इस समय मेरा परिवार कश्मीर में है। तीन दिनों तक दहशत में श्रीनगर में जीने के बाद अब वो, वैष्णो माता का दर्शन करके कटरा लौट आए हैं। पिताजी ने जब घूमने का कार्यक्रम बनाया तो, मैंने सबसे मुखर तौर पर कश्मीर जाने को ही कहा। दरअसल दो साल पहले जब मेरी शादी हुई तो, घूमने जाने के लिए मुझे वैष्णो देवी के दर्शन के साथ श्रीनगर की वादियों में घूमना सबसे मुफीद कार्यक्रम लगा। और, कश्मीर में एक हफ्ते – इसी में श्रीनगर में 4 दिन (गुलमर्ग भी शामिल) रहना इतना सुखद अनुभव रहा था कि घर वालों को मैंने कहा- श्रीनगर जरूर घूमकर आइए।
शादी के बाद का पहला घूमना तो वैसे भी किसी को नहीं भूलता है। लेकिन, श्रीनगर इसलिए भी मेरी यादों का जबरदस्त हिस्सा बन चुका है कि यहीं से मेरी हिंदी ब्लॉग की पहली पोस्ट निकली थी। जिसमें मैंने वहां बह रही शांति की बयार का जिक्र किया था। और, ये भी लिखा था कि बाजार किस तरह से बंदूक पर भारी पड़ रहा है। लेकिन, अब दो साल बाद मुझे साफ दिख रहा है कि राजनीति, बाजार की वजह से जन्नत (कश्मीर) के सुधरे माहौल को बिगाड़कर उसे दोजख बनाने पर आमादा है।
बिना मुद्दे के किसी तिल जैसी बात को ताड़ कैसे बनाया जा सकता है ये कोई भारतीय राजनेताओं से सीखे। मामला बस इतना था कि अमरनाथ यात्रियों को कुछ सुविधाएं देने के लिए जरूरी व्यवस्था की जानी थी। इसके लिए पहलगाम और गुलमर्ग में धर्मशाला बननी थी। जिससे अमरनाथ यात्रियों के लिए कुछ पक्के कमरे बाथरूम-टॉयलेट बन सके। अभी कनात की आड़ में इन यात्रियों को ये सब करना होता है। जम्मू कश्मीर सरकार ने जंगल की करीब 100 एक जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को देने की मंजूरी दे दी। इस मंजूरी को बाकायदा कैबिनेट ने पास किया। कैबिनेट में राज्य के वनमंत्री ने भी हस्ताक्षर किए जो, पीडीपी के विधायक हैं।
लेकिन, शायद बेशर्मी से चुनावी फायदे के लिए पलटी मारना ही राजनीति है। यही वजह थी कि 26 मई को कैबिनेट में पीडीपी मंत्री ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ जमीन देने पर सहमति जताई और उसके बाद महबूबा मुफ्ती ने इस मुद्दे पर भड़काऊ आंदोलन की योजना तैयार कर डाली। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती फैसले का विरोध करते हुए सड़कों पर उतर गईं। आंदोलन हिंसक इसलिए हो गया कि महबूबा के साथ खड़े हो गए जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने के हिमायती। मुझे तो लगता है कि इस आग में आतंकवादी भी अपना हित साधने की कोशिश कर रहे हैं।
मैं इसमें आतंकवादियों के शामिल होने का शक जता रहा हूं तो, इसके पीछे ठोस वजह भी है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के फैसले का विरोध करने वाले लोग कह रहे हैं कि ये राज्य को डेमोग्राफी (जनसंख्या वितरण) को प्रभावित करने की साजिश है। अब मुझे ये बात समझ में नहीं आती कि अमरनाथ यात्रियों के लिए दो-चार धर्मशालाएं बन जाने से कश्मीर की मुस्लिम बहुल जनसंख्या में हिंदु कैसे ज्यादा हो जाएंगे। यानी साफ है कि ये कहकर श्रीनगर, गलुमर्ग, पहलगाम के मुस्लिम बहुल इलाके में आग लगाने की कोशिश की जा रही है। या यूं कहें कि कोशिश सफल हो चुकी है।
