रात के करीब साढ़े दस बजे थे। दफ्तर की छत पर खुले में बैठकर हम खाना खाने जा ही रहे थे। पहला कौर उठाया ही था कि संपादक जी का फोन आ गया।
हर्ष, कोई गोलीबारी की खबर है क्या।
नहीं सर, ऐसे ही कुछ हल्की-फुल्की झगड़े की खबर थी मैंने देखा था लेकिन, शायद हमारे चैनल के लिहाज से खास नहीं थी।
नहीं देखो शायद कोई बड़ी गैंगवॉर है या कोई आतंकवादी हमला है।
खाना छोड़कर मैं तुरंत भागकर न्यूजरूम में पहुंचा तो, हर चैनल पर वही खबर थी। कहीं पर दो माफिया गुटों के बीच भयानक गोलीबारी की खबर थी तो, कहीं कुछ और ... कोई भी चैनल एकदम से नहीं बता पा रहा था कि हुआ क्या है।
तब तक फिर संपादक जी का फोन आ गया था।
हर्ष, कौन-कौन है ऑफिस में।
अभी तो सर, गिने-चुने लोग ही बचे हैं। लगभग सब जा चुके हैं। क्या करना है सर
अच्छा देखो खबर पक्की हो जाए तो, फैसला लेते हैं नजर रखो। ये कोई बहुत बड़ी खबर हो गई है।
फोन रखते-रखते अचानक एक न्यूज चैनल पर फ्लैश आया - मुंबई पर हमला। लगा जैसे वज्रपात हो गया। फिर एक साथ गोलियों की तरह ब्रेकिंग न्यूज वाली पट्टी पर लगभग सभी न्यूज चैनलों पर मुंबई पर हमला। लियोपोल्ड कैफे पर गोलीबारी... सांताक्रूज में टैक्सी में धमाका ताज होटल में आतंकवादी घुसे ... ओबरॉय होटल में भी आतंकवादियों के घुसने की आशंका ... ऐसे फ्लैश टीवी स्क्रीन से निकलकर जेहन को जकड़ रहे थे।
मैंने संपादक जी को फोन किया- सर, IBN7 लाइव कट कर लें क्या।
तुरंत कट करो, फिर देखते हैं। PCR के सारे लोग जा चुके थे। एंकर नहीं था। डेस्क पर भी मेरे अलावा एकाध लोग ही थे। सिर्फ टिकर पर एक साथी था। तुरंत फैसला लिया। IBN7 लाइव कट किया और ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी पर जैसे-जैसे खबरें आती गईं सूचना डालने लगे।
तब तक न्यूज चैनलों पर खबर आ चुकी थी कि मुंबई CST पर आतंकवादी गोलीबारी करके भागे हैं। स्क्रीन पर हेमंत करकरे का गाड़ी से उतरकर बुलेटप्रूफ जैकेट और लोहे वाली टोपी पहने तस्वीरें दिखीं। ATS प्रमुख को स्क्रीन पर देखकर समझ में आ गया था ATS हरकत में आ चुकी है। भरोसा हुआ कि अब कुछ घंटे में मामला निपट जाएगा। फिर अचानक कुछ शांति सी लगी। लगा कि आतंकवादी घिनौनी वारदात को अंजाम देकर भाग चुके हैं। लेकिन, वो तूफान के पहले की शांति थी। लाल-लाल ब्रेकिंग न्यूज चमकी ATS प्रमुख हेमंत करकरे शहीद, मुंबई पुलिस के शूटर सालस्कर, डीआईजी अशोक काम्टे शहीद। तेजी में फ्लैश बनाते मेरे रोंगटे खड़े हो गए। खून खुद के शरीर पर दिखने लगा।
बुरी से बुरी खबरें अब आनी शुरू हुई थीं। पता चला ताज को आतंकवादियों ने कब्जे में कर लिया है। ओबरॉय आतंकवादियों के कब्जे में है। मुंबई CST पर भयानक खून खराबा आतंकवादियों ने किया है। नरीमन हाउस भी आतंकवादियों के कब्जे में चले जाने की खबर आई। लगा जैसे पाकिस्तान ने घुसकर हमें मसल दिया हो। खबर ये भी आई कि आतंकवादी पुलिस की एक गाड़ी लेकर उससे भी मौत बरसाते बहुत देर तक घूमते रहे। खैर, थोड़ी ही देर में खूनियों के मरीन ड्राइव पर मरने की खबर भी आई।
बॉसेज से बात की तो, तय हुआ कि सुबह आठ बजे से हम अपना बुलेटिन खोलेंगे। एक बिजनेस न्यूज चैनल सारी रात लाइव था। देश पर हमला जो हुआ था। सारी फ्लैश बनाते थक गया था। आंख में नींद पानी में बालू की तरह भरी हुई थी लेकिन, हमले की वजह से सोने का मन नहीं हो रहा था। सुबह की शिफ्ट आ गई थी लेकिन, आठ का बुलेटिन मैंने खुद ही बनाया था। पूरी रात की टाइमलाइन मुंहजुबानी याद हो गई थी। करीब ग्यारह बजे कमरे पर गया कि थोड़ा आराम कर लूं। लेकिन, फ्रेश होकर, नहा धोकर सोने की लाख कोशिश कामयाब नहीं हुई। एकाध घंटे में ही फिर से ऑफिस में था।
ह्रदयविदारक तस्वीरों को तेजी से चलने लायक बनाने के काम में मैं भी सबके साथ जुट गया। फिर तय हुआ कि हमारे अपने रिपोर्टर भी जाने चाहिए। स्वभावत: रिपोर्टर होने की वजह से वैसे तो, हमेशा रिपोर्टिंग ही करने की इच्छा होती रही। लेकिन, इस मौके पर तो ये इच्छा या यूं कहूं कि आतंकवादियों के खिलाफ जंग में अपनी सामर्थ्य भर शामिल होने की इच्छा जोर मार रही थी। लेकिन, न तो मैं बॉसेद से कह पाया और न ही वो मेरी इस इच्छा को भांप सके या भांपकर भी उन्हें लगाकि ये शो प्रोड्यूस करने, प्रोडक्शन के लिए इस समय ज्यादा उपयोगी है, मुझे नहीं भेजा गया। लगा क्या खाक पत्रकारिता कर रहे हैं हम। शायद इसी कोफ्त में मैंने 27 नवंबर 2008 को ये गुस्सा निकाला था।
खैर, सुबह तक के अखबारों में कलावा बांधे आतंकवादी की तस्वीरें क्या आईं। ATS प्रमुख के हिंदू अतिवादियों के शिकार होने की रात की अफवाह एक बार फिर जोर पकड़ने लगी। अच्छा हुआ जल्दी ही ये साफ हो गया। वरना तो, लोग करकरे की शहादत को हिंदू आतंकवाद, साध्वी प्रज्ञा और मालेगांव धमाकों की ATS जांच तक से जोड़ने लगे थे। फिर तो NSG, मार्कोस के जवानों के जिम्मे देश बचाने का काम आ चुका था। मुंबई की तीन महत्वपूर्ण इमारतों से कम से कम लोगों की जान जाए इसे समझते हुए कमांडो कार्रवाई शुरू हो गई थी। खैर, जवानों की जांबाजी के बीच टीवी की टीआरपी के खिलाड़ियों ने शुरू में जल्दी से जल्दी और कुछ हद तक लाइव तस्वीरें दिखाकर TRP बटोरने की जो कोशिश की उसने शायद आतंकवादियों को जवानों की पोजीशन बताने में भी मदद कर दी।
दुनिया के सबसे बड़े और कठिन इस तरह के आतंकवादी हमले को हमारे जवानों ने मुंहतोड़ जवाब दिया। होटलों, नरीमन हाउस में फंसे लोगों को बचाकर आतंकवादियों को मार गिराया। आतंकवादी घटना को रोक न पाने की नैतिक जिम्मेदारी थोपकर कांग्रेस ने विलासराव देशमुख को वहां से हटाकर केंद्र में बड़ा मंत्री बना दिया। अच्छा हुआ कि रस्मी कहिए, TRP की मजबूरी कहिए, पत्रकारिता कहिए या आप जो भी कहिए- देश के जख्म को साल भर बाद फिर से टीवी चैनलों ने, मीडिया ने थोड़ा कुरेदा तो सही। टीवी पर देखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो गए। 26 नवंबर 2008 को याद करके। 26, 27 नवंबर की काली रात याद करके। ये दहशत मुंबई में ऐसे भर गई है कि हल्का सा खटका भी आतंकवादी हमला लगता है। रोजी-रोटी की मजबूरी है जिसे हम मुंबई SPIRIT कहते हैं और मुंबई की जिंदादिली समझते हैं लेकिन, बताइए ना ऐसी सरकारों में हम क्या कर सकते हैं गोली खाकर सिवा जिंदादिल रहने के। अच्छा है कि टीवी है, अच्छा है कि टीवी TRP के फेर में या फिर सनसनी फैलाने के लिए जख्म याद कराती रहती है वरना तो, सरकारें तो चाहती हैं जनता गोली खाकर सो जाए या फिर बची रहे तो, भी सोती रहे बस उनकी सत्ता चलती रहे। देश जाए भाड़ में ...
