि वो दलितों की बात ही नहीं रख पा रही हैं। लेकिन, अच्छी बात ये है कि विपक्ष को इससे एक जुड़ाव बिन्दु मिल गया है। नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी की बढ़ती शक्ति से परेशान विपक्ष एकजुट हो सकता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय जनता दल के कोटे से लालू प्रसाद यादव उन्हें बिहार से राज्यसभा में भेजने की बात कह रहे हैं। नरेंद्र मोदी के एकछत्र राज के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक नई गोलबन्दी की बुनियाद मायावती बनती दिख रही हैं। हां, विपक्ष का ये बड़ा संकट जरूर हो सकता है कि जरा सा सन्जीवनी मिलते ही मायावती किस तरह से व्यवहार करेंगी। क्योंकि, कांशीराम की विरासत को आगे बढ़ाने वाली मायावती का भी इतिहास किसी के साथ मिलकर 4 कदम चलने का नहीं रहा है। लेकिन, अभी के हालात में मायावती के पास लालू प्रसाद यादव के महागठबन्धन फॉर्मूले को स्वीकारने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन, राजनीतिक मजबूरी में बन रहे इस विपक्षी गठजोड़ की सफलता इसी पर निर्भर करेगी कि पार्टियों और नेताओं के मिलन से आगे ये जनता से मिलने का कोई कार्यक्रम ये बनाएंगे या सिर्फ बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के दलित के घर जाने के कार्यक्रम में मीनमेख निकालकर ही अपना काम चलाएंगे। 
(ये लेख QuintHindi पर छपा है)

Tuesday, July 18, 2017

मोदी के पीएम बनने के बाद अडानी के भाव गिरे!

हिन्दुस्तान में हर आदमी एक बात पक्के तौर पर जानता है। वो बात ये है कि अडानी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दोस्त हैं। इसी आधार पर वो हिन्दुस्तान का हर आदमी ये भी जानता है कि देश के प्रधानमंत्री से दोस्ती का फायदा अडानी की कम्पनियों को जमकर मिलता रहता है। कई लोग तो चौक-चौराहे पर खड़े ऐसे बात करते हैं, जैसे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अडानी की कम्पनियों के भाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से अडानी को फायदा मिलने की ये जो धारणा देश के लोगों में बनी है, उसके पीछे बहुत मजबूत आधार हैं। नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते अडानी समूह ने गुजरात में कई बड़ी परियोजनाओं को तेजी से पूरा किया। और जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने की यात्रा शुरू कर रहे थे, तो शेयर बाजार में गौतम अडानी के अडानी समूह को तो जैसे पंख लग गए थे। नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का असर था कि 13 सितम्बर 2013 को जिस अडानी एंटरप्राइजेज का बाजार भाव 141 रुपये था, वही अडानी एंटरप्राइजेज 2014 में लोकसभा चुनाव होने के ठीक पहले के महीने यानी अप्रैल 2014 में 471 रुपये पर बिक रहा था। अडानी समूह की मुख्य कम्पनी अडानी एंटरप्राइजेज के साथ अडानी समूह की दूसरी कम्पनियों को भी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ बढ़ने का जबरदस्त फायदा मिला था। मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मदवारी के दिन यानी 13 सितम्बर 2013 को अडानी पावर की भाव 36 रुपये था और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी के नजदीक पहुंचते तक अडानी पावर 53 रुपये से ज्यादा का हो गया। अडानी एंटरप्राइजेज और अडानी पावर की ही तरह अडानी पोर्ट्स एंड एसईजेड को भी इसका अच्छा खासा फायदा मिला था। 13 सितम्बर को 136 रुपये वाला अडानी पोर्ट्स एंड एसईजेड अप्रैल 2014 में ही 196 रुपये का बिकने लगा था।
अब इस मजबूत आधार पर कोई भी अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाकर बता सकता है कि इस समय अडानी की कम्पनियों का भाव आसमान पर होना चाहिए। लेकिन, जरा अपनी कल्पना के घोड़े को लगाम लगाइए। दरअसल, बाजार सब धीरे-धीरे बराबर कर देता है। ऐसा ही कुछ अडानी समूह की कम्पनियों के साथ भी हुआ। गौतम अडानी के दोस्त नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, तो अडानी को फायदा होगा। इस भावना को बाजार ने हाथोंहाथ लिया। लेकिन, एक बार जब मई 2014 को नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए, तो बाजार ने अडानी की कम्पनियों का कम्पनी के आधार पर मूल्यांकन करना शुरू कर दिया। बाजार की भाषा में कहें, तो कम्पनी ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस आधार को अडानी के सन्दर्भ में डिस्काउंट कर दिया।
अब अडानी समूह की कम्पनियों की शेयर बाजार में आंकी जा रही हैसियत की बात कर लेते हैं। अडानी एंटरप्राइजेज की कीमत जुलाई 2013 में 216.15 जुलाई 2014 में 492.70 और 26 मई 2014 को अडानी एंटरप्राइजेज सबसे ऊंचे भाव पर पहुंचा। 22 मई 2015 को अडानी एंटरप्राइजेज का भाव 794.75 के भाव पर बिका। लेकिन, जून 2015 से अडानी एंटरप्राइजेज का भाव जो तेजी से गिरना शुरू हुआ, तो अभी तक संभल नहीं सका है। आज जुलाई 2017 में अडानी एंटरप्राइजेज 140 रुपये के नीचे बिक रहा है। यानी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद करीब 500 रुपये का बिक रहा अडानी एंटरप्राइजेज का शेयर आज 140 रुपये के आसपास बिक रहा है।
अडानी समूह की दूसरी महत्वपूर्ण कम्पनी है अडानी पावर। अडानी पावर के एक शेयर की कीमत जुलाई 2013 में 42.60 रुपये थी। जुलाई 2014 में इसमें अच्छी तेजी देखने को मिली और इसका  भाव 65.35 रुपये हो गया। इसके बाद तो अडानी पावर से जैसे सारा पावर ही खत्म हो गया।  जुलाई 2015 में अडानी पावर के शेयरों का भाव भी तेजी से गिरता दिखा। जुलाई 2015 में अडानी पावर का एक शेयर 29 रुपये से कम में मिल रहा था। आज की तारीख में यानी जुलाई 2017 में भी अडानी पावर के शेयर 30 रुपये से कम में ही मिल जा रहा है। यानी मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अडानी पावर के जिन शेयरों का भाव 65 रुपये के ऊपर पहुंच गया था, आज वही शेयर 30 रुपये से भी कम में मिल रहा है, मतलब आडानी पावर का भाव आधे से भी कम हो गया। हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि अडानी का भाव एकदम ही गिर गया हो। अडानी समूह की कम्पनी अडानी पोर्ट्स एंड स्पेशल इकोनॉमिक जोन का भाव बढ़ा है। अडानी पोर्ट्स एंड स्पेशल इकोनॉमिक जोन के शेयर की कीमत जुलाई 2013 में 151.55 रुपये थी। 2014 जुलाई की शुरुआत में इन शेयरों की कीमत 270 रुपये के पार चली गई। जुलाई 2016 में शेयरों के भाव गिरकर 200 रुपये के आसपास पहुंच गए। आज की तारीख में अडानी पोर्ट का शेयर 340 रुपये के आसपास बिक रहा है। कुल मिलाकर अगर हम विश्लेषण करें, तो मोदी के पीएम बनने का अडानी को फायदा कम है, नुकसान ज्यादा।