इसी मुद्दे पर हुई बहस में हमारे एक सीनियर ने एकदम सही बात कह दी। उनका कहना था कि वहां सारे मुसलमान ही हैं इसलिए डेमोग्राफी बिगड़ने के बेवकूफी भरे मुद्दे को भी भुना लिया जा रहा है। वरना तो, डेमोग्राफी कैसे बिगड़ी है पश्चिम बंगाल में ये कोई लेफ्ट की सरकार से क्यों नहीं पूछता। पूरे बंगाल में बांग्लादेशी थोक के भाव में भर गए हैं। जाने कितनी विधानसभा और लोकसभा सीटों पर उनके वोट सीपीएम को सत्ता दिलाते हैं। और, पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशियों की ताकत इससे भी साबित हो जाती है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े लंबरदार वामपंथियों के शासन में तस्लीमा नसरीन को देश निकाला झेलना पड़ रहा है। क्योंकि, तसलीमा ने बांग्लादेश के सांप्रदायिक चरित्र पर काफी कुछ कड़वा लिखा है। लालू प्रसाद यादव के शासन में बंगाल से सटे बिहार के इलाकों में भी ये बांग्लादेशी मुसलमान तेजी से बढ़े। इस देश की राजनीति का हाल इसी से समझा जा सकता है कि बांग्लादेश से अवैध रूप से आए मुसलमानों का विरोध हो तो, भी वो सांप्रदायिक हो जाता है और अगर अमरनाथ यात्रियों के लिए कुछ जरूरी सुविधाओं के लिए सरकार जमीन दे तो, वो भी सांप्रदायिक।
कश्मीर की राजनीति में अलगाववादियों के साथ मिलकर वहां की क्षेत्रीय पार्टियों ने किस तरह से जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ा है ये, किसी से छिपा नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में कैंपों में रहते कश्मीरी पंडितों का दर्द ये साफ बता देता है। और, राज्य विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला का बयान भी बता रहा है कि राजनीतिक हित के लिए अभी कश्मीर काफी खून बहेगा। गुलाम नबी आजाद सरकार के अलपमत में आने के बाद उमर अब्दुल्ला एक टीवी चैनल पर फोनलाइन पर कह रहे थे कि श्रीनगर में चल रहा आंदोलन यहां की अवाम की भावना है जबकि, जम्मू में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मांग करने वाला आंदोलन सांप्रदायिक है। क्यों, हिंदुओं को भारत में ही अपने धार्मिक स्थलों के दर्शन के लिए जरूरी सुविधाएं मांगना सांप्रदायिक कैसे हो गया। कश्मीर और अमरनाथ मंदिर तो भारत में ही है ना। कैलाश-मानसरोवर की बात अलग है—वहां तो, चीन सरकार अपनी मर्जी से यात्रा की इजाजत देती ही है।
पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने जम्मू-कश्मीर की कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। वो, कह रही हैं कि जनता की भावनाओं को देखते हुए उन्होंने ये फैसला लिया है। जबकि, राजनीति की सामान्य सी समझ रखने वाला भी आसानी से समझ सकता है कि महबूबा निरा झूठ बोल रही हैं। दरअसल, जब छे साल पहले 2002 में कांग्रेस और पीडीपी ने आधे-आधे कार्यकाल तक सरकार चलाने के फॉर्मूले के तहत सरकार बनाई थी तब से महबूबा इसी फिराक में थी कि कोई भड़काऊ मुद्दा मिले जिससे वो, कांग्रेस को ठेंगा दिखा सकें। क्योंकि, सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के पास 25 विधायक होने के बाद सत्ता की मलाई चाटने के लिए 18 विधायकों वाली महबूबा, 21 विधायकों वाले गुलाम नबी आजाद के साथ अनमना सा करार किए हुए बैठी थीं।