मैं जब ये पोस्ट लिख रहा था तो, रात 12.27 बजे पत्रकार मित्र अमोल परचुरे का ये संदेश आया
A year after 26/11, the safest person in the country is, ironically ...
kasab
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Friday, November 27, 2009
Monday, November 23, 2009
ऐसा चमत्कार कैसे हो जाता है
हिंदी-अंग्रेजी का व्यवहार-बोलचाल हमें गजब का बदल रहा है। हिंदी के जिन शब्दों, क्रिया कलापों को हम हिंदी में सुनना नहीं चाहते वही अंग्रेजी भाषा में तब्दील होते ही अरुचिकर नहीं लगता। और, ये ऐसे घुस रहा है हमारे घर, परिवार, समाज में कि जाने-अनजाने हम भी इसका हिस्सा बनते जाते हैं। गालियों का तो है ही। बेहद आधुनिक दिखने वाले लड़के-लड़कियां ऐसे अंतरंग शब्दों को अंग्रेजी में सरेआम प्रयोग कर लेते हैं जिसे हिंदी में कह दिया जाए तो, असभ्य, जाहिल, जंगली जाने क्या-क्या हो जाएं। लेकिन, अंग्रेजी में उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करके स्मार्ट।
हिंदी की टट्टी गंदी लगती है उसमें से बदबू भी आती है लेकिन, अंग्रेजी की potty होते ही उसमें की गंध और गंदगी पता नहीं कहां गायब हो जाती है। और, हम इन शब्दों को बोलते वक्त भाव भी चेहरे पर ऐसे ही लाते हैं जाने या अनजाने। कैसे हो जाता है ये चमत्कार। हिंदी-अंग्रेजी किसी में भी बताइए ना ...
हिंदी की टट्टी गंदी लगती है उसमें से बदबू भी आती है लेकिन, अंग्रेजी की potty होते ही उसमें की गंध और गंदगी पता नहीं कहां गायब हो जाती है। और, हम इन शब्दों को बोलते वक्त भाव भी चेहरे पर ऐसे ही लाते हैं जाने या अनजाने। कैसे हो जाता है ये चमत्कार। हिंदी-अंग्रेजी किसी में भी बताइए ना ...
Sunday, November 22, 2009
ये हिंदी की लड़ाई थी ही नहीं
इसे हिंदी की लड़ाई कहा जा रहा था। कुछ तो हिदुस्तान की लड़ाई तक इसे बता रहे थे। देश टूटने का खतरा भी दिख रहा था। लेकिन, क्या सचमुच वो हिंदी की, हिंदुस्तान की लड़ाई थी। दरअसल ये राजनीति की बजबजाती गंदगी को हिंदी की पैकिंग लगाकर उस बजबजाती राजनीति को सहेजने के लिए अपने-अपने पक्ष की सेना तैयार करने की कोशिश थी।
अब सोचिए भला देश अबू आजमी को लेकर संवेदनशील इसलिए हो गया कि हिंदी के नाम पर आजमी ने चांटा खाया। सोचिए हिंदी की क्या गजब दुर्गति हो गई है कुछ इधर कुआं-उधर खाई वाले अंदाज में। उसको धूल धूसरित करने खड़े हैं राज ठाकरे और उसको बचाने खड़े हैं अबू आजमी। जबकि, सच्चाई यही है कि न तो राज ठाकरे की हिंदी से कोई दुश्मनी है न अबू आजमी को हिंदी से कोई प्रेम।
ये दो गंदे राजनेताओं की अपनी जमीन बचाने के लिए एक बिना कहा समझौता है जो, समझ में खूब ठीक से आ रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी के रिश्ते देश के दुश्मन दाऊद इब्राहिम से होने की खबरों के ठंडे हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ और न ही इसे ज्यादा समय बीता होगा जब मराठी संस्कृति के नाम पर भारतीय संस्कृति तक को चुनौती देने वाले राज ठाकरे गर्व से पॉप स्टार माइकल जैकसन की गंधाती देह के दर्शन के लिए आतुर थे।
हिंदी न इनकी बेहूदी हरकतों से मिटेगी न बचेगी। कभी-कभी कुछ सरकारी टाइप के लगने वाले बोर्ड बड़े काम के दिखते हैं। रेलवे स्टेशन पर हिंदी पर कुछ महान लोगों के हिंदी के बारे में विचार दिखे जो, मुझे लगता है कि जितने लोग पढ़ें-सुनें बेहतर। उसमें सबसे जरूरी है भारतीय परंपरा के हिंदी परंपरा के मूर्धन्य मराठी पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का हिंदी पर विचार। पराड़कर जी की बात साफ कहती है हिंदी हमारे-आपके जैसे लोगों की वजह से बचेगी या मिटेगी। बेवकूफों के फेर में मत पड़िए।
Wednesday, November 18, 2009
ये सोचकर करना-होना जरा मुश्किल था
कुछ बदलाव ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत पहले से सोचकर करना शायद ही संभव हो। यहां तक कि कई बार जो बुराई दिख रही होती है उसी में छिपे बदलाव कुछ मायनों में बड़े सुखद होते हैं। मैं ये बदलाव महसूस तो पहले भी कर रहा था। लेकिन, अभी जब बिटिया के साथ इलाहाबाद में था तो, उत्तर प्रदेश के राज्य-शहर के लिए इस अच्छे बदलाव को समझा। पहले भी मैं इलाहाबाद के रिक्शा बैंक की कहानी बता चुका हूं।
अल्लापुर के साकेत हॉस्पिटल में हमारी बिटिया हुई। रोज शाम को मैं हॉस्पिटल के सामने से शानदार पीली बसें गुजरते हुए देखता था। शंभूनाथ इंस्टिट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी। शानदार पीली बसों पर ऐसे ही यूनाइटेड, वाचस्पति, पुणे, एलडीसी, मदर टेरेसा और जाने कितने नामों का बैनर लगाए बच्चों को उनके घर छोड़ने ये बसें आती हैं। ये बच्चे इंजीनियरिंग, मेडिकल, पैरामेडिकल, फार्मेसी, मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहे हैं। और, वो भी अपने शहर में रहकर। इन्हें अब दक्षिण भारत या देश से बाहर नहीं जाना है।
वैसे तो, शिक्षा के निजीकरण की बुराई का हल्ला ही इस पर होता है। और, ये सही भी है कि कॉलेज, इंस्टिट्यूट खोलना बाकायदा कमाई के दूसरे धंधे जैसा ही हो गया है। मायावती की सरकार हो या फिर उसके पहले की मुलायम सरकार बाकायदा रेट तय हैं कि बीएड, MBA, MBBS, BDS, BHMS, इजीनियरिंग, पैरामेडिकल कॉलेज के लिए कितना घूस खिलाना होगा। लेकिन, इस भ्रष्टाचार के बीच अच्छी बात जो निकलकर आई वो, ये कि इलाहाबाद शहर में ही करीब 19 इंजीनियरिंग कॉलेज हो गए हैं। और, दक्षिण भारत के इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेजों में दाखिले जैसा डोनेशन भी नहीं देना पड़ रहा है।
और, चूंकि इलाहाबाद के बच्चों को उनकी मनचाही शिक्षा उनके शहर में ही मिल रही है तो, उनका खर्च बचने के साथ उन्हें शहर भी नहीं छोड़ना पड़ रहा है। सरकारी राजस्व भी बढ़ रहा है। बच्चे पढ़ अपने शहर में रहे हैं तो, विस्थापन (MIGRATION) के खतरनाक दुष्परिणाम से भी वे बचेंगे। राज ठाकरे जैसों को लुच्चई का कम मौका मिलेगा। पढ़ाई पुणे या बुंगलुरू में होती है तो, बच्चा भी उसी के आसपास नौकरी खोजने लगता है। इलाहाबाद में परिवार में कुछ प्रयोजन पर ही साथ रह पाता है। अब यहां आसपास थोड़े कम पैसे की नौकरी भी वो कर सकेगा। इतना स्किल्ड वर्कर जब इलाहाबाद में ही मिलेगा तो, शायद यहां लगी कंपनियां बाहर से लोगों को नहीं बुलाना चाहेंगी और कुछ नई कंपनियां भी इधर का रुख करें।
