लग रहा है कि किसी तरह जनता दल यूनाइटेड कम से कम साथ चुनाव लड़ने पर तो राजी हो गई है। अब दबी-छिपी शर्तें जो भी हों लेकिन, शायद नीतीश को भी ये लगा कि बीजेपी से टूटे तो, लालू-पासवान और कांग्रेस उनके चमकदार मुख्यमंत्री के कार्यकाल को जाने कहां इतिहास में ले जाकर पटक देंगे। लेकिन, नीतीश कुमार ने नवीन पटनायक बनने की हर संभावना तलाशने की कोशिश की थी। ये भले ही अभी हुआ नहीं लेकिन, बार-बार उभरने वाला एक सवाल जरूर फिर से खड़ा हो गया है कि क्या बीजेपी भले ही कांग्रेस के अलावा दूसरी अकेली राष्ट्रीय पार्टी होने का दावा करती हो लेकिन, उसका व्यवहार राष्ट्रीय पार्टी होने के उसके दावे को बल नहीं देता। क्या वजह है कि अकसर वो, अपने क्षेत्रीय सहयोगियों से मात खा जाती है।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी बार-बार ये चिल्लाकर कहने की कोशिश कर रहे हैं कि बिहार के चुनाव में भाजपा का कौन नेता प्रचार के लिए जाएगा कौन नहीं ये भाजपा तय करेगी ये तय करने का हक सहयोगी पार्टियों को नहीं है। लेकिन, जब उनसे ये पूछा जाता है कि क्या नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए जाएंगे तो, उनकी जुबान थोड़ी लड़खड़ाने लगती है। वो, गोल-गोल घुमाने लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी क्षेत्रीय सहयोगी से तालमेल बिठाने में पूरी पार्टी गोल-गोल घूमने लगती है।
बिहार में जनता दल यूनाइटेड के साथ सरकार बनाने से पहले तक भाजपा नेता और अब सरकार में उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी नीतीश कुमार से न तो कम कद्दावर नेता थे और न ही उनका आधार नीतीश से कम था। लेकिन, साथ सरकार चलाने में नीतीश के उप मुख्यमंत्री क्या बने वो, एकदम से चुप मुख्यमंत्री होकर रह गए। शानदार उपलब्धियों के साथ चलती दिख रही जेडी यू और बीजेपी की सरकार में उपलब्धियों के समय बीजेपी जाने कहां गायब हो जाती है। सिर्फ नीतीश का मुस्कुराता चेहरा दिखता है। यहां तक कि चार साल का कार्यकाल पूरा होते-होते नीतीश को ये भी लगने लगता है कि बीजेपी तो, बस उनकी छवि के ही भरोसे चल रही है। और, इसलिए गठजोड़ से लाभ उनको हो रहा है तो, वो जरा दबकर रहें। नीतीश इस गलतफहमी के शिकार भी हैं कि करीब 12 सालों से बीजेपी के साथ गलबहियां डालने के बाद भी वो, सबसे बड़े तथाकथित सेक्युलर नेता हैं जिस पर मुस्लिम वोट मिलता है। लेकिन, नीतीश को ऐसा लगा क्यूं।
दरअसल नीतीश जो कर रहे हैं उसके पीछे बीजेपी के पुराने सहयोगियों का बीजेपी को समय-समय पर ठेंगा दिखाना रहा है। बीजेपी की 20 साल पुरानी सहयोगी शिवसेना भले ही अपने बूते महाराष्ट्र में कुछ खास न कर सके लेकिन, बीजेपी जैसी राष्ट्रीय आधार वाली पार्टी को महाराष्ट्र में अपने पीछे खड़ा कर देती है। प्रमोद महाजन को छोड़ दें तो, महाराष्ट्र बीजेपी में किसी नेता को इतना ताकतवर होने ही नहीं देती कि वो, विधानसभा चुनाव में सहयोग के फॉर्मूले तय कर सके। इसके लिए दिल्ली से बीजेपी हाईकमान को ठाकरे दरबार में हाजिरी लगानी पड़ती है।
पंजाब में अकाली दल के साथ भी बीजेपी कुछ ऐसे ही रिश्ते निभा रही है। नवजोत सिंह सिद्धू के तेज तर्रार चुटकुले युक्त भाषणों को छोड़ दें तो, वहां की राजनीति में बीजेपी, अकाली दल की पिछलग्गू ही लगती है। जबकि, शहरी वोटबैंक के जरिए बनी अकाली-बीजेपी सरकार में बीजेपी के शहरी वोटबैंक का बड़ा हिस्सा है। ठाकरे-अकाली तो स्वभाव से उग्र हैं लेकिन, बीजेपी देश के सबसे विनम्र मुख्यमंत्री की छवि रखने वाले नवीन पटनायक को भी नहीं संभाल सकी। लोकसभा और उड़ीसा विधानसभा चुनावों के ठीक पहले नवीन पटनायक धीरे से बीजेपी से पल्ला झाड़कर खड़े हो गए और नतीजा सबके सामने है। नवीन पटनायक की पार्टी बिना किसी के सहयोग के सत्ता में है।
ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी ने जिसे सहयोग दिया। धीरे-धीरे सहयोगी पार्टी तो बड़ी होती गई लेकिन, सहयोग करते-करते राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद बीजेपी अपना आधार खोती गई। उत्तर प्रदेश में पहले से तीसरे नंबर पर बीजेपी पहुंच गई है। और, पहले नंबर पर है बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी। यही बहुजन समाज पार्टी जब तीसरे नंबर पर 50-60 विधायकों के साथ थी तो, देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय लेकर बीजेपी गदगद थी। प्रदेश में उस समय बीजेपी के सबसे ज्यादा विधायक चुनकर आते थे। अब हाल ये है कि प्रदेश बीजेपी का अध्यक्ष खोजने के लिए बीजेपी को बेहद मशक्कत करनी पड़ी। सूर्यप्रताप शाही अच्छे नेता हैं लेकिन, मुश्किल यही है कि उनमें ऐसा चमत्कार नहीं दिखता कि कार्यकर्ता उनके नाम पर उत्साहित होकर पार्टी की खोई नंबर एक पोजीशन लौटा दे। हां, वरुण गांधी 2012 के लिए आगे करने से पार्टी में थोड़ी जान जरूर आई दिखती है लेकिन, सवाल यही है कि गठजोड़ की राजनीति में बीजेपी इतना मात क्यों खाती है।
झारखंड में शिबू सोरेन ने जिस तरह से बीजेपी की बत्ती गुल की है वो, तो इस पार्टी के नेताओं के राजनैतिक कौशल पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। सोरेन ने जिस तरह से अविश्वास प्रस्ताव पर बीजेपी के खिलाफ वोट किया और उसके बाद बाप-बेटे ने मिलकर करीब एक महीने तक बीजेपी और उसके सारे नेताओं को शीर्षासन कराया वो, सबको बीजेपी की गठजोड़ के मामले में कमजोरी याद दिलाता रहेगा। और, यही बाप बेटे क्यों। कर्नाटक में येदियुरप्पा की सरकार बनने से पहले देवगौड़ा बाप-बेटे ने भी तो बीजेपी की नाक में दम कर दिया था।
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी को इस सवाल का जवाब खोजना ही होगा कि आखिर वो, गठजोड़ के गणित को समझने में क्यों गड़बड़ा जाती है। जिन पार्टियों से बीजेपी का गठजोड़ है उन सबके कांग्रेस से अपने राज्य में छत्तीस के रिश्ते हैं और उन पार्टियों के लिए भी बीजेपी का हाथ पकड़ना ही फायदे का सौदा है। फिर भी बीजेपी का हाथ दबा क्यों रहता है।
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की धुर विरोधी तेलगू देशम पार्टी हो या फिर तमिलनाडु में जयललिता, इनको संभालना बीजेपी के लिए क्यों मुश्किल हो जाता है। नॉर्थ ईस्ट के राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों को बीजेपी क्यों अपने पाले में ला नहीं पाती या लाकर भी रख नहीं पाती। बीजेपी को इस सवाल का जवाब जल्दी से जल्दी खोजना होगा। क्योंकि, बीजेपी का ये व्यवहार उसके राष्ट्रीय पार्टी के चरित्र से मेल नहीं खाता। और, जिस तरह से कांग्रेस लगातार ये दावा कर रही है और काफी कुछ सिद्ध भी करती जा रही है कि फिर से सिर्फ कांग्रेस ही इस देश की अकेली राष्ट्रीय पार्टी है वो, भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़ी खतरे की घंटी साबित हो सकती है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Wednesday, June 30, 2010
Tuesday, June 29, 2010
तलाक ले लो, तलाक
सरकार का मानना है कि देश में तलाक न मिलने से लोगों की जिंदगी दूभर हो गई है इसलिए वो, हिंदू विवाह कानून में बदलाव करके विवाह विच्छेद यानी पति-पत्नी के बंधन को तोड़ने के 9 आधारों में दसवां आधार शामिल करने जा रही है जिससे लोगों को आसानी से तलाक मिल सके।
भारत में अभी 1.9 प्रतिशत लोग ही हैं जो, शादी करने के बाद उसे तोड़ने का साहस जुटा पाते हैं। अब हमारी सरकार ज्यादा से ज्यादा लोगों में ये साहस भरना चाहती है और इसीलिए शादी तोड़ने के कानून में पश्चिमी देशों की नकल करके बदलाव करना चाहती है। अब अगर वहां की बात करें तो, हम तलाक के मामले में काफी पिछड़े दिखते हैं। जैसे शादी करने वाले 100 अमेरिकियों में से 55 तलाक लेते हैं और शायद फिर शादी करते हैं या बिना शादी किए ही कई शादियों का मजा लेते हैं। शादी तोड़ने का जो दसवां आधार प्रस्तावित है वो, है इनएविटेबल ब्रेकअप- यानी पति-पत्नी अब एक साथ नहीं रह सकते इस आधार पर उन्हें तलाक मिल जाएगा। इसमें ये साबित करने की जरूरत शायद थोड़ी कम रह जाएगी कि आखिर क्यों साथ नहीं रह सकते।
