हर्ष वर्धन त्रिपाठी
पिताजी के निधन के बाद जाने कब और क्यों यह तय किया कि, अब सूर्योदय से पूर्व ही उठना है। इसकी कोई पक्की वजह ध्यान में नहीं आ रही है। हाँ, इतना जरूर था कि, सुबह समय से उठेंगे तो पढ़ने-लिखने के लिए और सुबह कम से कम 5 किलोमीटर की सैर के लिए समय मिल जाएगा। हालाँकि, हमारे पिताजी अपनी सेवानिवृत्ति से कुछ वर्ष पहले तक मजे से सोकर उठते थे। कभी जल्दी उठने जैसा उन्होंने किया ही नहीं। हाँ, हमारी अम्मा अवश्य सुबह से उठ जाती थीं। उसकी एक बड़ वजह यही कि, घरों में महिलाओं के जिम्मे काम दिन की शुरुआत से ही शुरू हो जाता है, लेकिन बिस्तर से उठाने के मामले में हम सभी भाई बहनों को पिताजी का सोना कम ही याद है और अम्मा का उठकर हम सबको बिस्तर से उठा देना, ज्यादा याद है। पहले चारपाई और बाद में घरों में तखत होते थे। तखत पर पूरे दिन गद्दा नहीं बिछा रहता था। हर तखत पर बिछा गद्दा उठने के साथ ही हट जाता था और अम्मा तो घनघोर सर्दियों में भी पूरा बिस्तर हटा देतीं थीं तो अगर किसी में सोने की इच्छा बची भी रह जाए तो ठंडे तखत पर सोने की कल्पना भी सिहरन पैदा करने वाली होती थी। हो सकता है, जाने-अनजाने अम्मा का सुबह उठना और उठाना और उसके बाद अभी पत्नी का भी सुबह उठ जाना, मेरे मन मस्तिष्क के किसी कोने में दबाव के तौर पर कार्य कर रहा हो, लेकिन जो भी वजह हो, यह सूर्योदय से पूर्व उठने की इच्छा मन में अनायास और सहज भाव से पिताजी के चले जाने के बाद ही आई। हालाँकि, मेरी बहुत देर तक सोने की आदत वैसे भी कभी नहीं रही। अब इधर सूर्योदय से पूर्व उठना तय किया तो, एक चमत्कारिक परिवर्तन मेरे भीतर आया है। स्थिरता, सकारात्मक ऊर्जा के साथ। सामान्य तौर पर भी मैं बेहद सकारात्मक ऊर्जा वाला व्यक्ति हूँ, लेकिन स्थिरता के मोर्चे पर थोड़ी मुश्किल हमेशा रही है। कई बार लगता है कि, मन आवश्यकता से अधिक गतिशील है। अभी भी गति शीलता है, लेकिन स्थिरता के साथ और, यह परिवर्तन मुझे अत्यंत सुखद अहसास दे रहा है।
आज भी सुबह सैर के लिए निकले तो 5:30 का अलार्म खिसककर 5 बजे तक आ गया है क्योंकि, सूर्योदय नोएडा में आजकल 5:22 पर हो रहा है। अलार्म 6 बजे से खिसकते 5 बजे पर आ गया है। कुछ वैसे ही जैसे रिजर्व बैंक ने महंगाई के अनुमान में करीब-करीब एक प्रतिशत की बढ़त कर दी है। रिजर्व बैंक की चिंता देश का स्वास्थ्य दुरुस्त रखने के लिए महंगाई है तो हमारी चिंता स्वयं का स्वास्थ्य और मनःस्थिति दुरुस्त रखने की है। एक घंटे पूर्व उठने पर भी लगभग उसी तरह की चहल पहल सड़कों, पार्कों में दिखती है। ऐसे लगता है कि, जैसे हर समय कोई न कोई जग रहा है और कोई न कोई सो रहा है। और, यह कोई न कोई वाली संख्या करोड़ों में है तो आप सुबह जल्दी उठ जाते हैं, हमारी अम्मा की तरह या फिर आराम से सोकर उठते हैं हमारे पिताजी की तरह, दोनों में कोई दिक़्क़त नहीं है। जिसमें आप स्वस्थ, मस्त रहें, वही करिए। पार्क में सुबह जल्दी से जल्दी उठकर पहुँचने वालों से लेकर देर में भी सैर का कोटा पूरा करना है, इच्छा रखने वाले, हर कोई अपने तरीके से सुबह की शुरुआत करता है। कोई पार्क में दौड़ रहा है, कोई तेज़ चक्कर लगा रहा है, कोई मध्यम गति में चल रहा है और कुछ लोग तो पार्क तक पहुँचकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं और, हरी घास पर आराम मुद्रा में आ जाते हैं। कोई साइकिल चला रहा है तो कोई योग कर रहा है, कुछ अपने से और कुछ मोबाइल पर किसी योग गुरु की मदद से। बच्चे स्केटिंग से लेकर जाने कौन-कौन से खेल खेलकर मस्त हैं, लेकिन सब अपने स्वास्थ्य और सुबह समय से उठ जाने को ही महत्वपूर्ण मानने वाले लोग हैं। विविधता में एकता का सुन्दर प्रमाण क्या होगा।