80 के दशक में देश के विश्वविद्यालयों और सरकार संस्थानों के बाद बचे लोग रूस डॉक्टर, इंजीनियर बनने चले जाते थे। इस मौके को दक्षिण भारत और फिर महाराष्ट्र ने अच्छे से समझा। थोक के भाव में वहां इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेज खुल गए। और, जनसंख्या बहुल उत्तर भारत के ही राज्यों के बच्चे वहां मोटी फीस देकर पढ़ते थे। माता-पिता की गाढ़ी कमाई का पैसा वहां चला जाता था। विस्थापन के चलते यहां के घरों में रहने वाले लोग कम बचते थे और बच्चा दक्षिण भारत, महाराष्ट्र में जाकर वहां की प्रॉपर्टी के रेट भी बढ़ाता था।
अब बस जरूरत इस बात की है कि जहां ये प्रतिभा तैयार हो रही है। वहीं पर उसे कमाने के मौके मिल जाएं। वैसे, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार से ऐसी कोई लगाना बेवकूफी हो होगी। लेकिन, कई बार बदलाव बिना किसी सरकार और लोगों की मंशा के हो जाते हैं। वो अपने निजी लालच में समाज का कुछ भला कर जाते हैं। इसका उदाहरण ऊपर मैं दे ही चुका हूं। उम्मीद करता हूं ये बदलाव होगा और तेजी से होगा। ये बीमारू राज्य में शामिल उत्तर प्रदेश को बेहतर कर सकता है। क्षेत्रीयता की राजनीति करने वाले लोगों को सार्थक जवाब भी यही होगा।
अल्लापुर के साकेत हॉस्पिटल में हमारी बिटिया हुई। रोज शाम को मैं हॉस्पिटल के सामने से शानदार पीली बसें गुजरते हुए देखता था। शंभूनाथ इंस्टिट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी। शानदार पीली बसों पर ऐसे ही यूनाइटेड, वाचस्पति, पुणे, एलडीसी, मदर टेरेसा और जाने कितने नामों का बैनर लगाए बच्चों को उनके घर छोड़ने ये बसें आती हैं। ये बच्चे इंजीनियरिंग, मेडिकल, पैरामेडिकल, फार्मेसी, मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहे हैं। और, वो भी अपने शहर में रहकर। इन्हें अब दक्षिण भारत या देश से बाहर नहीं जाना है।
वैसे तो, शिक्षा के निजीकरण की बुराई का हल्ला ही इस पर होता है। और, ये सही भी है कि कॉलेज, इंस्टिट्यूट खोलना बाकायदा कमाई के दूसरे धंधे जैसा ही हो गया है। मायावती की सरकार हो या फिर उसके पहले की मुलायम सरकार बाकायदा रेट तय हैं कि बीएड, MBA, MBBS, BDS, BHMS, इजीनियरिंग, पैरामेडिकल कॉलेज के लिए कितना घूस खिलाना होगा। लेकिन, इस भ्रष्टाचार के बीच अच्छी बात जो निकलकर आई वो, ये कि इलाहाबाद शहर में ही करीब 19 इंजीनियरिंग कॉलेज हो गए हैं। और, दक्षिण भारत के इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेजों में दाखिले जैसा डोनेशन भी नहीं देना पड़ रहा है।
और, चूंकि इलाहाबाद के बच्चों को उनकी मनचाही शिक्षा उनके शहर में ही मिल रही है तो, उनका खर्च बचने के साथ उन्हें शहर भी नहीं छोड़ना पड़ रहा है। सरकारी राजस्व भी बढ़ रहा है। बच्चे पढ़ अपने शहर में रहे हैं तो, विस्थापन (MIGRATION) के खतरनाक दुष्परिणाम से भी वे बचेंगे। राज ठाकरे जैसों को लुच्चई का कम मौका मिलेगा। पढ़ाई पुणे या बुंगलुरू में होती है तो, बच्चा भी उसी के आसपास नौकरी खोजने लगता है। इलाहाबाद में परिवार में कुछ प्रयोजन पर ही साथ रह पाता है। अब यहां आसपास थोड़े कम पैसे की नौकरी भी वो कर सकेगा। इतना स्किल्ड वर्कर जब इलाहाबाद में ही मिलेगा तो, शायद यहां लगी कंपनियां बाहर से लोगों को नहीं बुलाना चाहेंगी और कुछ नई कंपनियां भी इधर का रुख करें।
80 के दशक में देश के विश्वविद्यालयों और सरकार संस्थानों के बाद बचे लोग रूस डॉक्टर, इंजीनियर बनने चले जाते थे। इस मौके को दक्षिण भारत और फिर महाराष्ट्र ने अच्छे से समझा। थोक के भाव में वहां इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेज खुल गए। और, जनसंख्या बहुल उत्तर भारत के ही राज्यों के बच्चे वहां मोटी फीस देकर पढ़ते थे। माता-पिता की गाढ़ी कमाई का पैसा वहां चला जाता था। विस्थापन के चलते यहां के घरों में रहने वाले लोग कम बचते थे और बच्चा दक्षिण भारत, महाराष्ट्र में जाकर वहां की प्रॉपर्टी के रेट भी बढ़ाता था।
अब बस जरूरत इस बात की है कि जहां ये प्रतिभा तैयार हो रही है। वहीं पर उसे कमाने के मौके मिल जाएं। वैसे, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार से ऐसी कोई लगाना बेवकूफी हो होगी। लेकिन, कई बार बदलाव बिना किसी सरकार और लोगों की मंशा के हो जाते हैं। वो अपने निजी लालच में समाज का कुछ भला कर जाते हैं। इसका उदाहरण ऊपर मैं दे ही चुका हूं। उम्मीद करता हूं ये बदलाव होगा और तेजी से होगा। ये बीमारू राज्य में शामिल उत्तर प्रदेश को बेहतर कर सकता है। क्षेत्रीयता की राजनीति करने वाले लोगों को सार्थक जवाब भी यही होगा।
Saturday, November 14, 2009
ढोंगी बाबाओं के अमीर भक्त
सत्यसाईं बाबा के चरणों में गिरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की तस्वीरें ज्यादा दिन नहीं हुआ जब मीडिया में लगातार छाई हुईं थीं। मेरे मन में इसे लेकर कुछ सवाल उठे थे। वैसे सत्यसाईं के चरणों में गिरने वालों में अशोक चव्हाण ही नहीं थे। ICICI बैंक के चेयरमैन के वी कामत, रिलायंस के पी एम एस प्रसाद और जाने कितने बड़े-बड़े लोग थे।
फिर जब मैंने थोड़ा जोर देकर सोचने की कोशिश की तो, मुझे दिखा कि इस साईं बाबा के तो कोई कम पैसे वाले भक्त मुझे दिखते ही नहीं। अभी इलाहाबाद में हूं तो, ऐसे ही घूमते शहर के सबसे पॉश सिविल लाइंस की बाजार में शहर की सबसे ऊंची इमारत इंदिरा भवन से भी बड़े सत्यसाईं दिख गए। 9 मंजिले इंदिरा भवन से भी ऊंचे साईं का कटआउट भी चमत्कार जैसा ही दिख रहा था। वैसा ही ढोंगी चमत्कार जिस चमत्कार का जाने कितनी बार अंधनिर्मूलन संस्था और टीवी चैनलों ने पर्दाफाश किया है।
थोड़ा आगे बड़े तो, सिविल लाइंस वाले हनुमान मंदिर वाले चौराहे पर ही सत्यसाई के कार्यक्रम का पूरा विवरण मिला तो, पता चला कि सत्यसाईं 84 साल के हो रहे हैं। उसी होर्डिंग से ये भी पता चला कि सत्यसाईं के जन्मदिन का कार्यक्रम 23 नवंबर के शहर के महंगे रिहायशी इलाकों में से एक अशोक नगर में है। जाहिर है इन बाबा को शायद इलाहाबाद के सिविल लाइंस और अशोक नगर से बाहर के भक्त चाहिए भी नहीं। क्योंकि, इन भक्तों को बाबा चमत्कार से सोने की चेन निकालकर आशीर्वाद देते हैं तो, ये बड़े वाले भक्ते हुंडियां बाबा के चरणों में डाल देते हैं। अब बेचारे असर साईं के भक्त तो शिरडी में उनके दर्शन से ही चमत्कार की उम्मीद में रहते हैं। मैं भी शिरडी गया हूं। किसी तस्वीर में शिरडी वाले साईं बाबा तो बहुत अच्छे कपड़ों में नहीं दिखे। हां, उनके चमत्कार दूसरे बताते अब भी मिल जाते हैं। ये पुट्टापरथी वाले सत्यसाईं लकदक कपड़ों में रहते हैं अपने चमत्कार किसी जादूगर की तरह खुद दिखाते हैं। अब यहां तो मीडिया इनकी तारीफ भी नहीं करता बल्कि, कपड़े उतारता रहता है फिर भी जाने क्यों ...
