Tuesday, September 29, 2009

इस बार गलती से भी गलती मत करना

फिर खतरा दिख रहा है फंसने का। कोई हम अपने फंसने की बात नहीं कर रहे हैं खतरा पूरे देश के फंसने का है। फंसने की वजह वही कश्मीर ही है जो, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के साथ से ही ऐसी फांस बन गया है जो, मुश्किल ही किए रहता है। लेकिन, इस बार फंसे तो, पहले से भी बुरा फंसेंगे।


पहली बार कश्मीर का मसला अपने पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू साहब संयुक्त राष्ट्र संघ में क्या ले गए। उसके बाद से तो, संयुक्त राष्ट्र संघ को तो अधिकार मिल ही गया। कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू खैरा मुंह उठाकर भारत को पाकिस्तान के साथ शांति से कश्मीर समस्या का हल सुलझाने का अनमोल मशविरा दे डालता। और, अमेरिका ने तो मान लो इस मुद्दे से जितना फायदा उठाया- भारत-पाकिस्तान, दोनों से- वो, कोई कहने वाली बात ही नहीं है।


अच्छी बात ये है कि, अमेरिका हमसे इतना दूर है कि हमारा सीधे कोई युद्ध या फिर जमीन कब्जाने जैसा नुकसान नहीं कर सकता। और, अमेरिका, भारत के बढ़ते प्रभाव से वाकिफ है इसलिए वो, कभी ये भी नहीं कहता कि वो, भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता करना चाहता है। हिलेरी भी इतना ही कहती हैं कि दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध बनें इसमें हम मददगार बनें तो, बेहतर मध्यस्थता जैसी बात नहीं।


लेकिन, अब नए मध्यस्थता प्रस्ताव आ रहे हैं। भारतीय सीमा पर पहले से आग उगलता ड्रैगन कह रहा है कि वो, भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने के लिए तैयार है। भई, आप कौन खामखां। लेकिन, चीन है कि मानता नहीं। ये वही चीन है जिसने पहले से ही हमारी जमीन कब्जाई रखी है। अरुणाचल प्रदेश को गूगल से लेकर हर नक्शे में अपना दिखाने की कोशिश करता रहता है। मन करता है तो, भारतीय सीमा में घुसकर खूनी रंग से चीन-चीन भी लिख जाता है। और, भारत सरकार ऐसा संभलकर चलती है चीन के नाम पर कि चीनी घुसपैठ की रिपोर्टिंग करने वाले बेचारे पत्रकारों के खिलाफ मामला दर्ज करा दिया। जबकि, चीन के एक रणनीतिक विद्वान की भारत को 30 टुकड़ों में करने की सलाह देने वाली साजिशी रिपोर्ट जगजाहिर हो चुकी है। सर्वे में ये साफ-साफ पता चल चुका है कि चीन के लोग भारत को सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं।


भारतीय सेना चीफ और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कहा दिया कि चीन से कोई खतरा नहीं है। और, कोई चीनी घुसपैठ नहीं हुई है। सेना प्रमुख कहते हैं कि कुछ हुआ ही नहीं है। और, वेस्टर्न एयरफोर्स कमांडर एयर मार्शल N A K ब्राउनी कहते हैं कि चीन से सटी पहाड़ी सीमा पर भारत खास राडार लगा रहा है जिससे चीनी घुसपैठ को पकड़ा जा सके। लद्दाख में एयर डिफेंस क्षमता बढ़ाई जाने की भी बात एयर मार्शल कह रहे हैं। उन्होंने चीनी सीमा पर जबरदस्त पहरे की जरूरत बताई है।


चीन के दबाव का हाल ये है कि ऑस्ट्रेलिया जैसा देश भी अरुणाचल के एक प्रोजेक्ट पर एशियन डेवलपमेंट बैंक से लोन के खिलाफ खड़ा हो जाता है। ऑस्ट्रेलिया अरुणाचल को भारत का हिस्सा मानते हुए भी चीन के साथ अरुणाचल की सीमा को विवादित मानता है। बेबस हैं हम अपने से बहुत छोटे देश पाकिस्तान से भी डरे रहते हैं। अपने से ताकतवर चीन के आगे तो हमारी घिग्घी बंधी रहती है। क्या करें हम ..


ये वही चीन है जो, अपने देश में उईघर मुसलमानों के अधिकारों की मांग को सैनिक कार्रवाई से कुचल देता है। तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा मारे-मारे इन्हीं की वजह से फिर रहे हैं। और, भारत में ये आ भर जाते हैं तो, दबाव के लिए चीन कुछ ऐसी उल्टी-पुल्टी हरकतें करता है कि भारतीय सरकार दबाव में तिब्बत पर सख्त रुख लेने से बचने लगती है। ये चीन तानाशाह है। अपने देश के भीतर और पड़ोसी देशों के साथ हर समस्या बंदूक के बल पर निपटाता है। और, भारत-पाकिस्तान के बीच शांति के लिए मध्यस्थता करना चाहता है। बड़ा खतरा है संभलकर चलने की जरूरत है।

Monday, September 28, 2009

दलित मंत्र रामबाण से भी बड़ा हो गया है

पता नहीं पहले लोग ज्यादा आस्थावान थे। राम पर भरोसा ज्यादा था या हो सकता है तर्क-कुतर्क के बावजूद भी आज ही ज्यादा हो लेकिन, पहले कोई भी अचूक दवा, अचूक नुस्खा, अचूक तरीका मिले तो, लोग कहते थे रामबाण है। चूकेगा नहीं। आजकल न चूकने वाला एक और नुस्खा निकल आया है कि कुछ भी करो- कह दो कि दलित होने की वजह से मुझे फंसाया जा रहा है।
बस फिर किसी की हैसियत नहीं है कि कोई रामबाण के इस्तेमाल के बाद कुछ हमला करने की हिम्मत कर सके। अपराध करो, भ्रष्टाचार करो- कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। बेचारे सचमुच के दलितों से लेकर जाति में दलित लगाए महासवर्णों तक आपके साथ खड़े हो जाएंगे और जिनके जाति के आगे दलित नहीं लगा है वो, इस डर से विरोध नहीं करेंगे कि दलित विरोधी होने का ठप्पा न लग जाए।
 
इस बार ये रामबाण अपनाया जा रहा है कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पी डी दिनकरन को बचाने के लिए। दिनकरन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं और, खुद सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णन ने न्यायपालिका से भ्रष्टाचार खत्म करने की मुहिम सी चलाई हुई है। अब National Schedule Caste Commission के चेयरमैन बूटा सिंह कह रहे हैं कि दिनकरन पर ऐसे आरोप सिर्फ इसलिए लग रहे हैं कि वो, दलित हैं। अब अगर बूटा सिंह साहब बालाकृष्णन साहब कौन सी जाति के हैं ये भी लगे हाथ बता देते तो, अच्छा रहता।
 
वैसे ये वही बूटा सिंह जिनके बेटे को सीबीआई ने गिरफ्तार किया है बिल्डर से करोड़ो की धोखाधड़ी के मामले में। उस वक्त भी कुछ ऐसा ही रोना रोया जा रहा है। अभी बूटा सिंह कह रहे हैं कि सीनियर एडवोकेट शांति भूषण दलित विरोधी हैं इसीलिए वो, दिनकरन के सुप्रीमकोर्ट का जज बनने में रोड़ा लगा रहे हैं। बूटा सवाल उठा रहे हैं कि दिनकरन इतना अच्छा काम कर रहे थे तो, उनके ऊपर तभी ये आरोप क्यों लगा जब उनका नाम सुप्रीमकोर्ट के लिए भेजा गया। वैसे वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण भी कमर कसे बैठे हैं कि अगर चाहे तो, National Schedule Caste Commission उनके खिलाफ मामला दर्ज करा सकता है लेकिन, वो दलित होने की वजह से किसी भ्रष्ट जज को सुप्रीमकोर्ट में नहीं आने देंगे।
 
अच्छा है पहले सेक्युलरिज्म रामबाण था। कुछ भी करो, अपराध करो, भ्रष्टाचार करो, कितनी भी गंदगी फैलाओ सेक्युरिज्म बढ़िया ढाल बन जाता था। अब दलित होना हर बुराई की ढाल बन जाएगा।

Sunday, September 27, 2009

सिस्टम ही ऐसा है साहब बिना एग्रेसिव हुए बात ही नहीं बनती

हां जी नमस्कार।

हां नमस्कार सर हर्षवर्धन बोल रहा हूं।

आपके ऑफिस आया था। कितनी देर में आ जाएंगे।

मैं तो अभी क्षेत्र के दौरे पर हूं। वहां ऑफिस में बाबू होंगे-बड़े बाबू होंगे। उनसे बात कर लीजिए


सर बिजली के बिल का मामला है यहां ऑफिस में बाबूजी का कहना है कि आपके दस्तखत के बिना नहीं होगा। मुझे ऑफिस निकलना है। आप आ जाते तो, जल्दी हो जाता। मेरे बैंक में पैसा है इसके बावजूद चेक बाउंस हो गया है। जबकि, उसके बाद के महीने का चेक क्लियर है। उस पर पेनाल्टी भी लग गई है। अब पेनाल्टी मैं क्यों भरूं। आप उसे हटा देंगे तो, मैं बिल जमा कर दूं


देखिए पेनाल्टी तो जो लग गई है उसे हटाना संभव नहीं है।


अरे आप कैसी बात कर रहे हैं मेरे अकाउंट में पैसे हैं। मेरी कोई गलती नहीं मैं रेगुलर बिल जमा करता हूं। फिर मैं पेनाल्टी क्यों भरूं। मैं यहीं सीएनबीसी आवाज़ न्यूज चैनल में हूं। और, मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है पिछले एक घंटे से आपके दफ्तरों के ही चक्कर काट रहा हूं।

