सोचा था कि किसी भी हाल में 7 बजे तक ऑफिस से निकल ही जाऊंगा। लेकिन, वोटिंग के दिन चुनाव पर आधे घंटे के स्पेशल बुलेटिन को छोड़कर निकलना थोड़ा मुश्किल था। खैर, 7.20 होते-होते लगाकि अब मामला बिगड़ जाएगा। फिर, झंझट ये कि नोएडा से दिल्ली के लिए ऑटो मिलना भी कम महाभारत तो थी नहीं। फिर एक साथी की मदद से बाल्को पहुंच तो गया। लेकिन, समझ में आया कि इलाहाबाद के लिए ट्रेन का टिकट तो प्रिंट निकालकर प्रिंटर पर ही भूल आया।
खैर, फोन करके छोटे भाई से टिकट का PNR नंबर पूछा और मोबाइल से टिकट का स्टेटस पता किया तो, RB 2-47, 55 दिखा तो, लगा चलो टिकट तो कनफर्म हो गया। लेकिन, RB का रहस्य नहीं समझ में आ रहा था। सीधे गए तो, 47, 55 दोनों नीचे की किनारे वाली सीटें थीं। चलो एक उलझन तो दूर हुई। सामने दो सभ्य जन भिड़े हुए थे। दोनों लोगों के पास अपनी सीट भर से ज्यादा सामान था। और, दोनों ही अपने सामान को अपने ज्यादा से ज्यादा नजदीक चिपकाकर रखने की लड़ाई लड़ रहे थे। दूसरे को किसी और की सीट के नीचे सामान घुसाने की सलाह (धमकी के अंदाज में) दिए जा रहे थे।
मेरे दोस्त GR पांडे और मैं इस झगड़े को देखकर मुस्कुरा रहे थे। मैंने पूरी सहृदयता और बड़प्पन दिखाते हुए कहा। अरे, साहब लड़ना छोड़िए। हमारी 2 सीटें हैं 47, 55 और हम दोनों के पास कुल मिलाकर एक छोटा सा बैग है जो, हम अपनी सीट पर भी रखकर सो सकते हैं जितना सामान है इधर भर दीजिए। बड़े मजे से मैं और मेरे मित्र जो, सुप्रीमकोर्ट में अधिवक्ता हैं 47 नंबर सीट पर बैठ गए। तब तक हमें RB 2-47, 55 का रहस्य समझ में आया नहीं था। तभी एक साहब आए- जिनके चेहरे को देखकर लग रहा था जैसे जमाने से नाराज ही पैदा हुए थे और ऐसे ही निकल भी लेंगे जमाने को छोड़कर- उन्होंने कहा ये मेरी सीट है। मैंने कहा 47 नंबर तो मेरी है। उन्होंने कहा आपकी आधी है, आधी मेरी है। ये था RB 2-47, 55 का रहस्य। सीट RAC ही रह गई थी। उन साहब से निवेदन किया लेकिन, वो माने नहीं। खैर, अब इंतजार टीटी का था।
बुजुर्ग से टीटी महोदय आए मुझे लगा टिकट का प्रिंट भी नहीं है नियमत: 50-100 रु का चूना भी लगेगा। लेकिन, मैंने उनसे पूरे अधिकार के साथ सीट के लिए निवेदन किया तो, उन्होंने टिकट भी नहीं मांगा। आइडेंटिटी प्रूफ मैंने पहले ही दिखा दिया था। 55 नंबर पर आधी सीट के मालिक अंकल से हम लोगों ने निवेदन किया तो, वो मान गए। अब खिसियाई सूरत लेकर जमाने से नाराज साहब कह रहे हैं कि वो मेरा सामान इस सीट के नीचे था न, नहीं तो मैं उधर चला जाता। तब तक हम लोगों का भाग्य चटका और पूरी-पूरी सीट मिल गई। हालांकि, मिडिल सीट पर मैं सारी रात जगता प्रयागराज ट्रेन के झटके से नहीं, नीचे से रह-रहकर आ रहे धमाकेदार खर्राटे की वजह से। और, खर्ऱाटा भरने वाले अंकल और उनका पूरा परिवार अच्छी नींद के आगोश में था।
सुबह-सुबह अपने शहर इलाहाबाद में था। सूबेदारगंज स्टेशन क्रॉस करते ही छोटे भाई को फोन किया पता था- अभी आउटर पर ट्रेन जितनी देर रुकेगी उतने में दारागंज से भाई आ ही जाएगा। आउटर पर रुकी ट्रेन से खट-खट कई सफेद बोरे गिरे। एक बैग लिए मुंशी टाइप आदमी के निर्देश पर 2 मजदूर टाइप लोग जल्दी-जल्दी बगल रुकी मालगाड़ी के नीचे से उन सफेद बोरों को दूसरी पार लगा रहे थे। बोरों पर नीले से DTDC लिखा देख समझ में आया-कुरियर कंपनी के बोरे थे। लेकिन, इतनी प्रतिष्ठित कुरियर कंपनी के पार्सल ऐसे क्यों जा रहे हैं- जवाब बगल से आया- स्टेशन पर पुलिस को चुंगी देने से बच गया।
घर से नहा-धोकर चल पड़े जौनपुर के लिए। रास्ते में एक ढाबे के किनारे खड़ी हाथी झंडा लहराती सफारी और टेंपो ट्रैवलर देखकर छोटे भाई ने कहा- भैया कपिल भाई लग रहा हैं। मिलेंगे क्या। मैंने कहा-आओ मिल लेते हैं। भाई ने सफारी के पीछे सफारी लगा दी। अंदर फूलपुर से बसपा प्रत्याशी कपिलमुनि करवरिया ढाबे के साथ बने एक शीशे वाले कमरे में बैठे थे। उनके सामने एक कंप्यूटर स्क्रीन पर लाल-नीला सा कुछ लगातार चमक रहा था। थोड़ देर में मैं समझ गया कि ये तो ट्रेडिंग टर्मिनल है। ढाबे के मालिक से कुछ छिपी सी टीवी से मोरपंखी का निशान दिखा तो, मैंने देखा कि हमारा चैनल सीएनबीसी आवाज़ चल रहा है (अब मेरी बात को और मजबूती मिलेगी कि आवाज़ सिर्फ गुजरात, मुंबई, दिल्ली का चैनल नहीं है)। कपिलमुनि करवरिया से बात करते मैं बाहर निकल आया लेकिन, बाद में अफसोस हुआ कि ट्रेडिंग टर्मिनल उसके सामने बैठे बसपा प्रत्याशी और ढाबे के मालिक के पीछे टीवी स्क्रीन पर सीएनबीसी आवाज़ की तस्वीर नहीं ले पाया।