फिर जब मैंने थोड़ा जोर देकर सोचने की कोशिश की तो, मुझे दिखा कि इस साईं बाबा के तो कोई कम पैसे वाले भक्त मुझे दिखते ही नहीं। अभी इलाहाबाद में हूं तो, ऐसे ही घूमते शहर के सबसे पॉश सिविल लाइंस की बाजार में शहर की सबसे ऊंची इमारत इंदिरा भवन से भी बड़े सत्यसाईं दिख गए। 9 मंजिले इंदिरा भवन से भी ऊंचे साईं का कटआउट भी चमत्कार जैसा ही दिख रहा था। वैसा ही ढोंगी चमत्कार जिस चमत्कार का जाने कितनी बार अंधनिर्मूलन संस्था और टीवी चैनलों ने पर्दाफाश किया है।
थोड़ा आगे बड़े तो, सिविल लाइंस वाले हनुमान मंदिर वाले चौराहे पर ही सत्यसाई के कार्यक्रम का पूरा विवरण मिला तो, पता चला कि सत्यसाईं 84 साल के हो रहे हैं। उसी होर्डिंग से ये भी पता चला कि सत्यसाईं के जन्मदिन का कार्यक्रम 23 नवंबर के शहर के महंगे रिहायशी इलाकों में से एक अशोक नगर में है। जाहिर है इन बाबा को शायद इलाहाबाद के सिविल लाइंस और अशोक नगर से बाहर के भक्त चाहिए भी नहीं। क्योंकि, इन भक्तों को बाबा चमत्कार से सोने की चेन निकालकर आशीर्वाद देते हैं तो, ये बड़े वाले भक्ते हुंडियां बाबा के चरणों में डाल देते हैं। अब बेचारे असर साईं के भक्त तो शिरडी में उनके दर्शन से ही चमत्कार की उम्मीद में रहते हैं। मैं भी शिरडी गया हूं। किसी तस्वीर में शिरडी वाले साईं बाबा तो बहुत अच्छे कपड़ों में नहीं दिखे। हां, उनके चमत्कार दूसरे बताते अब भी मिल जाते हैं। ये पुट्टापरथी वाले सत्यसाईं लकदक कपड़ों में रहते हैं अपने चमत्कार किसी जादूगर की तरह खुद दिखाते हैं। अब यहां तो मीडिया इनकी तारीफ भी नहीं करता बल्कि, कपड़े उतारता रहता है फिर भी जाने क्यों ...
Friday, November 13, 2009
इलाहाबाद का रिक्शा बैंक
उत्तर भारत से तरक्की के विचार, आइडियाज हमेशा देश की तरक्की के काम आते रहे हैं। लेकिन, इसने एक बुरा काम ये किया कि उत्तर भारत के राज्य खासकर उत्तर प्रदेश-बिहार बस विचार भर के ही रह गए। और, यहां के लोग विचार और श्रम के साथ तालमेल नहीं बिठा सके। लेकिन, अब धीरे-धीरे यहां से निकलकर बाहर विचार का प्रयोग करने के बजाए लोग यहीं प्रयोग कर रहे हैं। और, इस पर तो शायद ही किसी को संदेह हो कि उत्तर भारत की तरक्की के बिना देश की तरक्की संभव नहीं है। बिटिया की वजह से मैं भी इलाहाबाद में हूं। जिस हॉस्पिटल में बिटिया हुई है उसी के सामने किसी को छोड़ने के लिए खड़ा था कि एक नए किस्म का रिक्शा देखकर उसे समझने की जिज्ञासा मन में जोर मार गई। ये रिक्शा थोड़ा ज्यादा सुविधाजनक है दूसरे रिक्शों से ऊंचा है और इसमें जगह भी ज्यादा है।
मैंने उस रिक्शे वाले को रोका और, पहले तो, आगे-पीछे से उस रिक्शे की तस्वीरें अपने मोबाइल कैमरे से उतार लीं। फिर मैंने उससे पूछा तो, चौंकाने वाली बात पता चली। सिर्फ 25 रुपए रोज पर वो रिक्शे का मालिक बन गया था। जबकि, रिक्शे की कीमत थी करीब तेरह हजार रुपए।
इलाहाबाद के जारी गांव के मोहित कुमार ने मुस्कुराते हुए बताया कि सिर्फ फोटो और 500 रुपए जमाकर रिक्शा बैंक से उन्हें ये रिक्शा मिल गया है। मैंने कहा 25 रुपए रोज। तो, मोहित ने तुरंत बताया कि 25 रुपए रोज में हम इस रिक्शे के मालिक बन रहे हैं जबकि, बगल में खड़ा साधारण रिक्शा जो, दस हजार रुपए का आता है इसके लिए 35 रुपए रोज का किराया देना पड़ता है। जैसा आप भी देख सकते हैं इस रिक्शे में मोहित को सर्दी-गर्मी-बारिश से भी बचत होती है। आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक की ओर से मोहित को दिया गया रिक्शा नंबर 135 है और, कई रिक्शे के मालिक इसी तरह तैयार हो रहे हैं सिर्फ 25 रुपए रोज पर।
दिन में घूमते-घूमते 259 नंबर का रिक्शा भी मिल गया। उसी रिक्शे वाले ने बताया करीब 500 ऐसे रिक्शे शहर में चल रहे हैं। पता ये भी चला कि पंजाब नेशनल बैंक और इलाहाबाद बैंक आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक के जरिए जरूरतमंदों को रिक्शा मालिक बनने में मदद कर रहा है। रोज के रिक्शे के किराएदार से किराए से भी कम पैसे में करीब डेढ़ साल में रिक्शे के मालिक बन रहे हैं।
सिर्फ रिक्शा ही नहीं ट्रॉली भी मिल रही है। बढ़िया लाल-पीले रंग में रंगी। विचारों की धरती पर रंगीन विचार के साथ रंगीन रिक्शे-ट्रॉली भी कम कमाने वालों की जिंदगी रंगीन कर रहे हैं।
मैंने उस रिक्शे वाले को रोका और, पहले तो, आगे-पीछे से उस रिक्शे की तस्वीरें अपने मोबाइल कैमरे से उतार लीं। फिर मैंने उससे पूछा तो, चौंकाने वाली बात पता चली। सिर्फ 25 रुपए रोज पर वो रिक्शे का मालिक बन गया था। जबकि, रिक्शे की कीमत थी करीब तेरह हजार रुपए।
इलाहाबाद के जारी गांव के मोहित कुमार ने मुस्कुराते हुए बताया कि सिर्फ फोटो और 500 रुपए जमाकर रिक्शा बैंक से उन्हें ये रिक्शा मिल गया है। मैंने कहा 25 रुपए रोज। तो, मोहित ने तुरंत बताया कि 25 रुपए रोज में हम इस रिक्शे के मालिक बन रहे हैं जबकि, बगल में खड़ा साधारण रिक्शा जो, दस हजार रुपए का आता है इसके लिए 35 रुपए रोज का किराया देना पड़ता है। जैसा आप भी देख सकते हैं इस रिक्शे में मोहित को सर्दी-गर्मी-बारिश से भी बचत होती है। आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक की ओर से मोहित को दिया गया रिक्शा नंबर 135 है और, कई रिक्शे के मालिक इसी तरह तैयार हो रहे हैं सिर्फ 25 रुपए रोज पर।
दिन में घूमते-घूमते 259 नंबर का रिक्शा भी मिल गया। उसी रिक्शे वाले ने बताया करीब 500 ऐसे रिक्शे शहर में चल रहे हैं। पता ये भी चला कि पंजाब नेशनल बैंक और इलाहाबाद बैंक आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक के जरिए जरूरतमंदों को रिक्शा मालिक बनने में मदद कर रहा है। रोज के रिक्शे के किराएदार से किराए से भी कम पैसे में करीब डेढ़ साल में रिक्शे के मालिक बन रहे हैं।
सिर्फ रिक्शा ही नहीं ट्रॉली भी मिल रही है। बढ़िया लाल-पीले रंग में रंगी। विचारों की धरती पर रंगीन विचार के साथ रंगीन रिक्शे-ट्रॉली भी कम कमाने वालों की जिंदगी रंगीन कर रहे हैं।
Thursday, November 12, 2009
कहिए कि इसी वजह से गरीब रथ इतनी बची हुई है
गरीब रथ की दुर्दशा पर मेरी कल की पोस्ट पर विनीत ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया कि हमारे जैसे लोग गरीबों का हक मार रहे हैं। विनीत की टिप्पणी मैं यहां जस का तस चिपका रहा हूं।
"इस ट्रेन के बारे में आपको इस बात पर भी लिखना चाहिए था कि किस दर्जे के लोगों के लिए ये ट्रेन लायी गयी थी औऱ किस दर्जे के लोग इसमें बैठते हैं। वैसे तो दुकान-बाजार-हाटों में किसी को कुछ कह दे तो तुरंत अपनी औकात बताने में लग जाता हैं लेकिन गरीब रथ में बैठने के लिए अपनी औकात तुरंत गिरा देते हैं। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं जो कि पेशे से लेक्चरर हैं,वकील हैं,सम्पन्न घरों से आते हैं लेकिन गरीब रथ में यात्रा करते हैं और वो भी शान से। असुविधा होने पर आपकी तरह गरियाते हैं। एक मिनट के लिए भी नहीं सोचते कि हम ऐसा करते हुए किसी की हक मार रहे हैं।"