पहले तीन साल महबूबा मुख्यमंत्री रहीं तो, सब ठीक चलता रहा। लेकिन, गुलाम नबी आजाद को सत्ता सौंपने के बाद से ही वो, इस साजिश में लग गईं थीं कि कब कांग्रेस समर्थन वापसी की कोई ठोस वजह मिल सके। जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने की वजह से सितंबर में तो चुनाव होने ही थे। अब उसके ठीक पहले इतने भड़काऊ मुद्दे पर सरकार गिराकर महबूबा अपनी खुद की सरकार चाहती हैं। महबूबा कह रही हैं कि हफ्ते भर से चल रहे आंदोलन में निर्दोष लोग मारे जा रहा हैं इसलिए सरकार से समर्थन वापस लेना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। आखिर किसकी वजह से निर्दोष लोग मारे गए। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अलगाववादी नेता यासीन मलिक के साथ पीडीपी के आंदोलन की ही वजह से ना।
खैर, चुनाव के पहले अपना वोटबैंक पक्का करने की कोशिश में लगे इन नेताओं के बहकावे में आकर वहां की जनता ने एक बार फिर कश्मीर को बंदूक की राजनीति के हवाले कर दिया है। महबूबा का एक और बयान पढ़िए- कश्मीर में फिर से पुरानी स्थिति हो गई है। पिछले कई सालों की शांति प्रक्रिया पूरी तरह बेकार हो गई है। यानी, अब अगले छे सालों के लिए फिर से उन्हें सत्ता दीजिए जिससे वो, छे साल शांति प्रक्रिया चलाएं और आखिरी साल में ऐसे ही किसी मुद्दे पर जनता को भड़काकर कश्मीर की शांति को श्रीनगर के लाल चौक पर हिंदुस्तान के प्रति नफरत की आग में जलाकर खाक कर दें।
उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे युवा नेताओं से थोड़ा आस थी कि ये कुछ लीक से हटकर चलेंगे। लेकिन, जिनको राजनीति ही विरासत में मिली है वो, राजनीति करने में भी तो विरासत ही संभालेंगे। अब ये राजनीति तो चलती रहेगी। इस सबके बीच हुआ ये कि मेरे घर वाले 4 दिन श्रीनगर में रहने के बावजूद बिना श्रीनगर देखे वापस लौट आए। क्योंकि, 25 जून को जब वो, लेह से श्रीनगर पहुंचे तो, हालात खराब होने की वजह से सीधे एयरपोर्ट से बोट पर पहुंचा दिए गए। दूसरे दिन यानी 26 जून को हिम्मत करके गुलमर्ग चले तो, गए लेकिन, वहां सब बंद था। चाय तक नहीं मिली। और, शाम को लौटते-लौटते हालात बहद बिगड़ चुके थे। गुलमर्ग से श्रीनगर के रास्ते में लोगों ने जाम लगा रखा था। गाड़ियां जला दी थीं। मैंने शाम सात बजे के आसपास फोन किया तो, छोटे भाई ने कहा- हम लोग एक गांव में फंसे हैं। श्रीनगर पहुंचकर फोन करूंगा। टूरिस्टों की 15-20 गाड़ियां साथ में हैं। खैर, किसी तरह वो श्रीनगर पहुंचे।
लेकिन, 27 जून को दिन भर बोट पर ही रहे। जबकि, 27 को उन लोगों का पहलगाम जाने का कार्यक्रम था। 28 जून को 11.30 बजे की फ्लाइट थी जम्मू के लिए। लेकिन, हालात बिगड़ने के डर से सुबह 5 बजे ही एयरपोर्ट पहुंच गए। एयरपोर्ट नौ बजे के बाद खुला इसलिए इतनी देर तक बाहर ही रहना पड़ा। अब मैंने तो, श्रीनगर के अच्छे अनुभवों के बूते घरवालों को कश्मीर घुमा दिया। लेकिन, दहशत के चार दिन बिताने के बाद क्या मेरे घरवाले किसी को कश्मीर घूमने जाने की सलाह दे पाएंगे। और, अगर नहीं तो, कश्मीर टूरिस्ट नहीं जाएंगे तो, इसकी वजह से बेरोजगार होने वाले कश्मीरी नौजवानों को आतंकवादियों का पैसा और बातें ज्यादा समझ में आएंगी या फिर महबूबा और उमर अब्दुल्ला की खाली राजनीति।