ठीक है मैं ऑफिस आता हूं आधे घंटे में तो, बात करता हूं।


अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि ये मेरा संवाद किसी राजपत्रित अधिकारी के साथ चल रहा था। दरअसल मेरे बिजली के बिल का चेक बाउस हो गया था। और, उसी चक्कर में अपने सब स्टेशन और बैंक खटखटाने के बाद मैं सेक्टर 18 के एक्जिक्यूटिव इंजीनियर के ऑफिस में था।


खैर एक्जिक्यूटिव इंजीनियर साहब करीब पौन घंटे बाद आए। इतनी देर से इंतजार करने के बाद मुझमें रुकने का धैर्य नहीं बचा था। मैं भी अंदर गया। नमस्कार किया। बिल दिखाया तो, पहले तो, इंजीनियर साहब ने तवज्जो देना ही जरूरी नहीं समझा। फिर सीट पर लगी अपनी तौलिया ठीक-वीक करने के बाद इक्ट्ठै झौआ भर एग्रेसिव हो गए। देखिए ऐसे कुछ हो नहीं सकता। और, ये बिजली विभाग की जिम्मेदारी थोड़ी न है कि सबको बताए कि किस-किसका चेक बाउंस हो गया है। और, सैकड़ो केस हमारे पास हर महीने ऐसे आ रहे हैं (सैकड़ो केस आ रहे हैं लेकिन, बिजली विभाग हर सब स्टेशन पर चेक के साथ एक कैश काउंटर बनाने की जमहत भला क्यों उठाए)। अब पेमेंट हमें नहीं मिला तो, पेनाल्टी तो लगेगी ही। उसे मैं क्या कोई भी माफ नहीं कर सकता।


पिछले डेढ़ घंटे से बेवजह परेशान होने की वजह से मैं गुस्से में तो आ ही चुका था। क्यों, दूं मैं पेनाल्टी चेक बाउंस हुआ, मेरे अकाउंट में पैसा है। उसके बाद के महीने का बिल उसी बैंक का पेमेंट हो जाता है। 2 महीने बाद मुझे पता चल रहा है कि चेक बाउंस हो गया है और बिना कोई मौका दिए 405 रुपए की पेनाल्टी भी लग गई है। और, मुझे भी नियम कानून पता हैं। आपके ऑफिस से ही मुझे पता चला कि आपके पास ये अधिकार है कि आप पेनाल्टी हटा सकते हैं। मैंने इसीलिए आपको अप्लीकेशन लिखकर भी दिया है।


देखिए आप बेवजह मीडिया की धौंस न दीजिए। आप फोन पर इतना एग्रेसिव बेवजह हो रहे थे। जरा विनम्रता से काम लिया कीजिए। और, मैं हमेशा VIP पोस्टिंग में ही रहा हूं। नोएडा आने से पहले लखनऊ में गोमतीनगर में था। मुझे बहुत अच्छे से VIP’S को HANDLE करना आता है।


अब मुझे समझ में नहीं आया कि इसमें VIP’S को HANDLE करना कहां से आ गया। मैंने कहा- आप VIP पोस्टिंग में रहे हो या न रहे हों इससे मुझे क्या मतलब हो सकता है। लेकिन, मैं पेनाल्टी तो नहीं भरूंगा। उसके बाद करीब 5 मिनट तक जो चिक-चिक हुई वो, बार-बार यही सब रिपीट हो रहा था। फिर लगे हाथ उनके ऑफिस में ही बैठ एक सज्जन जो हर थोड़ी देर में ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि साहब की सुनिए वो, सब कर देंगे। फिर से वही अनमोल सुझाव लेकर आए तो, मुझे चिढ़ सी हो गई।


अचानक ही इंजीनियर साहब ने मुझसे झटके से बिल मांगा। लाइए इधर दीजिए। अब देखिए -...... फिर से समझाने लगे कि पेनाल्टी तो, वापस हो ही नहीं सकती। जब मैं फिर गरमाया तब तक वो, बिल पर गोला बनाकर बताने लगे कि 405 में से 300 रुपए मैं डिडक्ट कर सकता हूं। औऱ, लगे हाथ उन्होंने मुझ पर एक और अहसान किया। वो, ये कि बिजली का बिल मैं फिर से चेक से जमा कर सकता हूं। वरना एक अंग्रेजी टाइप का कानून ये भी है कि एक बार चेक बाउंस हुआ तो, अगले 12 महीने तक डिमांड ड्राफ्ट बनवाकर ही आप बिल जमा कर सकते हैं।


 खैर, इतने सारे अहसान और झौवा भर ज्ञान पाने के बाद मैंने ATM से पैसे निकालकर जमा कराया। और, चैन से घर आ गया। आखिर इतनी मशक्कत के बाद बिल जमा कराने और 300 की पेनाल्टी से बचने का सुख जो था। उसके पहले बैंक में जाकर मैनेजर साहब से मेरे चेक बाउंस होने का रहस्य जानना चाहा तो, वो खुद ही अपना रोना रोने लगे। दो मोबाइल फोन अपनी दराज से निकाले औऱ कहा- देखिए अब हमारा खुद का ही चेक बाउंस हो गया है। अब मैं क्या करूं आप तो मीडिया वाले हैं आप तो, जाकर लड़ भी सकते हैं।


और, यही मीडिया वाला बताने पर एक्जिक्यूटिव इंजीनियर साब नाराज हो गए थे कि आप लोग बेवजह एग्रेसिव हो जाते हैं। अब मैं उनको क्या बताऊं कि इंजीनियर साहब तैलिए वाली गाड़ी और अपने ऑफिस में बैठे आपको एग्रेसिव होने की जरूरत क्यों पड़ेगी भला। हमारी तो, मुश्किल ये है कि हम बताएं कि मीडिया से तो, धौंस बन जाएं न बताएं तो, ये कि कम से कम ये बता तो दिया होता कि मीडिया से। वो, भी जायज काम के लिए कोई फालतू की धौंस देने भी मैं नहीं गया था।


खैर, इतने सबके बाद भी अगले महीने के बिल में वो, 300 रुपए फिर लगकर आया था। मैंने इंजीनियर साहब को फोन किया तो, उन्होंने कहा ऑफिस पहुंचकर बड़े बाबू से मेरी बात करवा दीजिएगा मैं ठीक करा दूंगा। अब फिर से एक घंटे गंवाने का समय और साहस दोनों मेरे अंदर नहीं था। छोटे भाई को मैंने कहा- जाओ हो जाए तो, ठीक है नहीं तो, चुपचाप बिल जमा कर देना। 5 बार बिजली विभाग का चक्कर मारेंगे तो, 300 से ज्यादा का तेल फूंक देंगे। उस दिन इंजीनियर साहब के आते और कहते भर में लंच हो गया और एक और दिन जाने के बाद छोटा भाई बिल जमा कर पाया।


बिजली विभाग से मैं चिढ़ता-झल्लाता ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था कि एक मित्र का संदेश आया -- I’ll be little late today as I’ve to go and meet the excutive engineer of my area at 12.30 pm. बाद में पता चला कि ये बिजली विभाग का नहीं। GDA – गाजियाबाद विकास प्राधिकरण का मामला था। खैर, मीडिया का ही होने की वजह से उनका काम 2 दिनों में हो पाया।


खुद की उलझन के बावजूद मेरा इस पर पोस्ट बनाने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन, ऑफिस में मित्र के एसएमएस पर शुरू हुई चर्चा से पता चला कि ये किस्सा तो आम है। उसके बाद मेरे मन में कुछ सवाल आए कि हम मीडिया वालों को हर कोई बिना सोचे-समझे गाली देने का कोई मौका कोई चूकना नहीं चाहता। अब सवाल ये है कि अगर मेरे बिल का चेक बाउंस नहीं होता तो, मैं क्यों मैं मीडिया का हूं ये बताने जाता। मैंने कोई धौंस देने के लिए नहीं बताया। बताया इसलिए कि बिजली विभाग के बाबुओं-अफसरों के चक्कर न काटने पड़ें।


विभाग के अधिकारी, विभाग और बैंक की गलती से बाउंस हुए चेक पर पेनाल्टी लगाने के बजाए उसे सुधारने की सीधे कोई व्यवस्था करते तो, मुझे क्या जरूरत पड़ी थी मीडिया का हूं ये बताने की। कितने अफसर हैं जो, ये अच्छे से जानते हैं कि अपने विभाग से निकलने के बाद दूसरे सरकारी विभाग का चपरासी तक उनसे ठीक से बात नहीं करेगा। लेकिन, अपने चैंबर में खुद को असीमित शक्ति का स्वामी समझने लगते हैं। एक मीडिया वाले को ही क्यों किसी को भी एग्रेसिव होने की जरूरत क्यों होती है। दूसरे की गलती का पेनाल्टी क्यों भरना पड़ता है।


इस पोस्ट को न तो वो इंजीनियर साहब पढ़ने जा रहे हैं। और, पढ़ भी लेंगे तो, पता नहीं ... लेकिन, मुझे लगा कि इसे पोस्ट तो कर ही देना चाहिए। टीवी सीरियल ऑफिस-ऑफिस का अनुभव मैंने अच्छे से कर लिया। हम जैसे लोग जो 20 तारीख को बिल आते ही 22-24 तारीख तक बिल जमा कर देते हैं। वो, पेनाल्टी भी भरते हैं और इंजीनियर साहब, बाबू जैसों का ज्ञान भी सुनते हैं। लेकिन, जो बिल नहीं जमा करते यही बिजली विभाग बड़े-बड़े कैंप लगाकर, उनके पास जाकर आधा बिल माफ करके बिल लेता है। और, नोएडा में सेक्टरों के बीच में बसे बरोला, भंगेल टाइप के गांवों में तो ये बिजली काटने जाते हैं तो, लतियाए भी जाते हैं।


इसी सब पर लगता है कि समाज में थोड़ा बहुत अराजकता भी जरूरी रहती है। नहीं तो, कान में तेल डाले चलते सिस्टम के कान में किसी की आवाज साफ सुनाई ही नहीं देती। कभी-कभी मेरा भी मन अराजक होने का करता है ...