अब हमने जिस दिन गरीब रथ से यात्रा की। उसी दिन की बात करते हैं। बहुत संपन्न तो लोग मुझे गरीब रथ में यात्रा करते नहीं दिखे। हम जैसे बहुत संपन्न तो नहीं लेकिन, जरूरत भर के पैसे वाले लोगों के गरीबों का हक मारकर गरीब रथ में सफर के बावजूद कई सीटें खाली थीं। कोई गरीब कम से कम इलाहाबाद के रास्ते तक तो अपना हक यानी गरीब रथ की सीट मांगने नहीं आया। राजेंद्रनगर तक में कोई मिला हो तो, पता नहीं। विनीत बाबू ये भी बता दीजिए कि दिल्ली से इलाहाबाद के लिए कौन सा गरीब 469 रुपए दे पाएगा जिसकी आप बात कर रहे हैं। क्योंकि, वो गरीब तो भइया किसी भी ट्रेन से जनरल डिब्बे में 160 रुपए में सवारी करने के लिए पुलिस के डंडे खाकर घंटों लाइन में लगा रहता है। और, ये कहिए कि हम-आप जैसे लोग गरीब रथ में सफर कर लेते हैं इसलिए गरीब रथ में कम से कम अंदर कुछ सुविधाएं बची हैं वरना पूरी ट्रेन पर जब काम भर की बुकिंग न होती और रेवेन्यू न मिलता तो, इसके हाल का अंदाजा लगा सकते हैं आप।
खैर, विनीत ने टिप्पणी की थी इसलिए ये थोड़ी सी बात मुझे लिखनी पड़ी। दरअसल तो, हमारा इरादा गरीब रथ के हमारे इलाहाबाद तक के यात्रियों के बारे में लिखने का था। बहुत अरसे बाद ये हुआ कि यात्रा के दौरान ऐसे सहयात्री मिले कि हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर खरीदी नई इंडिया टुडे निकालने की फुर्सत ही नहीं मिली।
गरीब रथ की सवारी शुरू हुई तो, लगा कि ट्रेन के बाहर से जो चिरकुट खयाल ट्रेन की हालत देखकर दिमाग में जमा है वो, सफर बुरा बना देगा। अंदर घुसे तो, एक भाईसाहब लैपटॉप खोले उस पर जुटे थे तभी एक भाईसाहब कुली के साथ घुसे। और, सीट नंबर चेक करते कुली को बोला डिब्बा सीट के नीचे डाल दो। लेकिन, माइक्रोवेव ओवन का हृष्ट-पुष्ट डिब्बा भला सीट के नीचे कैसे जाता। बस उन्होंने खट से सीटों के बीच में खाने का सामान रखने के लिए बनी छोटी टेबल के नीचे उसे घुसेड़ दिया। अब हाल ये हो गया कि सीट पर किनारे बैठे लैपटॉप युक्त सज्जन को पैर बाहर लटकाकर बैठना पड़ा।
ब्लॉगर मन चंचल हुआ तो, मैंने माइक्रोवेव ओवन की तस्वीर उतार ली। माइक्रोवेव ओवन के रखने से त्रस्त पैर बाहर लटकाए बैठे बालक ने तुरंत कहाकि ऐसे लीजिए ना कि मेरा पैर भी आए। जिससे लगे कि ट्रेन में इस तरह के सामान लेकर चलने से दूसरे यात्रियों को कितनी परेशानी होती है। मैंने वो भी तस्वीर मोबाइल कैमरे से ले ली। बाद में पता चला कि कष्ट में बैठे बालक का नाम सौरभ था जो, सहजयोग कराने वाली किन्हीं निर्मला माता का भक्त था। सफर खत्म होते-होते ये भी साफ हो गया कि वो, भक्त क्या दूसरों को भी निर्मला माता के जरिए भक्त बनाने की कोशिश करने वाला सहजयोगी गुरु था।
माइक्रोवेव ओवन घर ले जा रहे सज्जन थे विशाल। एचआर कंसल्टेंसी फर्म चलाते हैं। नोएडा, इलाहाबाद में ऑफिस खोल रखा है। और, शुरू में तो, सहजयोगी भाईसाहब और हमें दोनों को ही विशाल का पैर रखने की जगह में माइक्रोवेव ओवन ठूंस देना जमा नहीं। लेकिन, बाद की यात्रा में थोड़ा परिचय हुआ तो, विशाल का माइक्रोवेव उतनी मुश्किल करता नहीं लगा। समझ में आया कि सब मन:स्थिति का मसला है। चार मित्र एक सीट पर बैठकर पूरी रात गुजार देते हैं और एक अजनबी का दो मिनट के लिए भी सीट पर बैठना बुरा लग जाता है। खैर, विशाल बाबू थोड़ा बहुत छोड़ ज्यादातर अपने फोन पर ही व्यस्त थे।
सफर को यादगार बनाया एक और सहयात्री रजनीश और सहजयोगी सौरभ के वार्तालाप ने। रजनीश घोर स्वयंसेवक हैं। ऐसे कि हर बात पर वो संघ के जरिए राष्ट्रनिर्माण की बात बताने से नहीं चूकते हैं। और, अच्छी बात ये थी कि खुद अमल भी करते हैं। स्वदेशी व्यवहार में अपना रखा है। सहजयोगी ये भी दावा कर रहा था कि एक जमाने में वो भी संघी था लेकिन, अब उसे सारी मुश्किलों से निकालने का सिर्फ एक रास्ता दिख रहा है वो, है कुंडलिनी जागरण यानी निर्मला माता का आशीर्वाद। लगे हाथ सहयोगी ने ये भी बताया कि दुनिया भर में निर्मला माता के कुंडलिनी जागरण से लाखो लोग फायदा उठा चुके हैं। वो, तो ये भी दावा कर रहा था कि पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी के असाध्य रोग का इलाज निर्मला माता के कुंडलिनी जागरण के जरिए ही हुआ था। और, इसी के बदले रेड्डी साहब ने निर्मला माता को दिल्ली में महंगी जमीन उपहार स्वरूप दे दी थी।
हम सभी में सबसे कम उम्र के सहजयोगी ने सफर खत्म होते-होते स्वयंसेवक को भी सहजयोग का एक डोज दे ही दिया। खुद को ऑस्ट्रेलिया में काम करने वाला और बड़े-बड़े संपर्कों के बारे में बताकर सहजयोगी ने थोड़ा बहुत प्रभाव पहले ही जमा लिया था। ये अलग बात है कि सहजयोग की उस शॉर्ट ट्रेनिंग के बाद सहजयोगी को तो, स्वयंसेवक के हाथ से ऊष्मा निकलती महसूस हो रही थी लेकिन, खुद स्वयंसेवक ऐसी कोई ऊष्मा महसूस नहीं कर पा रहा था। दोनों में इस बात पर भी बहस हो गई कि कलियुग है या घोर कलियुग। इस बहस में स्वयंसेवक बेचारे ऐसे फंसे कि झोले से निकालकर रखी किताब WHO WILL CRY WHEN WE DIE भी धरी की धरी रह गई।
इस सब बहस में हमसे भी थोड़ा कम सक्रिय एक डॉक्टर साहब हमारे पांचवें सहयात्री थे। डॉक्टर सिद्दिकी साहब इलाहाबाद के करेली मोहल्ले के थे और बनारस में मेडिकल अफसर हैं। सिद्दिकी साहब के रहने से ये मदद जरूर मिली कि चारों पैगंबरों के बारे में थोड़ा ज्ञान और बढ़ा। वैसे बहस हिंदु, मुस्लिम के अलावा इसाइयों तक भी गई थी। और, उनकी दोनों धाराओं पर भी ज्ञानगंगा बही। काफी कुछ बातें ऐसी थी जो, एकदम से मेरे सिर के ऊपर से गुजर जा रही थी। लगा कि इसीलिए ज्ञानीजन कहते हैं कि घुमक्कड़ी से बढ़िया अनुभव कुछ नहीं। अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा।
"इस ट्रेन के बारे में आपको इस बात पर भी लिखना चाहिए था कि किस दर्जे के लोगों के लिए ये ट्रेन लायी गयी थी औऱ किस दर्जे के लोग इसमें बैठते हैं। वैसे तो दुकान-बाजार-हाटों में किसी को कुछ कह दे तो तुरंत अपनी औकात बताने में लग जाता हैं लेकिन गरीब रथ में बैठने के लिए अपनी औकात तुरंत गिरा देते हैं। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं जो कि पेशे से लेक्चरर हैं,वकील हैं,सम्पन्न घरों से आते हैं लेकिन गरीब रथ में यात्रा करते हैं और वो भी शान से। असुविधा होने पर आपकी तरह गरियाते हैं। एक मिनट के लिए भी नहीं सोचते कि हम ऐसा करते हुए किसी की हक मार रहे हैं।"