तेज रफ्तार में हम जौनपुर की ओर बढ़े जा रहे थे। रास्ता पहले से काफी अच्छा बन गया है। लेकिन, आज दूसरी बाधा थी। सिकरारा थाने से आगे जाम मिलना शुरू हो गया। जौनपुर शहर में घुसते ही लंबी गाड़ियों की लाइन लगी थी। किसी तरह पौन घंटे में शहर के अंदर पहुंचने के बाद मित्र मनीष के घर दीवानी कचहरी पहुंच पाए। मनीष के पिताजी की तेरहवीं में पहुंचने के लिए ही मैं ये सारी दौड़ लगा रहा था। वहां पता चला कि बहनजी की रैली ने मेरे और मेरे जैसे जाने कितने लोगों के 45 मिनट से घंटों जाम में बरबाद कर दिए। साथ में ये भी पता चला कि मायावती के नहाने के लिए महकउवा साबुन की भी व्यवस्था है। साथ में ही ये भी जानकारी हवा में तैरती आई के जिस मंच से मायावती गरीब, दलित जनता को उसके हक के बारे में जागरुक करेंगी उस मंच को ठंडा रखने के लिए 8 स्प्ल्टि एयर कंडीशनर लगाए गए हैं। शुक्रवार को मुझे ये बात जौनपुर में पता चली और, रविवार को नोएडा में घर पर फुर्सत में टीवी देख रहा था तो, हाईप्रोफाइल समाजवादी नेता अमर सिंह, मायावती के आलीशान बाथरूम पर एतराज जताते दिख गए।
17 को मैं जौनपुर में था। 16 को बनारस और गोरखपुर में वोटिंग हो चुकी थी। गोरखपुर से आए मेरे एक मित्र अष्टभुजा नायक गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के कम से कम 50 हजार वोटों से हारने की बाजी लगा रहे थे। हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। एक बीजेपी नेता भिड़ गए कि योगी खुद तो जीतेंगे ही आसपास की कई सीटें जिताएंगे। बात जातिगत समीकरण पर जाकर टिक गए। तर्क आया अब मंदिर के नाम पर वोट नहीं पड़ेगा। 2,70,000 ब्राह्मण हैं गोरखपुर में और 25,000 ठाकुर। ठाकुर आदित्यनाथ कब तक राज करेगा। बीजेपी नेता ने कहा- आप लोगों जाति की राजनीति करते हैं। हम ये बात नहीं करते। वो, चर्चा खत्म हुई भी नहीं थी किसी ने कहा- राजनाथ ने धनंजय को जिताने के लिए ही सीमा द्विवेदी को जौनपुर से टिकट दिया है। और, इसीलिए टिकट बहुत देरी से घोषित किया गया। अब पता नहीं बीजेपी नेता जाति की राजनीति करते हैं या नहीं।
बनारस में डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी का जीतना 90 प्रतिशत पक्का है। लेकिन, बीजेपी नेता भी ये मान रहे हैं कि जोशी ने इलाहाबाद छोड़कर तीन सीटें खराब कीं। इलाहाबाद, फूलपुर और बनारस। अगर जोशी इलाहाबाद ही रहते तो, कपिलमुनि करवरिया बीजेपी छोड़कर न जाते और फूलपुर से बीजेपी प्रत्याशी होते। बनारस में अजय राय को टिकट मिलता तीनों सीट बीजेपी जीत लेती। अब तीनों ही मुश्किल में हैं। पता नहीं ये कितना सही है। जौनपुर में ही बैठे-बैठे अपने गृह जनपद प्रतापगढ़ सीट का भी विश्लेषण मिल गया। अब तो, रत्ना जीत जइहैं। बीजेपी के पूर्व विधायक शिवाकांत बीएसपी से लड़त अहैं, बीजेपी में फिर से लउटा लक्ष्मीनारायण पांडे उर्फ गुरूजी बीजेपी के टिकट प अहैं औ इलाहाबाद से भागके अतीक प्रतापगढ़ अपना दल क झंडा उठाए अहैं। तब तक नेपथ्य में एक आवाज और आई औ सुने त कि इलाहाबाद मदरसा कांड वाली लड़किया (कौनो मुस्लिम नाम लिए जो, मुझे याद नहीं) खुलेआम घूम-घूमके अतीक के खिलाफ प्रचार करता बा। हम पूछे केकरे समर्थन म। पता चला समर्थन केहू क नाहीं। बस अतीक क हरावा। हम सोचे ईहै जौ सब चेत लेते कि अपराधी न जिताऊब चाहे जे जीतै तो, बड़ी बात बन जात।
खैर, टाइम हो चुका था रात की गरीब रथ से फिर दिल्ली वापसी का टिकट था। बमुश्किल दो-सवा दो घंटे का रास्ता था लेकिन, जौनपुर शहर से इलाहाबाद पहुंचते तक बीसियों बारातों ने हमारे जौनपुर से इलाहाबाद के सफर को 3 घंटे का बना दिया। इलाहाबाद में अलोपी देवी मंदिर के सामने एक बारात के बगल में ज्यादा देर तक फंसे तो, समझ में आया कि इस शादी के सीजन की हॉट धुन कौन सी है। पूरी बारात सानिया मिर्जा कट नथुनी पे जान देने को तैयार थी। गाड़ी के अंदर ही हम लोगों के कंधे भी थोड़े बहुत उचक रहे थे, बैंड और तेज बजने लगा ... सानिया मिर्जा कट नथुनी पे जान जाएला ...। 12.48 की आधे घंटे देर से आई गरीब रथ में 25 रुपए का कंबल चद्दर लेकर हम लोग सो गए। सुबह निजामुद्दीन पहुंच गए। दो रात और एक दिन के सफर ने जाने कितने सामाजिक तथ्यों से रूबरू करा दिया। बस अब सफर खत्म। रविवार को छुट्टी का दिन मिला। ये बकैती (इलाहाबादी में इसे यही कहेंगे) लिख मारी। सोमवार से फिर ऑफिस-ऑफिस और दफ्तर से ही राजनीति समझेंगे वही लोगों को समझाएंगे। जबकि, असली राजनीति तो, कुछ और ही चल रही होगी। जाति के कोई समीकरण बन रहे होंगे कोई टूट रहे होंगे। बस बहुत हो गया ...