Monday, July 17, 2017

क्रूर मशीनी देश चीन मानवता के लिए खतरा है



चीन मानवता के लिए ख़तरा है। वहाँ के नागरिक मानव नहीं, मशीन हो चुके हैं। किसी भी विचार के लिए वहाँ जगह ही नहीं है। कल प्रभाष प्रसंग में शामिल होने सत्याग्रह मण्डप में था। सामने हरी घास पर पीले कपड़ों में कुछ लोग योग जैसा कुछ कर रहे थे, चाइनीज़ जैसी भाषा में लिखा था। मैंने एक से पूछा- ये चीनी योग है क्या? जवाब मिला- शाक्य मुनि की परम्परा को चाइनीज़ मास्टर ने आगे बढ़ाया है। चीन ने इस प्रतिबन्धित कर दिया है। 1999 में चीन ने करोड़ों चीनियों को गिरफ़्तार कर लिया, नौकरी से निकाल दिया गया। स्कूल, घर सबसे बाहर कर दिए गए, सिर्फ इस वजह से कि वो लोग फालुन दफ़ा के साधक थे। क़रीब 10 लाख लोग अभी भी चीन में इस वजह बन्धक हैं। क्रूर यातना के शिकार हुए। वामपन्थी बुनियाद पर तैयार हुआ चीन ऐसा ही हो चुका है। वहाँ सुधार की उम्मीद कितनी ख़त्म है, इसका इसी से लगाइए कि वहाँ वामपन्थ की ही गुन्जाइश सबसे पहले ख़त्म हुई। मानव से मशीन में तब्दील हो चुका इतनी बड़ी आबादी वाला देश पूरी दुनिया के लिए ख़तरा है। मशीनें हमेशा पहली नज़र में मानव से ताक़तवर दिखती हैं लेकिन, मानव मस्तिष्क ही हर मशीन का जनक (बाप) होता है। इसलिए मशीन डरा सकती है लेकिन, मनुष्य से जीत नहीं सकती है। फालुन दफ़ा एक उदाहरण है, ऐसे उदाहरणों को लिपिबद्ध करने पर ग्रन्थ तैयार हो जाएगा। जरूरी है चीनी मशीनों को दुनिया के मानव उनकी औकात बताएँ। भारत को क़तई भूटान की तरफ़ आने वाली चीनी मशीनों के रास्ते से हटना नहीं चाहिए।

Thursday, July 13, 2017

जीएसटी से जरूरी सामान सस्ते होंगे

जीएसटी को लेकर सबसे बड़ा खतरा यही बताया जा रहा था कि इससे महंगाई बढ़ेगी। इस महंगाई के बढ़ने की डर दिखाकर उन कारोबारियों ने भी जमकर प्री जीएसटी सेल लगा रखी थी, जो जीएसटी को कारोबारियों के लिए मुश्किल बताकर इसके विरोध में सांकेतिक दुकान भी बन्द कर चुके थे। कार कम्पनियों ने भी ग्राहकों को डराकर प्री जीएसटी सेल में काफी गाड़ियां बेच लीं। लेकिन, अब समझ में आ रहा है कि प्री जीएसटी सेल में खरीद करने वाले ज्यादातर लोग घाटे में रहे होंगे। क्योंकि, ज्यादातर जरूरी सामान जीएसटी के बाद सस्ते हो गए हैं। फोन और कार भी आज के मध्यवर्ग के लिए जरूरी सामानों में ही आता है। इसके अलावा भी जरूरी सामान कैसे सस्ते हुए हैं, इसका अन्दाजा 30 जून की रात 12 बजे से शुरू हुई बिग बाजार जीएसटी सेल से ही पता चल गया। इलाहाबाद जैसे देर शाम उनींदे हो जाने वाले शहर से सारी रात जागने वाली मुम्बई तक में लोग बिग बाजार की जीएसटी सेल में कतार में लगे थे। 1 जुलाई की सुबह वही कार कम्पनियां जो एक दिन पहले तक जीएसटी का डर दिखाकर कारें बेच लेना चाह रही थीं, अब बता रही थीं कि जीएसटी के बाद उनकी कम्पनी की कार कितनी सस्ती हुई है। आईफोन भी सस्ता हो गया।
एक भ्रम ये भी था कि ज्यादा महंगी कारों को जीएसटी सस्ता करेगा लेकिन, छोटी और मध्यवर्ग की पहुंच वाली कारें सस्ती नहीं होंगी। ये भ्रम भी टूटा है। हाइब्रिड कारों को छोड़कर सभी कारें सस्ती हुई हैं। हाइब्रिड कार खरीदने वाले जीएसटी के बाद घाटे में हैं। उदाहरण के लिए टोयोटा की हाइब्रिड कैमरी की जीएसटी के पहले दिल्ली में कीमत 31.98 लाख थी जो, जीएसटी के बाद करीब 17 प्रतिशत ज्यादा हो गई है। अब ये कार दिल्ली में 37.23 लाख की मिलेगी। लेकिन, हाइब्रिड कार खरीदने वाले देश में बहुत कम लोग हैं। टोयोटटा कम्पनी की ही एसयूवी फॉर्च्यूनर करीब 9 प्रतिशत सस्ती हो गई है। दिल्ली में जो टोयोटा फॉर्च्यूनर 31.86 लाख की थी, अब वही गाड़ी 29.18 लाख में ही मिल जाएगी। इस उदाहरण से ये भ्रम भी हो सकता है कि सिर्फ बड़ी गाड़ियां ही सस्ती हुई हैं। लेकिन, ऐसा नहीं है। मारुति की डिजायर कार करीब 2000 रुपये सस्ती हुई है और मारुति की छोटी कार ऑल्टो भी 1000 रुपये सस्ती हुई है। मारुति की कारें अधिकतम 3 प्रतिशत तक सस्ती हुई हैं। ह्युंदई और निसान ने भी अपना कारों की कीमत घटा दी है। फोर्ड ने करीब 4.5 प्रतिशत दाम घटाए हैं और रेनो ने तो 7 प्रतिशत तक अपनी गाड़ियां सस्ती कर दी है। होन्डा की भी कारें सस्ती हो गई है। कुल मिलाकर पूरे ऑटो सेक्टर के लिए और कार खरीदने वाले ग्राहकों के लिए जीएसटी खुशखबरी लेकर आया है।
फोन खरीदने वालों के लिए भी जीएसटी अच्छी खबर लेकर आया है। आईफोन खरीदने वालों के लिए बेहद अच्छी खबर है। क्योंकि, एप्पल ने आईफोन के साथ अपने लैपटॉप और टैब की कीमत भी काफी कम कर दी है। दूसरी मोबाइल कम्पनियों ने भी 5-10 प्रतिशत तक की कटौती की है।
रियल एस्टेट को अभी इससे बाहर रखा गया है। हालांकि, बहुत से बिल्डर जीएसटी के नाम पर ग्राहकों से ज्यादा वसूलने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि, इस मामले में वित्त मंत्री ने स्पष्ट किया है कि ग्राहकों से ज्यादा रकम वसूलने वाले बिल्डरों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। अभी जो घर बन रहे हैं, उसमें ज्यादा टैक्स लगेगा। क्योंकि, जीएसटी लागू होने के बाद करीब 1 प्रतिशत टैक्स बढ़ गया है। लेकिन, बिल्डर इसका इनपुट टैक्स क्रेडिट हासिल कर सकते हैं। कुल मिलाकर जीएसटी लागू होने के बाद बिल्डर के घर बनाने की लागत कम होगी। अब बड़ा सवाल यही है कि क्या बिल्डर इनपुट टैक्स क्रेडिट से मिला फायदा ग्राहक को देते हैं या नहीं।
घर, गाड़ी फोन की कीमतों पर जीएसटी के बाद क्या असर पड़ रहा है, ये समझ में आया। लेकिन, सबसे जरूरी ये समझना है कि रोजाना की जरूरतों का सामान सस्ता हो रहा है या महंगा। इसका जवाब खोजने के लिए 2 जरूरी तथ्य हैं। पहला राजस्व सचिव हंसमुख अधिया के मुताबिक, 81 प्रतिशत सामान पर 18 प्रतिशत या उससे कम टैक्स लगेगा। अभी तक ऐसे ज्यादातर सामानों पर 19 प्रतिशत से ज्यादा टैक्स लगता था। दूसरा सब्जी, दूध, अंडा, आटा और ऐसे 149 श्रेणी के सामानों पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। 149 श्रेणी में आने वाले सारे सामानों को जीएसटी में शून्य कर के दायरे में रखा गया है। फल, सब्जी, अनाज सब इसी श्रेणी में आते हैं। इससे किचन के बजट पर बुरा असर पड़ने वाली आशंका लगभग खत्म हो गई है। चाय की पत्ती, खाने का तेल, कपड़ा और बच्चों के उपयोग के सामान पर 5 प्रतिशत टैक्स रखा गया है। घी, मक्खन, बादाम और फ्रूट जूस पर जीएसटी में 12 प्रतिशत कर लगेगा। जबकि, हेयर ऑयल, टूथपेस्ट, साबुन, आइसक्रीम और प्रिन्टर पर 18 प्रतिशत कर लग रहा है।