अब हमने जिस दिन गरीब रथ से यात्रा की। उसी दिन की बात करते हैं। बहुत संपन्न तो लोग मुझे गरीब रथ में यात्रा करते नहीं दिखे। हम जैसे बहुत संपन्न तो नहीं लेकिन, जरूरत भर के पैसे वाले लोगों के गरीबों का हक मारकर गरीब रथ में सफर के बावजूद कई सीटें खाली थीं। कोई गरीब कम से कम इलाहाबाद के रास्ते तक तो अपना हक यानी गरीब रथ की सीट मांगने नहीं आया। राजेंद्रनगर तक में कोई मिला हो तो, पता नहीं। विनीत बाबू ये भी बता दीजिए कि दिल्ली से इलाहाबाद के लिए कौन सा गरीब 469 रुपए दे पाएगा जिसकी आप बात कर रहे हैं। क्योंकि, वो गरीब तो भइया किसी भी ट्रेन से जनरल डिब्बे में 160 रुपए में सवारी करने के लिए पुलिस के डंडे खाकर घंटों लाइन में लगा रहता है। और, ये कहिए कि हम-आप जैसे लोग गरीब रथ में सफर कर लेते हैं इसलिए गरीब रथ में कम से कम अंदर कुछ सुविधाएं बची हैं वरना पूरी ट्रेन पर जब काम भर की बुकिंग न होती और रेवेन्यू न मिलता तो, इसके हाल का अंदाजा लगा सकते हैं आप।
खैर, विनीत ने टिप्पणी की थी इसलिए ये थोड़ी सी बात मुझे लिखनी पड़ी। दरअसल तो, हमारा इरादा गरीब रथ के हमारे इलाहाबाद तक के यात्रियों के बारे में लिखने का था। बहुत अरसे बाद ये हुआ कि यात्रा के दौरान ऐसे सहयात्री मिले कि हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर खरीदी नई इंडिया टुडे निकालने की फुर्सत ही नहीं मिली।
गरीब रथ की सवारी शुरू हुई तो, लगा कि ट्रेन के बाहर से जो चिरकुट खयाल ट्रेन की हालत देखकर दिमाग में जमा है वो, सफर बुरा बना देगा। अंदर घुसे तो, एक भाईसाहब लैपटॉप खोले उस पर जुटे थे तभी एक भाईसाहब कुली के साथ घुसे। और, सीट नंबर चेक करते कुली को बोला डिब्बा सीट के नीचे डाल दो। लेकिन, माइक्रोवेव ओवन का हृष्ट-पुष्ट डिब्बा भला सीट के नीचे कैसे जाता। बस उन्होंने खट से सीटों के बीच में खाने का सामान रखने के लिए बनी छोटी टेबल के नीचे उसे घुसेड़ दिया। अब हाल ये हो गया कि सीट पर किनारे बैठे लैपटॉप युक्त सज्जन को पैर बाहर लटकाकर बैठना पड़ा।
ब्लॉगर मन चंचल हुआ तो, मैंने माइक्रोवेव ओवन की तस्वीर उतार ली। माइक्रोवेव ओवन के रखने से त्रस्त पैर बाहर लटकाए बैठे बालक ने तुरंत कहाकि ऐसे लीजिए ना कि मेरा पैर भी आए। जिससे लगे कि ट्रेन में इस तरह के सामान लेकर चलने से दूसरे यात्रियों को कितनी परेशानी होती है। मैंने वो भी तस्वीर मोबाइल कैमरे से ले ली। बाद में पता चला कि कष्ट में बैठे बालक का नाम सौरभ था जो, सहजयोग कराने वाली किन्हीं निर्मला माता का भक्त था। सफर खत्म होते-होते ये भी साफ हो गया कि वो, भक्त क्या दूसरों को भी निर्मला माता के जरिए भक्त बनाने की कोशिश करने वाला सहजयोगी गुरु था।
माइक्रोवेव ओवन घर ले जा रहे सज्जन थे विशाल। एचआर कंसल्टेंसी फर्म चलाते हैं। नोएडा, इलाहाबाद में ऑफिस खोल रखा है। और, शुरू में तो, सहजयोगी भाईसाहब और हमें दोनों को ही विशाल का पैर रखने की जगह में माइक्रोवेव ओवन ठूंस देना जमा नहीं। लेकिन, बाद की यात्रा में थोड़ा परिचय हुआ तो, विशाल का माइक्रोवेव उतनी मुश्किल करता नहीं लगा। समझ में आया कि सब मन:स्थिति का मसला है। चार मित्र एक सीट पर बैठकर पूरी रात गुजार देते हैं और एक अजनबी का दो मिनट के लिए भी सीट पर बैठना बुरा लग जाता है। खैर, विशाल बाबू थोड़ा बहुत छोड़ ज्यादातर अपने फोन पर ही व्यस्त थे।
सफर को यादगार बनाया एक और सहयात्री रजनीश और सहजयोगी सौरभ के वार्तालाप ने। रजनीश घोर स्वयंसेवक हैं। ऐसे कि हर बात पर वो संघ के जरिए राष्ट्रनिर्माण की बात बताने से नहीं चूकते हैं। और, अच्छी बात ये थी कि खुद अमल भी करते हैं। स्वदेशी व्यवहार में अपना रखा है। सहजयोगी ये भी दावा कर रहा था कि एक जमाने में वो भी संघी था लेकिन, अब उसे सारी मुश्किलों से निकालने का सिर्फ एक रास्ता दिख रहा है वो, है कुंडलिनी जागरण यानी निर्मला माता का आशीर्वाद। लगे हाथ सहयोगी ने ये भी बताया कि दुनिया भर में निर्मला माता के कुंडलिनी जागरण से लाखो लोग फायदा उठा चुके हैं। वो, तो ये भी दावा कर रहा था कि पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी के असाध्य रोग का इलाज निर्मला माता के कुंडलिनी जागरण के जरिए ही हुआ था। और, इसी के बदले रेड्डी साहब ने निर्मला माता को दिल्ली में महंगी जमीन उपहार स्वरूप दे दी थी।
हम सभी में सबसे कम उम्र के सहजयोगी ने सफर खत्म होते-होते स्वयंसेवक को भी सहजयोग का एक डोज दे ही दिया। खुद को ऑस्ट्रेलिया में काम करने वाला और बड़े-बड़े संपर्कों के बारे में बताकर सहजयोगी ने थोड़ा बहुत प्रभाव पहले ही जमा लिया था। ये अलग बात है कि सहजयोग की उस शॉर्ट ट्रेनिंग के बाद सहजयोगी को तो, स्वयंसेवक के हाथ से ऊष्मा निकलती महसूस हो रही थी लेकिन, खुद स्वयंसेवक ऐसी कोई ऊष्मा महसूस नहीं कर पा रहा था। दोनों में इस बात पर भी बहस हो गई कि कलियुग है या घोर कलियुग। इस बहस में स्वयंसेवक बेचारे ऐसे फंसे कि झोले से निकालकर रखी किताब WHO WILL CRY WHEN WE DIE भी धरी की धरी रह गई।
इस सब बहस में हमसे भी थोड़ा कम सक्रिय एक डॉक्टर साहब हमारे पांचवें सहयात्री थे। डॉक्टर सिद्दिकी साहब इलाहाबाद के करेली मोहल्ले के थे और बनारस में मेडिकल अफसर हैं। सिद्दिकी साहब के रहने से ये मदद जरूर मिली कि चारों पैगंबरों के बारे में थोड़ा ज्ञान और बढ़ा। वैसे बहस हिंदु, मुस्लिम के अलावा इसाइयों तक भी गई थी। और, उनकी दोनों धाराओं पर भी ज्ञानगंगा बही। काफी कुछ बातें ऐसी थी जो, एकदम से मेरे सिर के ऊपर से गुजर जा रही थी। लगा कि इसीलिए ज्ञानीजन कहते हैं कि घुमक्कड़ी से बढ़िया अनुभव कुछ नहीं। अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा।
Wednesday, November 11, 2009
अब लगने लगा है कि गरीब रथ है
दिल्ली से राजेंद्र नगर पटना को जाने वाली राजधानी नई दिल्ली स्टेशन से छूटती है और करीब इसी समय शाम को चार बजकर पचास मिनट पर दिल्ली से राजेंद्र नगर पटना को जाने वाली गरीब रथ हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से छूटती है। राजधानी में टिकट वेटिंग था और गरीब रथ में आसानी से टिकट मिल गया तो, तुरंत मैंने आरक्षण करा लिया। लेकिन, स्टेशन से लेकर ट्रेन में बैठने तक गरीब रथ के बुरे हाल का नजारा साफ दिखा।
लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री न रहने से बिहार का कितना नुकसान रेलगाड़ियों के विषय में हुआ ये राजनीतिक बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन, लालू जी के जाने का सबसे बुरा असर पड़ा है तो, उनके सबसे पसंदीदा गरीब रथ प्रोजेक्ट पर। हजरत निजामुद्दीन से राजेंद्र नगर पटना जाने वाली गरीब रथ प्लेटफॉर्म नंबर2 पर आकर लगी तो, लगा कि कौन सी गंधौरी ट्रेन आकर खड़ी हो गई है।
धूल से सनी प्लेट पर पढ़कर यकीन करना पड़ा कि ये गरीब रथ ही है। दरअसल पूरी ट्रेन पर ही धूल-गंदगी की इतनी परतें चढ़ गईं थीं कि लग रहा था महीनों से ट्रेन की सफाई नहीं हुई है। डिब्बों के शीशे तो परादर्शिता का अपना स्वभाव ही एकदम भूल चुके थे।
