Tuesday, July 26, 2022

मुफ्त की रेवड़ी बाँटने की राजनीति से किसका भला हो रहा है

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi



 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्त बाँटकर लोक लुभावन राजनीति करने पर सीधे प्रहार किया है। उन्होंने कहाकि, हमारे देश में मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की कोशिश हो रही है।यह रेवड़ी संस्कृति देश के विकास के लिए बहुत घातक है।इस रेवड़ी संस्कृति से देश के लोगों को बहुत सावधान रहना है। वैसे, देश का हर राजनीतिक दल अपनी चुनावी राजनीति के लिहाज से जनता को मुफ्त देने का वादा करता है और उसे पूरा भी करता है, लेकिन देश में अभी मुफ्त की राजनीति में दिल्ली मॉडल की चर्चा विशेष तौर पर हो रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि, मुफ्त बिजली-पानी देना सरकार का कर्तव्य है। इसीलिए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्त की रेवड़ी बाँटने से देश के खतरनाक स्थिति में जाने की चेतावनी दी तो नाम नहीं लेने के बावजूद अरविंद केजरीवाल ने ही उस पर तीखी प्रतिक्रिया दी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहाकि, जनता को फ्री रेवड़ी देने से श्रीलंका जैसे हालात नहीं होते। अपने दोस्तों/मंत्रियों को देने से होते हैं। श्रीलंका वाला अपने दोस्तों को फ्री रेवड़ी देता था।अगर जनता को देता तो जनता उसके घर में घुसके उसे ना भगाती। जनता को फ्री रेवड़ी भगवान का प्रसाद है। दोस्तों को फ्री रेवड़ी पाप। बिना एक दूसरे का नाम लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मुफ्त रेवड़ी बाँटने को जिस तरह से विपरीत अर्थों में प्रस्तुत किया है, उसमें जरूरी हो जाता है कि, इस लोकलुभावन मुफ्त में बाँटने वाली राजनीति को अच्छे से समझा जाए। 

यूपीए के पहले कार्यकाल के आखिरी वर्ष में चुनाव के ठीक पहले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था पर कर्जमाफी के परिणाम की बिना चिंता किए कृषि कर्जमाफी का ऐलान कर दिया। माना जाता है कि, यूपीए सरकार में राष्ट्रीय सलाहकार समिति ही निर्णय लेती थी और अर्थशास्त्र के जानकार के तौर पर डॉक्टर मनमोहन सिंह कृषि कर्जमाफी के सोनिया गांधी के कर्जमाफी के निर्णय के साथ नहीं थे। राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि, साठ हजार करोड़ रुपये की कृषि कर्जमाफी से देश में एक वातावरण बना और यूपीए दोबारा सत्ता में गया, लेकिन यह कर्जमाफी किसानों और सरकारी बैंकों के लिए कितनी घातक थी, इसका अनुमान तत्कालीन कृषि सचिव टी नंदकुमार के बाद में दिए गए बयानों से आसानी से लगाया जा सकता है। टी नंदकुमार 2006-08 तक भारत के खाद्य सचिव और 2008-10 तक भारत सरकार में कृषि सचिव थे। साठ हजार करोड़ रुपये की कृषि कर्जमाफी का निर्णय उनके कृषि सचिव रहते ही लिया गया था। कृषि सचिव रहते सरकार के निर्णय का विरोध करना संभव नहीं था, लेकिन बाद में टी नंदकुमार ने इस निर्णय पर अफसोस जताते हुए कहा था कि, हमें यह भ्रम था कि, यह आख़िरी कृषि कर्जमाफी होगी, लेकिन एक के बाद एक कृषि कर्जमाफी से कर्ज देने का चक्र पूरी तरह से बर्बाद हुआ और बैंकों की स्थिति भी खराब हुई। टी नंदकुमार ने कहाकि, दरअसल किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल रहा है और जब तक किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता, तब तक किसी भी तरह की कर्जमाफी किसानों का भला नहीं करने वाली है। इस बात को राष्ट्रीय कृषि आयोग के अध्यक्ष के तौर पर डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन और दूसरे कृषि विशेषज्ञ भी बारंबार कह चुके थे, अभी भी कहते हैं। यही वजह ही कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही 2017 के उत्तर प्रदेश चुनावों के पहले राज्य में कृषि कर्जमाफी का एलान किया, लेकिन तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में स्पष्ट तौर पर कह दिया कि, किसी भी तरह की कर्जमाफी सरकार की नीति के विरुद्ध है। यह लोकलुभावन राजनीति के विरुद्ध जाने जैसा था। फिर भी नरेंद्र मोदी सरकार ने कृषि कर्जमाफी के लोकलुभावन निर्णय के बजाय किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए कृषि क्षेत्र में आधारभूत सुधार करने के साथ ही तीन कृषि कानून लाने का निर्णय लिया। हालाँकि, भारी राजनीतिक विरोध और उस विरोध की आड़ में पंजाब में खालिस्तानी भावनाएँ भड़काने की कोशिश से पैदा हुई आंतरिक सुरक्षा के खतरे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उसे वापस लेना पड़ा। किसानों को शक्तिशाली करने की कोशिश धराशाई हुई। अच्छी बात यही रही कि, मोदी सरकार ने मुफ्त की राजनीति करने के बजाय अलग-अलग तरीके से किसान को मजबूत करने की कोशिश जारी रखी। कठिन समय में किसान के हाथ में रकम रहे, इसके लिए किसान सम्मान निधि देने का निर्णय नरेंद्र मोदी ने लिया। अब इस किसान सम्मान निधि पर भी मुफ्त की राजनीति के विरोधी सवाल खड़ा कर रहे हैं और, यह सवाल वाजिब दिखता है कि, कब तक इस तरह से किसानों के हाथ में कुछ रक़म देकर और किसानों को उनकी उपज की सही कीमत दिए बिना कृषि क्षेत्र का भला हो सकता है। उज्ज्वला के जरिए मुफ्त रसोई गैस और गरीबों को घर देने की योजना पर भी राजनीतिक सवाल खड़े होते हैं कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुफ्त में देकर अपना मतदाता समूह तैयार कर रहे हैं, फिर दूसरे राजनीतिक दलों पर मुफ्त रेवड़ी बाँटकर देश को खतरनाक दिशा में ले जाने की बात क्यों कर रहे हैं। 