शादी के बाद का पहला घूमना तो वैसे भी किसी को नहीं भूलता है। लेकिन, श्रीनगर इसलिए भी मेरी यादों का जबरदस्त हिस्सा बन चुका है कि यहीं से मेरी हिंदी ब्लॉग की पहली पोस्ट निकली थी। जिसमें मैंने वहां बह रही शांति की बयार का जिक्र किया था। और, ये भी लिखा था कि बाजार किस तरह से बंदूक पर भारी पड़ रहा है। लेकिन, अब दो साल बाद मुझे साफ दिख रहा है कि राजनीति, बाजार की वजह से जन्नत (कश्मीर) के सुधरे माहौल को बिगाड़कर उसे दोजख बनाने पर आमादा है।
बिना मुद्दे के किसी तिल जैसी बात को ताड़ कैसे बनाया जा सकता है ये कोई भारतीय राजनेताओं से सीखे। मामला बस इतना था कि अमरनाथ यात्रियों को कुछ सुविधाएं देने के लिए जरूरी व्यवस्था की जानी थी। इसके लिए पहलगाम और गुलमर्ग में धर्मशाला बननी थी। जिससे अमरनाथ यात्रियों के लिए कुछ पक्के कमरे बाथरूम-टॉयलेट बन सके। अभी कनात की आड़ में इन यात्रियों को ये सब करना होता है। जम्मू कश्मीर सरकार ने जंगल की करीब 100 एक जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को देने की मंजूरी दे दी। इस मंजूरी को बाकायदा कैबिनेट ने पास किया। कैबिनेट में राज्य के वनमंत्री ने भी हस्ताक्षर किए जो, पीडीपी के विधायक हैं।
लेकिन, शायद बेशर्मी से चुनावी फायदे के लिए पलटी मारना ही राजनीति है। यही वजह थी कि 26 मई को कैबिनेट में पीडीपी मंत्री ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ जमीन देने पर सहमति जताई और उसके बाद महबूबा मुफ्ती ने इस मुद्दे पर भड़काऊ आंदोलन की योजना तैयार कर डाली। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती फैसले का विरोध करते हुए सड़कों पर उतर गईं। आंदोलन हिंसक इसलिए हो गया कि महबूबा के साथ खड़े हो गए जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने के हिमायती। मुझे तो लगता है कि इस आग में आतंकवादी भी अपना हित साधने की कोशिश कर रहे हैं।
मैं इसमें आतंकवादियों के शामिल होने का शक जता रहा हूं तो, इसके पीछे ठोस वजह भी है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के फैसले का विरोध करने वाले लोग कह रहे हैं कि ये राज्य को डेमोग्राफी (जनसंख्या वितरण) को प्रभावित करने की साजिश है। अब मुझे ये बात समझ में नहीं आती कि अमरनाथ यात्रियों के लिए दो-चार धर्मशालाएं बन जाने से कश्मीर की मुस्लिम बहुल जनसंख्या में हिंदु कैसे ज्यादा हो जाएंगे। यानी साफ है कि ये कहकर श्रीनगर, गलुमर्ग, पहलगाम के मुस्लिम बहुल इलाके में आग लगाने की कोशिश की जा रही है। या यूं कहें कि कोशिश सफल हो चुकी है।