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Monday, April 20, 2009
Saturday, April 18, 2009
आडवाणी को बढ़ती मायावती का सहारा
राष्ट्रीय राजनीति में मायावती की बड़ा बनने की इच्छा बीजेपी के खूब काम आ रही है। ये नजर नहीं आता क्योंकि, देश की सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में उन्होंने कमाल के फॉर्मूले से बीजेपी का ही कचूमर निकाल दिया है। और, सांप्रदायिक बीजेपी को गाली देने का वो कोई मौका छोड़ती नहीं हैं। लेकिन, दरअसल ये मायावती देश भर में हाथी दौड़ाने की जो कोशिश कर रही हैं उसका सीधा फायदा बीजेपी को मिल रहा है और उसके साइड इफेक्ट कांग्रेस पर पड़ते दिख रहे हैं।
मायावती किस तरह से बीजेपी के काम आ रही हैं- इसकी बानगी देखिए। इलाहाबाद में अभी बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी की रैली हुई। केपी कॉलेज मैदान में हुई इस रैली में अच्छी भीड़ उमड़ी। इलाहाबाद में हुई आडवाणी की सफल रैली के कई राष्ट्रीय संकेत साफ दिखते हैं। ये वो इलाहाबाद है जहां से एक जमाने में बीजेपी की तीन धरोहरों –अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर- में से एक मुरली मनोहर जोशी तीन बार लगातार चुनाव जीते लेकिन, पिछला चुनाव हारे तो, गंगा के किनारे-किनारे इलाहाबाद से बनारस पहुंच गए।
जोशी के सीट छोड़ने के बाद इलाहाबाद से बीजेपी को उस कद से काफी नीचे के कद का उम्मीदवार भी नहीं मिल पा रहा था। इलाहाबाद और फूलपूर सीट के परिसीमन ने बीजेपी का गणित और बिगाड़ दिया। शहर उत्तरी जैसी बीजेपी के कैडर वोटरों वाली विधानसभा फूलपुर में जुड़ गई है। बीजेपी ने फूलपुर और
इलाहाबाद दोनों ही सीटों से अपरिचित से चेहरे करन सिंह पटेल और योगेश शुक्ला को टिकट दे दिया। प्रत्याशियों में खास दमखम न होने के बावजूद इलाहाबाद में आडवाणी की शानदार रैली ये संकेत देती है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में थोड़ा बहुत ही सही लेकिन, फिर जिंदा हो रही है।
ऐसा नहीं है कि इसके लिए बीजेपी नेतृत्व ने बहुत मेहनत की हो या फिर कार्यकर्ता अचानक फिर से बीजेपी का झंडा-बैनर लेकर खड़े हो गए हैं। दरअसल, ये सब हुआ है मायावती के एक फैसले – वरुण गांधी पर NSA यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने – से। समाजवादी पार्टी का ये आरोप भले ही राजनीतिक लगता हो लेकिन, काफी हद तक सही है कि मायावती सरकार की ये सिफारिश मुस्लिम वोटों को बीएसपी के पक्ष में और हिंदु वोटों को बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकरण के लिए काफी है।
जाने-अनजाने ही सही मायावती ने बीजेपी को थोड़ी ऑक्सीजन दे ही दी है। लेकिन, इतना भर ही नहीं है। ज्यादातर सर्वे और ओपीनियन पोल भले ही अभी यूपीए को एनडीए पर बढ़त दिखा रहे हैं। लेकिन, ज्यादातर में मायावती को बड़ी ताकत तो बनते दिखाया जा रहा है। इस बात पर कम ही ध्यान जा रहा है कि बड़ी होती मायावती किसको छोटा कर रही हैं। मायावती सिर्फ उत्तर प्रदेश में सत्ता में हैं लेकिन, देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों – कांग्रेस और भाजपा – से कहीं ज्यादा करीब 500 सीटों पर हाथी चुनाव चिन्ह पर
प्रत्याशी खड़े कर रही हैं।
दरअसल बड़ी होती मायावती ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बुरी तरह से भले ही पटखनी दी हो लेकिन, देश के दूसरे राज्यों में वो बीजेपी के लिए सत्ता का रास्ता आसान कर रही हैं। हाल में हुए विधानसभा चुनावों में बहनजी की बहुजन समाज पार्टी ने कई राज्यों में कांग्रेस के वोट बैंक की चुपके से सफाई कर दी।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत के साथ सीधे-सीधे सत्ता मिल गई। गुजरात में सत्ता में रहे मोदी ने विकास कार्यों के साथ हिंदुत्व के एजेंडे की अच्छी पैकेजिंग करके चुनाव जीत लिया। और, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेसी सत्ता के कुशासन की वजह से देवभूमि की जनता ने दुबारा वीरभद्र पर भरोसा करना ठीक नहीं समझा। और, उन्हें पहाड़ की चोटी से उठाकर नीचे पटक दिया।
दोनों राज्यों में चुनाव परिणामों की ये तो सीधी और बड़ी वजहें थीं। लेकिन, एक दूसरी वजह भी थी जो, दायें-बायें से भाजपा के पक्ष में और कांग्रेस के खिलाफ काम कर गई। वो, वजह थी मायावती का राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा। उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई मायावती को लगा कि जब वो राष्ट्रीय पार्टियों के आजमाए गणित से देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आ सकती हैं। तो, दूसरे राज्यों में इसका कुछ असर तो होगा ही। मायावती की सोच सही भी थी।
मायावती की बसपा ने पहली बार हिमाचल प्रदेश में अपना खाता खोला है। बसपा को सीट भले ही एक ही मिली हो। लेकिन, राज्य में उसे 7.3 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि, 2003 में उसे सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही वोट मिले थे। यानी पिछले चुनाव से दस गुना से भी ज्यादा मतदाता बसपा के पक्ष में चले गए हैं। और,
बसपा के वोटों में दस गुना से भी ज्यादा वोटों की बढ़त की वजह से भी भाजपा 41 सीटों और 43.8 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस से बहुत आगे निकल गई है। कांग्रेस को 38.9 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 23 सीटें ही मिली हैं। बसपा को मिले ज्यादातर वोट अब तक कांग्रेसी नेताओं के ही थैले में थे।
गुजरात में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि उसमें मायावती की पार्टी को मिले वोट बहुत मायने नहीं रखते। लेकिन, मायावती को जो वोट मिले हैं वो, आगे की राजनीति की राह दिखा रहे हैं। गुजरात की अठारह विधानसभा ऐसी थीं जिसमें भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर चार हजार से कम था। इसमें से पांच
विधानसभा ऐसी हैं जिसमें बसपा को मिले वोट अगर कांग्रेस के पास होते तो,वो जीत सकती थी। जबकि, चार और सीटों पर उसने कांग्रेस के वोटबैंक में अच्छी सेंध लगाई।
मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। मायावती की महाराष्ट्र पर भी कड़ी नजर है। वो, सबसे पहले मुंबई में पैठ जमाना चाहती हैं। क्योंकि, उन्हें पता है कि यहां से पूरे राज्य में संदेश जाता है। मायावती जानती हैं कि उत्तर प्रदेश के लोगों को उनके जादू का सबसे ज्यादा अंदाजा है। इसलिए वो उत्तर प्रदेश से आए करीब 25 लाख लोगों को सबसे पहले पकड़ना चाहती हैं। यही वो वोटबैंक है जिसने पिछले चुनाव में शिवसेना-भाजपा से किनारा करके कांग्रेस-एनसीपी को सत्ता में ला दिया। मुंबई में हिंदी भाषी जनता करीब 20 विधानसभा सीटों पर किसी को भी जितान-हराने की स्थिति में है। जाति के लिहाज से ब्राह्मण-दलित-मल्लाह-पासी-वाल्मीकि और मुस्लिम मायावती को आसानी से पकड़ में आते दिख रहे हैं।