ये जो नया प्रस्ताव है इसे महिलाओं के पक्ष का बताने की कोशिश हो रही है ये कहकर कि ज्यादातर तला न मिलने से महिलाओं का जीवन नर्क हो जाता है। जबकि, सच्चाई इसके ठीक उलट है भारतीय समाज में तलाक के लिए गए मामलों में से सिर्फ दस प्रतिशत ही ऐसे होते होंगे जिसमें महिला जल्दी तलाक चाह रही होगी। क्योंकि, इस समाज में तलाक के बाद पुरुषों के लिए तो दूसरी पत्नी खोज लेना फिर भी आसान होता है लेकिन, किसी तलाकशुदा महिला को एक तलाकशुदा पुरुष भी बमुश्किल ही पत्नी बनाना चाहता है। महिलाओं के पक्ष का ही बताकर इसे प्रगतिशील बताने की कोशिश हो रही है। समाज में जो दबे-छिपे चल रहा है उसे कानूनी मान्यता देकर प्रगतिशील बनने-बताने की परंपरा तेजी से चल रही है। अब परिवार तोड़ने में तेजी दिखाकर प्रगतिशील बनने की कोशिश हो रही है।
ये प्रगतिशील बनने-बनाने का जो, सिलसिला चल रहा है। वो, एकदम से भारत को अमेरिका बनाने पर तुला है। पहले ये कहा गया कि नए बन रहे समाज में लड़के-लड़की जब घर से दूर रह रहे हैं तो, स्वाभाविक हैं कि उनमें निकट के रिश्ते बनेंगे और इसलिए एक प्रगतिशील फैसला आया कि लिव इन रिलेशनशिप में कोई बुराई नहीं है। यहां तक कि अदालत ने भी तथाकथित प्रगतिशील लोगों के फैसले पर मुहर लगा दी।
एक और प्रगतिशील फैसले को कानूनी मान्यता मिलने के बाद देश के मीडिया में ऐसे दिखा जैसे पूरा भारत समलैंगिक (गे-लेस्बियन) संबंधों के लिए मरा जा रहा था और उसे समलैंगिक संबंधों के कानूनी आधार मिल जाने से आस्थावान लोगों के गंगा नहाने जैसा सुख प्राप्त हो गया है। लगा जैसे सब दबे-छिपे सिर्फ समलैंगिक रिश्ते ही बना रहे थे। वो, तो कानून के डर से विवाह जैसे संस्थान चल रहे थे। शायद भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश होगा जहां विवाह जैसी संस्था इतनी मजबूत है। तथाकथित प्रगतिशील, तर्कवान लोग विवाह संस्था की ढेर सारी खामियां तो लगातार खोजते रहते हैं लेकिन, इस बात को नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं कि जिस भारतीय समाज में सिर्फ एक पत्नी की वैधता है उसमें इतने पति-पत्नी के रिश्तों में से सिर्फ 1.9 प्रतिशत ही क्यों कानून के दरवाजे अपने रिश्ते को तोड़ने के लिए पहुंच रहे हैं।
पश्चिमी समाज में तो, पुरुष-स्त्री बस देह के रिश्ते से ही जाने जाते हैं। मुसलमानों तक में एक साथ निकाह वैध होने से एक पुरुष चार स्त्रियों के साथ संबंध बनाने की खुली छूट पा जाता है। लेकिन, भारतीय समाज में सिर्फ एक स्त्री के संबंध कैसे चल रहे हैं इसकी चर्चा दबा दी जाती है। पश्चिमी समाज इनएविटेबल ब्रेक अप के सिद्धांत पर चल रहे हैं तो, मुस्लिम समाज तलाक-तलाक-तलाक कहकर एक नए संबंध की बुनियाद रख लेते हैं। पश्चिमी समाज में पुरुष-स्त्री दोनों के एक साथ कई शारीरिक रिश्ते बनाने और मुस्लिम समाज में एक पुरुष के एक साथ कई स्त्रियों से शारीरिक रिश्ते बनाने की छूट के बावजूद इन समाजों में स्त्रियों के हक की कितनी बात हो पाती है ये छिपी नहीं है।
अब सरकार ऐसा खुलापन और यौन स्वच्छंदता हिंदू समाज को क्यों परोसना चाहती है। क्यों चाहती है कि तलाक-तलाक-तलाक के अंदाज में हिंदू समाज में भी पुरुष-स्त्री सिर्फ देह के रिश्ते से ही बंधे रहें। हिंदू समाज में किसी पुरुष-स्त्री के संबंध में परिवार की जो भूमिका है उसे नजरअंदाज करने की कोशिश क्यों हो रही है। वैसे ही पश्चिमी विकास के मॉडल पर चलते हुए हिंदू परिवार भी एकांगी, न्यूक्लियर होते जा रहे हैं। यानी परिवार तोड़ने का काम तो पहले से ही विकास की नई परिभाषा आसानी से कर रही है। अब लिव इन हो, वयस्क स्त्री-पुरुषों के बीच मनमर्जी से शारीरिक संबंध बनाना हो या फिर दो पुरुषों या दो स्त्रियों के बीच मर्जी से शारीरिक संबंध बनाने को कानूनी मान्यता हो सब परिवार, विवाह की संस्था पर ही तो चोट कर रहे हैं। अब जल्दी से जल्दी तलाक कराकर क्या परिवार, विवाह की संस्था को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश में है सरकार।
लिव इन, वयस्क स्त्री-पुरुष के बीच मनमर्जी से बनाए गए प्रगतिशील संबंधों में हर रोज विवेका बालाजी जैसों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। 2 महीने के बने ब्वॉयफ्रेंड से लेकर पुराने ब्वॉयफ्रेंड की पूरी कतार की तलाश की जा रही है कि किसने इतना तनाव दे दिया कि विवेका को आत्महत्या करनी पड़ी। जरा सोचकर बताइए ना विवाह संस्था में घर में पति से रोज झगड़ने के बावजूद कितनी पत्नियां होंगी जिन्हें तनाव की वजह से आत्महत्या करनी पड़ती है। प्रगतिशील लोगों को आंकड़े कम पड़ने लगेंगे तो, वो घरेलू हिंसा के आंकड़े जुटाकर ले आएंगे और चाहेंगे हर छोटी-मोटी घरेलू हिंसा की शिकार महिला को तलाक मिल जाए। लेकिन, इस बात पर शायद ही बहस करना चाहेंगे कि मनमर्जी से देह के आधार पर बने संबंधों में कितनी हिंसा हो रही है।
सवाल यही है कि हम जब विवाह, परिवार नाम की संस्था का कोई विकल्प नहीं खोज सके हैं तो, फिर इस मजबूत संस्था को पहले ढहा देने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। पश्चिमी समाज से नकलकर लाई गई इनएविटेबल ब्रेक अप थियरी ही है कि वहां की सरकारों को ओल्डएज होम पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है।
एक चुटकुला जो, मेरे मोबाइल पर कुछ दिन पहले ही आया कि भारतीय लड़की ने अमेरिकन लड़की से पूछा मेरे 4 भाई और 6 बहनें हैं। आपके कितने हैं। अमेरिकन लड़की ने जवाब दिया—मेरे भाई-बहन नहीं हैं। मैं अकेली हूं लेकिन, मेरी पहली मॉम से 3 पापा और पहले पापा से 4 मॉम हैं। तथाकथित प्रगतिशील फैसलों से परिवार, विवाह संस्था पर चोट से शायद इस चुटकुले की भारतीय लड़की भी अमेरिकन बन जाएगी।
भारत में अभी 1.9 प्रतिशत लोग ही हैं जो, शादी करने के बाद उसे तोड़ने का साहस जुटा पाते हैं। अब हमारी सरकार ज्यादा से ज्यादा लोगों में ये साहस भरना चाहती है और इसीलिए शादी तोड़ने के कानून में पश्चिमी देशों की नकल करके बदलाव करना चाहती है। अब अगर वहां की बात करें तो, हम तलाक के मामले में काफी पिछड़े दिखते हैं। जैसे शादी करने वाले 100 अमेरिकियों में से 55 तलाक लेते हैं और शायद फिर शादी करते हैं या बिना शादी किए ही कई शादियों का मजा लेते हैं। शादी तोड़ने का जो दसवां आधार प्रस्तावित है वो, है इनएविटेबल ब्रेकअप- यानी पति-पत्नी अब एक साथ नहीं रह सकते इस आधार पर उन्हें तलाक मिल जाएगा। इसमें ये साबित करने की जरूरत शायद थोड़ी कम रह जाएगी कि आखिर क्यों साथ नहीं रह सकते।
ये जो नया प्रस्ताव है इसे महिलाओं के पक्ष का बताने की कोशिश हो रही है ये कहकर कि ज्यादातर तला न मिलने से महिलाओं का जीवन नर्क हो जाता है। जबकि, सच्चाई इसके ठीक उलट है भारतीय समाज में तलाक के लिए गए मामलों में से सिर्फ दस प्रतिशत ही ऐसे होते होंगे जिसमें महिला जल्दी तलाक चाह रही होगी। क्योंकि, इस समाज में तलाक के बाद पुरुषों के लिए तो दूसरी पत्नी खोज लेना फिर भी आसान होता है लेकिन, किसी तलाकशुदा महिला को एक तलाकशुदा पुरुष भी बमुश्किल ही पत्नी बनाना चाहता है। महिलाओं के पक्ष का ही बताकर इसे प्रगतिशील बताने की कोशिश हो रही है। समाज में जो दबे-छिपे चल रहा है उसे कानूनी मान्यता देकर प्रगतिशील बनने-बताने की परंपरा तेजी से चल रही है। अब परिवार तोड़ने में तेजी दिखाकर प्रगतिशील बनने की कोशिश हो रही है।
ये प्रगतिशील बनने-बनाने का जो, सिलसिला चल रहा है। वो, एकदम से भारत को अमेरिका बनाने पर तुला है। पहले ये कहा गया कि नए बन रहे समाज में लड़के-लड़की जब घर से दूर रह रहे हैं तो, स्वाभाविक हैं कि उनमें निकट के रिश्ते बनेंगे और इसलिए एक प्रगतिशील फैसला आया कि लिव इन रिलेशनशिप में कोई बुराई नहीं है। यहां तक कि अदालत ने भी तथाकथित प्रगतिशील लोगों के फैसले पर मुहर लगा दी।
एक और प्रगतिशील फैसले को कानूनी मान्यता मिलने के बाद देश के मीडिया में ऐसे दिखा जैसे पूरा भारत समलैंगिक (गे-लेस्बियन) संबंधों के लिए मरा जा रहा था और उसे समलैंगिक संबंधों के कानूनी आधार मिल जाने से आस्थावान लोगों के गंगा नहाने जैसा सुख प्राप्त हो गया है। लगा जैसे सब दबे-छिपे सिर्फ समलैंगिक रिश्ते ही बना रहे थे। वो, तो कानून के डर से विवाह जैसे संस्थान चल रहे थे। शायद भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश होगा जहां विवाह जैसी संस्था इतनी मजबूत है। तथाकथित प्रगतिशील, तर्कवान लोग विवाह संस्था की ढेर सारी खामियां तो लगातार खोजते रहते हैं लेकिन, इस बात को नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं कि जिस भारतीय समाज में सिर्फ एक पत्नी की वैधता है उसमें इतने पति-पत्नी के रिश्तों में से सिर्फ 1.9 प्रतिशत ही क्यों कानून के दरवाजे अपने रिश्ते को तोड़ने के लिए पहुंच रहे हैं।