अब यहीं पर देश की वित्तीय स्थिति और मुफ्त राजनीति को को ठीक से समझने की जरूरत है। कोविड जैसे कठिन समय में भारत की सरकार ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को भी किसानों के साथ एक तय रकम दी थी और उस समय सरकार की यह जिम्मेदारी बनती थी कि, उन्हें पूर्णबंदी और उसके बाद रोजगार के मौके खत्म होने की वजह से हो रही मुश्किलों के समय मदद दी जाए। गरीबों को शहरों और गाँवों में आवास देने के पीछे भी यही विचार कार्य कर रहा है कि, जिन लोगों की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं है, उन्हें जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित होना पड़े। इसीलिए उज्ज्वला योजना में रसोई गैस देने के बाद नियमित तौर पर मुफ्त सिलिंडर देने पर मोदी सरकार को खूब आलोचना भी झेलना पड़ा। जबकि, उज्ज्वला के जरिये मिली रसोई गैस ने गरीब परिवारों की महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ पर्यावरण के स्वास्थ्य को भी बेहतर करने में मदद की। दरअसल, नरेंद्र मोदी जब मुफ्त में कमजोर आय वर्ग के लोगों या किसानों को मदद की योजना बना रहे हैं तो उसके पीछे दीर्घकालिक तौर पर उन्हें मजबूत करके धीरे-धीरे मुफ्त रेवड़ी को खत्म करने पर कार्य किया है, लेकिन इसके ठीक उलट देश में सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों में शामिल दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार ने निरंतर मुफ्त बिजली-पानी वाली योजना को लागू कर दिया और इसी को दिल्ली मॉडल बताई देश के अन्य राज्यों में भी लागू कराना चाहते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुफ्त रेवड़ी से बचने की सलाह पर अरविंद केजरीवाल की तरफ से तीखी टिप्पणी आई। दिल्ली की मुफ्तउवा वाली राजनीति दिल्ली के खजाने पर  कैसे भारी पड़ रही है, इसका अनुमान दिल्ली के आर्थिक सर्वेक्षण से लग जाता है। 2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, 2020-21 में दिल्ली का वित्तीय घाटा तीन गुना बढ़ गया है। 2019-20 में दिल्ली का वित्तीय घाटा तीन हजार दो सौ सत्ताइस करोड़ उन्यासी लाख था जो अभी नौ हजार नौ सौ बहत्तर करोड़ छियानबे लाख लाख रुपये हो गया है। इसी से अंदाजा लग जाता है कि, मुफ्त की राजनीति वाला दिल्ली मॉडल कितना खतरनाक है। दिल्ली भाजपा अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का ध्यान इसी तरह ले जाते हुए बताया कि, दिल्ली का राजस्व ₹61891करोड़ जबकि खर्चा ₹71085 करोड़ का है अर्थात अनुमानित घाटा ₹9194 करोड़ है। मुफ्त रेवड़ी बाँटने की होड़ में पहले ही खराब स्थिति में पहुँचा पंजाब और खराब आर्थिक स्थिति की ओर बढ़ रहा है। पंजाब चुनाव के वक्त मुफ्त के केजरीवाल के एलान को पूरा करने के लिए पंजाब के कुल बजट 72000 करोड़ रुपये से भी अधिक की आवश्यकता पड़ेगी। यही वजह रही कि, पंजाब का मुख्यमंत्री बनने के बाद भगवंत मान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने आए तो सबसे पहले पचास हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष उधारी की माँग कर डाली। सरकारी नौकरियों का वादा हो या फिर महिलाओं के खाते में एक हजार रुपये देने का, सरकारी खजाना ख़ाली होने और केंद्र सरकार से उधारी मिलने से भगवंत मान सरकार ने उस पर चुप्पी साध ली है। हाँ, मुफ्त बिजली का वादा जरूर पूरा कर दिया है। पंजाब के अति सम्मानित व्यक्ति कृषि अर्थशास्त्री सरदारा सिंह जोहल कह रहे हैं कि, भगवंत मान के पंजाब में दिल्ली मॉडल लागू करने से पंजाब जल्द ही भयानक कर्ज के दुष्चक्र में फँसने जा रहा है। उन्होंने कहाकि, भगवंत मान सरकार आते ही तैंतीस हजार करोड़ रुपये का कर्ज ले चुकी है और पहले के तीन लाख करोड़ का कर्ज भी उसे चुकाना है। उन्होंने कहाकि, बुनियादी सुविधाओं को तैयार करने के लिए राज्य का केंद्र से कर्ज लेने में बुराई नहीं है, लेकिन मुफ्त रेवड़ी बाँटने के लिए कर्ज लेना पंजाब को बर्बाद कर देगा। इसी खतरे की ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इशारा कर रहे थे, लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत के सिद्धांत पर मस्त है। श्रीलंका के राजपक्षे परिवार की ही तरह अरविंद केजरीवाल को मिला जनमत उन्हें मुफ्तउवा राजनीति के खतरे को देखने नहीं दे रहा है। 


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