Thursday, September 24, 2009

ये भी तो बाजार की वजह से ही है

बुधवार बाजार में कम दामों का फायदा लेने के लिए ग्रेट इंडिया प्लेस के बड़ा बाजार पहुंचा तो, गेट पर खड़े सिक्योरिटी वाले ने दोनों हाथ जोड़कर मुस्कुराते हुए नमस्कार किया। अंदर बड़ा ही आध्यात्मिक अहसास हो रहा था। समझ में आया कि आम दिनों की तरह बिग बाजार में सुनाई देने वाला फिल्मी, रॉक-पॉप टाइप संगीत की जगह सुमधुर ध्वनि गायत्री मंत्र की आ रही थी।


दरअसल नवरात्रि की वजह से बिग बाजार में ये बदलाव देखने को मिल रहा था। और, ऑफिस जाने की जल्दी की वजह से सुबह साढ़े दस बजे ही मैं बिग बाजार पहुंच गया था वो, भी एक वजह थी। खैर, इससे ये भी साबित हो रहा था कि भारतीय परंपरा में भरोसा रखने वालों की बाजार में खर्च करने की ताकत बढ़ रही थी। और, इसीलिए बाजार में मुनाफा कमाने की इच्छा रखने वालों को भारतीय परंपराओं का भी सम्मान करना पड़ रहा है। देखिए रास्ता बाजार के बीच से भी है। बस ये समझना पड़ेगा कि उसके लिए रास्ता बनाना कैसे हैं।


कल अनिल पुसदकर जी पूछ रहे थे कि क्या फलाहार पार्टी देने से पाप लगेगा। अब ये पाप-पुण्य की नेताओं से आप पूछ ही क्यों रहे हैं। उन्हें पाप-पुण्य वोट से ही समझ में आता है। इस लिहाज से वो, अपने पुण्य का इंतजाम कर रहे हैं आपको एतराज क्यों है। और, देखिए अब तक बाजार की ताकत सब अमरीका, पश्चिम से तय होती रही है तो, उनके त्यौहार, खुशी के दिन दुनिया भर के लोग खुश होकर कार्ड. केक खरीदते-देते-लेते हैं। कांटा इधर घूम रहा है तो, हो सकता है कि नवरात्रि व्रत भी कॉरपोरेट स्टाइल में हो नेता इसका सार्वजनिक दिखावा भले न करें। बस बाजार में ताकतवर बनिए।


पहले भी एक पोस्ट में मैंने लिखा है कि किस तरह कलर्स चैनल भारतीय मूल्यों के साथ बाजार पर कब्जा कर चुका है। अभी एक दिन खतरों का खिलाड़ी देख रहा था तो, खतरों के सबसे बड़े खिलाड़ी अक्षय कुमार ने साथ की हसीनाओं से कहाकि अगला टास्क नंबर 10 बहुत खतरनाक है इसलिए टास्क को करने से पहले हम सब एक बार इस मंत्र का जाप करेंगे और फिर एक साथ कई आवाजें आने लगीं .... ऊं भूर्भुव:  स्व: ......    सब बाजार का कमाल है देखते जाइए

Wednesday, September 23, 2009

अब ये बात बेवकूफी की लगती है

वंशवाद की बात अब किसी को समझ में नहीं आ रही है। कम से कम उनको तो नहीं ही समझ में आ रही है जिनके बेटे-बेटी या कोई नजदीकी रिश्तेदार इतने बड़े हो गए हैं कि चुनाव लड़ सकें। और, वो पहले से ही किसी पार्टी में इस हैसियत में हैं कि अपने चुनाव लड़ने लायक उम्र वाले बेटे-बेटी या फिर नजदीकी रिश्तेदार को टिकट दिलवा सकें।


दरअसल सारा मामला पलट गया है। कांग्रेस के वंशवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ते-लड़ते विपक्षी पार्टियों के लोगों की उम्र बढ़ गई और उन्हें अंदाजा ही नहीं लगा कि कब उनके बेटे-बेटी भी वंशवादी राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए तैयार हो गए। लेकिन, अभी रूडी के बेटे-बेटी शायद टिकट लेने भर की उम्र के नहीं हुए हैं इसीलिए बीजेपी प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के बेटे राजेंद्र शेखावत को कांग्रेस का टिकट मिलने का संभावना दिखते ही बयान जारी कर दिया कि “the prez should have refrained from this entire ticket business.... It seems that the prez house too has got infected from this family fiefdom...”


लेकिन, रूडी महाराष्ट्र में ही अपने सबसे बड़े नेता गोपीनाथ मुंडे को शायद याद नहीं रख पाए थे। महाराष्ट्र में वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने की होड़ सी लगी है। कांग्रेस में ऐसे 67 नेता हैं जिनके बेटे-बेटी या फिर नजदीकी रिश्तेदारों को टिकट देने का दबाव है। विलासराव देशमुख बेटे अमित के लिए टिकट चाहते हैं, सुशील कुमार शिंदे बिटिया प्रणीति को, पतंगराव कदम बेटे विश्वजीत को, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मानिकराव ठाकरे बेटे राहुल को विधानसभा में देखना चाहते हैं।


बीजेपी में वंशवादी राजनीति का सबसे बड़ा ठेका खुद गोपी बाबू ने उठा रखा है। अरे वही मुंडे साहब जो, अब भी महाराष्ट्र बीजेपी में स्वर्गीय प्रमोद महाजन के राजनीतिक कौशल की दुहाई देकर मजे लूट रहे हैं। प्रमोद महाजन की बिटिया पूनम का नाम लोकसभा में आगे नहीं बढ़ा पाए लेकिन, अब विधानसभा में तो पार्टी को टिकट देना ही था। लगे हाथ मुंडे ने अपनी बिटिया पंकजा पाल्वे और दामाद का नाम भी आगे बढ़ा दिया। कह रहे हैं कि भांजे धनंजय को भी अगर बीजेपी टिकट दे दे तो, पार्टी का उत्थान होने में देर नहीं लगेगी।


उधर, शिवसेना में भी सांसद शिवसैनिक अपनी पत्नी, बेटे-बेटी को विधायक शिवसैनिक बनाना चाहते हैं। इस वंशवादी राजनीति के खिलाफ कांग्रेस-बीजेपी-शिवसेना सबमें बगावत हो रही है। लेकिन, बगावत करने वाले वही लोग हैं जो, खुद अभी टिकट की मारामारी में हैं। अभी उनकी हैसियत नहीं बन पाई है कि वो, परिवार वाद को आगे बढ़ा पाएं तो, वो खिलाफत कर रहे हैं। जिनकी हैसियत बनती जा रही है वो, मानिकराव ठाकरे की तरह तर्क दे रहे हैं कि परिवार में कांग्रेस का कार्यकर्ता है तो, उसे परिवार वाद के नाम पर नकारना ठीक नहीं है। अब तो बीजेपी भी इसे परिश्रमवाद जैसा कुछ बताने की कोशिश कर रही है। कुल मिलाकर कांग्रेस और गांधी परिवार को वंशवाद के नाम पर गरियाने वालों की बात अब बेवकूफी लगती है।

Monday, September 21, 2009

ऐसे संस्कारों को आग लगा दो

ये दावा करते हैं कि हम संस्कृति रक्षक हैं, संस्कार बचा रहे हैं। संस्कृति और संस्कार बचाने के लिए बाकायदा इन्होने कानून बना रखे हैं। इक्कीसवीं सदी में जंगल जैसा या शायद अब तो जंगल कानून भी शर्मा जाए- ऐसा कानून है इनका। लेकिन, कमाल ये कि हम-आप दिल्ली या इनके देस से बाहर बैठकर चाहें जो कहें- इनको इनके देस में हर किसी का समर्थन मिला हुआ है।


ये देश के सबसे मॉडर्न दो शहरों दिल्ली और चंडीगढ़ के बीच में बसते हैं लेकिन, इनके संस्कार, संस्कृति ऐसी है कि ये अपने ही बच्चों, परिवारों का खून करते हैं। खबर तो, ये आई है कि एक प्रेम में पागल लड़की ने अपने पागल प्रेमी के साथ मिलकर परिवार के 7 सदस्यों को मार डाला। लेकिन, ये खबर जहां से आ रही है वो, है हरियाणा का रोहतक शहर। हरियाणा से ही इसके पहले एक और खबर आई थी कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद अपनी ही पत्नी को विदा कराने गए लड़के को संस्कृति-संस्कार के रक्षकों की भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। अदालत का आदेश धरा का धरा रह गया। पुलिस तमाशा देखती रही।


अदालत का आदेश यहां क्यों धरा का धरा रह गया। इसे समझने के लिए दो चीजें एक तो, ये जाटलैंड है भले दिल्ली से सटा हुआ है लेकिन, अलग देस जैसे कायदे-कानून हैं यहां के। दूसरा इन जाटों की खाप पंचायत के सदस्य बने रहने के लिए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवी सिंह तेवतिया इस कदर बावले हैं कि खाप पंचायतों को कानूनी मान्यता देने की बात कहते हैं। देवी सिंह मानते हैं कि ‘‘खाप नेता ही हैं जिनकी वजह से जाट पंरपरा बची हुई है”