जीएसटी को लेकर व्यापारियों की तरफ से विरोध की खबरें आ रही हैं। लेकिन, जीएसटी को लेकर सरकार जिस तरह से तैयार दिख रही है और जितनी पारदर्शिता से सभी सामानों पर लगने वाले जीएसटी के बारे में हर किसी को बता दिया जा रहा है, ऐसा भारत में पहले कभी नहीं हुआ। हां, इतना जरूर है कि भारत में व्यापारियों को अब हर खरीद-बिक्री को पारदर्शी रखना होगा। उस पर कर चुकाना होगा। लम्बे समय से भारत के व्यापारियों को इस तरह से पारदर्शी तरीके से काम करने की आदत नहीं रही है और इसीलिए व्यापारी पहली नजर में इसका विरोध करते दिखते हैं। कुछ जानकार इसे भारतीय जनता पार्टी के सबसे मजबूत आधार मतदाता वर्ग यानी व्यापारी के नाराज होने के तौर पर भी देख रहे हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने जितने भी फैसले लिए हैं, वो पहली नजर में लोगों के खिलाफ दिखते हैं। लेकिन, ज्यादातर मामलों में अन्त में लोगों की बेहतरी ही हुई है। और मैं निजी तौर पर मानता हूं कि जीएसटी के मामले में भी ऐसा ही होगा। क्योंकि, जब व्यापारी पर कर चुराकर मुनाफा बढ़ाने के बजाय कर चुकाकर मुनाफा बढ़ाने का आसान रास्ता होगा, तो वो भला कठिन और अपमानजनक रास्ता क्यों चुनेगा। कुल मिलाकर जीएसटी आजाद भारत का सबसे बड़ा सुधार साबित होने जा रहा है। और इसके परिणाम भी सभी के लिए बेहतर होंगे। ग्राहक, व्यापारी, टैक्स विभाग से लेकर देश की अर्थव्यवस्था के लिए जीएसटी अच्छे दिन लाने वाला दिख रहा है। हर बार प्रधानमंत्री के फैसलों को लेकर विपक्षी इस भरोसे में रहते हैं कि इससे जनता मोदी के खिलाफ होगी लेकिन, हर बार मोदी अपने फैसलों से जनता का भरोसा और ज्यादा जीत लेते हैं। जीएसटी भी ऐसा ही एक फैसला साबित होता दिख रहा है। 
(ये लेख SPMRF के eJournal में छपा है। )

Tuesday, July 11, 2017

हिन्दुस्तान में इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ खुली लड़ाई का वक्त

