अब मनमोहन जी तो सचमुच बहुत सीधे आदमी हैं। वो, बहुत कठिन समीकरणों को न राजनीति में समझने की कोशिश करते हैं न महंगाई के मामले में। इसीलिए दूसरा कार्यकाल आराम से पूरा करते दिख रहे हैं। लेकिन, चूंकि वो अर्थशास्त्री हैं तो, आंकड़े जरूर समझते हैं।
कुछ आंकड़े मेरे पास हैं वो, मैं पेश कर रहा हूं खुद ही अंदाजा लग जाएगा कि ये महंगाई किसी मांग-आपूर्ति के असंतुलन का नतीजा है क्या ?
2006 के बाद से लगातार हमारा अनाज का उत्पादन बढ़ा है। पिछले साल के कुछ सूखे की वजह से इस साल की फसल पर थोड़ा असर जरूर पड़ा है फिर भी वो, मांग से काफी ज्यादा है।
2007-08 में भारत का गेहूं का उत्पादन रिकॉर्ड 7 करोड़ 80 लाख टन हुआ था। जबकि, उम्मीद 7 करोड़ 68 लाख टन की ही थी।
2009-10 में सिर्फ गेहूं ही नहीं सभी अनाजों की बात करें यानी गेहूं और दालों की तो, अनाज का कुल उत्पादन 21 करोड़ 80 लाख टन तक होने की उम्मीद है। ये पिछले साल से करीब 1 करोड़ 60 लाख टन कम है लेकिन, फिर भी कुल पैदावार इतनी ज्यादा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में लाखों टन गेहूं सड़ चुका है।
2009-10 में गेहूं का उत्पादन पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 8 करोड़ 7 लाख टन होने की उम्मीद है। जबकि, दालों का उत्पादन भी रिकॉर्ड 1 करोड़ 46 लाख टन।
चावल भी इस साल करीब 9 करोड़ टन हुआ। और तिलहन उत्पादन करीब ढाई करोड़ टन का है। गन्ना 27 करोड़ 78 लाख टन का सरकारी अनुमान है।
महंगाई में अब बचती है सब्जी तो, उसका कोई ऐसा बुआई चक्र नहीं होता कि जुलाई-अगस्त की बारिश से सब सुधर जाएगा या सब बिगड़ जाएगा। फिर इस बारिश के भरोसे अपने प्रधानमंत्री जी से लेकर उनके आर्थिक सलाहकार सी रंगराजन, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और सारी सरकार को भुलावा क्यों है कि दिसंबर तक सब ठीक हो जाएगा। वैसे ऐसे ही भुलावे में रखकर पिछले 5 साल और नई यूपीए के साल भर से ज्यादा हो गए हैं। जय हो ...