पश्चिमी समाज में तो, पुरुष-स्त्री बस देह के रिश्ते से ही जाने जाते हैं। मुसलमानों तक में एक साथ निकाह वैध होने से एक पुरुष चार स्त्रियों के साथ संबंध बनाने की खुली छूट पा जाता है। लेकिन, भारतीय समाज में सिर्फ एक स्त्री के संबंध कैसे चल रहे हैं इसकी चर्चा दबा दी जाती है। पश्चिमी समाज इनएविटेबल ब्रेक अप के सिद्धांत पर चल रहे हैं तो, मुस्लिम समाज तलाक-तलाक-तलाक कहकर एक नए संबंध की बुनियाद रख लेते हैं। पश्चिमी समाज में पुरुष-स्त्री दोनों के एक साथ कई शारीरिक रिश्ते बनाने और मुस्लिम समाज में एक पुरुष के एक साथ कई स्त्रियों से शारीरिक रिश्ते बनाने की छूट के बावजूद इन समाजों में स्त्रियों के हक की कितनी बात हो पाती है ये छिपी नहीं है।
अब सरकार ऐसा खुलापन और यौन स्वच्छंदता हिंदू समाज को क्यों परोसना चाहती है। क्यों चाहती है कि तलाक-तलाक-तलाक के अंदाज में हिंदू समाज में भी पुरुष-स्त्री सिर्फ देह के रिश्ते से ही बंधे रहें। हिंदू समाज में किसी पुरुष-स्त्री के संबंध में परिवार की जो भूमिका है उसे नजरअंदाज करने की कोशिश क्यों हो रही है। वैसे ही पश्चिमी विकास के मॉडल पर चलते हुए हिंदू परिवार भी एकांगी, न्यूक्लियर होते जा रहे हैं। यानी परिवार तोड़ने का काम तो पहले से ही विकास की नई परिभाषा आसानी से कर रही है। अब लिव इन हो, वयस्क स्त्री-पुरुषों के बीच मनमर्जी से शारीरिक संबंध बनाना हो या फिर दो पुरुषों या दो स्त्रियों के बीच मर्जी से शारीरिक संबंध बनाने को कानूनी मान्यता हो सब परिवार, विवाह की संस्था पर ही तो चोट कर रहे हैं। अब जल्दी से जल्दी तलाक कराकर क्या परिवार, विवाह की संस्था को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश में है सरकार।
लिव इन, वयस्क स्त्री-पुरुष के बीच मनमर्जी से बनाए गए प्रगतिशील संबंधों में हर रोज विवेका बालाजी जैसों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। 2 महीने के बने ब्वॉयफ्रेंड से लेकर पुराने ब्वॉयफ्रेंड की पूरी कतार की तलाश की जा रही है कि किसने इतना तनाव दे दिया कि विवेका को आत्महत्या करनी पड़ी। जरा सोचकर बताइए ना विवाह संस्था में घर में पति से रोज झगड़ने के बावजूद कितनी पत्नियां होंगी जिन्हें तनाव की वजह से आत्महत्या करनी पड़ती है। प्रगतिशील लोगों को आंकड़े कम पड़ने लगेंगे तो, वो घरेलू हिंसा के आंकड़े जुटाकर ले आएंगे और चाहेंगे हर छोटी-मोटी घरेलू हिंसा की शिकार महिला को तलाक मिल जाए। लेकिन, इस बात पर शायद ही बहस करना चाहेंगे कि मनमर्जी से देह के आधार पर बने संबंधों में कितनी हिंसा हो रही है।
सवाल यही है कि हम जब विवाह, परिवार नाम की संस्था का कोई विकल्प नहीं खोज सके हैं तो, फिर इस मजबूत संस्था को पहले ढहा देने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। पश्चिमी समाज से नकलकर लाई गई इनएविटेबल ब्रेक अप थियरी ही है कि वहां की सरकारों को ओल्डएज होम पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है।
एक चुटकुला जो, मेरे मोबाइल पर कुछ दिन पहले ही आया कि भारतीय लड़की ने अमेरिकन लड़की से पूछा मेरे 4 भाई और 6 बहनें हैं। आपके कितने हैं। अमेरिकन लड़की ने जवाब दिया—मेरे भाई-बहन नहीं हैं। मैं अकेली हूं लेकिन, मेरी पहली मॉम से 3 पापा और पहले पापा से 4 मॉम हैं। तथाकथित प्रगतिशील फैसलों से परिवार, विवाह संस्था पर चोट से शायद इस चुटकुले की भारतीय लड़की भी अमेरिकन बन जाएगी।
Monday, June 28, 2010
जाति बताइए, जताइए नहीं
भारतीय समाज में कुछ मिथक ऐसे स्थापित हो जाते हैं कि आगे चलकर वो तथ्यों की तरह इस्तेमाल होते हैं। जैसे- कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष पार्टी है, भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिक है और वामपंथ समाजवादियों से भी ज्यादा समाजवादी है। जैसे- मायावती दलितों के हितों की सबसे बड़ी चिंतक हैं। ऐसे ही अब एक नया तथ्य लगभग स्थापित होता जा रहा है। वो, जुड़ा है जनगणना से। जनगणना में अलग-अलग जातियों की संख्या जानने का कोई कॉलम नहीं है और लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव कह रहे हैं कि पिछड़ों की जाति गणना अलग से होनी ही चाहिए जिससे ये साबित हो सके कि पिछड़ों को मिल रहा 27 प्रतिशत आरक्षण उनकी जनसंख्या के लिहाज से काफी कम है। बस इसके बाद तो, उसी सुर में ये भी आवाज तेज होने लगी कि देश के 90 प्रतिशत संसाधनों पर सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों (सवर्ण जातियों) का कब्जा है और ये सवर्ण ही हैं जो, नहीं चाहते कि किसी भी तरह से जातियों की असल संख्या सामने आए। क्योंकि, इससे उनके प्रभुत्व पर खतरा दिखता है।
अब सवाल ये है कि जाति गणना को जरूरी बताने वाले लोग कौन हैं। क्या ये लोग सचमुच जाति गणना इसलिए चाहते हैं कि दबी-कुचली या फिर आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर जातियों को उनके अधिकार मिल सकें। इस सवाल का जवाब निश्चित रूप से ना में मिलेगा। जाति गणना की वकालत करने वाले हों या फिर जाति गणना का विरोध करने वाले दोनों ही पक्षों में से ज्यादातर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने या फिर न खिसकने देने की मंशा से जाति गणना के पक्ष में या विरोध में खड़े हैं।
मैं जाति से उच्च कुल का ब्राह्मण हूं और मैं इस जनगणना में जाति के कॉलम को शामिल करने के पक्ष में हूं। लेकिन, ये जाति गणना सिर्फ पिछड़े, दलित या फिर आदिवासियों की नहीं होनी चाहिए। इस जनगणना में हर उस जाति के आंकड़े सामने आने चाहिए जिसके आधार पर समाज में रोटी-बेटी के संबंध बन रहे हैं। जब किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी में किसी नेता का राजनीतिक भविष्य इसी से तय हो रहा है कि आखिर उसकी जाति क्या है तो, फिर जनगणना में जाति का कॉलम जुड़ने भर से जातिवाद तेज होने की बात कैसे संभव हो सकती है। क्योंकि, जितना जातिवाद होना है वो, तो बिना जाति बताए भी हो रहा है।
मैं मीडिया में हूं और 12 साल इसमें गुजारने के बाद मेरे मन में एक धारणा मजबूत हो गई है कि जातिवाद जाति बताने से नहीं जाति जताने से बढ़ता है। बल्कि, जाति बताकर तो, जातिवाद कम किया जा सकता है। एक धारणा ये भी है कि दो जातियों के बीच अंतर्जातीय संबंध जातिवाद को तेजी से कम कर सकते हैं। देश के सबसे बड़े गांधी परिवार के बारे में ध्यान करके बताइए ना कि इतने ढेर सारे अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक विवाहों के होने के बाद भी गांधी परिवार को मनुस्मृति के लिहाज से स्थापित सर्वोच्च जाति में ही क्यों माना जाता है। बस इसी बात को अच्छे से समझने की जरूरत है कि आखिर कश्मीरी ब्राह्मण नेहरू के परिवार में गांधी जैसा तटस्थ सरनेम और ढेर सारे गैरब्राह्मण संबंधों के बाद भी प्रियंका-राहुल तक को इस देश में जाति के लिहाज से सर्वोच्च वर्ग अपना मानता है।
अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब बिहार कांग्रेस की लिस्ट में लोकसभा अध्यक्ष के नाम मीरा कुमार के आगे जातिसूचक शब्द छप गया था। मीरा कुमार अपने नाम के आगे जाति सूचक शब्द नहीं लगातीं लेकिन, कांग्रेस को राजनीति करनी है और राजनीति इसी समाज के साथ करनी है इसलिए वो, मीरा कुमार की जाति के लिहाज से ही उनको बढ़ाकर कोटा पूरा कर रही है। मायावती का अपने वारिस के तौर पर खास चमार जाति से एक नौजवान को चुनने का एलान भी मुझे लगता है सबको याद ही होगा। मायावती भी जातिसूचक शब्द नहीं लगाती हैं। लेकिन, मायावती की पूरी राजनीति जातिवाद पर खड़ी है ये कहने से किसे संकोच होगा। राष्ट्रीय पार्टी और सभी जातियों की होने का दम भरने वाली कांग्रेस-बीजेपी से लेकर सिर्फ जाति के आधार पर खड़ी हुई पार्टियों के मुलायम प्रसाद यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती जैसे लोग भी टिकट देने में जाति की बात सबसे पहले करते हैं। और, इसमें इन पार्टियों या इन नेताओं का दोष मैं कैसे दे दूं हम और आप यानी हमारा पूरा समाज वोट भी तो इसी आधार पर करता है कि उसकी जाति का प्रत्याशी किस पार्टी से हैं।