बाबा बर्फानी के दर्शन के लिए गए 7 हिन्दू श्रद्धालुओं को इस्लामी आतंकवादियों ने मार डाला। मारे गए 7 हिन्दू श्रद्धालुओं में से 6 महिलाएं हैं। इन हत्याओं से इस्लामिक आतंकवाद का वो खतरा सामने आ गया है, जिसे भारत की सरकारें, राजनीतिक दल, समाज और हिन्दू-मुसलमान भी मानने को तैयार नहीं हैं। इस्लामिक आतंकवाद पर लम्बे समय से भारत की सरकार, राजनीतिक दल और कश्मीर की सरकार और राजनीतिक दलों ने आंखें मूंद रखी थीं। भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने से और कश्मीर में घाटी में लगभग मुसलमान रह जाने की वजह से कोई भी राजनीतिक दल या सरकार कश्मीर घाटी में हो रही आतंकवादी घटनाओं को इस्लामी कहने का खतरा मोल नहीं लेना चाह रही थी। हालांकि, हिज्बुल मुजाहिदीन के कमान्डर रहे जाकिर मूसा ने इस्लामी आतंकवाद के सारे आवरण उतार दिए। मूसा 4 मिनट के वीडियो में साफ कह रहा है कि भारतीय मुसलमान दुनिया के सबसे कायर मुसलमान हैं। हम इस्लाम का राज कायम करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। हम कश्मीरियत को बचाने की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। कश्मीर में कोई राजनीतिक लड़ाई हम नहीं लड़ रहे हैं। हम इस्लाम की लड़ाई लड़ रहे हैं। और इसके रास्ते में जो भी आएगा, उसे इसका परिणाम भुगतना होगा। हिज्बुल के कमान्डर रहे जाकिर मूसा ने अल कायदा का हाथ थामने के बाद जारी वीडियो में यही सब बातें कही हैं। गजवा ए हिन्द की बात लम्बे समय से कही जा रही थी। जिसकी बात पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी करते रहे हैं। पहली बार ये बात इतने साफ तौर पर किसी आतंकवादी ने खुद कबूली है।
इस्लामिक आतंकवाद को नकारने की कोशिश
जाकिर मूसा के वीडियो और अयूब पंडित की हत्या के बाद इतना तय है कि इस इस्लामिक आतंकवाद के शिकार हिन्दू होंगे, ऐसा सोचने वाले गलतफहमी के शिकार हैं। और आतंकवादियों के इस्लामिक राज में मुसलमानों के लिए धरती जन्नत हो जाएगी, ऐसा समझने वालों से बड़ा बेवकूफ धरती पर कोई नहीं। सीरिया और इराक 2 सबसे बड़े उदाहरण हैं, जहां इस्लामिक आतंकवाद ने सिर्फ मुसलमानों को मारा है। इस इस्लामिक आतंकवाद की वजह से दुनिया के किसी भी देश में मुसलमान सन्देह के दायरे में हैं। यहां तक कि वो मुसलमान भी जो बेचारा सीरिया या इराक से इस्लामिक आतंकवाद का शिकार होने से बचकर भाग निकला। उसकी वजह बड़ी साफ है मुसलमानों ने लम्बे समय तक इस्लामिक आतंकवाद को मानने से ही इनकार कर दिया। आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, ये एक ऐसा अचूक मंत्र है, जिसके आवरण में आतंकवाद का कट्टर इस्लामिक चेहरा ढंक दिया जाता है।
इस्लामिक आतंकवाद कैसे घाटी में जगह बना चुका है। इसका उदाहरण सिर्फ जाकिर मूसा का वीडियो नहीं हैं। पत्रकार रवीश रंजन शुक्ला का लिखा इस्लामिक आतंकवाद को नकार रहे हिन्दुस्तान की तस्वीर पेश करता है। वो लिखते हैं बुरहान वानी को चे ग्वेरा मानेंगे और सेना के जनरल की तुलना जनरल डायर से करेंगे... हम कहेंगे तीर्थयात्रियों पर ये हमला आजादी की जंग है। बुरहान वानी को सेना ने मार गिराया। बुरहान वानी घाटी में एक ऐसे आतंकवादी कमांडर के तौर पर उभरा था, जिसने घाटी के नौजवानों को कट्टर इस्लामिक आतंकवाद की तरफ आकर्षित किया। सोचिए उस देश में क्या हो सकता है, जहां बुरहान वानी जैसे आतंकवादी के साथ सहानुभूति करके भी राजनीतिक फायदा लेने की कोशिश राजनीतिक पार्टियां करती हों। सेना पर ही सवाल खड़ा किया जाए। इस तरह की छोटी-छोटी लगातार हुई घटनाओं ने घाटी में इस्लामिक आतंकवाद को मजबूत किया है। और ये इस्लामिक आतंकवाद कैसे हिन्दुस्तान में घुस चुका है। इसका पता हमें तब चलता है, जब देश के अलग-अलग हिस्सों से सीरिया में इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने कुछ हिन्दुस्तानी मुसलमानों के जाने की खबर आती है।
घाटी में मजबूत होता इस्लामिक आतंकवाद
लम्बे समय से कश्मीर घाटी में वहाबी/सलाफी इस्लाम मजबूत हो रहा था। मूर्ख किस्म के विश्लेषक ये कहते रहते हैं कि कश्मीर घाटी में बीजेपी-पीडीपी की सरकार के गलत फैसलों की वजह से हिंसक घटनाएं बढ़ी हैं। जबकि, सच्चाई ये है कि पीडीपी-बीजेपी की सरकार ने कश्मीरियत के खिलाफ कोई फैसला नहीं लिया है। हां, इस्लामिक आतंकवादियों को मारने का फैसला जरूर हुआ है। इस फैसले ने चुपचाप इस्लामिक आतंकवाद फैला रहे कट्टर मुसलमानों को विचलित कर दिया। इस कदर कि उन्होंने भारतीय मुसलमानों को ही कायर कह दिया। दरअसल अरब से आया शुद्ध इस्लाम कहता है कि वहाबी/सलाफी के अलावा सारे मुसलमानों को भी शुद्ध करने की जरूरत है। इस्लामिक आतंकवादी बार-बार ये बात कह रहे हैं कि ये सच्चे मुसलमान और गैर मुसलमान की लड़ाई है। सच्चा मुसलमान कौन ? सच्चा मुसलमान वो जो सच्चा इस्लाम माने और सच्चे इस्लाम में गैर मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। यानी अगर कोई मुसलमान भी सच्चा इस्लाम नहीं मान रहा है, तो उसके लिए इस्लामिक आतंकवाद रियायत नहीं देता। अब तो छुट्टी पर जाने वाले पुलिस और सेना के मुसलमान अधिकारियों को मारा जा रहा है। इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को भी मारा जा रहा है। इसका ताजा उदाहरण शब ए कदर की रात की तकरीर के दौरान डीएसपी अयूब पंडित को पीटकर मारा जाना है। डीएसपी पंडित मारवाइज उमर फारुक के साथ सुरक्षा में थे। मीरवाइज मस्जिद में अन्दर तकरीर देते रहे और बाहर भीड़ ने डीएसपी पंडित को पीटकर मार डाला। डीएसपी के शव पर रोते हुए भतीजी चीख रही थी- हां, हम भारतीय हैं, हम भारतीय हैं। उन्होंने हमारे अंकल को मार दिया।  
2003 में संयुक्त हुर्रियत कांफ्रेंस में विघटन के बाद वहाबी/सलाफी इस्लाम का विस्तार तेजी से हुआ। उसके बाद के एक दशक में ये विस्तार तेजी से हुआ। अरब के पैसे से फल फूल रहा वहाबिज्म नौजवानों को आकर्षित करने लगा। बताया जाता है कि कश्मीर घाटी में कुल 7500 मस्जिदें हैं, इनमें सबसे ज्यादा हनाफी मस्जिदें हैं। जबकि, 200 के आसपास सूफी दरगाह हैं। और करीब 1000 मस्जिदें ऐसी हैं, जो वहाबी प्रभाव वाली हैं। यही मस्जिदें हैं, जहां से सच्चे इस्लाम का राज कायम करने की तकरीरें दी जाती हैं। वहाबी प्रभाव वाली मस्जिदों का विस्तार पिछले डेढ़ दशक में बहुत तेजी से हुआ है। लेकिन, जम्मू कश्मीर और केंद्र की सरकार ने अभी भी इस कट्टर इस्लामिक विस्तार पर जानते हुए भी आंखें मूंद रखी थीं।
इस्लामिक आतंकवाद से अनजान नहीं है जम्मू कश्मीर की सरकार
बुरहान वानी की मौत के बाद घाटी के बिगड़े माहौल के बीच जम्मू कश्मीर के उप मुख्यमंत्री निर्मल सिंह से मेरी एक मुलाकात हुई थी। मैंने उनसे पूछा कि सरकार की क्या योजना है ? उन्होंने कहा- हालात कठिन हैं। कोई सीधा और तुरन्त वाला रास्ता नहीं है। निर्मल सिंह ने बताया कि शान्ति वाले इस्लामिक पन्थ को मजबूत करके हम कट्टर इस्लाम से लड़ेंगे। उदाहरण के तौर पर निर्मल सिंह ने चरारे शरीफ दरगाह को गोद लिया है। लेकिन, इतने भर से अब बात नहीं बनने वाली। सरकार में बैठे लोगों से लेकर समाज तक को ये खुलकर बोलना होगा। कट्टर इस्लामिक खतरे के बारे में शाहिद सिद्दीकी साफ-साफ कहते हैं। शाहिद सिद्दीकी लिखते हैं मैं लम्बे समय से घाटी में सूफी को खत्म करके बढ़ रहे वहाबी खतरे के बारे में चेता रहा हूं। दुर्भाग्य ये है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दल वहाबियों को समर्थन दे रहे हैं। वो आगे लिखते हैं कश्मीर कब तक खुद का इस्तेमाल पाकिस्तानी आतंकवादियों को करने देगा। आईएसआईएस ने इराक और सीरिया को खत्म कर दिया। अब वो कश्मीर खत्म कर देंगे। दुर्भाग्य से अभी भी किसी भी राजनीतिक दल ने अमरनाथ यात्रियों की हत्या पर इस्लामिक आतंकवाद और वहाबी इस्लाम पर लानत नहीं भेजा है। ये चिन्ता की बात है।
भारतीय मुसलमान कायरता छोड़े

सचमुच भारतीय मुसलमान आतंकवादी जाकिर मूसा के लिए चिन्ता की वजह है। क्योंकि, इस्लाम के नाम पर इतना भड़काने के बाद भी भारतीय मुसलमान उस तरह से कट्टर इस्लामिक आतंकवाद के साथ नहीं खड़ा हो रहा है, जो उम्मीद इस्लामिक स्टेट के आकाओं ने पाल रखी है। इसीलिए वो परेशान हैं। जरूरी है कि भारतीय मुसलमान कायरता छोड़कर इस्लाम के नाम पर आतंकवाद को बढ़ाने की कोशिश में लगे लोगों का खुलकर विरोध करे। वो विरोध अमरनाथ यात्रा पर गए श्रद्धालुओं की हत्या के बाद प्रतीक तौर पर दिखने से कुछ नहीं होगा। हिन्दुस्तानी मुसलमान की नीयत पर सन्देह नहीं है। लेकिन, ये पक्के तौर पर समझना होगा। मुसलमान होने के नाते बुरहान वानी जैसे आतंकवादी को हीरो बना देने की हल्की सी भी गुन्जाइश इस्लामिक आतंकवाद को ही मजबूत करेगी, इस्लाम को नहीं। वहाबी मस्जिदें घाटी से निकलकर देश के दूसरे हिस्सों तक पहुंच चुकी हैं। उन पर सरकार को कड़ी कार्रवाई करना चाहिए। उसके लिए देश के किसी दूसरे हिस्से में अमरनाथ यात्रा जैसी घटना का इन्तजार करना ठीक नहीं होगा। अब इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ पूरे हिन्दुस्तान को मिलकर बड़ी लड़ाई लड़ना ही होगा। 
(ये लेख FirstPostHindi पर छपा है)