इसी मुद्दे पर हुई बहस में हमारे एक सीनियर ने एकदम सही बात कह दी। उनका कहना था कि वहां सारे मुसलमान ही हैं इसलिए डेमोग्राफी बिगड़ने के बेवकूफी भरे मुद्दे को भी भुना लिया जा रहा है। वरना तो, डेमोग्राफी कैसे बिगड़ी है पश्चिम बंगाल में ये कोई लेफ्ट की सरकार से क्यों नहीं पूछता। पूरे बंगाल में बांग्लादेशी थोक के भाव में भर गए हैं। जाने कितनी विधानसभा और लोकसभा सीटों पर उनके वोट सीपीएम को सत्ता दिलाते हैं। और, पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशियों की ताकत इससे भी साबित हो जाती है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े लंबरदार वामपंथियों के शासन में तस्लीमा नसरीन को देश निकाला झेलना पड़ रहा है। क्योंकि, तसलीमा ने बांग्लादेश के सांप्रदायिक चरित्र पर काफी कुछ कड़वा लिखा है। लालू प्रसाद यादव के शासन में बंगाल से सटे बिहार के इलाकों में भी ये बांग्लादेशी मुसलमान तेजी से बढ़े। इस देश की राजनीति का हाल इसी से समझा जा सकता है कि बांग्लादेश से अवैध रूप से आए मुसलमानों का विरोध हो तो, भी वो सांप्रदायिक हो जाता है और अगर अमरनाथ यात्रियों के लिए कुछ जरूरी सुविधाओं के लिए सरकार जमीन दे तो, वो भी सांप्रदायिक।
कश्मीर की राजनीति में अलगाववादियों के साथ मिलकर वहां की क्षेत्रीय पार्टियों ने किस तरह से जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ा है ये, किसी से छिपा नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में कैंपों में रहते कश्मीरी पंडितों का दर्द ये साफ बता देता है। और, राज्य विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला का बयान भी बता रहा है कि राजनीतिक हित के लिए अभी कश्मीर काफी खून बहेगा। गुलाम नबी आजाद सरकार के अलपमत में आने के बाद उमर अब्दुल्ला एक टीवी चैनल पर फोनलाइन पर कह रहे थे कि श्रीनगर में चल रहा आंदोलन यहां की अवाम की भावना है जबकि, जम्मू में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मांग करने वाला आंदोलन सांप्रदायिक है। क्यों, हिंदुओं को भारत में ही अपने धार्मिक स्थलों के दर्शन के लिए जरूरी सुविधाएं मांगना सांप्रदायिक कैसे हो गया। कश्मीर और अमरनाथ मंदिर तो भारत में ही है ना। कैलाश-मानसरोवर की बात अलग है—वहां तो, चीन सरकार अपनी मर्जी से यात्रा की इजाजत देती ही है।
पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने जम्मू-कश्मीर की कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। वो, कह रही हैं कि जनता की भावनाओं को देखते हुए उन्होंने ये फैसला लिया है। जबकि, राजनीति की सामान्य सी समझ रखने वाला भी आसानी से समझ सकता है कि महबूबा निरा झूठ बोल रही हैं। दरअसल, जब छे साल पहले 2002 में कांग्रेस और पीडीपी ने आधे-आधे कार्यकाल तक सरकार चलाने के फॉर्मूले के तहत सरकार बनाई थी तब से महबूबा इसी फिराक में थी कि कोई भड़काऊ मुद्दा मिले जिससे वो, कांग्रेस को ठेंगा दिखा सकें। क्योंकि, सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के पास 25 विधायक होने के बाद सत्ता की मलाई चाटने के लिए 18 विधायकों वाली महबूबा, 21 विधायकों वाले गुलाम नबी आजाद के साथ अनमना सा करार किए हुए बैठी थीं।