अब अगर मायावती का ये फॉर्मूला काम करता है तो, रामदास अठावले की RPI गायब हो जाएगी। और, सबसे बड़ी मुश्किल में फंसेगा कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन। कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में कांग्रेस के साथ बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं साथ ही दलित-मुसलमानों का भी एक बड़ा तबका कांग्रेस से जुड़ा हुआ है। दलितों की 11 प्रतिशत आबादी मायावती की राह आसान कर रही है।
किसी भी सर्वे या ओपीनियन पोल में देखें तो, पिछले लोकसभा चुनाव में 11 सीटें पाने वाली बीजेपी को 15-20 के बीच में सीटें मिल रही हैं। और, बहनजी की बसपा को 29-39 सीटों के बीच में। अब अगर बीजेपी और बीएसपी उत्तर प्रदेश में कुल मिलाकर 50-55 सीटों तक पहुंच जाते हैं तो, यही समीकरण
केंद्र में बीजेपी-बीएसपी गठजोड़ को भी मजबूत आधार देगा। क्योंकि, जाने-अनजाने बीजेपी के कैडर का बड़ा हिस्सा इस समय जाति-कमजोर बीजेपी-मुलायम विरोध या फिर किसी और आधार पर बीएसपी का झंडा उठाए घूम रहा है।
इसमें मुश्किल सिर्फ इतनी ही है कि लालकृष्ण आडवाणी को ये चुनाव अपनी राजनीतिक पारी का अंत दिख रहा है। और, प्रधानमंत्री बनने का ये मौका वो किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहेंगे। अब अगर देश भर में बीजेपी, पुराने सहयोगियों (NDA) के साथ मजबूती से रही और, जयललिता जैसे कुछ डांवाडोल पुराने सहयोगियों को पटाती दिखी तो, बहनजी भी उप प्रधानमंत्री की कुर्सी लेकर आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने में मदद कर सकती हैं। लेकिन, अगर बीजेपी और एनडीए थोड़ा कमजोर रहा तो, कांग्रेस को सत्ता से रोकने के लिए बीजेपी और संघ परिवार देश को पहली दलित प्रधानमंत्री देने में अपने योगदान को दर्ज कराने में नहीं चूकेगा।
मायावती किस तरह से बीजेपी के काम आ रही हैं- इसकी बानगी देखिए। इलाहाबाद में अभी बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी की रैली हुई। केपी कॉलेज मैदान में हुई इस रैली में अच्छी भीड़ उमड़ी। इलाहाबाद में हुई आडवाणी की सफल रैली के कई राष्ट्रीय संकेत साफ दिखते हैं। ये वो इलाहाबाद है जहां से एक जमाने में बीजेपी की तीन धरोहरों –अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर- में से एक मुरली मनोहर जोशी तीन बार लगातार चुनाव जीते लेकिन, पिछला चुनाव हारे तो, गंगा के किनारे-किनारे इलाहाबाद से बनारस पहुंच गए।
जोशी के सीट छोड़ने के बाद इलाहाबाद से बीजेपी को उस कद से काफी नीचे के कद का उम्मीदवार भी नहीं मिल पा रहा था। इलाहाबाद और फूलपूर सीट के परिसीमन ने बीजेपी का गणित और बिगाड़ दिया। शहर उत्तरी जैसी बीजेपी के कैडर वोटरों वाली विधानसभा फूलपुर में जुड़ गई है। बीजेपी ने फूलपुर और
इलाहाबाद दोनों ही सीटों से अपरिचित से चेहरे करन सिंह पटेल और योगेश शुक्ला को टिकट दे दिया। प्रत्याशियों में खास दमखम न होने के बावजूद इलाहाबाद में आडवाणी की शानदार रैली ये संकेत देती है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में थोड़ा बहुत ही सही लेकिन, फिर जिंदा हो रही है।
ऐसा नहीं है कि इसके लिए बीजेपी नेतृत्व ने बहुत मेहनत की हो या फिर कार्यकर्ता अचानक फिर से बीजेपी का झंडा-बैनर लेकर खड़े हो गए हैं। दरअसल, ये सब हुआ है मायावती के एक फैसले – वरुण गांधी पर NSA यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने – से। समाजवादी पार्टी का ये आरोप भले ही राजनीतिक लगता हो लेकिन, काफी हद तक सही है कि मायावती सरकार की ये सिफारिश मुस्लिम वोटों को बीएसपी के पक्ष में और हिंदु वोटों को बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकरण के लिए काफी है।
जाने-अनजाने ही सही मायावती ने बीजेपी को थोड़ी ऑक्सीजन दे ही दी है। लेकिन, इतना भर ही नहीं है। ज्यादातर सर्वे और ओपीनियन पोल भले ही अभी यूपीए को एनडीए पर बढ़त दिखा रहे हैं। लेकिन, ज्यादातर में मायावती को बड़ी ताकत तो बनते दिखाया जा रहा है। इस बात पर कम ही ध्यान जा रहा है कि बड़ी होती मायावती किसको छोटा कर रही हैं। मायावती सिर्फ उत्तर प्रदेश में सत्ता में हैं लेकिन, देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों – कांग्रेस और भाजपा – से कहीं ज्यादा करीब 500 सीटों पर हाथी चुनाव चिन्ह पर
प्रत्याशी खड़े कर रही हैं।
दरअसल बड़ी होती मायावती ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बुरी तरह से भले ही पटखनी दी हो लेकिन, देश के दूसरे राज्यों में वो बीजेपी के लिए सत्ता का रास्ता आसान कर रही हैं। हाल में हुए विधानसभा चुनावों में बहनजी की बहुजन समाज पार्टी ने कई राज्यों में कांग्रेस के वोट बैंक की चुपके से सफाई कर दी।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत के साथ सीधे-सीधे सत्ता मिल गई। गुजरात में सत्ता में रहे मोदी ने विकास कार्यों के साथ हिंदुत्व के एजेंडे की अच्छी पैकेजिंग करके चुनाव जीत लिया। और, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेसी सत्ता के कुशासन की वजह से देवभूमि की जनता ने दुबारा वीरभद्र पर भरोसा करना ठीक नहीं समझा। और, उन्हें पहाड़ की चोटी से उठाकर नीचे पटक दिया।
दोनों राज्यों में चुनाव परिणामों की ये तो सीधी और बड़ी वजहें थीं। लेकिन, एक दूसरी वजह भी थी जो, दायें-बायें से भाजपा के पक्ष में और कांग्रेस के खिलाफ काम कर गई। वो, वजह थी मायावती का राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा। उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई मायावती को लगा कि जब वो राष्ट्रीय पार्टियों के आजमाए गणित से देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आ सकती हैं। तो, दूसरे राज्यों में इसका कुछ असर तो होगा ही। मायावती की सोच सही भी थी।
मायावती की बसपा ने पहली बार हिमाचल प्रदेश में अपना खाता खोला है। बसपा को सीट भले ही एक ही मिली हो। लेकिन, राज्य में उसे 7.3 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि, 2003 में उसे सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही वोट मिले थे। यानी पिछले चुनाव से दस गुना से भी ज्यादा मतदाता बसपा के पक्ष में चले गए हैं। और,
बसपा के वोटों में दस गुना से भी ज्यादा वोटों की बढ़त की वजह से भी भाजपा 41 सीटों और 43.8 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस से बहुत आगे निकल गई है। कांग्रेस को 38.9 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 23 सीटें ही मिली हैं। बसपा को मिले ज्यादातर वोट अब तक कांग्रेसी नेताओं के ही थैले में थे।