Saturday, July 01, 2017

फिलहाल घरेलू झगड़े में टूटी जमीन भरने में लगे हैं अखिलेश यादव

विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद अखिलेश यादव के लिए सबसे बड़ा सवाल था कि प्रचण्ड बहुमत से आई सरकार के सामने निराश समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल कैसे बढ़ाया जाए। ये सवाल इसलिए भी और बड़ा हो गया है क्योंकि, चाचा शिवपाल यादव नई पार्टी बनाने के लिए ताल ठोंक रहे थे और पिता मुलायम सिंह यादव हमेशा की तरह हर बीतते पल के साथ रंग बदल रहे हैं। ऐसे में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी पर कब्जा कर लेने के आरोप के साथ नई समाजवादी पार्टी की शुरुआत करने की बड़ी जिम्मेदारी अखिलेश के कंधों पर आ गई है। 44 साल की उम्र में अखिलेश के सामने ये बड़ी चुनौती है कि वो कैसे समाजवादी पार्टी का आधार सुरक्षित रखते हुए नए लोगों को समाजवादी पार्टी के साथ जोड़ पाते हैं। कमाल की बात ये है कि 44 साल के अखिलेश के 17 साल सत्ता के साथ बीते हैं। पिछले 5 साल से अखिलेश राज्य के मुख्यमंत्री थे, उसके पहले 10 साल तक सांसद। लेकिन, उस सत्रह साल की राजनीतिक मजबूती को चाचा शिवपाल यादव कृपा से मिली सफलता बताते हैं। इसीलिए जब आज 1 जुलाई को अखिलेश अधिकारिक तौर पर 44 साल के हो गए हैं, तो ये सवाल उठता है कि अखिलेश वाली नई समाजवादी पार्टी कैसे खड़ी हो पाएगी।
बुरी तरह चुनाव हारने के बाद मायावती ने पूरी तरह से ईवीएम मशीनों पर ठीकरा फोड़ दिया। हालांकि, अखिलेश ने इसे पहले जनता का आदेश कहा। बाद में लगा कि ईवीएम की राजनीति चल सकती है, तो उन्होंने भी ईवीएम मशीनों की जांच कराने की मांग कर दी। लेकिन, जल्दी ही उन्हें यह अहसास हो गया कि फिलहाल ये मुद्दा है नहीं। इसीलिए 25 मार्च को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद समाजवादी पार्टी का सदस्यता अभियान नए सिरे से शुरू करने का फैसला लिया गया। 25 मार्च के बाद लगभग हर तीसरा ट्वीट अखिलेश यादव ने या तो समाजवादी पार्टी के सदस्यता अभियान का किया है या फिर पार्टी कार्यालय में कार्यकर्ताओं के साथ मुलाकात करते हुए। दरअसल, मुख्यमंत्री रहने के दौरान अखिलेश यादव पर एक बड़ा आरोप लगा कि वो कुछ खास लोगों से ही घिरे रहते हैं। और समाजवादी पार्टी के असली कार्यकर्ता मुलायम सिंह यादव वाली समाजवादी पार्टी के हैं। समाजवादी पार्टी के एमएलसी और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य संजय लाठर कहते हैं कि ये भ्रम है कि समाजवादी पार्टी में शिवपाल यादव की असली ताकत है। इसी भ्रम को तोड़ने के लिए समाजवादी पार्टी ने 15 अप्रैल से 15 जून तक सदस्यता अभियान चलाया। जिसे बाद में बढ़ाकर 30 जून तक कर दिया गया। ये सदस्यता अभियान सबके लिए खुली थी। अब इसी आधार पर जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक का चुनाव होगा। संयोग देखिए कि 30 जून को सदस्यता अभियान खत्म होने के अगले ही दिन अधिकारिक तौर पर अखिलेश का जन्मदिन होता है। सदस्यता पूरी हो गई है अब पार्टी को भी आकार लेना है।
समाजवादी पार्टी को फिर से खड़ा करने के अखिलेश यादव के तीन सूत्र बिल्कुल साफ है। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण- नई सदस्यता के बाद जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के चुनाव कराकर ये साबित कर देना कि अब समाजवादी पार्टी का मतलब सिर्फ और सिर्फ अखिलेश यादव है।
दूसरा- प्रदेश की जनता के सामने अपनी साफ-सुथरी वाली छवि को और दुरुस्त करना। इसीलिए अखिलेश यादव ने 6 महीने तक योगी सरकार के खिलाफ कोई आन्दोलन न करने का फैसला लिया है।
तीसरा- प्रदेश की जनता को ये लगातार बताते रहना कि उनकी सरकार ने क्या किया। फिर चाहे वो आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे का काम हो, नोएडा एलिवेटेड रोड का काम हो या फिर डायल 100। इसका अन्दाजा 24 जून को उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के एक ट्वीट से ठीक से समझ आता है।
राम राम जपना, पराया काम अपना।
अखिलेश यादव के इस ट्वीट को करीब साढ़े आठ हजार लोगों ने पसन्द किया। 2200 से ज्यादा लोगों ने इसे रिट्वीट किया है। उत्तर प्रदेश चुनाव नतीजों के बाद अखिलेश यादव के किए गए ट्वीट में से सबसे ज्यादा प्रतिक्रिया इसी ट्वीट को मिली है।
इसी से उत्साहित होकर कहें या कि अपनी रणनीति के तीसरे सूत्र के तहत अखिलेश ने लगातार लखनऊ-आगरा एक्सप्रेसवे, इटावा लायन सफारी की तस्वीरें डाली हैं। डायल 100 की सफलता की कहानी को अखिलेश प्रचारित कर रहे हैं। और सबसे बड़ी 29 जून को रामगोपाल यादव का सैफई में जन्मदिन था। 30 जून को उन्हें विदेश जाना था। लेकिन, अखिलेश विदेश जाने से पहले नोएडा आ गए। और नोएडा में एलिवेटेड रोड पर भी कार्यकर्ताओं के साथ काफी देर तक रहे। एलिवेटेड रोड अखिलेश के ही कार्यकाल में लगभग पूरी हो गई थी। जिसका लोकार्पण योगी सरकार के मंत्री सतीश महाना ने किया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नहीं आए। शायद उसके पीछे, नोएडा आने से सत्ता जाने वाला डर हावी रहा हो। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश ने नोएडा आकर अपशकुन दूर करने के साथ अपने काम को लोगों को बताने की भी कोशिश की।
अखिलेश यादव जब अपना जन्मदिन मनाकर विदेश से लौटेंगे, तो ताजा-ताजा समाजवादी पार्टी के सदस्य बने करीब 1 करोड़ कार्यकर्ता उनके निर्देश का इन्तजार कर रहे होंगे। पहली बार मिस्ड कॉल और ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के जरिए भी समाजवादी पार्टी की सदस्यता हुई है। समाजवादी पार्टी की प्रवक्ता जूही सिंह कहती है कि अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी की छवि बदली है। महिला विरोधी, गुन्डा पार्टी की छवि किसी न किसी वजह से बन गई थी। सितम्बर के पहले या दूसरे हफ्ते में समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय अधिवेशन करने की तैयारी में है। उस समय तक योगी सरकार के 6 महीने भी पूरे हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में सितम्बर में फिर से बड़ी हलचल देखी जा सकती है। वो वक्त नगर निकाय चुनावों का भी होगा और अखिलेश यादव वाली नई समाजवादी पार्टी की परीक्षा का भी।
(ये लेख FirstPostHindi पर छपा है)