अब जरा देखिए कि ये खाप कौन सी जाट परंपरा बचाने में लगी है। ये हर दूसरे-चौथे अपनी ही बेटियों को इसलिए मार देते हैं कि वो, अपनी पसंद के लड़के से शादी करना चाहती हैं। कुछ खबर बन जाती है तो, हम-आप जैसे जाटलैंड से बाहर के बेवकूफ निवासी इनके खिलाफ जहर उगलने लगते हैं, खबर नहीं बनती तो, ये जाट परंपरा बचाना निर्विरोध जारी रखते हैं। पता नहीं ये कौन सी परंपरा बचा रहे हैं कि इतने सालों से अपने ही बच्चों को ये संस्कार समझा नहीं पाते और हर बार इन्हें अपने बच्चों की जान लेकर ही परंपरा बचानी पड़ती है।


और, ये हुक्का गुड़गुड़ाते तथाकथित-स्वनामधन्य जाट परंपरा के रक्षक इतने मजबूत हैं कि इनके सामने वो, भी मुंह नहीं खोलता जिसे लोकतंत्र में सरकार कहा जाता है। हरियाणा के युवा सांसद दीपेंद्र हुड्डा – ये भी राहुल गांधी की बदलाव वाली यूथ सांसद ब्रिगेड के सक्रिय सदस्य हैं - कह रहे हैं कि “खाप पंचायत की स्थानीय परंपरा और भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए”। ऐसे ही सेंटिमेंट उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सहयोगी जाट किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के भी हैं। टिकैत तो जाने कितना बार खबरों में एलानिया कह चुके हैं आपके देस और हमारे कानून अलग हैं। ये डर ही है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटलैंड में लड़कियों को मारकर इज्जत बढ़ रही है।


इस बार एक लड़की ने पूरे परिवार को मारकर अपनी इज्जत बढ़ा ली है। इतने सालों से जाट परंपरा की रक्षा देखते-देखते अब नई पीढ़ी खाप पंचायतों से काफी कुछ सीख चुकी है। खाप पंचायतों के डर से मां-बाप खुद अपने बच्चों के खाने में पेस्टिसाइड मिलाकर उसे मौत की नींद सुला देते थे। इस बार बच्चों ने यही परंपरा अपने परिवार के साथ निभा दी। हरियाणा से आई ये दिल को चीर कर रख देने वाली खबर एक अति के खिलाफ दूसरी। एक अति ये कि हरियाणा में लड़कियों को गर्भ में ही मार देने, उनके प्रेम विवाह पर जिंदा जला देने से लेकर, जहर देने, पेस्टिसाइड देने और प्रेमी-प्रेमिका को पीट-पीटकर मार जालने की खबर।


दूसरी अति की खबर आज ये है कि एक 19 साल की लड़की ने अपने पूरे परिवार को इसलिए खत्म कर दिया कि वो, लोग उसे प्रेमी के साथ शादी की इजाजत नहीं दे रहे थे। शादी की इजाजत इसलिए नहीं दी जा रही थी कि लड़का-लड़की एक ही गोत्र के थे।


संस्कृति-संस्कार के रक्षकों जिस तरह से तुम लड़कियों को मार रहे हो- उसमें कोई रास्ता तो बच नहीं रहा है। तुम्हारा पेस्टिसाइड का साइलेंट किलर हथियार उनके हाथ भी लग गया है। आखिरकार वो, तुम्हारी परंपरा सीख गए हैं। अरे– कम से कम तुम लोग तो चेतो जो, अपने ही बच्चों की मौत के जिम्मेदार बने हो। लोकतंत्र के औजार का इस्तेमाल करो, समाज- खाप पंचायत के डर से बच्चों को मारने वालों चुपचाप उसके पक्ष में वोट करो जो, खाप पंचायत को कानूनी मान्यता दिलाने नहीं, इन्हें खत्म कराने की बात करे। अभी तो, कोई बात करने से भी डरेगा लेकिन, खाप पंचायतों के खिलाफ तो, खड़े होना ही होगा। इन्हें बर्दाश्त हम नहीं कर सकते। अपने लिए भी-अपनी आने वाली पाढ़ियों के लिए भी। अब इनको कौन समझाए कि जब हम ही नहीं बचेंगे तो, हमारी परंपरा कौन बचाएगा। खाली हुक्के देश के संग्रहालयों की शोभा बढ़ाएंगे।

Friday, September 18, 2009

शशि थरूर, जानवर अरे वही cattle clas और हम

अब जब अशोक गहलोत तक शशि थरूर को गरिया रहे हैं। भले सीधे-सीधे नहीं- गहलोत कह रहे हैं कि शशि थरूर ने जो, इकोनॉमी में सफर करने वाले लोगों को जानवर जैसा कहा है, उसके लिए उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए, इससे कम का कुछ नहीं चलेगा। कांग्रेसी मुख्यमंत्री गहलोत गुस्से में हैं, भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का हक बनता है वो, पहले ही बहुत गुस्सा चुके हैं। इतना सब कुछ देखकर मेरे अंदर भी मौका पाते ही गरियाने को उत्प्रेरित करने वाले विषाणु सक्रिय हो गए हैं। अरे भाई, गहलोतजी तो कभी न कभी मुख्यमंत्री, बड़े कांग्रेसी नेता होने की वजह से बिजनेस क्लास का आनंद लिए ही होंगे। नहीं लिए होंगे तो, ले सकते हैं, थे- लेकिन, हम तो भइया जब चले इकोनॉमी क्लास में ही चले। वो, भी कोई बहुत खुशी-खुशी नहीं। लेकिन, इस लिहाज से शशि थरूर को गरियाने का पहला जेनुइन हक हमारे जैसे लोगों का ही बनता है।


लेकिन, बड़ी एक मुश्किल हो गई है ई तीन दिन से मन में गरियाने का विचार संजोए जब अपनी शकल शीशे में देख रहा था तो, कुछ चेहरवा हमारा बदला-बदला सा दिखा। अरे ई कोई रात में सोए सुबह उठकर देखे जैसा फिल्मी बदलाव नही था। ई धीरे-धीरे होए रहा था नोटिसियाए करीब हफ्ता-दस दिन पहिलवैं। हमारा चेहरवा न ऊ हमारा जो गेहूंआ रंग है उससे ज्यादा कुछ गोरायमान हो रहा है। ऐसे ही एक दिन बदलाव दिखा था- ऑफिस में जरा ऊ साबुन से हाथ का धोए, पूरा हथवा लगा जइसे कटरीना कैफ से ज्यादा रंगत ले लिए हो। चेहरे पे गजब की लुनाई दिखने लगी है जइसे पहले टीवी-ऊवी पे दिखने वाले लोगों के चेहरे पे दिखती थी। रफ-टफ वाला हर्षवर्धन हेरा (गायब) रहा है।



याददाश्त पर जरा जोर डाले तो, पता चला कि बदलाव बड़ा तगड़ा-तगड़ा हुआ। लेकिन, ऊ तो, दिल्ली से इलाहाबाद, मुंबई से इलाहाबाद, देहरादून से इलाहाबाद, कानपुर से इलाहाबाद यानी पिछले दस साल में नौकरी के चक्कर में जहां भी रहे वहां से ऊ जो, दे दनादन इलाहाबाद का चक्कर लगाते रहे उससे, बदलाव ठीक से टाइम पे पल्ले नहीं पड़ा। अब देहरादून तक तो, तबौ ठीक था। मोटरसाइकिल से दिन भर एहर-ओहर की रिपोर्टिंग, संझा के बिना एसी वाले ऑफिस में बैठके टकपक-टकपक टाइप करके कंप्यूटर पे पेज की तरफ खबर बढ़ाए। ऐसहीं दिन चलता था। लेकिन, ऊ जो, टीवी में आने का मन बनाए तो, दिल्ली आए गए फिर टीवी की नौकरी में पहुंच गए बंबई नगरिया। बंबई नगरिया के करतन पहली बार ऊ शशि थरूर वाले जानवरों के क्लास में हवाई सफर किया (हमारे लिए त ऊ स्वर्ग जैसा ही अनुभव था।)। फिर वहां का मौसम भी ठीक था। ऑफिस के बगल में एक कमरा। औ, कमरे में रहना कमै होता था। लगभग सोने के लिए उसकी जरूरत थी। वरना ज्यादातर टाइम बढ़िया ऑफिस के एसी में कटता था।


गर्मी के भी टाइम में वैसे अकसर हमारे टीवी को चलाने वाले कक्ष PCR(प्रोडक्शन कंट्रोल रूम) के साथी अकसर जैकेट पहने दिख जाते थे। समझ में आया कि ऑफिस में एसी काम करने वालों से ज्यादा मशीनों को दुरुस्त रखने के लिए जरूरी है। इसलिए एयरकंडीशंड टीवी ऑफिस जरूरी है। वैसे अब अखबार के दफ्तर भी सब वातानुकूलित ही हैं। मुंबई में रहते थे तो, 24 घंटे से ज्यादा के इलाहाबाद के सफर के लिए एसी में रिजर्वेशन कराने लगे। एसी के तीसरे दर्जे में। फिर ब्याह हुआ तो, कुछ दिन बाद मुंबई के एक कमरे में भी एसी लग गया। फिर हाल ये करीब 12 घंटे ऑफिस के एसी में औ करीब 8 घंटा घर के एसी में। इसका मतलब आप समझ रहे हैं ना ! धीरे-धीरे अनजाने में हम जनरल cattle class से एसी cattle class में शामिल होते जा रहे थे।