एक जमाने में मुलायम सिंह यादव ने ब्राह्मणों पूज्य बताया तो, ब्राह्मणों की जाति की बड़ी जमात मुलायम के पीछे हो ली। वही जब अमर सिंह ताकतवर हुए तो, ठाकुर समाजवादी पार्टी के माने जाने लगे। जबकि, पार्टी सिर्फ यादव नेतृत्व की थी। फिर बसपा के सोशल इंजीनियरिंग में मायावती के चरण स्पर्श के लिए बड़े टीकाधारी ब्राह्मणों की लाइन तो, मीडिया में सर्वाधिक चर्चा का विषय रही ही। ये जाति बताने की नहीं जाति जताने की लड़ाई चल रही है। समाजवादी पार्टी परशुराम सम्मेलन कराती है तो, मायावती हर जाति की अलग कमेटी बनाकर मॉनिटरिंग करती हैं। बीजेपी-कांग्रेस के नेताओं को लग रहा है कि गड़बड़ ज्यादा हो रही है तो, वो मायावती की जाति के लोगों के घर खाना खाकर-रात गुजारकर संतोष कर ले रहे हैं।
जाट पिछड़े हैं लेकिन, हरियाणा में जरा कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर उनसे ऊपर बैठकर दिखाए। इटावा, एटा में कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर यादवों से ऊपर बैठकर दिखाए। साफ है देश में पूरी तरह से राजनीतिक ताकत किसी जाति के सर्वोच्च या नीच होने की बात तय कर रही है। लेकिन, सब कुछ चल जाति के पैमाने पर ही रहा है। ये गलतफहमी है कि इस जाति को अंतर्जातीय संबंधों ने मात दे दी है। ज्यादातर मौकों पर अंतर्जातीय विवाह दो जातियों के बीच विद्वेष बढ़ा रहे हैं या फिर मजबूत जाति के सिर के ताज में दो मोती और जड़ रहे हैं। हो सकता है कहीं-कहीं इससे कुछ बात बन रही हो लेकिन, अगर जाति को सचमुच मात दी है तो, वो पैसे ने। जाति को मात दी है तो, बाजार की चमक ने।
लेकिन, जाति की खिलाफत करने वाला उससे तगड़ा कोई सिस्टम अब तक ये समाज दे ही नहीं पाया है। इसलिए धीरे-धीरे ये काम हो रहा है। और, इस धीरे-धीरे होने में किसी के नाम के आगे जातिसूचक शब्द लगे होने या जनगणना के आंकड़ों में किसी जाति की संख्या का पता होने से जातिवाद का बढ़ना-घटना नहीं होने वाला। मैं ब्राह्मण हूं और ब्राह्मणों में भी उच्च कुल से। हमारी नात-रिश्तेदारी भी उतने में ही घूम फिरकर होती रही है। लेकिन, अब प्रभाव और पैसे के महत्व ने धीरे-धीरे उच्च कुलीन ब्राह्मणों को अपने से नीच ब्राह्मणों के यहां भी बेटी देने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है। हमारी नात-रिश्तेदारी में एकाध अपवादों को छोड़ दें तो, अभी कोई दूसरी बिरादरी में शादी-ब्याह करने का साहस नहीं कर पाया है। लेकिन, अब इस पर बात-बहस घरों में होने लगी है।
अच्छा होगा कि इस जनगणना में हर जाति की सही संख्या निकलकर आए और निश्चित मानिए कि जनगणना में सभी जातियों के अलग-अलग आंकड़े आए तो, किसी एक जाति समूह को निशाना बनाकर जातिवादी राजनीति करना ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। महादलित और पिछड़ों में भी अतिपिछड़े की राजनीति दरअसल इसी संकट से उपजी थी कि उस खास जाति के नेता का काम सिर्फ अपनी जाति से नहीं चल रहा था। और, इस जनगणना में जातियां जितनी बंटी पता चलेंगी इस समाज से जातिवाद उतना ही कम होगा। शायद ये भी मिथक टूटे कि 90 प्रतिशत संसाधनों पर 10 प्रतिशत लोग (वो भी सिर्फ सवर्ण जातियों के) कब्जा करके बैठे हैं।
जाति के साथ आर्थिक हालात का भी पता लगता चले तो, समझ में आए कि कितने ब्राह्मणों की धोती में पैबंद लगे हैं फिर भी वो, सुबह-सुबह नहा धोकर, कुर्ता-धोती में टीनोपाल देकर, टीका लगाकर चमकता चेहरा लेकर दूसरों की दशा सुधारने का दावा करते घूम रहे हैं और कितने ठाकुर किसी रजवाड़े से खुद को जोड़कर बस खोखली शान बनाए-बचाए पड़े हैं। पता ये भी चल सकता है कि देश में दलितों-आदिवासियों का हाल तो, अब भी बहुत बुरा है लेकिन, आरक्षण के नाम पर असली मलाई खाने वाले तथाकथित पिछड़ों के घर दूध-दही की नदियां हमेशा बहती रहीं। शायद पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण के लिए सुप्रीमकोर्ट को दखल देने की जरूरत भी न पड़े। हर जाति की असल संख्या पता लगी तो, जाति बताने वाले भले ज्यादा दिखेंगे लेकिन, जाति जताने वालों के मन में डर बढ़ेगा। और, असली जातिवाद जाति बताने वालों से नहीं जाति जताने वालों से है। इसलिए मैं हर्षवर्धन त्रिपाठी (सोहगौरा), शांडिल्य गोत्र, जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत जाति जनगणना के पक्ष में हूं।
अब सवाल ये है कि जाति गणना को जरूरी बताने वाले लोग कौन हैं। क्या ये लोग सचमुच जाति गणना इसलिए चाहते हैं कि दबी-कुचली या फिर आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर जातियों को उनके अधिकार मिल सकें। इस सवाल का जवाब निश्चित रूप से ना में मिलेगा। जाति गणना की वकालत करने वाले हों या फिर जाति गणना का विरोध करने वाले दोनों ही पक्षों में से ज्यादातर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने या फिर न खिसकने देने की मंशा से जाति गणना के पक्ष में या विरोध में खड़े हैं।
मैं जाति से उच्च कुल का ब्राह्मण हूं और मैं इस जनगणना में जाति के कॉलम को शामिल करने के पक्ष में हूं। लेकिन, ये जाति गणना सिर्फ पिछड़े, दलित या फिर आदिवासियों की नहीं होनी चाहिए। इस जनगणना में हर उस जाति के आंकड़े सामने आने चाहिए जिसके आधार पर समाज में रोटी-बेटी के संबंध बन रहे हैं। जब किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी में किसी नेता का राजनीतिक भविष्य इसी से तय हो रहा है कि आखिर उसकी जाति क्या है तो, फिर जनगणना में जाति का कॉलम जुड़ने भर से जातिवाद तेज होने की बात कैसे संभव हो सकती है। क्योंकि, जितना जातिवाद होना है वो, तो बिना जाति बताए भी हो रहा है।
मैं मीडिया में हूं और 12 साल इसमें गुजारने के बाद मेरे मन में एक धारणा मजबूत हो गई है कि जातिवाद जाति बताने से नहीं जाति जताने से बढ़ता है। बल्कि, जाति बताकर तो, जातिवाद कम किया जा सकता है। एक धारणा ये भी है कि दो जातियों के बीच अंतर्जातीय संबंध जातिवाद को तेजी से कम कर सकते हैं। देश के सबसे बड़े गांधी परिवार के बारे में ध्यान करके बताइए ना कि इतने ढेर सारे अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक विवाहों के होने के बाद भी गांधी परिवार को मनुस्मृति के लिहाज से स्थापित सर्वोच्च जाति में ही क्यों माना जाता है। बस इसी बात को अच्छे से समझने की जरूरत है कि आखिर कश्मीरी ब्राह्मण नेहरू के परिवार में गांधी जैसा तटस्थ सरनेम और ढेर सारे गैरब्राह्मण संबंधों के बाद भी प्रियंका-राहुल तक को इस देश में जाति के लिहाज से सर्वोच्च वर्ग अपना मानता है।
अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब बिहार कांग्रेस की लिस्ट में लोकसभा अध्यक्ष के नाम मीरा कुमार के आगे जातिसूचक शब्द छप गया था। मीरा कुमार अपने नाम के आगे जाति सूचक शब्द नहीं लगातीं लेकिन, कांग्रेस को राजनीति करनी है और राजनीति इसी समाज के साथ करनी है इसलिए वो, मीरा कुमार की जाति के लिहाज से ही उनको बढ़ाकर कोटा पूरा कर रही है। मायावती का अपने वारिस के तौर पर खास चमार जाति से एक नौजवान को चुनने का एलान भी मुझे लगता है सबको याद ही होगा। मायावती भी जातिसूचक शब्द नहीं लगाती हैं। लेकिन, मायावती की पूरी राजनीति जातिवाद पर खड़ी है ये कहने से किसे संकोच होगा। राष्ट्रीय पार्टी और सभी जातियों की होने का दम भरने वाली कांग्रेस-बीजेपी से लेकर सिर्फ जाति के आधार पर खड़ी हुई पार्टियों के मुलायम प्रसाद यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती जैसे लोग भी टिकट देने में जाति की बात सबसे पहले करते हैं। और, इसमें इन पार्टियों या इन नेताओं का दोष मैं कैसे दे दूं हम और आप यानी हमारा पूरा समाज वोट भी तो इसी आधार पर करता है कि उसकी जाति का प्रत्याशी किस पार्टी से हैं।
एक जमाने में मुलायम सिंह यादव ने ब्राह्मणों पूज्य बताया तो, ब्राह्मणों की जाति की बड़ी जमात मुलायम के पीछे हो ली। वही जब अमर सिंह ताकतवर हुए तो, ठाकुर समाजवादी पार्टी के माने जाने लगे। जबकि, पार्टी सिर्फ यादव नेतृत्व की थी। फिर बसपा के सोशल इंजीनियरिंग में मायावती के चरण स्पर्श के लिए बड़े टीकाधारी ब्राह्मणों की लाइन तो, मीडिया में सर्वाधिक चर्चा का विषय रही ही। ये जाति बताने की नहीं जाति जताने की लड़ाई चल रही है। समाजवादी पार्टी परशुराम सम्मेलन कराती है तो, मायावती हर जाति की अलग कमेटी बनाकर मॉनिटरिंग करती हैं। बीजेपी-कांग्रेस के नेताओं को लग रहा है कि गड़बड़ ज्यादा हो रही है तो, वो मायावती की जाति के लोगों के घर खाना खाकर-रात गुजारकर संतोष कर ले रहे हैं।