हिन्दी ब्लॉगिंग ने तैयार किया नागरिक पत्रकारिता का आधार

हिन्दुस्तान में आज जो कुछ भी होता है, उसकी बुनियाद सोशल मीडिया पर ही तैयार होती है। यहां तक कि खुद को मुख्य धारा कहने वाले, टीवी और अखबार, मीडिया संस्थान भी सोशल मीडिया से ही खबरों को ले रहे हैं, विस्तार दे रहे हैं। लेकिन, इस बात का अन्दाजा कितने लोगों को होगा कि इस बुनियाद की बुनियाद हिन्दुस्तान में कैसे तैयार हुई होगी। आपको क्या लगता है कि फेसबुक या ट्विटर आया और इसी वजह से इस देश में सोशल मीडिया खड़ा हो गया। ये बहुत बड़ा भ्रम है। दरअसल, फेसबुक और ट्विटर या फिर दूसरे ऐसे माध्यम आए ही तब, जब हिन्दुस्तान में सोशल मीडिया का आधार तैयार हो गया। एक पक्की बुनियाद बन गई थी, जिस पर फेसबुक, ट्विटर जैसे मंच कमाई कर सकते थे। एक दशक से भी ज्यादा समय पहले जब देश में सोशल मीडिया नाम का कोई मंच नहीं था, उस समय ब्लॉगर पर कुछ लोगों ने लिखना शुरू किया था। जानबूझकर मैं किसी का नाम नहीं लिख रहा हूं। लेकिन, एक बड़ी जमात थी। उस समय मैं मुम्बई सीएनबीसी आवाज में हुआ करता था। और हमारे मित्र शशि सिंह मुझे भी ब्लॉग बनाने के लिए कहते थे। सीएनबीसी आवाज में मेरी जिम्मेदारी प्रोड्यूसर की थी, इसलिए रिपोर्ट करने की इच्छा रह जाती थी। और उस रिपोर्ट करने की रह गई इच्छा को पूरा करने का काम मैंने अपने ब्लॉग के जरिए किया।
10 जनवरी 2006 को मैंने एक ब्लॉग बनाया। लेकिन, उसका नाम बिना सोचे-समझे रख दिया था। और धीरे-धीरे उस पर निष्क्रियता इस कदर बढ़ गई कि उसे भूल ही गया। हां, कुछ दूसरे सामूहिक ब्लॉग मंचों पर लिखना शुरू कर दिया। लेकिन, धीरे-धीरे ये समझ में आया कि अपना खुद का ब्लॉग ही रिपोर्ट करने की भूख शान्त कर पाएगा। अप्रैल 2007 में अपना ब्लॉग बनाया बतंगड़ www.batangad.blogspot.com तब से लेकर अब तक का ये सफर जारी है। 2008 के आखिर तक मुम्बई रहते जमकर ब्लॉग लिखा। ब्लॉग के जरिए निजी सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए। मुम्बई में शशि सिंह, अनिल सिंह, अभय तिवारी, प्रमोद सिंह, बोधिसत्व, अनीता कुमार। सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने इलाहाबाद में ब्लॉगिंग पर एक बड़ी चर्चा कराई, जिसमें देश भर के ब्लॉगर इकट्ठा हुआ। बाद में वर्धा में भी दो बार हम ब्लॉगरों का जुटान हुआ। सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी और उनकी पत्नी रचना त्रिपाठी दोनों जमकर ब्लॉगिंग करते हैं। इलाहाबाद से अब भदोही में अपने गांव रह रहे ज्ञानदत्त पांडेय, कनपुरिया मौजी अनूप शुक्ल, जबलपुरिया समीर लाल, जबलपुरिया महेंद्र मिश्रा। घुमक्कड़ ब्लॉगर ललित शर्मा, नागपुर की संध्या शर्मा, सब ब्लॉगिंग से ही मिले। भोपाल निवासी रविशंकर रतलामी हों या फिर अहमदाबाद के संजय बेंगाणी ब्लॉग की वजह से ही नजदीकी बनी। भास्कर से इंडिया टुडे होते अभी नेटवर्क 18 पहुंची मनीषा पांडेय से भी ब्लॉग की वजह से पहचान बढ़ी। दिल्ली विश्वविद्यालय के मास्टर साहब विजेंद्र मसिजीवी और फतेहपुर से प्राइमरी का मास्टर वाले प्रवीण त्रिवेदी ब्लॉग से ही परिचित हुए।
विस्फोटक संजय तिवारी, भड़ासी यशवन्त सिंह, मोहल्लेदारी से फिल्म निर्देशक बन गए अविनाश दास सब ब्लॉग की ही देन हैं। प्रवक्ता वाले संजीव सिन्हा से अब हर दूसरे-चौथे मिलना होता है। लेकिन, कड़ी ब्लॉग ही बना। विनीत कुमार आज दूसरी वजहों से भी जाने जा रहे हैं लेकिन, आधार ब्लॉग ही बना। व्यंग्य सम्मानों की कतार में निरन्तर खड़े सन्तोष त्रिवेदी तो ब्लॉगर मिलन के चक्कर में शाकाहारी से मांसाहारी तक हो बैठे। ब्लॉग की निरन्तरता और इसके जरिए प्रभाव की बात करेंगे, तो उज्जैन के सुरेश चिपलूणकर भला कैसे बच सकते हैं। इतने नाम मैं लिख पा रहा हूं, पता नहीं कितने छूट रहे हैं, जो पोस्ट कर देने के बाद ध्यान में आएंगे। जिनका नाम नहीं ध्यान में आया, उनसे माफी। वो टिप्पणी करके मुझसे नाराजगी जाहिर करें। ऐसे ही हंसते, नाराज होते उस समय के ढेर सारे ब्लॉगरों के इर्दगिर्द एक बड़ा ब्लॉगर परिवार तैयार हुआ। दरअसल यही वो हिन्दी का ब्लॉग परिवार है, ये बहुत बड़ा है, इतना बड़ा कि किसी भी शहर में जाने पर कोई न कोई ब्लॉगर जरूर मिल जाएगा। यही वो नागरिक पत्रकारिता का आधार है जिसके बूते हिन्दुस्तान में फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया ने आने का मन बनाया। लेकिन, लोगों का मन अपनी बात कहने के लिए तैयार करने का काम ब्लॉगिंग और उसमें भी #हिन्दी_ब्लॉगिंग ने किया। आज कोई एग्रीगेटर नहीं है। ब्लॉगवाणी वाले मैथिली जी की अब ब्लॉगवाणी चलाने में रुचि नहीं रही।

आज ब्लॉगर बहुत बढ़ गए हैं। एक से एक लिक्खाड़ ब्लॉगर हैं। अब तो कइयों का ब्लॉग कमाई का जरिया भी बन गया है। हालांकि, हम ब्लॉग को कमाई से आजतक नहीं जोड़ सके हैं। लेकिन, इसके आधार पर ढेर सारी कमाई का आधार बना है। इसे मैं अच्छे से समझता हूं। एक समय मैं किसी से जरा सा इशारा पाते ही उसके कंप्यूटर, लैपटॉप में हिन्दी (मंगल) फॉण्ट और ब्लॉगर जरूर डाल देता था। अब वैसा बहुत कम करता हूं। लेकिन, मैं ब्लॉग पर अभी भी नियमित हूं। आज अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर दिवस के मौके पर सभी से, खासकर हिन्दी वालों से #हिन्दी_ब्लॉगिंग के लिए आगे आने की अपील करता हूं। आपने मीडिया की मठाधीशी खत्म की है। हिन्दी ब्लॉगरों ने ये स्थापित किया है कि ब्लॉग लिखकर कोई कहीं से भी पत्रकारिता कर सकता है। इस जज्बे को मजबूत करने की जरूरत है। सोशल मीडिया (फेसबुक, ट्विटर) उस ब्लॉगिंग बुनियाद पर खड़ी मजबूत इमारत है, जिसमें हर तरह की स्थापित सत्ता को चुनौती दी है। और सबसे अच्छी बात ये टेलीविजन के आने से 90 प्रतिशत टीवी में काम करने वाला मशीनी हो चला था, उनको भी फिर से पत्रकार होने का अहसास हुआ और उससे भी अच्छा बात ये कि जो पत्रकारिता नहीं भी कर रहे हैं, वो भी पत्रकार हैं और तथ्य के साथ उनका भी लिखा किसी भी पत्रकार के लिखे से बेहतर हो सकता है, ये भी अहसास मजबूत हुआ है। फेसबुक ने एक गड़बड़ की है कि ब्लॉग की टिप्पणियां छीन ले गया है। शुरुआती दौर में ब्लॉग पढ़ने आने वाले 14 लोगों की 14 टिप्पणियां भी मिल जाती थीं। आज मेरे एक लेख को 500 से 5000 तक लोग पढ़ लेते हैं। किसी भी लेख को 200 से ज्यादा पाठक तो मिल ही जाते हैं। लेकिन, टिप्पणियां 2-4 ही रह जाती हैं। यही टिप्पणियां निजी सम्बन्ध का आधार रही हैं। आज अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर दिवस पर हिन्दी ब्लॉगिंग को हम और मजबूत करेंगे, इसी के साथ हैपी हिन्दी ब्लॉगिंग। मजबूत नागरिक पत्रकारिता। और ब्लॉग लिखा है, तो टिप्पणी चाहिए ही चाहिए। 