गुजरात में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि उसमें मायावती की पार्टी को मिले वोट बहुत मायने नहीं रखते। लेकिन, मायावती को जो वोट मिले हैं वो, आगे की राजनीति की राह दिखा रहे हैं। गुजरात की अठारह विधानसभा ऐसी थीं जिसमें भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर चार हजार से कम था। इसमें से पांच
विधानसभा ऐसी हैं जिसमें बसपा को मिले वोट अगर कांग्रेस के पास होते तो,वो जीत सकती थी। जबकि, चार और सीटों पर उसने कांग्रेस के वोटबैंक में अच्छी सेंध लगाई।
मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। मायावती की महाराष्ट्र पर भी कड़ी नजर है। वो, सबसे पहले मुंबई में पैठ जमाना चाहती हैं। क्योंकि, उन्हें पता है कि यहां से पूरे राज्य में संदेश जाता है। मायावती जानती हैं कि उत्तर प्रदेश के लोगों को उनके जादू का सबसे ज्यादा अंदाजा है। इसलिए वो उत्तर प्रदेश से आए करीब 25 लाख लोगों को सबसे पहले पकड़ना चाहती हैं। यही वो वोटबैंक है जिसने पिछले चुनाव में शिवसेना-भाजपा से किनारा करके कांग्रेस-एनसीपी को सत्ता में ला दिया। मुंबई में हिंदी भाषी जनता करीब 20 विधानसभा सीटों पर किसी को भी जितान-हराने की स्थिति में है। जाति के लिहाज से ब्राह्मण-दलित-मल्लाह-पासी-वाल्मीकि और मुस्लिम मायावती को आसानी से पकड़ में आते दिख रहे हैं।
अब अगर मायावती का ये फॉर्मूला काम करता है तो, रामदास अठावले की RPI गायब हो जाएगी। और, सबसे बड़ी मुश्किल में फंसेगा कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन। कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में कांग्रेस के साथ बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं साथ ही दलित-मुसलमानों का भी एक बड़ा तबका कांग्रेस से जुड़ा हुआ है। दलितों की 11 प्रतिशत आबादी मायावती की राह आसान कर रही है।
किसी भी सर्वे या ओपीनियन पोल में देखें तो, पिछले लोकसभा चुनाव में 11 सीटें पाने वाली बीजेपी को 15-20 के बीच में सीटें मिल रही हैं। और, बहनजी की बसपा को 29-39 सीटों के बीच में। अब अगर बीजेपी और बीएसपी उत्तर प्रदेश में कुल मिलाकर 50-55 सीटों तक पहुंच जाते हैं तो, यही समीकरण
केंद्र में बीजेपी-बीएसपी गठजोड़ को भी मजबूत आधार देगा। क्योंकि, जाने-अनजाने बीजेपी के कैडर का बड़ा हिस्सा इस समय जाति-कमजोर बीजेपी-मुलायम विरोध या फिर किसी और आधार पर बीएसपी का झंडा उठाए घूम रहा है।
इसमें मुश्किल सिर्फ इतनी ही है कि लालकृष्ण आडवाणी को ये चुनाव अपनी राजनीतिक पारी का अंत दिख रहा है। और, प्रधानमंत्री बनने का ये मौका वो किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहेंगे। अब अगर देश भर में बीजेपी, पुराने सहयोगियों (NDA) के साथ मजबूती से रही और, जयललिता जैसे कुछ डांवाडोल पुराने सहयोगियों को पटाती दिखी तो, बहनजी भी उप प्रधानमंत्री की कुर्सी लेकर आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने में मदद कर सकती हैं। लेकिन, अगर बीजेपी और एनडीए थोड़ा कमजोर रहा तो, कांग्रेस को सत्ता से रोकने के लिए बीजेपी और संघ परिवार देश को पहली दलित प्रधानमंत्री देने में अपने योगदान को दर्ज कराने में नहीं चूकेगा।
Wednesday, April 15, 2009
जो भी हो ये खबर सबको पढ़नी जरूर चाहिए
ये दूसरी खबरों जैसी सिर्फ एक खबर ही थी। 4 अप्रैल को टाइम्स ऑफ इंडिया की इस बॉटम स्टोरी की असलियत क्या है और पता नहीं कभी वो सामने आ भी पाएगी या नहीं। लेकिन, मुझे लगा कि इस खबर को जितने लोगों को हो सके जानना जरूर चाहिए। क्योंकि, असलियत तो इसलिए भी दफन हो जाएगी कि तहकीकात तो इस मामले में होने से रही।
सफेद कपड़ों में प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के साथ काले सूट में सोनिया गांधी- शोक संतप्त गांधी परिवार की फोटो के साथ हेडलाइन थी- priyanka’s dad in law found dead. सामान्य सी ही खबर थी इतनी कि जब हमारे न्यूजरूम में फ्लैश आया तो, मुझे लगा कि ये कौन सी बात हुई। प्रियंका के ससुर का मरना खबर कैसे हो सकती है। लेकिन, जब दूसरे दिन टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में थोड़े तफसील के साथ खबर दिखी तो, लगा कि ये तो बड़ी खबर थी, अच्छे से टीवी चैनलों पर चली क्यों नहीं।
प्रियंका के ससुर राजेंद्र वाड्रा का निधन हुआ। लेकिन, अखबार में लिखा ये लाइन चौंकाने वाली बात है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में राजेंद्र वाड्रा के गले के पास जख्मों के निशान कुछ इस तरह के हैं जैसे किसी के आत्महत्या करने पर होते हैं। वैसे, इतना हाई प्रोफाइल मामला होने की वजह से न तो पुलिस इस मामले में जांच कर रही है और न ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट की पूरी असलियत लोगों के सामने आ पाएगी।
मामला इसलिए और भी शक पैदा करता है कि राजेंद्र वाड्रा के पास फ्रेंड्स कॉलोनी में घर है लेकिन, वो यूसुफ सराय एरिया के एक गेस्ट हाउस city inn में पिछले 15 दिनों से रह रहे थे और उसी गेस्ट हाउस के कमरे में मरे पाए गए। राजेंद्र वाड्रा की अपने बेटे से बिल्कुल नहीं बनती थी ये पहले ही सुर्खियों में आ गया था। टाइम्स ऑफ इंडिया में अंदर के पेज पर छपी खबर में लिखा है कि राजेंद्र वाड्रा बेटे रॉबर्ट की प्रियंका गांधी के साथ शादी से खुश नहीं थे। और, करीब आठ साल पहले रॉबर्ट वाड्रा ने अपने पिता राजेंद्र वाड्रा और भाई रिचर्ड वाड्रा के खिलाफ ये पब्लिक नोटिस जारी किया था कि जिसमें कहा गया था कि वो दोनों उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में पद दिलाने और दूसरे कामों में गांधी परिवार के नाम का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। इस पर राजेंद्र वाड्रा ने मानहानि का मुकदमा करने की धमकी भी दी थी।
रॉबर्ट वाड्रा का भाई रिचर्ड संदेहास्पद परिस्थितियों में सितंबर 2003 में अपने वसंत विहार के घर में मरा पाया गया था। और, रॉबर्ट की बहन मिशेल की मृत्यु 2001 में एक कार दुर्घटना में हो गई थी। मुरादाबाद के वाड्रा परिवार का पीतल और हैंडीक्राफ्ट का कारोबार है। और, राजेंद्र वाड्रा को कांग्रेसी बताया जाता है। लेकिन, राजेंद्र के बड़े भाई ओमप्रकाश वाड्रा संघ के नजदीकी रहे। उन्होंने अपनी संपत्ति मुरादाबाद में एक ट्रस्ट को दान कर दी जिसे संघ से जुड़े लोग चला रहे हैं। इसी जमीन पर आज भी शिशु मंदिर चल रहा है।
गांधी परिवार से जुड़ी इस खबर और अफवाह में कितनी सच्चाई है, बिना तहकीकात के इसका अंदाजा लगाना तो असंभव है। और, मुझे नहीं लगता कि इसकी तहकीकात कभी होगी भी। इसीलिए मैंने इतने दिनों बाद ये खबर सिर्फ इसलिए अपने ब्लॉग पर डाली है ताकि, सनद रहे ...