ट्रेन में ही बैठने पर पता चला कि इस ट्रेन के कुछ डिब्बों में एयर कंडीशनर का पानी भी चूता रहता है। और, लालू की दी हुई दुर्गति के शिकार यात्री गरीब रथ में अभी भी हो रहे हैं कि किनारे की सीटें दो से बढ़कर तीन हो गई हैं। और, ज्यादा सीटें ठेलने के चक्कर में सीटों की संख्या रिजर्वेशन टिकट पर पड़ी संख्या से भी मेल नहीं खातीं। बस भला इतना है कि करीब आधे दाम में राजधानी जैसी सुविधा (खाना-कंबल-चद्दर छोड़कर) गरीब रथ अभी भी दे रही है और टिकट एक दिन पहले भी मिल गया।
अब ये जिस स्टेशन से रवाना हुई उस हजरत निजामुद्दीन स्टेशन का भी हाल जरा देख लीजिए। ये साफ-सफाई पर गर्व करने वाला गंदगी से चमकता बोर्ड आप देख चुके ना। अब देखिए स्टेशन पर इस बोर्ड के लिखे को कीचड़ में मिलाती ये तसवीरें।
लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री न रहने से बिहार का कितना नुकसान रेलगाड़ियों के विषय में हुआ ये राजनीतिक बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन, लालू जी के जाने का सबसे बुरा असर पड़ा है तो, उनके सबसे पसंदीदा गरीब रथ प्रोजेक्ट पर। हजरत निजामुद्दीन से राजेंद्र नगर पटना जाने वाली गरीब रथ प्लेटफॉर्म नंबर2 पर आकर लगी तो, लगा कि कौन सी गंधौरी ट्रेन आकर खड़ी हो गई है।
धूल से सनी प्लेट पर पढ़कर यकीन करना पड़ा कि ये गरीब रथ ही है। दरअसल पूरी ट्रेन पर ही धूल-गंदगी की इतनी परतें चढ़ गईं थीं कि लग रहा था महीनों से ट्रेन की सफाई नहीं हुई है। डिब्बों के शीशे तो परादर्शिता का अपना स्वभाव ही एकदम भूल चुके थे।
ट्रेन में ही बैठने पर पता चला कि इस ट्रेन के कुछ डिब्बों में एयर कंडीशनर का पानी भी चूता रहता है। और, लालू की दी हुई दुर्गति के शिकार यात्री गरीब रथ में अभी भी हो रहे हैं कि किनारे की सीटें दो से बढ़कर तीन हो गई हैं। और, ज्यादा सीटें ठेलने के चक्कर में सीटों की संख्या रिजर्वेशन टिकट पर पड़ी संख्या से भी मेल नहीं खातीं। बस भला इतना है कि करीब आधे दाम में राजधानी जैसी सुविधा (खाना-कंबल-चद्दर छोड़कर) गरीब रथ अभी भी दे रही है और टिकट एक दिन पहले भी मिल गया।
अब ये जिस स्टेशन से रवाना हुई उस हजरत निजामुद्दीन स्टेशन का भी हाल जरा देख लीजिए। ये साफ-सफाई पर गर्व करने वाला गंदगी से चमकता बोर्ड आप देख चुके ना। अब देखिए स्टेशन पर इस बोर्ड के लिखे को कीचड़ में मिलाती ये तसवीरें।
बिटिया के बहाने
हमारी बिटिया हुई तो, थोड़ा सा एक जो समाज में बेटा होने की खुशी होती है उससे थोड़ी सी कम खुशी के साथ लोग मिलते दिखे। जमकर जो खुश भी थे वो, लक्ष्मी के आने की बधाई दे रहे थे और साथ ही ये भरोसा भी कि अरे पहली लड़की हो या लड़का कोई फर्क नहीं पड़ता। अच्छी बात ये कि हमारा पूरा परिवार और ज्यादातर मित्र, रिश्तेदार प्रसन्न थे। हां, बीच-बीच में कोई शुभचिंतक बोलता कि पैसा खर्चा करावै आइ ग। साथ ही कोई ये कहके बात बनाने की कोशिश करता कि लक्ष्मी आई तबै तो जाई। ज्यादातर लोग कह रहे थे कि पहली बिटिया शुभ होती है। साथ ही ये भी लड़की पिता पर जाए तो, और भाग्यवान होती है।
जिस दिन बिटिया हुई उसके दूसरे दिन हमारी बड़ी दीदी कर्नलगंज इंटर कॉलेज से देर से आईं। थकी सी आईं दीदी ने बताया बेटियों को बचाने के लिए रैली निकाली गई थी। दूसरे दिन के अखबारों में खबर थी बेटियों ने उठाई बेटियों को बचाने की आवाज हेडलाइन के साथ ये खबर और तस्वीर छपी थी। ये सब सुखद संकेत हैं। समाज किस तरह से बदल रहा है। बेटियां बोझ नहीं रहीं। हां, ज्यादातर लोग ये जरूर चाहते हैं कि एक बेटा भी हो जाए तो, बढ़िया। थोड़ा और वक्त गुजरेगा तो, शायद समाज का ये दबाव भी घट जाएगा।
हमारी बिटिया के लिए जो पहला कपड़ा तोहफे में आया। उसके डिब्बे पर बेटियों को बचाने की अपील के साथ मुस्कुराती बिटिया छपी थी। साथ में पोलियो ड्रॉप की दो बूंद से बच्चे को जिंदगी भर के लिए स्वस्थ रखने की नसीहत भी। पोलियो मुक्त भारत के निर्माण की नसीहत देने वाला डिब्बा अच्छा लगा।
जिस दिन बिटिया हुई उसके दूसरे दिन हमारी बड़ी दीदी कर्नलगंज इंटर कॉलेज से देर से आईं। थकी सी आईं दीदी ने बताया बेटियों को बचाने के लिए रैली निकाली गई थी। दूसरे दिन के अखबारों में खबर थी बेटियों ने उठाई बेटियों को बचाने की आवाज हेडलाइन के साथ ये खबर और तस्वीर छपी थी। ये सब सुखद संकेत हैं। समाज किस तरह से बदल रहा है। बेटियां बोझ नहीं रहीं। हां, ज्यादातर लोग ये जरूर चाहते हैं कि एक बेटा भी हो जाए तो, बढ़िया। थोड़ा और वक्त गुजरेगा तो, शायद समाज का ये दबाव भी घट जाएगा।
हमारी बिटिया के लिए जो पहला कपड़ा तोहफे में आया। उसके डिब्बे पर बेटियों को बचाने की अपील के साथ मुस्कुराती बिटिया छपी थी। साथ में पोलियो ड्रॉप की दो बूंद से बच्चे को जिंदगी भर के लिए स्वस्थ रखने की नसीहत भी। पोलियो मुक्त भारत के निर्माण की नसीहत देने वाला डिब्बा अच्छा लगा।
Monday, November 09, 2009
निजी जिंदगी की अहम पदोन्नति
ये बड़ा प्रमोशन है। हर प्रमोशन की तरह इसमें भी जिम्मेदारी, अधिकार सब बढ़ गए। हमारी बिटिया आ गई है। अभी इलाहाबाद में ही हूं। अभी सिर्फ तस्वीरें डाल रहा हूं
Friday, November 06, 2009
अमर प्रभाष जोशी
इलाहाबाद में हूं और खबरों से कटा हुआ हूं इसलिए अभी थोड़ी देर पहले प्रभाष जी के न रहने की खबर पता चली। निजी मुलाकात का कभी मौका नहीं लगा था। लेकिन, ये खबर पता चली तो, लगा जैसे कुछ शून्य सा हो गया हो हिंदी पत्रकारिता में कौन भरेगा इस शून्य को। अभी कुछ दिन पहले ही तो ये 73 साल का शेर आंदोलनों में दहाड़ रहा था। बड़-बड़ी बहसों को जन्म दे रहा था। एक आंदोलनकारी संपादक शांत हो गया।
हमारे जैसे लोगों के लिए प्रभाष जोशी उम्मीद की ऐसी किरण दिखते थे जिसे देख-सुनकर लगता था कि पत्रकारिता में सबकुछ अच्छा हो ही जाएगा। अखबारों के चुनावों में दलाली के मुद्दे को करीब-करीब आंदोलन की शक्ल इसी शख्स की वजह से मिल गई थी। मुझे नजदीक से उनको सुनने का मौका लगा था कई साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघव भवन में। तब भी वो आंदोलन की ही बात कर रहे थे। छात्रों को व्यवस्था, समाज की बुराइयों से लड़ने के लिए तैयार कर रहे थे।
जनसत्ता में नियमित स्तंभ कागद कारे और आंदोलनकारी अखबार जनसत्ता के आंदोलनकारी संपादक के तौर पर प्रभाष जी पत्रकारिता में अमर हो गए हैं। बस मुश्किल ये है कि चश्मा लगाए देश के किसी भी कोने के हर आंदोलनकारी मंच पर पत्रकारों-समाज को सुधारने-बेहतर करने के लिए बेचैन शख्स नहीं दिखेगा। नमन है पत्रकारिता के इस शीर्ष पुरुष को