Wednesday, June 28, 2017

नोएडा की सबसे ऊंची सड़क पर नीचे जाती राजनीति

नोएडा के सबसे बड़े बुनियादी ढाँचे का लोकार्पण करने भी @MYogiAdityanath नहीं आ रहे। हालाँकि, इसका लगभग काम @yadavakhilesh के ही शासनकाल में पूरा हो चुका था। क़रीब आधा पुल लखनऊ से ही लोकार्पण करके अखिलेश ने खोल दिया था। दरअसल कोई भी मुख्यमंत्री प्रदेश के सबसे चमकते शहर नोएडा आने से डरता है। डर उस अन्धविश्वास का है कि जो यहाँ आया, उसकी सत्ता गई। ख़ैर, अपना घर-गाँव रहते मायावती नहीं आईं। फिर भी २०१२ में सत्ता से बेदख़ली हो गई। २०१७ में लखनऊ रहकर नोएडा की सारी योजनाओं का लोकार्पण करते अखिलेश भी चले गए। योगी आदित्यनाथ साधु हैं, फिर भी सत्ता जाने के मोह से उबर नहीं पा रहे हैं। ख़ैर, ये तो पहली बात हुई। दूसरी जरूरी बात ये कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ख़ुद तो आ नहीं रहे हैं। अच्छा होता कि इस सड़क का ज़्यादातर काम जिस अखिलेश यादव के कार्यकाल में पूरा हुआ था, उन्हें भी बुला लेते। हालाँकि, राजनीति में ये कोई नहीं करता। हर सरकार आने के बाद पहले की सरकारों के पूरे किए काम को लोकार्पण करके अपना बना लेती है। लेकिन, मुझे लगता है कि जिस तरह से सोशल मीडिया के जरिए हर छोटी-बड़ी बात सबको पता हो जाती है, उसमें ये गुन्जाइश बहुत रह नहीं जाती है कि किसने क्या किया और किसने क्या श्रेय ले लिया। 
आधी खुली नोएडा एलिवेटेड सड़क पर
छोटे दिल वालों की ही राजनीति बड़ी होती जा रही है। आज शाम ५ बजे उत्तर प्रदेश के उद्योग मंत्री सतीश महीना इसे आम जनता के लिए खोल देंगे। कुछ समय बाद जनता को न योगी याद रहेंगे, न ही अखिलेश यादव। लेकिन, अगर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी लोकार्पण में आमन्त्रित कर लेते, तो इस बड़े दिल की राजनीति को लोग हमेशा याद रखते। मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ससम्मान पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इस लोकार्पण में बुलाएं, तो उनकी छवि बड़ी होगी, उनके समर्थक बढ़ेंगे। उत्तर प्रदेश की जनता की नजरों में भी सम्मान ही बढ़ेगा। होना तो ये चाहिए था कि आदित्यनाथ और अखिलेश यादव मिलकर इसका लोकार्पण करते। लेकिन, योगी अभी हाथ आई सत्ता जाने से डर रहे हैं, तो कम से कम पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश के आने से जब भी अखिलेश के हाथ सत्ता आती, तो नोएडा को लेकर लोगों का अन्धविश्वास भी खत्म होता।

Monday, June 26, 2017

नौकरी में भागते रहने का सुख !

मेरी पहली नौकरी प्रयाग महाकुम्भ में वेबदुनिया के साथ
ये सलाह अनुभव से उपजी है और सभी के लिए है। लेकिन ख़ासकर पत्रकारों के लिए। ये सही है कि हम पत्रकार या तो दिल्ली, मुम्बई जैसी बड़ी जगह या फिर अपने राज्य की राजधानी या फिर अपने जिले के ही धाँसू पत्रकार बनना चाहते हैं। इसमें से किसी भी एक मोह से उबर पाना बेहद कठिन होता है। मैं मूलत: प्रतापगढ़ से हूँ। पैदाइश के बाद हमारी पूरी बनावट इलाहाबाद की देन है। सबसे कठिन फैसला था, इलाहाबाद छोड़ना। बहुत कड़ा मन करके ये फैसला लिया था। आज उस फैसले पर मुग्ध होने जैसा भाव रहता है। फिर कानपुर, देहरादून, मुम्बई होते अभी दिल्ली टिका हूँ। हालाँकि, मैं ठहरना दिल्ली ही चाहता था। पहली बार ११ जुलाई २००१ को दिल्ली आकर गिरा था। लेकिन, दिल्ली निरन्तर भगाती रही। उसी भागने में ऊपर लिखे शहरों में रहना हुआ। आत्मीय सम्बन्ध बने। कानपुर और मुम्बई दोनों ही शहरों को लेकर मन में अच्छा भाव नहीं था। लेकिन, कानपुर में ग़ज़ब के आत्मीय सम्बन्ध बने और समझ भी बेहतर हुई। ईमानदार विश्लेषण ये कि  हर शहर ने मुझे बेहतर होने में मदद की और सबसे बड़ी बात कि समझ का दायरा बहुत बड़ा कर दिया।
हिन्दुस्तान इतनी विविधता वाला देश है कि यहां आप एक छोटी सी 2-4 दिन की यात्रा में एक पर्यटक की तरह कहीं घूम-टहलकर तो आ जाते हैं। अपने फेसबुक पन्ने के लिए कुछ अच्छी तस्वीरें जुटा लेते हैं। लेकिन, उस जगह से जुड़ाव बहुत कम हो पाता है। हिन्दुस्तान को समझने, पक्का हिन्दुस्तानी बनने के लिए जरूरी है कि हर कोई, हर किसी की भावना को समझे। कानपुर, मुम्बई और देहरादून ने मुझे ये समझने में मदद की। मुम्बई मुझे बहुत परेशान करता था। यहां तक कि 4 साल रहने के बाद लगभग विद्रोही अन्दाज में मैंने मुम्बई छोड़ा था। लेकिन, ये भी सच है कि उन 4 सालों में मिली, सहेजी अच्छी यादों की वजह से आज भी मुम्बई जाने का मन होता है। यही हाल देहरादून और कानपुर को लेकर भी है। इस लिहाज से ज्यादा जगहों पर रहना नहीं हो सका। इसीलिए नए पत्रकारों को मेरी ये सलाह है कि पढ़ाई पूरी होते ही पहला मौका मिलते ही बैगपैक करके अपने शहर, अपनी राजधानी और देश की राजधानी से जितना दूर जा सकते हैं, चले जाइए। इससे देश के और नजदीक पहुंचेंगे। लिखने, पढ़ने, समाज को समझने के लिहाज से अद्भुत, सकारात्मक बदलाव होगा।
कम से कम, जीवनसाथी पक्का कर लेने और बच्चों के जिन्दगी में आने तक तो ये प्रक्रिया जितनी तेजी से पूरा कर सकते हों, तो करिए। सच बता रहा हूं, उस भगान लेने के दौरान के अनुभव जिन्दगी में कमाल की समझ, मिठास विकसित करते हैं। और पत्रकार के लिए तो ये जरूरी है कि वो देश के हर हिस्से के लोगों की समझ को थोड़ा बहुत तो समझ सके। वरना अपने शहर, अपनी राजधानी और देश की राजधानी के लिहाज से पूरी समझ बनाएगा। फिर मुश्किल आजीवन रहेगी। दूसरे काम करने वालों के लिए भी ये बहुत सुखद अनुभव देने वाला हो सकता है। लेकिन, पत्रकार के लिए ये सबसे जरूरी सबक के जैसा है। ये किताबी ज्ञान तो है नहीं, अपने निजी अनुभव से सीखा है, इसलिए सकारात्मक परिणाम का दावा भी पक्का है।