मुझे लगता है कि, हिन्दू होना भी कुछ ऐसा ही है। हमारे स्वर्गीय पिताजी श्री कृष्ण चंद्र त्रिपाठी जी, घर में वर्ष भर कुछ न कुछ उत्सव करते रहते थे। मोहल्ला, परिवार बुलाकर सत्यनारायण कथा सुनने से लेकर 24 घंटे का निर्बाध रामचरितमानस पाठ करने तक। देवी-देवताओं के मंदिरों को लेकर उनकी आस्था ऐसी थी कि, बैंक यूनियन की बैठकर भुवनेश्वर में है तो पुरी जाना ही जाना है। चंडीगढ़ है तो देवी दर्शन को चले जाना है। हर तीसरे वर्ष पारिवारिक छुट्टी जाने पर केंद्र में मंदिर दर्शन अवश्य होता। ऊटी, कोडइकनाल के साथ मदुरै मीनाक्षी मंदिर, रामेश्वरम, कन्याकुमारी तय रहता, लेकिन हमारे पिताजी एक अद्भुत कार्य करते थे, यह कार्य मैंने किसी और को करते नहीं देखा। सुबह तो स्नान के बाद पूजा होती थी, लेकिन रात में भोजन के बाद नियमित पूजा करते थे। पूरे घर में और भगवान जी अगरबत्ती दिखाते थे। परिवार के हर बच्चे को उसी अगरबत्ती की राख का टीका भी लगाते थे। जाहिर है, जैसे हमारे पिताजी करते थे, ऐसे ही अद्भुत हर हिन्दू परिवार के पिता अपने लिहाज से करते थे। सबके मन में परिवार की सुख, शांति, समृद्धि रहती है। हमारे पिताजी किसी दूसरे को नहीं कहते थे कि, रात को भोजन के बाद पूजा करो। उनका मानना था कि, आत्मा तृप्त, अब परमात्मा से पूर्ण भाव से भेंट, लेकिन यह हमारे पिताजी का मानना था। किसी हिन्दू ग्रंथ, किताब, वेद, पुराण, उपनिषद में यह सब नहीं है। वेद, पुराण, उपनिषद, दूसरे हिन्दी ग्रंथ, सन्दर्भ या हिन्दू नायकों का कहा, सही जीवन दर्शन के लिहाज़ से उपयोगी है, बाध्यकारी कुछ भी नहीं है। हिन्दू होना यही है। हमारे दादू (बाबा जी) संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। जीवनशैली इतनी उदार थी कि, हमें याद में नहीं आता कि, किसी भी बात पर रुढ़ि रही हो। इसीलिए जब कोई हिन्दू धर्म के साथ कट्टर शब्द जोड़ता है तो मैं तुरंत चेत जाता हूँ कि, यह कट्टर हिन्दू कहना ही हिन्दू विरोधी होना है। इसीलिए, आजकल जब सुबह की सैर पर निकलता हूँ तो लगता है कि, हिन्दू होना प्रकृति के कितने निकट है। मैं पेड़, नदी, अनाज की उपासना से आगे सुबह की सैर में किसी भी समय उठकर स्वयं के स्वास्थ्य की चिता करते लोगों के आधार पर कर रहा हूँ। कुछ हिन्दू प्रतिदिन नियम से स्नान करके सूर्य को देवता मानकर जल चढ़ाते हैं, विधिपूर्वक पूजन करते हैं। कुछ हिन्दू कभी-कभी पूजा करते हैं और कुछ हिन्दू सिर्फ विशेष अवसरों पर पूजा करते हैं, लेकिन सब हिन्दू ही हैं।
भला है कि, हिन्दुओं को कोई ब्राह्मण, कोई पंडित जी या किसी मंदिर का पुजारी नहीं कहता कि, सभी हिन्दुओं को दिन में कितने बार और कब-कब पूजा करना चाहिए। और, तो और जब शुभ मुहूर्त भी निकाला जाता है तो भी गुंजाइश रहती है। पूर्णिमा, अमावस्या स्नान पर भी कोई विशेष मुहूर्त पंडित जी भले निकालकर दे दें, यह नहीं होगा कि, हिन्दू बने रहने के लिए उसी समय गंगा स्नान करना है। न कोई शुक्रवार की बाध्यता और न कोई रविवार की बाध्यता। जिस दिन, जिस हिन्दू को ठीक लगा, उसी हिसाब से मंदिर और देवी-देवता चुन लेता है या यूँ कहें कि, जिस देवी-देवता की आराधना करता है, उसी दिन मंदिर चला जाता है। इससे भी आगे किसी मंदिर, किसी दिन जाने की जरूरत हिन्दू रहने के लिए नहीं है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने के ढेरों लाभ हैं, लेकिन किसी को हिन्दू बने रहने के लिए ब्रह्म मुहूर्त में ही उठना आवश्यक नहीं है। समय के साथ हिन्दू उदार होता गया है। सभ्य समाज में जो ठीक लगता गया, हिन्दुओं ने टिप्पणी की, हिन्दुओं ने प्रतिकार किया, हिन्दुओं ने ही वाद-विवाद किया, हिन्दुओं ने ही संवाद किया। और, इसी से समस्या से समाधान की ओर हिन्दू बढ़ गया।