जाट पिछड़े हैं लेकिन, हरियाणा में जरा कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर उनसे ऊपर बैठकर दिखाए। इटावा, एटा में कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर यादवों से ऊपर बैठकर दिखाए। साफ है देश में पूरी तरह से राजनीतिक ताकत किसी जाति के सर्वोच्च या नीच होने की बात तय कर रही है। लेकिन, सब कुछ चल जाति के पैमाने पर ही रहा है। ये गलतफहमी है कि इस जाति को अंतर्जातीय संबंधों ने मात दे दी है। ज्यादातर मौकों पर अंतर्जातीय विवाह दो जातियों के बीच विद्वेष बढ़ा रहे हैं या फिर मजबूत जाति के सिर के ताज में दो मोती और जड़ रहे हैं। हो सकता है कहीं-कहीं इससे कुछ बात बन रही हो लेकिन, अगर जाति को सचमुच मात दी है तो, वो पैसे ने। जाति को मात दी है तो, बाजार की चमक ने।
लेकिन, जाति की खिलाफत करने वाला उससे तगड़ा कोई सिस्टम अब तक ये समाज दे ही नहीं पाया है। इसलिए धीरे-धीरे ये काम हो रहा है। और, इस धीरे-धीरे होने में किसी के नाम के आगे जातिसूचक शब्द लगे होने या जनगणना के आंकड़ों में किसी जाति की संख्या का पता होने से जातिवाद का बढ़ना-घटना नहीं होने वाला। मैं ब्राह्मण हूं और ब्राह्मणों में भी उच्च कुल से। हमारी नात-रिश्तेदारी भी उतने में ही घूम फिरकर होती रही है। लेकिन, अब प्रभाव और पैसे के महत्व ने धीरे-धीरे उच्च कुलीन ब्राह्मणों को अपने से नीच ब्राह्मणों के यहां भी बेटी देने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है। हमारी नात-रिश्तेदारी में एकाध अपवादों को छोड़ दें तो, अभी कोई दूसरी बिरादरी में शादी-ब्याह करने का साहस नहीं कर पाया है। लेकिन, अब इस पर बात-बहस घरों में होने लगी है।
अच्छा होगा कि इस जनगणना में हर जाति की सही संख्या निकलकर आए और निश्चित मानिए कि जनगणना में सभी जातियों के अलग-अलग आंकड़े आए तो, किसी एक जाति समूह को निशाना बनाकर जातिवादी राजनीति करना ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। महादलित और पिछड़ों में भी अतिपिछड़े की राजनीति दरअसल इसी संकट से उपजी थी कि उस खास जाति के नेता का काम सिर्फ अपनी जाति से नहीं चल रहा था। और, इस जनगणना में जातियां जितनी बंटी पता चलेंगी इस समाज से जातिवाद उतना ही कम होगा। शायद ये भी मिथक टूटे कि 90 प्रतिशत संसाधनों पर 10 प्रतिशत लोग (वो भी सिर्फ सवर्ण जातियों के) कब्जा करके बैठे हैं।
जाति के साथ आर्थिक हालात का भी पता लगता चले तो, समझ में आए कि कितने ब्राह्मणों की धोती में पैबंद लगे हैं फिर भी वो, सुबह-सुबह नहा धोकर, कुर्ता-धोती में टीनोपाल देकर, टीका लगाकर चमकता चेहरा लेकर दूसरों की दशा सुधारने का दावा करते घूम रहे हैं और कितने ठाकुर किसी रजवाड़े से खुद को जोड़कर बस खोखली शान बनाए-बचाए पड़े हैं। पता ये भी चल सकता है कि देश में दलितों-आदिवासियों का हाल तो, अब भी बहुत बुरा है लेकिन, आरक्षण के नाम पर असली मलाई खाने वाले तथाकथित पिछड़ों के घर दूध-दही की नदियां हमेशा बहती रहीं। शायद पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण के लिए सुप्रीमकोर्ट को दखल देने की जरूरत भी न पड़े। हर जाति की असल संख्या पता लगी तो, जाति बताने वाले भले ज्यादा दिखेंगे लेकिन, जाति जताने वालों के मन में डर बढ़ेगा। और, असली जातिवाद जाति बताने वालों से नहीं जाति जताने वालों से है। इसलिए मैं हर्षवर्धन त्रिपाठी (सोहगौरा), शांडिल्य गोत्र, जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत जाति जनगणना के पक्ष में हूं।
Thursday, June 24, 2010
इस बार बीती मत बिसारिये
देश के बड़े इलाके में बारिश की फुहारें लोगों को ठंडक देना शुरू कर चुकी हैं। महाराष्ट्र और दूसरे कुछ इलाकों में तो, लगातार हुई बारिश ने बाढ़ से माहौल बना दिए हैं। जून के आखिर तक आग के शोले सी गिरती गर्मी शायद ही किसी को इस समय याद करने का मन हो रहा होगा। लेकिन, यही समय है जब निश्चित तौर पर बीती गर्मी की सुध अच्छे से करनी चाहिए। भले ही गर्मी बीत गई हो लेकिन, बारिश की फुहारों के बीच भी जब सेब और लीची खरीदने जाएंगे तो, उसके दामों पर गर्मी का असर साफ-साफ दिखाई देगा। और, अगर इस बारिश और सर्दी में अगली गर्मी का पुख्ता इंतजाम हम सबने न शुरू किया तो, अगली गर्मी में ये लीची-सेब वैसे ही सिकुड़े मिलेंगे जैसे गर्मियों में आग के शोले के बीच हम-आप सिकुड़ते घूम रहे थे।
ये पर्यावरण दिवस पर मैं कोई रस्मी चिंता वाला लेख नहीं लिख रहा हूं। तापमान जिस तरह से 50 डिग्री सेल्सियम की तरफ बढ़ रहा है उसमें रस्म अदायगी भर से अब काम नहीं चलने वाला। बढ़ते उपभोक्तावाद के दौर में जिस तरह से हर कोई अपनी तरक्की और अपनी तरक्की यानी जेब में ढेर सारे पैसे के बूते सारी सहूलियतें खरीद लेने का सपना देख रहा है वो, खतरनाक है। जिस तरह से हम अपने संसाधनों को खोदकर खत्म कर रहे हैं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और ये सोचकर खुश हो रहे हैं कि जेब में पैसे रहे तो, सब ठीक हो जाएगा और खतरवाक दिशा में बढ़ रहा है। सोचिए देश के बड़े हिस्से में बिजली नहीं है। बिजली जहां है भी वहां जोरदार कटौती हो रही है। मांग-आपूर्ति की खाई चौड़ी होती जा रही है। शहरों में 2-3 घंटे की बिजली कटौती होने पर इनवर्टर के सहारे खुद को गर्मी के प्रकोप से बचाने की कोशिश अब बेकार होती दिख रही है। अब दिल्ली और उससे सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक के शहरों में बिजली की कटौती इतनी होने लगी है कि अब पसीने से डूबे लोग अकसर ये कहते मिल रहे हैं कि इनवर्टर बोल गया है। दिल्ली-NCR के पानी में जहरीले रसायन की बात अब वैज्ञानिक तथ्यों के साथ सामने आ रहे हैं। हर दूसरे दिन काले-पीले पानी की सप्लाई पर दिल्ली-NCR में बवाल की खबरें सारी गर्मियां सुर्खियों में रहीं। अब बारिश का पानी आने के साथ शायद काली पड़ चुकी यमुना कुछ उज्ज्वल हुई होगी। दूसरी नदियों में थोड़ा पानी बढ़ा होगा। कई जगह बाढ़ भी दिखने लगेगी और शायद लोगों को गर्मी में नदी की चिटकी तलहटें याद भी नहीं रह जाएंगी।
लेकिन, पर्यावरण के साथ खिलवाड़ की भयावहता के ये खतरनाक लक्षण अभी दिखने शुरू हुए हैं। बढ़ती गर्मी से पानी घट रहा है। गंगोत्री के ग्लेशियर पिघलने और देश की बड़ी नदियों में पानी घटने की अकसर चर्चा होने लगी है। गर्मी के मौसम में मैदान से भागकर पहाड़ घूमने जाने वालों को शायद अभी आसानी से बात समझ में नहीं आ रही होगी क्योंकि, मसूरी की पहाड़ी पर शाम अभी भी सुहानी हो जाती है। मसूरी से 18 किलोमीटर नीचे पहाड़ों के बीच से निकलते झरने की वजह से मशहूर कैम्पटी फॉल के झरने की पतली धार की चिंता भी शायद अभी कम ही लोगों को होती होगी। इस बार गर्मियों में जब मैं कैम्पटी फॉल गया तो, झरने में नहाया नहीं। मेरे घुटनों से भी कम पानी था। एक धारा पूरी तरह से सूख गई थी। गिर रही दो धाराओं का भी पानी कम हो गया था।
मसूरी में कुछ साल तक कमरे की छत में पंखे टांगने के लिए चुल्ले लगाए ही नहीं जाते थे। लेकिन, तेजी से बन रही इमारतों में अब चुल्ले लगने लगे हैं। हद तो ये है कि देहरादून से मसूरी की चढ़ाई शुरू होते ही डीलक्स एयरकंडीशनर कमरों के बड़े-बड़े होर्डिंग भी खूब दिखने लगे हैं। देहरादून में गर्मी में शायद की किसी कार का शीशा खुला दिखाई दे। दिल्ली, नोएडा की ही तरह कारों में एसी चलाना पहाड़ों में भी शुरू हो गया है। इस गर्मी का ही असर था कि जिम कार्बेट नेशनल पार्क के अंदर की नदी का पानी कई-कई जगह सूख गया था। गाइड जानवरों के दिखने की पुरानी घटनाओं को बताकर ही अपना काम चला रहे हैं। अब ऐसी गर्मी में सूखते जिम कार्बेट के जंगलों में कितने समय तक जंगली जानवर बचे रहेंगे ये सोचने की बात है।
इस गर्मी में शिमला का तापमान 34 डिग्री तक पहुंच गया। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचने से इस बार गर्मियों में मैदान से वहां पहुंचे सैलानी तो निराश हुए ही। लेकिन, मामला इतना हल्का नहीं है। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचना कितना खतरनाक है इसका अंदाजा दो खबरों से लगाया जा सकता है। दोनों खबरें दो फलों के उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। लीची और सेब का उत्पादन। लीची का उत्पादन इस साल आधा रहने की आशंका जताई जा रही है। पिछले साल 4.48 लाख टन लीची हुई थी। इस साल ये सिर्फ 2.24 लाख टन रह सकती है। कुछ ऐसी ही खबर सेब उत्पादन के मोर्चे पर भी आ रही है। ये गेहूं, चावल के उत्पादन जैसी खबर नहीं है कि इस साल बारिश कम ज्यादा हुई अगले साल संतुलित हुई तो, उत्पादन बढ़ जाएगा।