Monday, June 19, 2017

मोदीराज में रायसीना पहाड़ी पर एक दलित के विराजने का मतलब

भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए प्रस्तावक के तौर पर दस्तखत करने के लिए मुख्तार अब्बास नकवी के यहां जाना था। कमाल की बात ये थी कि उनमें से किसी को भी नहीं पता था कि दिल्ली की सबसे ऊंची और सम्वैधानिक तौर पर देश की सबसे ऊंची रायसीना पहाड़ी पर विराजने के लिए वो लोग किसके नाम पर मुहर लगाने जा रहे हैं। ज्यादातर सांसद लालकृष्ण आडवाणी के ही पक्ष में सहानुभूति रख रहे थे। लेकिन, राष्ट्रपति बनाने के लिए सांसदों की सहानुभूति नहीं, उनके मतों की जरूरत थी। और वो मत पार्टी के तय उम्मीदवार के ही पक्ष में जाना तय था। सांसद मुख्तार अब्बास नकवी के घर पहुंच रहे थे और ठीक उसी समय 11 अशोक रोड में भाजपा मुख्यालय पर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बताया कि रामनाथ कोविंद एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे। बिहार के राज्यपाल को राष्ट्रपति बनाने की नरेंद्र मोदी और अमित शाह की इस योजना की जानकारी किसी को नहीं थी।
भारतीय राजनीति नरेंद्र मोदी और अमित शाह को आगे कैसे याद करेगी ? एक शातिर राजनीतिक जोड़ी के तौर पर ? उनकी योजना से बाहर काम करने वाले हर नेता का खात्मा करने वाली जोड़ी के तौर पर ? भारतीय जनता पार्टी को देश की चक्रवर्ती पार्टी बनाने के तौर पर ? हिन्दू एकता के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले नेता के तौर पर ?
अगर इतिहास में आज मुझे इस जोड़ी को दर्ज करने को कहा जाए, तो मैं इस जोड़ी को इन सारे जवाबों के मिश्रण के तौर पर याद करूंगा। भारतीय राजनीति में इस जोड़ी को एक क्रूर राजनीतिक जोड़ी के तौर पर याद किया जाएगा। और इसलिए भी कि इसी राजनीतिक जोड़ी ने भारतीय जनता पार्टी को भारत की सर्वशक्तिमान पार्टी कैसे बना दिया। 31 मई को अमित शाह गुजरात के छोटा उदयपुर विधानसभा में बूथ कार्यकर्ताओं के साथ थे। छोटा उदयपुर में अमित शाह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ, विस्तारक के तौर पर थे। अमित शाह की महत्वाकांक्षी विस्तारक योजना के तहत गुजरात में 48000 विस्तारकों को राज्य के सभी 48000 बूथ पर जाना था। इसी के तहत छोटा उदयपुर विधानसभा के बूथ पर अमित शाह लोगों के दरवाजे पहुंचे। छोटा उदयपुर विधानसभा में अमित शाह का विस्तारक के तौर पर जाना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि, यहां से कांग्रेस का विधायक 8 बार से चुना जा रहा है। आदिवासी बहुल इस इलाके में कांग्रेस की अभी भी मजबूत पकड़ है। अमित शाह सबसे कठिन काम खुद चुनते हैं। इसी कठिन काम चुनने में जब उन्होंने उत्तर प्रदेश चुना था, तो वहीं रामनाथ कोविंद भी उन्हें मिले थे।
अमित शाह ने कहाकिनरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते बीजेपी ने 120 सीटें जीतीं, अब मोदी जी प्रधानमंत्री हैं, इसलिए हम 150 सीटें जीतेंगे।
लेकिन, ये अमित शाह को भी अच्छे से पता है कि गुजरात में राजनीतिक तौर पर हालात इधर बहुत बिगड़े हैं। इसलिए मोदी के मुख्यमंत्री के प्रधानमंत्री बन जाने भर से बीजेपी को गुजरात में 150 सीटें नहीं मिलने वाली। हार्दिक पटेल पहले से ही पूरे राज्य में पाटीदारों को लगातार ये समझाने में लगा हुआ है कि बीजेपी पाटीदारों का भला नहीं कर रही। लेकिन, पाटीदारों में बीजेपी के गहरे धंसे होने से हार्दिक पटेल बहुत कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन, गुजरात में दलितों का एकजुट होना बीजेपी के लिए चिन्ता की वजह हो सकती है। जिग्नेश मेवानी दलितों के साथ मुसलमानों को लाकर भारतीय जनता पार्टी के लिए मुसीबत बनने की कोशिश कर रहा है। ऊना में दलित उत्पीड़न पूरे देश में दलितों को एक साथ लाने में मदद कर रहा है। सहारनपुर में भीम आर्मी का मजबूत होना भी बीजेपी के लिए बुरे संकेत की तरह है।
इस सबके बीच में गुजरात विधानसभा का चुनाव इसी साल के अन्त में होना है। ऐसे में 150 सीटें हासिल करने के लिए जरूरी है कि गुजरात में हिन्दू एकता का बीजेपी का आधार मजबूत बना रहे। और इसके लिए पिछड़े वर्ग से आने वाले प्रधानमंत्री के साथ दलित का राष्ट्रपति बनना बीजेपी के लिए सोने पर सुहागा जैसा दिखता है। रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल हैं। उम्मीदवारी घोषित होने के बाद जिस तरह से नीतीश कुमार की प्रतिक्रिया दिखी है, उसमें जेडीयू का साथ आना लगभग तय है। चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव, रामविलास पासवान पूर्ण समर्थन दे चुके हैं। मुलायम सिंह यादव भी मोदी के उम्मीदवार के साथ ही रहेंगे। कोविंद उत्तर प्रदेश के कानपुर से आते हैं और कोली समाज से आते हैं। इसलिए मायावती के सामने भी विरोध का विकल्प बचता नहीं है। पहली प्रतिक्रिया में मायावती ने भी समर्थन के संकेत दे दिए हैं। कुल मिलाकर सीपीएम महासचिव सीतीराम येचुरी को छोड़कर अब तक आई सारी प्रतिक्रियाएं सकारात्मक रही हैं। 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपना आधार मजबूत करने के लिए रायसीना पहाड़ी पर किसी दलित के पक्ष में खड़ा है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत लगातार हिन्दुओं के लिए एक कुंआ, एक मन्दिर, एक श्मशान की बात कर रहे हैं। अब एक गैर स्वयंसेवक दलित के रायसीना पहाड़ी पर विराजमान होने के संघ और मोदी के फैसले से संघ की बात का वजन दलितों में और बढ़ेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए हिन्दू एकता का आधार और मजबूत होगा। देश में दलित-मुसलमान आन्दोलन को मजबूत करने की इच्छा रखने वालों पर रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी वज्रपात की तरह है। मोदी-शाह यूं ही नहीं, आज की तारीख की सबसे खतरनाक राजनीतिक जोड़ी है। इस जोड़ी ने एक दलित को रायसीना पहाड़ी पर चढ़ा दिया है, अब दलित भला किसी और की कहां सुनने वाला है।
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

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