वैसे दिल्ली आने के बाद घर से कार मंगाई तो, उसमें एसी नहीं लगवाई पूरी गर्मी बिना एसी के निकाल दी। लेकिन, कसक रहती थी। गर्मी इतनी पड़ रही थी कि हालत खराब हो जाती थी। सिर्फ 10 मिनट लगता है मेरे घर से ऑफिस आने में। ये वो रास्ता है जो, धीरे-धीरे ही सही उस शशि थरूर की तरफ ले जा रहा है जो, हम जैसे लोगों को cattle class बता रहा है। लेकिन, क्या इसका इलाज शशि थरूर को गाली देना है। अब मुझे शशि थरूर का ज्यादा बैकग्राउंड नहीं पता और मैं शशि थरूर का कच्चा-चिट्ठा जानने के लिए GOOGLE अंकल की मदद लेने की जरूरत भी नहीं समझ रहा। लेकिन, सोचिए कि अगर बचपन से शशि थरूर को वो, सुख सुविधाएं मिली हैं जो, हम cattle class के लोग खुद के लिए और अपने बाद की पीढ़ी के लिए जुटाने की कोशिश में लगे हैं तो, शशि थरूर को गाली हम क्यों दे रहे हैं। क्या गाली देने से कुछ इलाज निकलेगा।


ये सोचकर बताइए कि अगर इकोनॉमी क्लास के सारे लोगों के लिए बिजनेस क्लास का पैसा देने में उनकी जेब पर इकोनॉमी क्लास जितना ही झटका लगे तो, कितने लोग बिजनेस क्लास में न जाकर cattle class में सफर करना पसंद करेंगे। परिवार के साथ जाने पर कभी-कभी हम भी सेकेंड एसी में सफर कर लेते हैं तो, टिप्पणी करने वाले मेरे ब्लॉग पर लिखते हैं ये सेकेंड एसी में सफर करके हमको दिखा रहे हैं। वैसे बीसियों बार हमने अपने आसपास ही एसी में सफर करने वालों के मुंह से रेलवे के ही स्लीपर और जनरल क्लास के लिए जानवरों की तरह ठुंसा रहता है जैसी टिप्पणी सुनी है। अब ये न समझने लगिएगा कि हमारे आसपास के लोग कोई बहुत ऊंचे क्लास से, शशि थरूर टाइप, आते हैं। ये क्लास का ही चक्कर है कि राखी सावंत, मायावती, अमर सिंह जैसे लोगों को cattle class से बाहर निकलकर शशि थरूर वाले क्लास में शामिल होने के लिए जाने क्या-क्या करना पड़ता है और हम उन्हें दे दनादन बिना सोचे गरियाने लगते हैं।


इसलिए शशि थरूर से इस्तीफा जरूर मांगिए। जमकर गरियाए भी लेकिन, इससे पहले ये जरूर सोचिए कि हर कोई अपने से नीचे के cattle class से कितनी जल्दी ऊपर उठकर अपनी स्थिति में बचे रह गए लोगों को cattle class में जबरदस्ती शामिल कराने में जुट जाता है। सुविधा जुटाने, क्लास में शामिल होने की हमारी कोशिश, अपने बाद की पीढ़ी को और भी बेहतर क्लास में शामिल कराने, सुविधाभोगी बनाने की कोशिशि- वास्तविक स्थिति से अपने बच्चों-प्रिय लोगों को एकदम दूर करने की कोशिश लगातार करते जा रहे हैं। इसलिए शशि थरूर बनने से खुद को, अपने बच्चों को, आसपास वालों को रोकिए। कोई cattle class कहने वाला नहीं मिलेगा। कितना भी लंदन, अमरीका, बंबइया, दिल्ली वाले हो जाइए- अपनी जमीन को पकड़े रहिए-बच्चों को पकड़ाइए रहिए। जमीन की समझ, अहसास रखकर आसमान की तरफ देखेंगे, उड़ेंगे तो, ये cattle class जैसी चीज शायद न हो।

Thursday, September 17, 2009

हमें सत्ता देने के लिए तुम मर जाओ!!!

ये साबित हो गया तो, राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी कालिख होगी। आंध्र प्रदेश के जनप्रिय नेता YSR Reddy की दुखद मौत के बाद हिला देने वाला सच सामने आ रहा है। उनकी मौत की घटना के तुरंत बाद करीब डेढ़ सौ लोगों के आत्महत्या करने, सदमे से मरने की खबर थी। अब तक ये आंकड़ा चार सौ के ऊपर बताया जा रहा है।


लेकिन, अब चौंकाने वाली खबर (मुझे तो खबर सुनने के बाद ही घिन सी आ रही है) ये आ रही है कि जगन सेना- ये वो गुलामों की ब्रिगेड है जो, YSR Reddy के बेटे जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अभियान चला रही है। बाप की मौत के बाद उसकी आत्मा की शांति का प्रयास करने के बजाए जगन आंध्र प्रदेश की ज्यादा से ज्यादा मौतों को अपने बाप की दुखद मौत का साझीदार बनाने की कोशिश कर रहा है। अब इन सबकी आत्मा को शांति कैसे मिल पाएगी।


खबर ये आ रही है कि YSR Reddy की मौत के बाद राज्य भर में जितनी भी मौतें हुईँ। उन सबको रेड्डी के बाद के दुखद असर के तौर पर प्रचारित करने की कोशिश हो रही है। सबसे घिनौनी बात ये कि इसमें रेड्डी के गुलाम अफसर भी मदद कर रहे हैं। खुद जिला कलेक्टर किसी भी कारण से मरने वाले लोगों के घर जाकर ये जानने या कहें कि साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि मरने से ठीक पहले रेड्डी का अंतिम संस्कार तो, नहीं देखा था या फिर YSR Reddy के मरने की खबर तो नहीं सुनी थी।

Wednesday, September 16, 2009

काफी कुछ अच्छा दिख रहा है मगर ...

ये तो तय ही रहता है कि हर अगली पीढ़ी पहले से बहुत ज्यादा स्मार्ट होती है। इसका अंदाजा भी समय-समय पर होता रहता है। मुझे अभी मौका लगा दिल्ली के द्वारका के एक इंस्टिट्यूट के छात्रों से बातचीत का। ट्रिनिटी इंस्टिट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज के इन हाउस सेमिनार आलेख्य 09 में गया था। जितने शानदार वहां के मास कम्युनिकेशन के बच्चों ने पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन बनाए थे उससे भी तीखे सवाल उन लोगों ने हमारे लिए तैयार कर रखे थे।


ज्यादातर सवाल ऐसे थे जिनके जवाब अगर खोज लिए जाएं तो, मीडिया की भूमिका क्या हो इसे सलीके से तय करने की गाइडलाइंस बन सकती है। खबरों के मामले में खुद पर नियंत्रण से लेकर सच का सामना और भूत-प्रेत, अंधविश्वास तक क्यों न्यूज चैनल पर दिखना चाहिए- इसका जवाब बच्चे मुझसे मांग रहे थे। सलीके से बनाए गए 5 प्रजेंटेशन में भले ही एक ही चीज कई प्रजेंटेशन में आ गई थी लेकिन, फोकस साफ था। पहले प्रजेंटेशन में मीडिया के अच्छे पहलुओं को दिखाते हुए, अंत में support media, suppport nation जैसा स्लोगन था तो, उसी के तुरंत बाद के प्रजेंटेशन में मीडिया पर दिखाई जा रही ऊल जलूल खबरों का तीखा पोस्टमार्टम था। कुल मिलाकर हमारे बाद मीडिया में आने वाले बच्चे ऐसा नहीं है कि उन सवालों से नावाकिफ हैं जिससे अभी का मीडिया जूझ रहा है- ये अच्छी बात है।


लेकिन, एक मुश्किल ये थी कि 200 से ज्यादा के मास मीडिया के छात्रों में से बमुश्किल ही 5 प्रतिशत ऐसे रहे होंगे जो, न्यूज मीडिया में आना चाह रहे थे। फिर चाहे अखबार हो या टीवी। PR, इवेंट मैनेजमेंट, क्रिएटिव, विज्ञापन- कुछ इस तरह के मीडिया में ज्यादातर बच्चे जाना चाह रहे थे। ये दुखद है और ज्यादा दुखद इसलिए है कि आने वाले बच्चों को लग रहा है कि दरअसल उन्हें न्यूज मीडिया में न्यूज करने का मौका ही नहीं मिलेगा इसलिए, वहां काम करो जहां जो, करने जा रहे हो वो, करने को मिले।


ऐसे ही मुंबई के सेमिनार में सारे बच्चों में से शायद ही कोई बिजनेस जर्नलिज्म करना चाहता था। जबकि, मुंबई के लोगों को तो, थोड़ी बहुत बिजनेस की समझ पलने-बढ़ने के साथ शहर ही दे देता है। ये भी अब साफ हो चुका है कि जनरल न्यूज चैनलों, अखबारों का भी काम अब बिना बिजनेस जर्नलिज्म के नहीं चलना। नए बच्चे कुछ सवाल चीखकर पूछते हैं जिसका जवाब देना मुश्किल होता है। कुछ वो, बिना कहे ही पूछ लेते हैं।

Tuesday, September 15, 2009

ये गजब की इकोनॉमी है!!!