हिन्दू होने का मतलब ही यही है कि, किसी को भी अपने जैसा होने के लिए नहीं कहना है। हर किसी के लिए हिन्दू होने का मतलब उसका अपने जैसा होना है। प्रकृति भी तो यही है। इसीलिए हिन्दू कभी भी कपड़ों से भी एक जैसा नहीं दिखता। सुबह पार्क में आए या सड़क किनारे दौड़ते, तेज-तेज चलते या फिर पार्क में बैठकर सुबह की हवा खाते। अब नोएडा रहता हूँ तो यह भी नहीं लिख सकता कि, शुद्ध-ताजी हवा खाते। जिस लखनऊ में लगता है कि, जेठ महीने में मंगलवार को हर हिन्दू भंडारा करा रहा है, खा रहा है, वहाँ भी ऐसा नहीं है। बहुतायत हिन्दू बस समाचार पत्र में ही पढ़ते हैं कि, ऐसा कुछ लखनऊ में हो रहा है। कभी भंडारा कराते भी नहीं, जाते भी नहीं। वैसे, मैं सोचता हूँ कि, काश नोएडा में भी हर मंगलवार ऐसे भंडारे होते तो बड़ा आनंद आता। भंडारे की पूड़ी सब्जी का सुख ही अलग होता है। जुमे की नमाज के बाद देश के कई हिस्सों में मुसलमान गुस्से में दिखा। अराजक हो गया। पत्थरबाजी की। आम लोगों से लेकर पुलिस कर्मियों तक के सिर फूटे। पुलिस की भी गाड़ियाँ फूंक दीं। मुसलमान होने का न सही तो कम से कम भारतीय मुसलमान होने की लाज रख लेते। उदारमना हिन्दुओं की संगत में रहने और मूलतः हिन्दू ही होना ध्यान कर लेते। और, सब छोड़िए अल्लाह की इबादत के लिए मस्जिद जाते हो तो कम से कम इबादत के बाद ईमान का ही ध्यान कर लेते। मुसलमानों को हिन्दू होने को कोई न कह रहा। आप पक्के मुसलमान बने रहिए, लेकिन जहां आपको लगे कि, सभ्य समाज के रास्ते में आपकी रुढ़ि बाधा बन रही है, वहाँ ठहरकर सोचिए तो सही। हिन्दू मुसलमानों को क्या, हिन्दू को भी हमारी तरह हिन्दू बनना है, यह नहीं कहता। डॉक्टर भी दवा देते समय मरीज को देखकर तय करते हैं, अगर एक जैसी दवा देने से सब ठीक हो जाते तो दुनिया में डॉक्टरों की जरूरत ही न होती। स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए जो आपके शरीर के लिहाज से ठीक लगे, वही करिए। यही प्रकृति है और, यही उदारता है। यही हिन्दू होना है। सुबह की सैर करते यह सब विचार एक के बाद एक धड़ाधड़ आ रहे थे। देश में शुक्रवार को जिस तरह से देश में कई स्थानों पर पत्थरबाजी हुई और, टीवी की बहस में, चर्चा में शामिल रहे, शायद उसका भी कुछ प्रभाव मन पर रहा होगा। मैं यह नहीं कह रहा कि, मुसलमान से हिन्दू होना है, लेकिन कट्टर से उदार होना ही समाज को सभ्य बनाना है। सभ्य बनने और असभ्य बने रहने का संघर्ष चलता रहेगा। असभ्य बने रहकर भी कुतर्क किया जा सकता है कि, सभ्य बनकर भी क्या प्राप्त कर लिया। ठीक वैसे ही जैसे कोई शराबी कुतर्क कर देता है कि, बिना शराब पिए भी लोग बीमार होकर मरते हैं और शराब पीकर भी तो फिर शराब पीकर ही मरा जाए। कोई यह भी समझा सकता है कि, सुबह की सैर और सूर्योदय से पूर्व उठने से भी क्या होगा। मैं बस यही कहूँगा कि, हिन्दू बनिए, उदार बनिए। हर समस्या का समाधान हिन्दू होना ही है, लेकिन कट्टर हिन्दू होने की कोशिश करना समस्या बढ़ाना है, समाधान की तरफ जाना नहीं। सबके मूल में चैतन्य होना है, जड़ होने से कुछ न होने वाला।