सफेद कपड़ों में प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के साथ काले सूट में सोनिया गांधी- शोक संतप्त गांधी परिवार की फोटो के साथ हेडलाइन थी- priyanka’s dad in law found dead. सामान्य सी ही खबर थी इतनी कि जब हमारे न्यूजरूम में फ्लैश आया तो, मुझे लगा कि ये कौन सी बात हुई। प्रियंका के ससुर का मरना खबर कैसे हो सकती है। लेकिन, जब दूसरे दिन टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में थोड़े तफसील के साथ खबर दिखी तो, लगा कि ये तो बड़ी खबर थी, अच्छे से टीवी चैनलों पर चली क्यों नहीं।
प्रियंका के ससुर राजेंद्र वाड्रा का निधन हुआ। लेकिन, अखबार में लिखा ये लाइन चौंकाने वाली बात है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में राजेंद्र वाड्रा के गले के पास जख्मों के निशान कुछ इस तरह के हैं जैसे किसी के आत्महत्या करने पर होते हैं। वैसे, इतना हाई प्रोफाइल मामला होने की वजह से न तो पुलिस इस मामले में जांच कर रही है और न ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट की पूरी असलियत लोगों के सामने आ पाएगी।
मामला इसलिए और भी शक पैदा करता है कि राजेंद्र वाड्रा के पास फ्रेंड्स कॉलोनी में घर है लेकिन, वो यूसुफ सराय एरिया के एक गेस्ट हाउस city inn में पिछले 15 दिनों से रह रहे थे और उसी गेस्ट हाउस के कमरे में मरे पाए गए। राजेंद्र वाड्रा की अपने बेटे से बिल्कुल नहीं बनती थी ये पहले ही सुर्खियों में आ गया था। टाइम्स ऑफ इंडिया में अंदर के पेज पर छपी खबर में लिखा है कि राजेंद्र वाड्रा बेटे रॉबर्ट की प्रियंका गांधी के साथ शादी से खुश नहीं थे। और, करीब आठ साल पहले रॉबर्ट वाड्रा ने अपने पिता राजेंद्र वाड्रा और भाई रिचर्ड वाड्रा के खिलाफ ये पब्लिक नोटिस जारी किया था कि जिसमें कहा गया था कि वो दोनों उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में पद दिलाने और दूसरे कामों में गांधी परिवार के नाम का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। इस पर राजेंद्र वाड्रा ने मानहानि का मुकदमा करने की धमकी भी दी थी।
रॉबर्ट वाड्रा का भाई रिचर्ड संदेहास्पद परिस्थितियों में सितंबर 2003 में अपने वसंत विहार के घर में मरा पाया गया था। और, रॉबर्ट की बहन मिशेल की मृत्यु 2001 में एक कार दुर्घटना में हो गई थी। मुरादाबाद के वाड्रा परिवार का पीतल और हैंडीक्राफ्ट का कारोबार है। और, राजेंद्र वाड्रा को कांग्रेसी बताया जाता है। लेकिन, राजेंद्र के बड़े भाई ओमप्रकाश वाड्रा संघ के नजदीकी रहे। उन्होंने अपनी संपत्ति मुरादाबाद में एक ट्रस्ट को दान कर दी जिसे संघ से जुड़े लोग चला रहे हैं। इसी जमीन पर आज भी शिशु मंदिर चल रहा है।
गांधी परिवार से जुड़ी इस खबर और अफवाह में कितनी सच्चाई है, बिना तहकीकात के इसका अंदाजा लगाना तो असंभव है। और, मुझे नहीं लगता कि इसकी तहकीकात कभी होगी भी। इसीलिए मैंने इतने दिनों बाद ये खबर सिर्फ इसलिए अपने ब्लॉग पर डाली है ताकि, सनद रहे ...