लग ऐसे रहा है जैसे आजकल पूरा देश ताजा-ताजा बचत करना सीख रहा हो। नए काम की शुरुआत जैसा दिख रहा है। प्रधानमंत्री ने कहा, फिर प्रधानमंत्री से भी बड़ी सोनियाजी ने कहा, फिर सबसे बड़े आदर्श राहुलजी ने कहा। फिर इन लोगों ने करके दिखाना शुरू कर दिया। अब इकोनॉमी की चर्चा हो रही है। लोग इकोनॉमी में चलने लगे हैं। ये मनमोहन-मोंटेक वाली इकोनॉमी नहीं है। ये हवाई जहाज की इकोनॉमी वाली सीट है। इस पर सफर खबर बन रही है।


दिख कुछ ऐसे रहा है जैसे इस बचत क्रांति को देश की हरित क्रांति और दुग्ध क्रांति के बराबर ले जाकर खड़ा कर दिया जाएगा। या शायद उससे भी बड़ी क्रांति हो। शनिवार को वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने दिल्ली से कोलकाता इकोनॉमी क्लास में सफर किया। फिर सोनिया गांधी ने दिल्ली से मुंबई की यात्रा इकोनॉमी क्लास में की। ये अलग बात है कि सुरक्षा के मद्देनजर जो इंतजाम सोनियाजी के लिए जरूरी हैं उसकी वजह से खर्च कम तो हुआ नहीं। क्योंकि, अगर सोनियाजी बिजनेस क्लास में यात्रा करतीं तो, खर्च आता 62,000 रुपए और इकोनॉमी में आगे 5 कतारें बुक की गईं जिसका खर्च आया 55,000 रुपए यानी किराए में बचत हुई सिर्फ 7,000 रुपए की और हल्ला ऐसे हुआ जैसे पूरे देश में बचत आंदोलन की योजना का उद्घाटन हुआ हो। सुरक्षा के लिए जो 3 टाटा सफारी दिल्ली से मुंबई हवाई जहाज में लादकर ले जाई गई उसका खर्च आया 3 लाख रुपए। जिस फ्लाइट में सोनिया मैडम गईं हैं उसी में बिजनेस क्लास में 8 में से 4 सीटें खाली गईं- ये कौन सी बचत है।


सोनिया या किसी भी VVIP के सुरक्षा इंतजामों कोई कोताही नहीं होनी चाहिए। लेकिन, सवाल ये है कि ये संदेश देने की जरूरत क्यों पड़ रही है और किसे संदेश देने की जरूरत पड़ रही है। ये वो, देश है जहां आज भी छोटे-बड़े शहरों में सोने के गहने और बचाई गई रकम घर के किसी कोने में छिपाकर आड़े वक्त में काम आने के लिए रख दी जाती है। ये वो देश है जहां अभी भी 35 प्रतिशत से ज्यादा लोग बचत पर सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं। फिर ये संदेश आम जनता को तो देना नहीं है। पिछले 5 साल इन्हीं सोनिया-मनमोहन की सरकार रही है और अगले 5 साल भी इन्हीं की सरकार रहने वाली है। फिर जो, करना है करिए ये नौटंकी क्यों कर रहे हैं।


एक्शन दिखाइए ना। मुझे पूरा खतरा इस बात का दिखता है कि ये सब कुछ दिनों का चोचला भर बनकर रह जाएगा। राहुल शताब्दी में दिल्ली से लुधियाना एक्जिक्यूटिव क्लास में सफर नहीं कर रहे हैं। शशि थरूर बंगाली स्वीट्स में खाना खाकर बिल देते दिख रहे हैं। क्या है ये सब सिर्फ नौटंकी। इससे कितने खर्च बचते होंगे। राहुल गांधी को अपने कुर्ते का कॉलर दिखाकर ये कहने की जरूरत क्यों पड़ रही है कि --- सादा जीवन उच्च विचार जरूरी है। सादगी का संदेश इस तरह से देने की जरूरत क्यों आ पड़ी है।


खर्च जहां बचना चाहिए वहां कितना बचा। जब मंत्रिमंडल बना तो, इस बार लोगों को उम्मीद थी कि पिछली सरकार के दौरान कॉरपोरेट्स को कम सैलरी लेने,सादगी से रहने की सीख देने वाला प्रधानमंत्री महोदय मंत्रिमंडल छोटा रखेंगे। कम मंत्रालय रहेंगे तो, गैर जरूरी खर्चे भी बचेंगे। लेकिन, क्या हुआ वही ढाक के तीन पात। इस बार तो, ये बहाना भी नहीं था कि सरकार चलाने के लिए दूसरी पार्टियों का समर्थन जुटाने की मजबूरी थी। कुल मिलाकर ये एक फितूर है जो, कुछ दिनों में खत्म हो जाएगा। तब कोई नया शिगूफा आएगा। जय हो ...

Monday, September 14, 2009

ये क्या हिंदी-हिंदी लगा रखा है

हिंदी दिवस पर हिंदी का हल्ला- रुदन जमकर हो रहा है। हर कोई बस इस एक 14 सितंबर के दिन में हिंदी को दुनिया की सबसे महत्वपर्ण भाषा बना देने को उतावला हो रहा है। मैंने भी सोचा हिंदी की कमाई खा रहा हूं तो, थोड़ा मैं भी चिंतित हो लेता हूं। लेकिन, लगा कि ये क्या बेवकूफी है। हिंदी ने जिस तरह से बाजार में अपनी ताकत बनाई है क्या उसके बावजूद एक दिन हिंदी के लिए रोकर हम ठीक कर रहे हैं। दरअसल सारी मुश्किल ये है कि जिन्हें हिंदी ने सबसे ज्यादा दिया है वो, इसको ठीक से संभाल नहीं पा रहे हैं पहला मौका पाते ही अंग्रेज बन जाना चाहते हैं।


और, हिंदी को खास परेशानी नहीं है। आज भी देश के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले 10 अखबारों में अंग्रेजी के टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़ कोई अखबार नहीं है। विज्ञापन जगत से लेकर फिल्म और मीडिया तक हिंदी ही हावी है। व्यवहार में भी-बाजार में भी। इसलिए हिंदी दिवस मनाना छोड़िए- बस इस बाजार व्यवहार को हिंदी के लिहाज से ढालने में मदद करिए। बाकी तो अपने आप ही हो जाएगा।


दो साल से ज्यादा समय हो गया एक पोस्ट मैंने लिखी थी। 16 जून 2007 को। और, आज दो साल बाद भी वो पोस्ट पूरी की पूरी मौजूं लग रही है। क्योंकि, फिर से नया लिखूंगा भी तो, वो काफी कुछ यही होगा।

फिर हम क्यों बोलें हिंदी ...

बॉलीवुड कलाकारों को (आर्टिस्ट पढ़िए) अब अंग्रेजी या फिर रोमन में ही स्क्रिप्ट देनी पड़ती है। क्योंकि, उन्हें हिंदी में लिखी स्क्रिप्ट समझ में नहीं आती। वैसे ये मुश्किल सिर्फ स्क्रिप्ट लिखने वालों की ही नहीं है। इन फिल्मी कलाकारों की बात लोगों तक पहुंचाने के लिए जब पत्रकार (जर्नलिस्ट पढ़िए) साक्षात्कार (इंटरव्यू) लेने जाते हैं तो, उन्हें भी यही मुश्किल झेलनी पड़ती है। देश के हिंदी प्रदेशों में दीवानेपन की हद तक चाहे जाने वाले इन कलाकारों को इतनी भी हिंदी नहीं आती कि ये फिल्म के डायलॉग पढ़कर बोल सकें। फिर भी ये हिट हैं क्योंकि, ये बिकते हैं।


वैसे हिंदी की ये मुश्किल सिर्फ फिल्मी कलाकारों के मामले में नहीं है। बात यहीं से आगे बढ़ा रहा हूं जबकि, ये बात बहुत आगे बढ़कर ही यहां तक पहुंची है। देश में सभी चीजों को सुधारने का ठेका लेने वाला हिंदी मीडिया भी हिंदी से परेशान है। अब आप कहेंगे कि हिंदी चैनलों में हिंदी क्यों परेशान है। हिंदी का चैनल, देखने वाले हिंदी के लोग, बोलने-देखने-लिखने वाले हिंदी के लोग, फिर क्या मुश्किल है। दरअसल मुश्किल ये सीधे हिंदी बिक नहीं रही थी (अंग्रेजी में कहते हैं कि हेप नहीं दिख रही थी)। इसलिए हिंदी में अंग्रेजी का मसाला लगने लगा। शुरुआत में हिंदी में अंग्रेजी का मसाला लगना शुरू हुआ जब ज्यादा बिकने लगा तो, अंग्रेजी में हिंदी का मसाला भर बचा रह गया। हां, नाम हिंदी का ही था।


वैसे ये मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है कि फिल्मी कलाकार या कोई भी बड़ा होता आदमी या औरत (बिगीज) अब हिंदी बोलना नहीं चाहते। हिंदी वही बोल-पढ़ रहे हैं जो, और कुछ बोल-पढ़ नहीं सकते। लेकिन, दुखद तो ये है कि हिंदी वो भी बोल-पढ़ नहीं रहे हैं जो, हिंदी की ही खा रहे हैं। हिंदी खबरिया चैनलों का हाल तो ये है कि अगर बहुत अच्छी हिंदी आपको आती है तो, यहां नौकरी (जॉब) नहीं मिलने वाली। गलती से नौकरी मिल भी गई तो, कुछ ही दिन में ये बता-बताकर कि यहां खबर लिखो-साहित्य मत पेलो, कह-कहकर हिंदी का राम नाम सत्य करवा दिया जाएगा वो भी आपसे ही। जिस दिन पूरी तरह राम नाम सत्य हो गया और हिंदी के ही शब्दों-अक्षरों-वाक्यों पर आप गड़बड़ाने लगे तो, चार हिंदी में गड़बड़ हो चुके लोग मिलकर सही हिंदी तय करेंगे और ये तय हो जाएगा कि अब यही लिखा जाएगा भले ही गलत हो। और, जब मौका मिला थोड़ी बची-खुची सही हिंदी जानने वाले बड़े लोग आपको डांटने का मौका हाथ से जानने नहीं देंगे।