दरअसल सेब और लीची दोनों का उत्पादन घटने की सबसे बड़ी वजह बढ़ती गर्मी है। ये दोनों फल पहाड़ों पर होते हैं। इनके होने के लिए ठंडे मौसम का होना बेहद जरूरी है। पहाड़ों में हुई कम बारिश और ना के बराबर हुई बर्फबारी ने इन फलों के लिए अनुकूल परिस्थितियां ही नहीं बनाईं। इस वजह से धीरे-धीरे इन फलों के उत्पादन का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। सेब का उत्पादन क्षेत्र हर एक डिग्री तापमान बढ़ने पर 300 मीटर ऊपर की ओर खिसक जा रहा है।
सेब और लीची के उत्पादन के आंकड़े सीधे-सीधे सुनने में भले ही डरावने न लगें लेकिन, इन आंकड़ों से डरने की जरूरत है। धरती का पानी सूख रहा है। पेड़ इमारत सड़क बनाने के लिए कटते जा रहे हैं। बचे पेड़ों को बचाने भर का भी पानी धरती के गर्भ में बमुश्किल से ही है। खराब से खराब परिस्थिति में खुद को संभालने का आशावादी जुमला है कि बीती ताहि बिसारिये आगे की सुध लेय। लेकिन, शायद पर्यावरण के साथ जितना खिलवाड़ हम कर चुके हैं उसमें ये जुमला आशा नहीं निराश के गर्त में ले जाएगा। इसलिए इस बारिश की फुहारों के बीच गर्मी की तपिश याद कीजिए। पानी बचाइए, पेड़ बचाइए। वरना अगली गर्मी के बाद ये फुहारें कितनी कम मिलेंगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
ये पर्यावरण दिवस पर मैं कोई रस्मी चिंता वाला लेख नहीं लिख रहा हूं। तापमान जिस तरह से 50 डिग्री सेल्सियम की तरफ बढ़ रहा है उसमें रस्म अदायगी भर से अब काम नहीं चलने वाला। बढ़ते उपभोक्तावाद के दौर में जिस तरह से हर कोई अपनी तरक्की और अपनी तरक्की यानी जेब में ढेर सारे पैसे के बूते सारी सहूलियतें खरीद लेने का सपना देख रहा है वो, खतरनाक है। जिस तरह से हम अपने संसाधनों को खोदकर खत्म कर रहे हैं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और ये सोचकर खुश हो रहे हैं कि जेब में पैसे रहे तो, सब ठीक हो जाएगा और खतरवाक दिशा में बढ़ रहा है। सोचिए देश के बड़े हिस्से में बिजली नहीं है। बिजली जहां है भी वहां जोरदार कटौती हो रही है। मांग-आपूर्ति की खाई चौड़ी होती जा रही है। शहरों में 2-3 घंटे की बिजली कटौती होने पर इनवर्टर के सहारे खुद को गर्मी के प्रकोप से बचाने की कोशिश अब बेकार होती दिख रही है। अब दिल्ली और उससे सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक के शहरों में बिजली की कटौती इतनी होने लगी है कि अब पसीने से डूबे लोग अकसर ये कहते मिल रहे हैं कि इनवर्टर बोल गया है। दिल्ली-NCR के पानी में जहरीले रसायन की बात अब वैज्ञानिक तथ्यों के साथ सामने आ रहे हैं। हर दूसरे दिन काले-पीले पानी की सप्लाई पर दिल्ली-NCR में बवाल की खबरें सारी गर्मियां सुर्खियों में रहीं। अब बारिश का पानी आने के साथ शायद काली पड़ चुकी यमुना कुछ उज्ज्वल हुई होगी। दूसरी नदियों में थोड़ा पानी बढ़ा होगा। कई जगह बाढ़ भी दिखने लगेगी और शायद लोगों को गर्मी में नदी की चिटकी तलहटें याद भी नहीं रह जाएंगी।
लेकिन, पर्यावरण के साथ खिलवाड़ की भयावहता के ये खतरनाक लक्षण अभी दिखने शुरू हुए हैं। बढ़ती गर्मी से पानी घट रहा है। गंगोत्री के ग्लेशियर पिघलने और देश की बड़ी नदियों में पानी घटने की अकसर चर्चा होने लगी है। गर्मी के मौसम में मैदान से भागकर पहाड़ घूमने जाने वालों को शायद अभी आसानी से बात समझ में नहीं आ रही होगी क्योंकि, मसूरी की पहाड़ी पर शाम अभी भी सुहानी हो जाती है। मसूरी से 18 किलोमीटर नीचे पहाड़ों के बीच से निकलते झरने की वजह से मशहूर कैम्पटी फॉल के झरने की पतली धार की चिंता भी शायद अभी कम ही लोगों को होती होगी। इस बार गर्मियों में जब मैं कैम्पटी फॉल गया तो, झरने में नहाया नहीं। मेरे घुटनों से भी कम पानी था। एक धारा पूरी तरह से सूख गई थी। गिर रही दो धाराओं का भी पानी कम हो गया था।
मसूरी में कुछ साल तक कमरे की छत में पंखे टांगने के लिए चुल्ले लगाए ही नहीं जाते थे। लेकिन, तेजी से बन रही इमारतों में अब चुल्ले लगने लगे हैं। हद तो ये है कि देहरादून से मसूरी की चढ़ाई शुरू होते ही डीलक्स एयरकंडीशनर कमरों के बड़े-बड़े होर्डिंग भी खूब दिखने लगे हैं। देहरादून में गर्मी में शायद की किसी कार का शीशा खुला दिखाई दे। दिल्ली, नोएडा की ही तरह कारों में एसी चलाना पहाड़ों में भी शुरू हो गया है। इस गर्मी का ही असर था कि जिम कार्बेट नेशनल पार्क के अंदर की नदी का पानी कई-कई जगह सूख गया था। गाइड जानवरों के दिखने की पुरानी घटनाओं को बताकर ही अपना काम चला रहे हैं। अब ऐसी गर्मी में सूखते जिम कार्बेट के जंगलों में कितने समय तक जंगली जानवर बचे रहेंगे ये सोचने की बात है।
इस गर्मी में शिमला का तापमान 34 डिग्री तक पहुंच गया। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचने से इस बार गर्मियों में मैदान से वहां पहुंचे सैलानी तो निराश हुए ही। लेकिन, मामला इतना हल्का नहीं है। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचना कितना खतरनाक है इसका अंदाजा दो खबरों से लगाया जा सकता है। दोनों खबरें दो फलों के उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। लीची और सेब का उत्पादन। लीची का उत्पादन इस साल आधा रहने की आशंका जताई जा रही है। पिछले साल 4.48 लाख टन लीची हुई थी। इस साल ये सिर्फ 2.24 लाख टन रह सकती है। कुछ ऐसी ही खबर सेब उत्पादन के मोर्चे पर भी आ रही है। ये गेहूं, चावल के उत्पादन जैसी खबर नहीं है कि इस साल बारिश कम ज्यादा हुई अगले साल संतुलित हुई तो, उत्पादन बढ़ जाएगा।
दरअसल सेब और लीची दोनों का उत्पादन घटने की सबसे बड़ी वजह बढ़ती गर्मी है। ये दोनों फल पहाड़ों पर होते हैं। इनके होने के लिए ठंडे मौसम का होना बेहद जरूरी है। पहाड़ों में हुई कम बारिश और ना के बराबर हुई बर्फबारी ने इन फलों के लिए अनुकूल परिस्थितियां ही नहीं बनाईं। इस वजह से धीरे-धीरे इन फलों के उत्पादन का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। सेब का उत्पादन क्षेत्र हर एक डिग्री तापमान बढ़ने पर 300 मीटर ऊपर की ओर खिसक जा रहा है।
सेब और लीची के उत्पादन के आंकड़े सीधे-सीधे सुनने में भले ही डरावने न लगें लेकिन, इन आंकड़ों से डरने की जरूरत है। धरती का पानी सूख रहा है। पेड़ इमारत सड़क बनाने के लिए कटते जा रहे हैं। बचे पेड़ों को बचाने भर का भी पानी धरती के गर्भ में बमुश्किल से ही है। खराब से खराब परिस्थिति में खुद को संभालने का आशावादी जुमला है कि बीती ताहि बिसारिये आगे की सुध लेय। लेकिन, शायद पर्यावरण के साथ जितना खिलवाड़ हम कर चुके हैं उसमें ये जुमला आशा नहीं निराश के गर्त में ले जाएगा। इसलिए इस बारिश की फुहारों के बीच गर्मी की तपिश याद कीजिए। पानी बचाइए, पेड़ बचाइए। वरना अगली गर्मी के बाद ये फुहारें कितनी कम मिलेंगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
Monday, June 14, 2010
राजीव पर उंगली उठाते क्यों नहीं बनता
21 मई 1991 को राजीव गांधी की मौत हुई लेकिन, उसकी खबर देश भर में 22 मई की सुबह पहुंची। मुझे याद है कि इलाहाबाद में मेरे पढ़ाई के दिन थे। जब सोकर उठा तो, पता चला कि रात में जबरदस्त तूफान आया था। बारिश-तूफान की वजह से पानी-बिजली का संकट बन गया था। घर में शायद मेरी माताजी को जब पता चला कि राजीव गांधी की हत्या हो गई है तो, राजनीति से बिल्कुल अनजान होने के बावजूद उन्हें जैसे झटका सा लग गया। उन्होंने कहाकि एतना बड़ा-भला मनई मरा इही से आंधी-तूफान आएस।
राजीव गांधी तो, हमारे कॉलेज से विश्वविद्यालय पहुंचते तक ही दुनिया से चले गए। लेकिन, जाने-अनजाने पता नहीं कैसे राजीव गांधी का वो, मुस्कुराता, निर्दोष चेहरा ऐसे हमारे जेहन में समा गया कि कांग्रेस की ढेर सारी हरकतें बुरी लगने के बावजूद हमेशा लगता रहा कि राजीव होते तो, देश की राजनीति का चेहरा बेहतर होता। स्वच्छ राजनीति होती। लेकिन, क्या ये मेरे दिमाग में बसी भ्रांति भऱ है या सचमुच कुछ बदलाव होता।