Wednesday, April 01, 2009
ये पिछले 62 सालों से अप्रैल फूल बन रहे हैं
बीजेपी का घोषणापत्र अब तक जारी नहीं हुआ है। लेकिन, ये कांग्रेस दो हाथ आगे दिखेगा। आखिर घोषणापत्र होता तो सिर्फ कहने के लिए ही होता है। इसलिए कांग्रेस ने पहले जो कहा उससे कुछ आगे तो बीजेपी वालों को कहना ही होगा। बानगी दिख गई है- गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आडवाणी के लोकसभा क्षेत्र गांधीनगर में पहली चुनावी रैली में ही ये कह गए कि चावल 2 रुपए किलो मिलेगा।
नरेंद्र मोदी का 2 रुपए किलो चावल/गेहूं का फॉर्मूला शायद ही गुजरात में ज्यादा असर करता हो। लेकिन, देश भर में तो जमकर असर करता ही है। गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान राजकोट से 22 किलोमीटर दूर एक गांव राजसमढियाला गया। इस गांव की सालाना कमाई है करीब पांच करोड़ रुपए। 350 परिवारों वाले इस गांव के ज्यादातर लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती ही है। लेकिन, इस गांव की कई ऐसी खासियत हैं जिसके बाद शहर में रहने वाले भी इनके सामने पानी भरते नजर आएं। 2003 में ही इस गांव की सारी सड़कें कंक्रीट की बन गईं। 350 परिवारों के गांव में करीब 30 कारें हैं तो, 400 मोटरसाइकिल।
इस गांव में कांग्रेस के 3 रुपए किलो और नरेंद्र मोदी के 2 रुपए किलो चावल का कोई खरीदार नहीं है। और, इस गांव में न तो गरीबी मुद्दा है न वोट बैंक है। क्योंकि, गांव में अब कोई परिवार गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। इस गांव की गरीबी रेखा भी सरकारी गरीबी रेखा से इतना ऊपर है कि वो अमीर है। सरकारी गरीबी रेखा साल के साढ़े बारह हजार रुपए कमाने वालों की है। जबकि, राजकोट के इस गांव में एक लाख रुपए से कम कमाने वाला परिवार गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है।
गांव में विकास के नाम पर नेता वोट मांगने से डरते हैं। विकास में ये सरकारों की भागीदारी अच्छे से लेते हैं। यही वजह है कि चुनावों के समय भी इस गांव में कोई भी चुनावी माहौल नजर नहीं आता। न किसी पार्टी का झंडा न बैनर। गांव बाद में एक साथ बैठकर तय करते हैं कि वोट किसे करना है। लेकिन, जागरुक इतने कि अगर किसी ने वोट नहीं डाला तो, पांच सौ रुपए का जुर्माना भी है।
लेकिन, ये तो गुजरात के एक गांव की अपनी इच्छाशक्ति है कि वहां गरीब नहीं है और गरीबी मुद्दा नहीं है इसलिए गरीबों का वोटबैंक भी नहीं है। लेकिन, पूरे देश में गरीबों का ये वोटबैंक- जाति, धर्म, कम्युनल, सेक्युलर सबसे ज्यादा बड़ा है और आसानी से पकड़ में भी आ जाता है। दरअसल ये 2 रुपए-3 रुपए किलो चावल/गेहूं सरकारी खजाने को भले ही जमकर चोट पहुंचाता हो और जिनको ये दिया जाता है उन लोगों को अगले चुनाव तक फिर उसी हाल में रहने का आधार तैयार कर देता है कि वो तथाकथित सरकारी गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवार यानी BPL परिवारों में शामिल रहें। इस तरह के एलानों से वोट थोक में मिलते हैं और चुनाव के बाद चूंकि इन BPL परिवारों की चर्चा न तो मीडिया में होती है न तो, राजनीतिक पार्टियों में तो, कोई अलोकप्रिय होने का खतरा भी नहीं होता है।
कांग्रेस तो, पिछले करीब 35 सालों से हर चुनावी घोषणापत्र में गरीबी हटाने की बात कर रही है। कांग्रेस है तो, गांधी परिवार की विरासत कैसे भूल सकती है। इंदिरा गांधी को गरीबी हटाओ के नारे ने ही प्रधानमंत्री बना दिया था। इसलिए कांग्रेस के घोषणापत्र पर हाय गरीब-हाय गरीबी हावी हो गई। कांग्रेस ने कहा कि उनकी सरकार बनती है तो, गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 3 रुपए किलो गेहूं, चावल दिया जाएगा। यानी देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस ने लगे हाथ ये मान लिया कि गरीबी की रेखा के नीचे इतने लोग हैं कि वो, वोट देकर उसे चुनाव जिता सकते हैं वो, भी सिर्फ तीन किलो चावल-गेहूं के लिए।
कांग्रेस एक फूड सिक्योरिटी एक्ट की भी बात कर रही है जिसमें सबको खाना देने का वादा है। इसके लिए नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट बनेगा। कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना उसकी सबसे बड़ी यूएसपी है। इसीलिए वो, नरेगा योजना में लोगों को 100 दिन रोजगार के साथ 20 रुपए ज्यादा रोजाना की मजूरी यानी 100 रुपए की मजूरी का भी पक्का वादा कर रही है। जाहिर है ये फूड सिक्योरिटी एक्ट से खाना, नरेगा की मजदूरी वही लोग करेंगे जिनका जीवनस्तर आजादी के 62 सालों बाद भी इस लायक नहीं हो पाया है कि वो अपने अगल-बगल खुले चमकते डिपार्टमेंटल स्टोरों, मॉल से खरीदारी न कर सकें।
रहमान की जय हो धुन को जब ऑस्कर सम्मान मिला तो, कांग्रेस को लगा कि इससे बेहतर स्लोगन चुनाव जीतने के लिए हो ही नहीं सकता। आखिर, ये धुन तो दुनिया जीतकर लौटी है तो, इसके बूते कांग्रेस को देश का राज जीतने में भला क्यों मुश्किल होगी। लेकिन, स्लमडॉग मिलिनेयर फिल्म के बच्चों से मिलने की तस्वीरें जब टीवी चैनलों पर झुग्गी वाले भारत की कहानी दिखाने लगीं तो, कांग्रेस को लगा शायद थोड़ी गलती हो गई है। तब से कांग्रेस ने जय हो गाने की धुन जरा धीमी कर दी है।
कांग्रेस कह रही है कि उसका राज आया तो, सबको शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी। महंगाई कम करने और तेज विकास का वादा भी किया गया है। छोटे उद्योगों को मदद दी जाएगी। नौजवान बेरोजगार नहीं रहेगा इसका भी भरोसा दिलाने की कोशिश है।
सोनिया के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भाषण दे रहे हैं कि देश से गरीबी हटाने में अभी 15-20 साल लगेंगे। यानी अगले करीब चार लोकसभा चुनावों तक चुनावी घोषणापत्रों में सस्ते गेहूं-चावल और 100 रुपए की मजूरी पर जनता को लुभाया जाता रहेगा। क्योंकि, दुनिया के अमीरों में हमारे अमीरों के जब और आगे बढ़ने की खबर आती है तो, दूसरी सच्चाई जो थोड़ा धीरे से सुनाई जाती है जिससे फीलगुड कम न हो वो, ये है कि भारत की एक बड़ी आबादी अभी रोजाना एक बिसलेरी की बोतल यानी 20 रुपए से भी कम में गुजारा करती है।
मुद्दों की बात होती है तो, किसी भी सर्वे में अब गरीबी जैसा मुद्दा होता-दिखता ही नहीं है। लेकिन, दरअसल ये गरीब और गरीबी इस देश का सबसे बड़ा वोटबैंक है जो, चुनावों तक पार्टियों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा होता है। लेकिन, जैसे ही वोट बैलट बॉक्स में गए गरीबों की किस्मत और उनकी चर्चा भी अगले चुनाव तक ताले में ही चली जाती है। भारतीय लोकतंत्र में गरीबों का वोट जय हो। चुनाव तक गरीबों की भी जय हो ...