मैं फिर लौटता हूं कि हिंदी की मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है। हिंदी चैनलों में भर्ती (रिक्रूटमेंट) होती है तो, अगर उसने u know.... i hope ... so.. i think कहकर अपने को साबित (प्रूव) कर दिया तो, फिर नौकरी (जॉब) पक्की। समझाया ये जाएगा कि थोड़ी हिंदी कमजोर है लेकिन, लड़की या लड़के को समझ बहुत अच्छी है। हिंदी तो, पुराने लोग मिलकर ठीक कर देंगे। वैसे जिनके दम पर नई भर्ती को हिंदी सिखाने का दम भरा जा रहा होता है उनमें हिंदी का दम कितना बचा होता है ये समझ पाना भी मुश्किल है। वैसे हिंदी के इस दिशा में जाने के पीछे वजह जानने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जगह के रिसेप्शन को भी पार (क्रॉस) करने के लिए अंग्रेजी ही काम आती है।


सिर्फ हिंदी के भरोसे अगर आप घर से बाहर निकले हैं तो, मन में ही हिंदी को संजोए हुए चुपके से ही रिसेप्शन पार कर गए तब तो ठीक है नहीं तो, हिंदी के सवाल के जवाब में अंग्रेजी में may i help u आपको फिर से बाहर कर सकता है। मेरे जैसे हिंदी जानने-बोलने-पढ़ने-समझने-लिखने वालों की मंडली तो आपस में मजाक भी कर लेती है कि किसी मॉल या किसी बड़ी-छोटी जगह के रिसेप्शन पर या किसी सेल्स गर्ल से बात करने के लिए बीवी को आगे कर ही काम निकलता होगा। क्योंकि, बड़े मॉल्स, स्टोर्स में तो कुछ खऱीदने के लिए जेब में पैसे होने ही जितना जरूरी है कि आपमें अंग्रेजी में बात करने का साहस हो। शायद ये साहस लड़कियों में कुछ ज्यादा होता है।


खैर बॉलीवुड के कलाकार हिंदी की स्क्रिप्ट पढ़ने से मना कर रहे हैं। इस खबर को पढ़ने के बाद मुझे ये लिखने की सूझी। इसी खबर में गुलजार ने कहा था कि ये तो बहुत पहले से होता आ रहा है। लेकिन, मुझे जो लगता है कि ये पहले से होता आ रहा है या इसमें कलाकारों का कितना दोष है इस पर बहस से ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि क्या हम सचमुच ये मान चुके हैं कि हिंदी छोटे लोगों की, हल्का काम करने वालों की भाषा है। जो भी हिंदी बोले उसे छोटे दर्जे का मानना और फिर उस अपने से मान लिए छोटे दर्जे की जमात के लिए हिंदी समझना-बोलना कहां तक ठीक है। यहां तक कि अपने घर में पाले जानवरों से भी ये अंग्रेजीदां लोगों की जमात अंग्रेजी में ही बात करती है क्योंकि, इनके घर के बच्चे उन जानवरों से भी बात करते हैं उनके साथ खेलते हैं। इसलिए घर के पालतू कुत्ते से हिंदी में बातकर ये अंग्रेजीदां लोग अपने बच्चों को बिगाड़ना नहीं चाहते, डर ये कि कहीं बच्चा भी हिंदी न बोलने लगे।


हिंदी की मुश्किल शब्द का कई बार में इस्तेमाल कर चुका हूं। लेकिन, इसका कतई ये आशय नहीं है कि मैं हिंदी की सिर्फ दारुण कथा लेकर बैठ गया हूं। दरअसल मैं सिर्फ इस बात की तरफ इशारा करना चाह रहा हूं कि क्या हम अपनी भाषा को छोटे लोगों की भाषा समझकर अपनी खुद की इज्जत मिट्टी में नहीं मिला रहे हैं। अंग्रेजी आना और बहुत अच्छे से आना बहुत अच्छी बात है। लेकिन, हिंदी के शब्दों में अंग्रेजी मिलाकर रोमन में लिखी हिंदी बोलने वाले हिंदी का अहसास कहां से लाएंगे क्योंकि, उसमें तो अंग्रेजी की feel आने लगती है।

ये सही है कि अंग्रेजी के विद्वान बन जाने से दुनिया में हमें बहुत इज्जत भी मिली और दुनिया से हमने बहुत पैसा भी बटोर लिया। लेकिन, अब हम इतने मजबूत हो गए हैं कि दुनिया हमारी भाषा, हमारे देश का भी सम्मान करने के लिए मजबूर हो। और, ये तभी हो पाएगा जब हम खुद अपनी भाषा अपने देश का सम्मान करें। चूंकि, मीडिया का ही सबसे ज्यादा असर लोगों पर होता है और मीडिया में भी खबर देने वाले चैनल और फिल्मी कलाकार लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं। इसलिए इस सम्मान को समझने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी भी इन्हीं पर है। वैसे मुझे भी कभी-कभी लगता है कि जब अंग्रेजी से ही तरक्की मिल रही हो तो, हम क्यों बोलें हिंदी।

Sunday, September 13, 2009

भविष्य का मीडिया है वेब जर्नलिज्म

रवि रतलामी जी से पहली बार मुलाकात कुछ दिन पहले हुई। वर्चुअली यानी नेट के जरिए तो, बहुत पहले से भेंट है लेकिन, आमने-सामने की पहली मुलाकात मुंबई में संभव हुई। वो, भी तब जब मैंने मुंबई साढ़े चार साल के बाद छोड़कर दिल्ली का रुख कर लिया। मुलाकात में मैंने उनको इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की पत्रिका बरगद की एक प्रति दी। जिसमें वेब जर्नलिज्म पर मेरा भी एक लेख है। रविजी ने कहा- इसे अपने ब्लॉग पर क्यों नहीं डालते हैं। अभी चिट्ठा चर्चा पर गया तो, उनकी चिट्ठा चर्चा देखा तो, फिर याद आ गया। ये फरवरी में लिखा गया लेख है।


भविष्य का मीडिया है वेब जर्नलिज्म

 भारत में इंटरनेट पत्रकारिता अभी अपने शैशवकाल में है। लेकिन, अगले 10 सालों में ये माध्यम मजबूत और विश्वसनीय माध्यम बनकर उभरने वाला है। इस माध्यम की सबसे अच्छी बात ये है कि इसमें टीवी मीडिया की तेजी और अखबार की ज्ञान बढ़ाने वाली पत्रकारिता दोनों का अच्छा गठजोड़ है। इंटरनेट की बढ़ती महत्ता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि शायद ही आज कोई ऐसा बड़ा अखबार या टीवी चैनल होगा- जिसकी अपनी वेबसाइट नहीं है। यहां तक कि राज्य और जिला स्तर का मीडिया भी तुरंत चाहता है कि इंटरनेट पर उसकी उपस्थिति हो। लेकिन, इंटरनेट पत्रकारिता- टीवी और अखबार दोनों से ही कई मायने में अलग है।


अखबार जहां सिर्फ पत्रकारिता यानी खबर लिखना और उसे छपने के लिए दे देना भर होता है। वहीं टीवी एक टीम वर्क होता है जहां किसी खबर के आने से लेकर उसके दर्शकों तक पहुंचने की एक लंबी प्रक्रिया होता है और उसे किसी की भी एक छोटी सी गलती बड़ी से बड़ी खबर का बंटाधार हो जाता है। लेकिन, नेट की पत्रकारिता इन दोनों ही माध्यमों से बिल्कुल अलग है। अभी चूंकि ये अपने शुरुआती दौर में है इसलिए ज्यादातर न्यूज वेबसाइट किसी अखबार या फिर टीवी चैनल की ही खबरों को इंटरनेट पर बेहतर तरीके से सजाकर पेश कर रहे हैं। लेकिन, जैसे-जैसे देश में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ेगी और बड़े-छोटे शहरों से निकलकर इंटरनेट गांव-कस्बों तक पहुंचेगा तो, न्यूज वेबसाइट को इसके लिए अलग से लोगों को रखने की जरूरत होगी। एक अनुमान के मुताबिक, 2008 के आखिर तक भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या 5 करोड़ तक पहुंच गई है। अगर इसमें मोबाइल के जरिए नेट का इस्तेमाल करने वाले भी जोड़ दिए जाएं तो, ये संख्या 5 करोड़ से ज्यादा होनी चाहिए।


इंटरनेट पहले तो, पूरी तरह से अंग्रेजी भाषा के जाननने वालों की ही बपौती था। लेकिन, अब इसमें दूसरी भाषाओं के लिए भी संभावनाएं बढ़ रही हैं। इसको इसी से समझा जा सकता है कि 1998 के बाद से अंग्रेजी वेबसाइट की तुलना में गैर अंग्रेजी वेबसाइट ज्यादा शुरू हो रही हैं। यूनिकोड के आने के बाद इंटरनेट पर हिंदी का विकास भी तेजी से हुआ है। अब तो ज्यादातर कंपनियां लैपटॉप और डेस्कटॉप को हिंदी भाषा के साथ आसानी से काम करने वाला बना रही हैं। क्योंकि, उन्हें पता है कि दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा इस्तेमाल में आने वाली हिंदी भाषा के बिना आने वाले में जमाने में उनका बाजार नहीं बन सकता।


दुनिया भर में 50 करोड़ से ज्यादा लोग हिंदी बोलते हैं। इसमें हिंदी जानने-समझने वालों को भी शामिल किया जाए तो, ये संख्या 80 करोड़ से ज्यादा हो जाती है। भारत से बाहर अमेरिका में हिंदी बोलने वाले एक लाख से ज्यादा हैं तो, मॉरीशस जैसे देश में करीब सात लाख लोग हिंदी ही बोलते हैं। दक्षिण अफ्रीका में हिंदी बोलने वाले करीब 9 लाख लोग हैं। सिंगापुर, यमन, युगांडा, न्यूजीलैंड, जर्मनी में भी हिंदी जानने-समझने वाले कम नहीं हैं। जाहिर है ये सारे लोग हिंदी खबरें देने वाले अखबार या टीवी आसानी से इन तक पहुंच नहीं बना सकते। लेकिन, इंटरनेट से तो, दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति दुनिया के किसी भी कोने से अपने काम की खबर चुन सकता है। और, यही इंटरनेट पत्रकारिता की सबसे बड़ी ताकत है।