ज्यादा ध्यान से देखने पर और पत्रकारीय कर्म करते 12 साल हुई नजर से देखता हूं तो, साफ दिखता है कि ये मेरे दिमाग की भ्रांति भर ही है। राजीव गांधी के सिर पर इस देश को 21वीं सदी में ले जाने का एतिहासिक तमगा ऐसे सज गया जैसे, राजीव गांधी नहीं होते तो, ये देश अब तक 19वीं शताब्दी में ही पड़ा होता। जैसे राजीव नहीं होते तो, भारत के लोग कंप्यूटर निरक्षर ही रह जाते। दरअसल युवा होते भारत को इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव का चेहरा ऐसा निर्दोष दिखा कि उन्हें लगा कि भारतीय राजनीति का चेहरा बदल रहा है। ऐसा समझने वाली जमात में ही हम जैसे लोग भी शामिल थे। जो, उस समय कॉलेज में पढ़ते थे। हमारे दिमाग में जाने कैसे भर गया कि राजीव गांधी राजनीति में ईमानदारी का दूसरा नाम है। राजीव के खिलाफ बोफोर्स के भ्रष्टाचार की तोप दागकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के बाद और भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने के बाद भी राजीव की छवि पाक-साफ ही रही । लेकिन, शायद ये कांग्रेसी तरीका है कि बोफोर्स का भ्रष्टाचार और भोपाल की गैस त्रासदी सब जनता भूल जाती है। जनता कांग्रेसी राज की ऐसी गुलाम है कि सरकार के सबसे जिम्मेदार मंत्री प्रणव मुखर्जी दम ठोंककर कहते हैं कि उस वक्त कानून-व्यवस्था की स्थिति ऐसी थी कि एंडरसन को भगाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। ध्यान रहे ऐसी भयावह कानून व्यवस्था के समय केंद्र और राज्य (मध्य प्रदेश) दोनों ही जगह कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
मैं ये समझ नहीं पाता कि आखिर कैसे एक ही परिवार के दो गांधी भाइयों में से एक संजय गांधी इस देश में तानाशाह और जाने अप्रिय संबोधनों से बुलाया जाता है। वहीं, दूसरा राजीव गांधी हमेशा इस देश की तरक्की का अगुवा माना जाता है। जबकि, संजय गांधी पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप तो मुझे याद नहीं आ रहा है। जबकि, राजीव पर बोफोर्स जैसा भ्रष्टाचार का आरोप और भोपाल गैस त्रासदी के मामले में एंडरसन को भगाने तक के मामले सामने आ रहे हैं। एक और बात है चाहे बोफोर्स के ओटावियो क्वात्रोची का मामला हो या फिर भोपाल की तबाही के जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के वॉरेन एंडरसन की। दोनों जगह विदेशी दबाव साफ दिखता है।
अब तो मामला एक पीढ़ी आगे तक निकल गया है। राहुल को इस देश में सारी अच्छाइयों का प्रतीक माना जा रहा है और वरुण गांधी को सारी बुराइयों का। वो, भी तब जब वरुण को भारतीय जनता पार्टी में जगह बनाने के लिए सारी मशक्कत करनी है और राहुल को सब कुछ पका-पकाया मिल रहा है। सुपर प्राइममिनिस्टर राहुल बाबा का हाल ये है कि यूपीए-2 के एक साल का रिपोर्ट कार्ड रखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन जी ये कहकर खुश होते हैं कि मैं तो, उन्हें मंत्री देखना चाहता हूं लेकिन, वो मना कर रहे हैं। और, साथ में ये भी कि जब वो, चाहेंगे मैं प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ दूंगा।
मीडिया में भी संजय, राजीव के बेटों को विरासत का नफा-नुकसान ही उसी अनुपात में मिल रहा है। राहुल का प्रभाव ऐसा है कि एक साल होने पर न्यूज चैनलों पर सर्वे चला तो, उसमें एक सवाल ये भी था कि अगर राहुल प्रधानमंत्री बने तो, .... और इस चमत्कारी सवाल के जवाब में सर्वे में शामिल जनता हर राज्य में बीजेपी के खाते से निकालकर 2-4 सीट और कांग्रेस के खाते में जोड़ दे रही है। सचमुच इस देश में गुलामी की जड़ें बड़ी गहरी हैं। बस खेल ये है कि कौन सलीके से जनमानस को गुलाम बनाने में कामयाब हो जाता है। गांधी परिवार की असल विरासत गुलाम बनाने का महामंत्र साबित हो चुकी है। गाहे-बगाहे, उसमें थोड़ी बहुत सेंध दूसरे भी लगाते रहते हैं।
Wednesday, June 09, 2010
उत्तर प्रदेश में पावर फुल NDA
चौंकिए मत उत्तर प्रदेश में बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी भले ही सत्ता में है लेकिन, यहां चलती NDA की है। कम से कम सरकारी अधिकारियों के लिए तो सुकून का यही रामबाण है। दरअसल ज्यादा कमाई वाले विभागों में पोस्टिंग के लिए पैसे देना तो अभ पुरानी बात हो गई है। नई-- वैसे इसको भी लागू हुए काफी टाइम हो गया है—बात ये है कि अगर किसी अच्छी जगह (मलाईदार-कमाई वाली) टिके रहना है तो, NDA देना ही होगा।
NDA यानी नॉन डिस्टर्बेंस अलाउंस। मायावती सरकार में इस समय पैसे लेने-देने के मामले में गजब की पारदर्शिता है। नौकरी चाहिए रेट तय हैं। नौकरी में बने रहना है रेट तय हैं। और, अब तो, हाल ये है कि किसी पोस्ट पर जरा थमकर रहना है तो, उसका पैसा अलग से देना होता है। एक मित्र से बात हो रही थी तो, उसने बताया कि सिंचाई विभाग बाढ़ प्रखंड में एक इंजीनियर साहब 50 लाख रुपए देकर पहुंचे और दो महीने बाद ही फिर से उन्हें वहां पर टिके रहने के लिए NDA यानी नॉन डिस्टर्बेंस अलाउंस देना पड़ा। अब ये रकम कम-ज्यादा हो सकती है। लेकिन, चल ऐसा ही रहा है।
हमारे एक रिश्तेदार जो, पंचायत विभाग में हैं, NDA यानी नॉन डिस्टर्बेंस अलाउंस न देने की वजह से एक साल में सात बार स्थानांतरण झेल चुके हैं। जय मायाराज।
Tuesday, June 08, 2010
बंधक है लोकतंत्र
अमेरिकी सरकार के उप सचिव ने लगभग डांटने के अंदाज में उम्मीद जताई है कि भारत सरकार भोपाल गैस त्रासदी पर सीजेएम कोर्ट के फैसले के आधार पर फिर से ये केस नहीं खोलेगी। मेरा ये बहुत साफ भरोसा है कि भारतीय संविधान बड़ा बदलाव मांगता है जो, भारतीय लोकतंत्र को सही मायने में मजबूत कर सके। क्योंकि, आज संविधान में ऐसे प्रावधान ही नहीं हैं जो, असाधारण परिस्थितियों से निपटने की ताकत देते हों। भारत में सीबीआई और दूसरे जांच आयोगों को ऐसी ताकत क्यों नहीं मिल पा रही कि वो, राजनीतिक दबाव को दरकिनार करके जनता के हित में सही फैसले ले सकें।
भोपाल गैस त्रासदी मामले में तब सीबीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर रहे बीआर लाल ने आज बड़ा खुलासा किया कि उन्हें इस मामले में सरकार की तरफ से निर्देश दिए गए थे कि वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की कोशिश न की जाए। विदेश मंत्रालय की तरफ से आई चिट्ठी में ये बात साफ-साफ कही गई थी। अब बीआर लाल साहब रिटायरमेंट के बाद ये बात कहने का साहस जुटा पा रहे हैं इतने के लिए भी उनको बधाई देनी चाहिए।
बीआर लाल ने वो खुलासे किए हैं जो, अब तक आरोप के तौर पर सरकारों पर लगते थे कि सीबीआई का इस्तेमाल सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है। लाल ने कहा कि कोई भी मामला हो जो, सीबीआई को सौंपा जाता है उस पहले से ही निर्देश आ जाते हैं कि इस मामले में क्या और कितना करना है। लाल ने ये तक कहा कि क्वात्रोची का मामला तो, पैसे का था लेकिन, पंद्रह हजार से ज्यादा जानें जाने के मामले में भी सीबीआई पर जबाव नाजायज है।
अब वॉरेन एंडरसन का प्रत्यर्पण तो खैर संभव ही नहीं है। क्योंकि, भारत सरकार में इतनी ताकत तो आजादी के 63 सालों में पैदा हो नहीं पाई है कि वो, अमेरिका पर दबाव बना सके। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर किस दबाव में भोपाल गैस त्रासदी की ही रात वॉरेन एंडरसन को अर्जुन सिंह ने किस जबाव में विशेष विमान से दिल्ली पहुंचवा दिया। और, फिर उसे धीरे से भारत से ही बाहर करा दिया गया।
सरकारों के हाथ में लोकतंत्र किस तरह बंधक है ये अच्छे से समझा जा सकता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब बीजेपी और लेफ्ट का अविश्वास प्रस्ताव गिर गया था। वो, भी ऐसा प्रस्ताव जिस पर खुद मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल देश भर में चक्का जाम कर रही थी। महंगाई पर चिलचिलाती धूप में जनता को बेवकूफ बनाते इन दोनों नेताओं ने इस मुद्दे पर सरकार के खिलाफ वोट करने से मना कर दिया। बहाना बना हम सांप्रदायिक बीजेपी के साथ नहीं जा सकते। लेकिन, लाल साहब के खुलासे के बाद बीजेपी के इस आरोप में दम लगता है कि सीबीआई के डर ने दोनों यादव क्षत्रपों के साथ मायावती को सरकार के साथ कर दिया।
अब सीबीआई के इस तरह से इस्तेमाल के खुलासे के बाद अब ये जरूरी हो गया है कि संविधान में आयोगों, सीबीआई जैसी संस्थाओं को स्वायत्तता दी जाए। जिससे राजनेता इनके जरिए लोकतंत्र को बंधक न बना सकें। वरना तो, कुछ दिनों के हो हल्ले के कुछ दिन बाद सब ये भूल जाएंगे कि पंद्रह हजार से ज्यादा मौतों के गुनहगार विदेशी को सीबीआई छोड़ दे इसका दबाव तब की सरकार ने बनाया था। देसी गुनहगार तो, खैर बरसों से इसके जरिए सत्ता चला ही रहे हैं।