पहले तीन साल महबूबा मुख्यमंत्री रहीं तो, सब ठीक चलता रहा। लेकिन, गुलाम नबी आजाद को सत्ता सौंपने के बाद से ही वो, इस साजिश में लग गईं थीं कि कब कांग्रेस समर्थन वापसी की कोई ठोस वजह मिल सके। जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने की वजह से सितंबर में तो चुनाव होने ही थे। अब उसके ठीक पहले इतने भड़काऊ मुद्दे पर सरकार गिराकर महबूबा अपनी खुद की सरकार चाहती हैं। महबूबा कह रही हैं कि हफ्ते भर से चल रहे आंदोलन में निर्दोष लोग मारे जा रहा हैं इसलिए सरकार से समर्थन वापस लेना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। आखिर किसकी वजह से निर्दोष लोग मारे गए। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अलगाववादी नेता यासीन मलिक के साथ पीडीपी के आंदोलन की ही वजह से ना।
खैर, चुनाव के पहले अपना वोटबैंक पक्का करने की कोशिश में लगे इन नेताओं के बहकावे में आकर वहां की जनता ने एक बार फिर कश्मीर को बंदूक की राजनीति के हवाले कर दिया है। महबूबा का एक और बयान पढ़िए- कश्मीर में फिर से पुरानी स्थिति हो गई है। पिछले कई सालों की शांति प्रक्रिया पूरी तरह बेकार हो गई है। यानी, अब अगले छे सालों के लिए फिर से उन्हें सत्ता दीजिए जिससे वो, छे साल शांति प्रक्रिया चलाएं और आखिरी साल में ऐसे ही किसी मुद्दे पर जनता को भड़काकर कश्मीर की शांति को श्रीनगर के लाल चौक पर हिंदुस्तान के प्रति नफरत की आग में जलाकर खाक कर दें।
उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे युवा नेताओं से थोड़ा आस थी कि ये कुछ लीक से हटकर चलेंगे। लेकिन, जिनको राजनीति ही विरासत में मिली है वो, राजनीति करने में भी तो विरासत ही संभालेंगे। अब ये राजनीति तो चलती रहेगी। इस सबके बीच हुआ ये कि मेरे घर वाले 4 दिन श्रीनगर में रहने के बावजूद बिना श्रीनगर देखे वापस लौट आए। क्योंकि, 25 जून को जब वो, लेह से श्रीनगर पहुंचे तो, हालात खराब होने की वजह से सीधे एयरपोर्ट से बोट पर पहुंचा दिए गए। दूसरे दिन यानी 26 जून को हिम्मत करके गुलमर्ग चले तो, गए लेकिन, वहां सब बंद था। चाय तक नहीं मिली। और, शाम को लौटते-लौटते हालात बहद बिगड़ चुके थे। गुलमर्ग से श्रीनगर के रास्ते में लोगों ने जाम लगा रखा था। गाड़ियां जला दी थीं। मैंने शाम सात बजे के आसपास फोन किया तो, छोटे भाई ने कहा- हम लोग एक गांव में फंसे हैं। श्रीनगर पहुंचकर फोन करूंगा। टूरिस्टों की 15-20 गाड़ियां साथ में हैं। खैर, किसी तरह वो श्रीनगर पहुंचे।
लेकिन, 27 जून को दिन भर बोट पर ही रहे। जबकि, 27 को उन लोगों का पहलगाम जाने का कार्यक्रम था। 28 जून को 11.30 बजे की फ्लाइट थी जम्मू के लिए। लेकिन, हालात बिगड़ने के डर से सुबह 5 बजे ही एयरपोर्ट पहुंच गए। एयरपोर्ट नौ बजे के बाद खुला इसलिए इतनी देर तक बाहर ही रहना पड़ा। अब मैंने तो, श्रीनगर के अच्छे अनुभवों के बूते घरवालों को कश्मीर घुमा दिया। लेकिन, दहशत के चार दिन बिताने के बाद क्या मेरे घरवाले किसी को कश्मीर घूमने जाने की सलाह दे पाएंगे। और, अगर नहीं तो, कश्मीर टूरिस्ट नहीं जाएंगे तो, इसकी वजह से बेरोजगार होने वाले कश्मीरी नौजवानों को आतंकवादियों का पैसा और बातें ज्यादा समझ में आएंगी या फिर महबूबा और उमर अब्दुल्ला की खाली राजनीति।