हमारे जैसे लोगों के लिए प्रभाष जोशी उम्मीद की ऐसी किरण दिखते थे जिसे देख-सुनकर लगता था कि पत्रकारिता में सबकुछ अच्छा हो ही जाएगा। अखबारों के चुनावों में दलाली के मुद्दे को करीब-करीब आंदोलन की शक्ल इसी शख्स की वजह से मिल गई थी। मुझे नजदीक से उनको सुनने का मौका लगा था कई साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघव भवन में। तब भी वो आंदोलन की ही बात कर रहे थे। छात्रों को व्यवस्था, समाज की बुराइयों से लड़ने के लिए तैयार कर रहे थे।
जनसत्ता में नियमित स्तंभ कागद कारे और आंदोलनकारी अखबार जनसत्ता के आंदोलनकारी संपादक के तौर पर प्रभाष जी पत्रकारिता में अमर हो गए हैं। बस मुश्किल ये है कि चश्मा लगाए देश के किसी भी कोने के हर आंदोलनकारी मंच पर पत्रकारों-समाज को सुधारने-बेहतर करने के लिए बेचैन शख्स नहीं दिखेगा। नमन है पत्रकारिता के इस शीर्ष पुरुष को
Sunday, November 01, 2009
फिर से पूछ रहा हूं घूरा बनने में कितना दिन लगता है
2000-2001 में इलाहाबाद महाकुंभ में रिपोर्टिंग के समय दुनिया भर के बाबाओं और साधुओं की हकीकत देखी थी। ऐसा नहीं है कि सब ढोंगी ही थे। कई संत ऐसे भी थे जिन्हें देखकर-मिलकर उनकी संगत का मन होता था। लेकिन, बड़ी संख्या ऐसे ही बाबाओं की थी जिनके लिए प्रयाग के महाकुंभ की रेती पर उनका आश्रम विदेशी-देसी मालदार भक्तों को बढ़ाने का जरिया भर था। मुझे याद है कि रिपोर्टिंग के दौरान एक रमेश तांत्रिक के आश्रम में हम लोग पहुंच गए थे। अब मुझे नहीं पता कि वो, तांत्रिक होने का दावा करने वाला बाबा क्या कर रहा है। लेकिन, उस समय वो सिर्फ और सिर्फ विदेशियों को नशे की पिनक में रेती पर लोटने का आनंद देकर उनसे ज्यादा से ज्यादा वसूली का तंत्र फैला रहा था। हम लोगों को वो ज्यादा सम्मान इसलिए भी दे रहा था कि उसका फंडा एकदम साफ था। उसने कुटिल मुस्कान के साथ कहाकि देखो अखबार-टीवी से विदेशी भक्त नहीं मिलेंगे। विदेशी भक्त तो इंटरनेट से मिलेंगे।
उस समय मैं http://www.webdunia.com/ के लिए रिपोर्टिंग कर रहा था। आपको लग रहा होगा अचानक मुझे करीब 10 साल पहले की घटना क्यों याद आ रही है। दरअसल इसके याद आने के पीछे एक वजह ये भी है कि इसी समय एक वीडियो मैंने देखा था जिसमें सत्यमसाईं बाबा के चमत्कारों की असलियत बताई गई थी। दिखाया गया था कि किस तरह से सत्यसाईं लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। आज अचानक जब मैं आज इंदिरा गांधी के विशेष कार्यक्रमों की खोज में टीवी पर पहुंचा तो, खबर दिखी किस तरह से ढोंगी सत्यसाईं के चरणों में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के साथ पूरी सरकार झुकने को बेताब है। मुझे लगा कि क्या तमाशा है चव्हाण और उनकी पूरी सरकार कैसे पूरे राज्य को एक ऐसे व्यक्ति का अअंधभक्त बनने के लिए प्रेरित कर सकती है जिसके चमत्कारों की पोल देसी-विदेशी, हिंदी-अग्रेजी चैनल जाने कितनी बार खोल चुके हैं।
अब अगर अशोक चव्हाण को उनके मुख्यमंत्री बनने में बाबा का चमत्कार दिख रहा है तो, इसके लिए सत्यसाईं बड़े अपराधी साबित होंगे क्योंकि, चव्हाण को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया गया कि तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुंबई और देश की शान ताज पर हमले को भांप-समझ नहीं पाए। उसके बाद जो, घटनाक्रम बने उस शर्म-छीछालेदर से बचने के लिए कांग्रेस को चव्हाण को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। चव्हाण नेताओं में नौजवान थे। मैं उस समय मुंबई में ही था अच्छा लगा था। लेकिन, इस तरह से अशोक चव्हाण सत्यसाईं के चरणों में लोट जाएंगे अंदाजा न था। टीवी की फुटेज में कांग्रेस-एनसीपी सरकार के ढेर सारे मंत्रियों के अलावा पुराने गृहमत्री शिवराज पाटिल भी दिख रहे थे। पता चला कि मुख्यमंत्री के सरकारी निवास 'वर्षा' पर अशोक चव्हाण सत्यसाईं का चरण पूजन करेंगे।
अशोक चव्हाण ने इससे पहले बाबा को बांद्रा वर्ली सी लिंक भी घुमाया था ताकि, पुल को बाबा का 'आशीर्वाद' मिल सके। अब सोचिए खबर जब इसे बरसों की मेहनत के बाद बनाने वाले इंजीनियरों-मजदूरों को पता चली होगी तो, उनके दिल पर क्या गुजरी होगी। खैर, ऐसे बाबाओं के किस्से अनंत हैं और इनके चरणों में गिरने वाले राजनेताओं के भी। नरसिंहाराव के समय में तांत्रिक चंद्रास्वामी के जलवे तो किसी को भूले नहीं होंगे। अब तो बस यही लगता है कि काश घूरा बनने का भी समय तय होता
उस समय मैं http://www.webdunia.com/ के लिए रिपोर्टिंग कर रहा था। आपको लग रहा होगा अचानक मुझे करीब 10 साल पहले की घटना क्यों याद आ रही है। दरअसल इसके याद आने के पीछे एक वजह ये भी है कि इसी समय एक वीडियो मैंने देखा था जिसमें सत्यमसाईं बाबा के चमत्कारों की असलियत बताई गई थी। दिखाया गया था कि किस तरह से सत्यसाईं लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। आज अचानक जब मैं आज इंदिरा गांधी के विशेष कार्यक्रमों की खोज में टीवी पर पहुंचा तो, खबर दिखी किस तरह से ढोंगी सत्यसाईं के चरणों में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के साथ पूरी सरकार झुकने को बेताब है। मुझे लगा कि क्या तमाशा है चव्हाण और उनकी पूरी सरकार कैसे पूरे राज्य को एक ऐसे व्यक्ति का अअंधभक्त बनने के लिए प्रेरित कर सकती है जिसके चमत्कारों की पोल देसी-विदेशी, हिंदी-अग्रेजी चैनल जाने कितनी बार खोल चुके हैं।
अब अगर अशोक चव्हाण को उनके मुख्यमंत्री बनने में बाबा का चमत्कार दिख रहा है तो, इसके लिए सत्यसाईं बड़े अपराधी साबित होंगे क्योंकि, चव्हाण को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया गया कि तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुंबई और देश की शान ताज पर हमले को भांप-समझ नहीं पाए। उसके बाद जो, घटनाक्रम बने उस शर्म-छीछालेदर से बचने के लिए कांग्रेस को चव्हाण को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। चव्हाण नेताओं में नौजवान थे। मैं उस समय मुंबई में ही था अच्छा लगा था। लेकिन, इस तरह से अशोक चव्हाण सत्यसाईं के चरणों में लोट जाएंगे अंदाजा न था। टीवी की फुटेज में कांग्रेस-एनसीपी सरकार के ढेर सारे मंत्रियों के अलावा पुराने गृहमत्री शिवराज पाटिल भी दिख रहे थे। पता चला कि मुख्यमंत्री के सरकारी निवास 'वर्षा' पर अशोक चव्हाण सत्यसाईं का चरण पूजन करेंगे।
अशोक चव्हाण ने इससे पहले बाबा को बांद्रा वर्ली सी लिंक भी घुमाया था ताकि, पुल को बाबा का 'आशीर्वाद' मिल सके। अब सोचिए खबर जब इसे बरसों की मेहनत के बाद बनाने वाले इंजीनियरों-मजदूरों को पता चली होगी तो, उनके दिल पर क्या गुजरी होगी। खैर, ऐसे बाबाओं के किस्से अनंत हैं और इनके चरणों में गिरने वाले राजनेताओं के भी। नरसिंहाराव के समय में तांत्रिक चंद्रास्वामी के जलवे तो किसी को भूले नहीं होंगे। अब तो बस यही लगता है कि काश घूरा बनने का भी समय तय होता
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