Monday, June 07, 2010
संविधान बदले बिना बात नहीं बनेगी
हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला देने वाले मामले पर आखिरकार 25 साल बाद भोपाल की सीजेएम कोर्ट ने फैसला सुना ही दिया। पंद्रह हजार से ज्यादा लोग भोपाल की यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली गैस से मारे गए। जबकि, अभी भी कम से कम से कम छे लाख लोग ऐसे हैं जिनके भीतर यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली गैस अभी भी समाई है। और, इसके बुरे असर से सांस की बीमारी से लेकर कैंसर तक की बीमारी के शिकार ये लोग हो रहे हैं। लेकिन, 1 दिसंबर 1984 की रात हुए दुनिया के इस सबसे बड़े औद्योगिक हादसे की सुनवाई के बाद जब फैसला आया तो, इसमें धारा 304 A लगाई गई यानी ऐसी धारा जिसमें अधिकतम दो साल तक की सजा हो सकती है।
और तो और दोषी पाए सभी लोगों को निजी मुचलके पर जमानत पर भी छोड़ दिया गया। ये असाधारण मसला था लेकिन, इसकी पूरी जांच और सुनवाई भारतीय संविधान के उन कमजोर कड़ियों का इस्तेमाल करके की गई कि ये एक साधारण लापरवाही भर का मामला बनकर रह गया। और, कमाल तो ये है कि उस समय यूनियन कार्बाइड के सीईओ रहे वॉरेन एंडरसन को आज भी दोषी नहीं बताया गया। जबकि, वो इसी मामले में करीब दो दशक से भारत में भगोड़ा घोषित है। इसलिए जरूरी ये है कि भोपाल गैस त्रासदी जैसी असाधारण परिस्थितियों के लिए भारतीय संविधान में नए सिरे से बदलाव किया जाए।
मामला सिर्फ भोपाल गैस त्रासदी का ही नहीं है। सच्चाई तो ये है कि ऐसे सभी असाधारण मसलों से निपटने में भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता की बाबा-आदम के जमाने की धाराएं, प्रावधान नाकाफी हैं। फिर चाहे वो भोपाल गैस त्रासदी हो या फिर देश पर हमला करने वाले अफजल गुरु की या कसाब की फांसी हो। एक जमाने में संघ परिवार और उनके अनुषांगिक संगठनों ने ऐसे ही असाधारण मामलों पर संविधान में बदलाव की बात बड़े जोर-शोर से उठाई थी लेकिन, पता नहीं क्यों जब बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार आई तो, कोई ठोस फैसला नहीं लिया जा सका। शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े विचार परिवार की ये बड़ी कमी साबित हुई है कि वो अच्छे मुद्दों को भी उठाकर उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। जिसकी वजह से उस विशेष मुद्दे की वजह से संघ परिवार से जुड़ने वाले लोग फिर उसकी बातों से सहमत होते हुए भी उससे जुड़ने में मुश्किल महसूस करते हैं।
आखिर भोपाल गैस त्रासदी हो, अफजल गुरु का संसद पर हमले में शामिल होना हो या फिर कसाब का मुंबई में गोलियां बरसाना सब देश पर हमला ही तो हुआ ना। फिर देश पर हमले जैसे असाधारण मामले पर कार्रवाई की प्रक्रिया सामान्य चोरी चकारी करने वाले, किसी की हत्या करने किसी फैक्ट्री में थोड़ी लापरवाही जैसी घटनाओं जैसी कैसे हो सकती है। तर्क ये आता है कि मामला भोपाल गैस त्रासदी का हो या अफजल गुरु की फांसी का—हमारे संविधान में दोषियों को उचित और समय पर दंड देने की सारी व्यवस्था है लेकिन, राजनीतिक, कूटनीतिक दबाव मुश्किल करते हैं। इसी तर्क पर ये और जरूरी हो जाता है कि असाधारण मामलों के लिए संविधान और IPC में ऐसे बदलाव किए जाएं कि सीबीआई, राजनेताओं, सरकारों को भी उसे लटकाने का मौका न मिल सके। अभी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अफजल गुरु की फांसी की फाइल लटकाने के मामले में किरकिरी झेल रहीं थीं। उस पर उन्होंने इस देरी के लिए तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटील के दबाव का इशारा करके इस बदलाव की जरूरत को और सही साबित किया है।
सोचिए कि अगर संविधान समीक्षा एक बार हो गई होती और असाधारण मामलों में तुरंत दंड का प्रावधान होता तो, ऐसी जाने कितनी विसंगतियों से बचा जा सकता था। क्योंकि, गाड़ी की ट्यूब में भी 4-6 पंचर हो जाने के बाद ट्यूब बदलना जरूरी ही हो जाता है लेकिन, देश को चलाने वाले भारतीय संविधान में तो, जाने कितने पंचर होने के बाद भी पंचर बनाकर (छोटे-मोटे बदलाव करके) ही काम चलाया जा रहा है। अब लगभग हर दूसरे चौथे न्यायालयों से निकलने वाले आदेश संविधान की कई बातों को आज की प्रासंगिकता के लिहाज से सही नहीं पाते हैं। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें भारतीय संविधान आज की परिस्थितियों के लिहाज से समय पर न्याय की प्रक्रिया में मददगार नहीं बनता है। आतंकवाद जैसी देश की सबसे बड़ी समस्या से निपटने के लिए तो, संविधान में अलग से कोई प्रावधान ही नहीं है। ये तो कसाब की फांसी सजा के बाद ये राज खुला कि अफजल गुरु की क्षमादान याचिका अभी तक राष्ट्रपति के पास पहुंची ही नहीं है। अभी तक फाइल दिल्ली से सरकार से लौटकर केंद्रीय गृह मंत्रालय पहुंची ही नहीं है।
ये कांग्रेसी तरीका हो सकता है किसी भी मसले को टालमटोल करने का। लेकिन, दरअसल किसी भी अभियुक्त को फांसी की सजा और फांसी होने के बीच संविधान में जो व्यवस्था है वो, इस तरह की देरी का बहाना देती है। दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में इस बात की कोई समय सीमा तय ही नहीं की गई है कि राष्ट्रपति को कब तक किसी क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है वो, चाहे तो, दशकों तक उस लटका सकता है। अफजल गुरु के मामले में तो, राष्ट्रपति के पास फाइल पहुंचने से पहले ही लगभग एक दशक होने जा रहे हैं।
आप ही देखिए कि आखिर किसी अभियुक्त को फांसी की सजा सुनाए जाने पर उसे फांसी के तख्ते तक पहुंचाने की प्रक्रिया क्या है
सेशन कोर्ट या फिर स्पेशल कोर्ट अगर किसी को फांसी की सजा सुनाती है तो, उस फैसले पर मुहर लगाने के लिए संबंधित हाईकोर्ट के पास भेजना होता है।
अगर हाईकोर्ट भी फांसी की सजा सुना देता है तो, अभियुक्त के पास सर्वोच्च न्यायालय में अपील का मौका होता है।
सर्वोच्च न्यायालय भी अगर अभियुक्त की फांसी की सजा बरकरार रखता है तो, अभियुक्त के पास आखिरी विकल्प बचता है कि वो, राष्ट्रपति से अभयदान मांगे।
राष्ट्रपति के पास अभयदान के लिए की जाने वाली अपील राष्ट्रपति के पास जाने से पहले गृह मंत्रालय की जांच के लिए भेजी जाती है।
संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति को कितने दिन में क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है।
अब केंद्रीय गृह मंत्रालय उस राज्य से मामले की संपूर्ण जांच के लिए सारी जानकारी मांगता है।
राज्य सरकार मामले की सारी जानकारी जुटाकर गृह मंत्रालय को भेजता है।
गृह मंत्रालय सारे मामले की जांच करके उसे राष्ट्रपति सचिवालय भेज देता है।
राष्ट्रपति सचिवालय आखिर में फाइल राष्ट्रपति के पास फैसले के लिए भेजता है।
अब ये व्यवस्था सामान्य फांसी की सजा पाए व्यक्ति के लिए तो फिर भी ठीक कही जा सकती है लेकिन, देश पर हमला करने वाले आतंकवादियों के मामले में भी यही व्यवस्था भारतीय संविधान का मखौल उड़ाती दिखती है। विशेष अदालत के जरिए सुनवाई होने और अब तक की सबसे तेज सुनवाई होने पर भी कसाब को विशेष अदालत से फांसी की सजा मिलने में डेढ़ साल से ज्यादा लग गए जबकि, ये पहली प्रक्रिया है। आतंकवादियों को जेल में रखने और उनकी सुनवाई पर हम भारतीयों की गाढ़ी कमाई का जो, पैसा जाता है उस पर तो, बहस की गुंजाइश ही नहीं दिखती। कभी-कभार किसी चर्चा में उड़ते-उड़ते ये बात भले सामने आ जाती है।
भोपाल गैस त्रासदी और आतंकवादी घटनाओं जैसी असाधारण घटनाओं के बाद इस बात की सख्त जरूरत है कि भारतीय संविधान की समीक्षा करके एक बार नए सिरे से आज की जरूरतों के लिहाज से संविधान लिखा जाए। हमारी चुनौती हेडली जैसे आतंकवादी भी बन रहे हैं जो, अमेरिका में पल-बढ़कर भारत के खिलाफ आतंकवादी साजिश सोचते-करते हैं और वॉरेन एंडरसन जैसे विदेशी सीईओ भी जिनकी एक लापरवाही हजारों लोगों की जान ले लेती है और आने वाली कई पीढ़ियों की नसों में जहर भर देती है। इन असाधारण परिस्थितियों में पुराने संविधान, कानून के सहारे लड़ाई वैसी ही जैसे, पुलिस को जंग लगी थ्री नॉट थ्री की बंदूक लेकर एक 47 और दूसरे अत्याधुनिक हथियारों से लैस आतंकवादियों से लड़ने भेज दिया जाए।
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