नरेंद्र मोदी का 2 रुपए किलो चावल/गेहूं का फॉर्मूला शायद ही गुजरात में ज्यादा असर करता हो। लेकिन, देश भर में तो जमकर असर करता ही है। गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान राजकोट से 22 किलोमीटर दूर एक गांव राजसमढियाला गया। इस गांव की सालाना कमाई है करीब पांच करोड़ रुपए। 350 परिवारों वाले इस गांव के ज्यादातर लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती ही है। लेकिन, इस गांव की कई ऐसी खासियत हैं जिसके बाद शहर में रहने वाले भी इनके सामने पानी भरते नजर आएं। 2003 में ही इस गांव की सारी सड़कें कंक्रीट की बन गईं। 350 परिवारों के गांव में करीब 30 कारें हैं तो, 400 मोटरसाइकिल।
इस गांव में कांग्रेस के 3 रुपए किलो और नरेंद्र मोदी के 2 रुपए किलो चावल का कोई खरीदार नहीं है। और, इस गांव में न तो गरीबी मुद्दा है न वोट बैंक है। क्योंकि, गांव में अब कोई परिवार गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। इस गांव की गरीबी रेखा भी सरकारी गरीबी रेखा से इतना ऊपर है कि वो अमीर है। सरकारी गरीबी रेखा साल के साढ़े बारह हजार रुपए कमाने वालों की है। जबकि, राजकोट के इस गांव में एक लाख रुपए से कम कमाने वाला परिवार गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है।
गांव में विकास के नाम पर नेता वोट मांगने से डरते हैं। विकास में ये सरकारों की भागीदारी अच्छे से लेते हैं। यही वजह है कि चुनावों के समय भी इस गांव में कोई भी चुनावी माहौल नजर नहीं आता। न किसी पार्टी का झंडा न बैनर। गांव बाद में एक साथ बैठकर तय करते हैं कि वोट किसे करना है। लेकिन, जागरुक इतने कि अगर किसी ने वोट नहीं डाला तो, पांच सौ रुपए का जुर्माना भी है।
लेकिन, ये तो गुजरात के एक गांव की अपनी इच्छाशक्ति है कि वहां गरीब नहीं है और गरीबी मुद्दा नहीं है इसलिए गरीबों का वोटबैंक भी नहीं है। लेकिन, पूरे देश में गरीबों का ये वोटबैंक- जाति, धर्म, कम्युनल, सेक्युलर सबसे ज्यादा बड़ा है और आसानी से पकड़ में भी आ जाता है। दरअसल ये 2 रुपए-3 रुपए किलो चावल/गेहूं सरकारी खजाने को भले ही जमकर चोट पहुंचाता हो और जिनको ये दिया जाता है उन लोगों को अगले चुनाव तक फिर उसी हाल में रहने का आधार तैयार कर देता है कि वो तथाकथित सरकारी गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवार यानी BPL परिवारों में शामिल रहें। इस तरह के एलानों से वोट थोक में मिलते हैं और चुनाव के बाद चूंकि इन BPL परिवारों की चर्चा न तो मीडिया में होती है न तो, राजनीतिक पार्टियों में तो, कोई अलोकप्रिय होने का खतरा भी नहीं होता है।
कांग्रेस तो, पिछले करीब 35 सालों से हर चुनावी घोषणापत्र में गरीबी हटाने की बात कर रही है। कांग्रेस है तो, गांधी परिवार की विरासत कैसे भूल सकती है। इंदिरा गांधी को गरीबी हटाओ के नारे ने ही प्रधानमंत्री बना दिया था। इसलिए कांग्रेस के घोषणापत्र पर हाय गरीब-हाय गरीबी हावी हो गई। कांग्रेस ने कहा कि उनकी सरकार बनती है तो, गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 3 रुपए किलो गेहूं, चावल दिया जाएगा। यानी देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस ने लगे हाथ ये मान लिया कि गरीबी की रेखा के नीचे इतने लोग हैं कि वो, वोट देकर उसे चुनाव जिता सकते हैं वो, भी सिर्फ तीन किलो चावल-गेहूं के लिए।
कांग्रेस एक फूड सिक्योरिटी एक्ट की भी बात कर रही है जिसमें सबको खाना देने का वादा है। इसके लिए नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट बनेगा। कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना उसकी सबसे बड़ी यूएसपी है। इसीलिए वो, नरेगा योजना में लोगों को 100 दिन रोजगार के साथ 20 रुपए ज्यादा रोजाना की मजूरी यानी 100 रुपए की मजूरी का भी पक्का वादा कर रही है। जाहिर है ये फूड सिक्योरिटी एक्ट से खाना, नरेगा की मजदूरी वही लोग करेंगे जिनका जीवनस्तर आजादी के 62 सालों बाद भी इस लायक नहीं हो पाया है कि वो अपने अगल-बगल खुले चमकते डिपार्टमेंटल स्टोरों, मॉल से खरीदारी न कर सकें।
रहमान की जय हो धुन को जब ऑस्कर सम्मान मिला तो, कांग्रेस को लगा कि इससे बेहतर स्लोगन चुनाव जीतने के लिए हो ही नहीं सकता। आखिर, ये धुन तो दुनिया जीतकर लौटी है तो, इसके बूते कांग्रेस को देश का राज जीतने में भला क्यों मुश्किल होगी। लेकिन, स्लमडॉग मिलिनेयर फिल्म के बच्चों से मिलने की तस्वीरें जब टीवी चैनलों पर झुग्गी वाले भारत की कहानी दिखाने लगीं तो, कांग्रेस को लगा शायद थोड़ी गलती हो गई है। तब से कांग्रेस ने जय हो गाने की धुन जरा धीमी कर दी है।
कांग्रेस कह रही है कि उसका राज आया तो, सबको शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी। महंगाई कम करने और तेज विकास का वादा भी किया गया है। छोटे उद्योगों को मदद दी जाएगी। नौजवान बेरोजगार नहीं रहेगा इसका भी भरोसा दिलाने की कोशिश है।
सोनिया के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भाषण दे रहे हैं कि देश से गरीबी हटाने में अभी 15-20 साल लगेंगे। यानी अगले करीब चार लोकसभा चुनावों तक चुनावी घोषणापत्रों में सस्ते गेहूं-चावल और 100 रुपए की मजूरी पर जनता को लुभाया जाता रहेगा। क्योंकि, दुनिया के अमीरों में हमारे अमीरों के जब और आगे बढ़ने की खबर आती है तो, दूसरी सच्चाई जो थोड़ा धीरे से सुनाई जाती है जिससे फीलगुड कम न हो वो, ये है कि भारत की एक बड़ी आबादी अभी रोजाना एक बिसलेरी की बोतल यानी 20 रुपए से भी कम में गुजारा करती है।
मुद्दों की बात होती है तो, किसी भी सर्वे में अब गरीबी जैसा मुद्दा होता-दिखता ही नहीं है। लेकिन, दरअसल ये गरीब और गरीबी इस देश का सबसे बड़ा वोटबैंक है जो, चुनावों तक पार्टियों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा होता है। लेकिन, जैसे ही वोट बैलट बॉक्स में गए गरीबों की किस्मत और उनकी चर्चा भी अगले चुनाव तक ताले में ही चली जाती है। भारतीय लोकतंत्र में गरीबों का वोट जय हो। चुनाव तक गरीबों की भी जय हो ...
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