हिंदी मीडिया में इंटरनेट इसलिए भी और उपयोगी हो जाता है क्योंकि, हिंदी न्यूज चैनलों की अंधी TRP (Television Rating Points) की रेस में जिस तरह से बिना सोचे समझे खबरें परोसीं जा रही हैं उसमें खबरों की विश्वसनीयता और उसका प्रभाव कम हो रहा है। ऐसे में तुरंत खबर और पूरी समझ के साथ विश्लेषण देने की क्षमता रखने वाली इंटरने पत्रकारिता बेहद प्रभावी हो सकती है।


वेब पत्रकारिता की एक और खूबी ये कि इसमें गंभीर लेख और गंभीर पाठक दोनों का गजब का मेल होता है। भारत में वेब जर्नलिज्म को अभी करीब दशक भर ही हुए हैं। लेकिन, देश में न्यूज वेबसाइट की खबरों पर लोगों का भरोसा बढ़ रहा है। यहां तक कि खुद टीवी चैनल और अखबार भी इसीलिए अपना इंटरनेट एडिशन शुरू करते हैं जिससे एक अलग वर्ग में उनकी पहचान बने। नेट पर अंग्रेजी जानने वालों की पकड़ पहले से ही है। इसलिए शुरुआत में अंग्रेजी की ही न्यूज वेबसाइट शुरू हुईं। तरुण तेजपाल के tehelka.com ने इंटरनेट मीडियम को सुर्खियों में लाया लेकिन, उसके बहुत पहले 1995 में चेन्नई से निकलने वाले The Hindu ने अपना इंटरनेट एडिशन शुरू कर दिया।


अब देश के 50 से ज्यादा अखबार हैं जिनके इंटरनेट एडिशन हैं। क्योंकि, अखबार में जहां खबरों को संभालकर रखने की कवायद करनी होती है। वहीं टीवी में हर मिनट बदलने वाली खबर असर नहीं कर पाती। ऐसे में इंटरनेट पर लिखी गई खबर हमारी-आपकी – कहीं भी, कभी भी- वाली स्वतंत्रता और अपनी मर्जी की खबर पढ़ने की इच्छा पूरी करती है। अब तो ज्यादातर टीवी चैनल अपने वीडियो भी वेबसाइट पर डाल देते हैं और, इस बात का जमकर प्रमोशन भी करते हैं कि अमुक वीडियो आप कभी भी हमारी वेबसाइट पर देख सकते हैं। नेटवर्क 18 का हाल ही में शुरू हुआ पोर्टल in.com और cnn ibn की वेबसाइट ibnlive.com इसका बेहतर इस्तेमाल कर रहे हैं। ये इटरनेट की ताकत है कि bbc.com 32 भाषा में पढ़ने को मिल सकता है।


लेकिन, इंटरनेट की ये पत्रकारिता वरदान है खासकर बिजनेस पत्रकारिता के लिए। ग्लोबलाइजेशन के बाद बिजनेस की खबरों को जानने समझने की इच्छा सबमें बढ़ी है। क्योंकि, जेब में पैसा बढ़ाने की जुगत हर कोई खोज रहा है। अब अगर ये समझ उसे कभी भी, कहीं भी- अपनी सहूलियत से मिले तो, उसकी पहुंच और असर बढ़ जाता है। और, आज जब देश के हर कोने से लोगों की बिजनेस-बाजार में रुचि बढ़ी है तो, हिंदी में बिजनेस की खबरों का बाजार भी बड़ा हुआ है।


देश के पहले बिजनेस चैनल cnbc tv18 ने इसीलिए 13 जनवरी 2005 में हिंदी में बिजनेस का चैनल cnbc आवाज़ शुरू किया जो, 2008 आते-आते अपने ही अंग्रेजी चैनल cnbc tv18 से भी बड़ा हो गया। और, देश का नंबर एक बिजनेस चैनल बन गया। अब चार साल पूरे होने पर आवाज़ ने हिंदी में बिजनेस की सारी खबरें देने के लिए www.awaazkarobar.com शुरू किया। इस वेबसाइट की सबसे बड़ी खासियत ये है कि आवाज़ चैनल पर दिखने वाली हर खबर यहां विस्तार से दिखती है और, शायद ये अकेली वेबसाइट होगी जिस पर टीवी की तरह मार्केट और बिजनेस एनालिस्ट की राय वीडियो और टेक्स्ट दोनों ही तरीकों में मिल जाती है। ये एक अनोखा प्रयोग है। यही वजह है कि www.awaazkarobar.com अपनी शुरुआत के महीने भर में ही हिंदी की नंबर एक बिजनेस वेबसाइट बन गई है।


इंटरनेट मीडिया के बढ़ने की एक और बड़ी वजह है इसकी इंटरैक्टिविटी। इस माध्यम का जितना बेहतर इस्तेमाल लोगों का मीडियम बनने में किया जा सकता है उतना, किसी और मीडिया का नहीं। ज्यादातर वेबसाइट खुद को ज्यादा से ज्यादा इंटरैक्टिव बनाने की कोशिश कर रही हैं। इसमें किसी खास वक्त पर किसी खास मेहमान से किसी खास विषय पर होने वाली ऑनलाइन चैट हो, हर रोज के ज्वलंत, समसामयिक मुद्दे पर चैट हो या इंटरनेट की हर खबर पर पाठकों की राय। ये ऐसी चीज है जिससे पढ़ने वाले को ये अहसास होता है कि हमारी कही गई बात की अहमियत है तो, वो उस खास वेबसाइट से ज्यादा जुड़ाव महसूस करता है।


इंटरनेट से परिचय किसी का भी सबसे पहले e-mail के जरिए होता है। और, इस ताकत को बखूबी पहचाना है rediff.com और yahoo.com जैसी वेबसाइट ने। दोनों ही जगहों पर असली मायने में इंटरनेट की पत्रकारिता और खबरों का अंदाज देखने को मिलता है। होमपेज पर ही login करने से पहले ही खबरों का भंडार इस रोचक अंदाज में परोसा होता है कि एक बार आप उसमें घुसे तो, खबरों के जाल से बाहर निकलने में फिर काफी समय लग जाता है। यही वजह है कि rediff.com भारत की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली न्यूज वेबसाइट में शामिल है। खासकर NRI (non resident indian) को तो ये बेहद पसंद है। यहां हर खबर को पड़ने की मारामारी भी नहीं होती है। बड़ी खबरों के अलावा इनके रिपोर्टर देश के अलग-अलग हिस्सों से रोचक खबरों को अलग अंदाज में पेश करते हैं। yahoo.com पर अंग्रेजी में खबरें मिलती हैं तो, हिंदी खबरों के लिए yahoo ने जागरण अखबार की वेबसाइट jagran.com से समझौता किया है।


लेकिन, अच्छी वेब पत्रकारिता के लिए जरूरी है कि इंटरनेट और कंप्यूटर के बारे में भी अच्छी जानकारी हो। क्योंकि, खबर लिखने के अंदाज के साथ ये भी जरूरी है कि वो, अलग-अलग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करने वालों को बेहतर तरीके से दिखे भी। अगर वेबसाइट में वीडियो का इस्तेमाल है तो, ये भी जरूरी है कि उसकी साइज इतनी बड़ी न हो कि वो, कम स्पीड वाले नेट पर चल ही न पाए क्योंकि, अभी भारत में बहुत कम स्पीड वाली सर्विस ही उपलब्ध है। 3जी आने के बाद इस स्थिति में बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। इसके अलावा वेब जर्नलिस्ट के लिए ये बहुत जरूरी है कि वो, ये सुनिश्चित करेकि उसकी खबर सर्च इंजन में कैसे ऊपर के पन्नों पर आए। इसके लिए जरूरी है कि ऐसे की वर्ड डाले जाएं जिसका इस्तेमाल किसी जानकारी के लिए ज्यादा से ज्यादा लोग करते हों।


इंटरनेट की पत्रकारिता का एक और खास पहलू है ब्लॉगिंग। अभी वैसे ब्लॉगरों को जर्नलिस्ट माना जाए या न माना जाए- इस पर बड़ी बहस चल रही है। लेकिन, जब मीडिया घरानों पर पक्षपात किसी खास औद्योगिक घराने, पक्ष, पार्टी के साथ खड़े होने से भरोसा डगमगाता हो तो, स्वतंत्र ब्लॉगर भरोसा जगाते हैं। अच्छी बात ये है कि आप बाध्य नहीं होते। आप चार ब्लॉगरों के विचार जान-पढ़कर उनसे निष्कर्ष निकाल सकते हैं। और, अब तो किसी भी बड़े-छोटे (अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय-स्थानीय) मुद्दे पर ब्लॉगरों की राय काफी अहम रोल निभाती है। इस समय देश में 10 हजार से ज्यादा हिंदी ब्लॉगर हैं।


यही सब वजहें हैं कि वेब जर्नलिज्म आने वाले दिनों में सबसे मजबूत माध्यम बनकर उभरेगा। सस्ते होते लैपटॉप, डेस्कटॉप, सस्ता इंटरनेट और तेज स्पीड इंटरनेट कनेक्शन, ये सब मजबूत वेब जर्नलिज्म के मददगार बनेंगे। लेकिन, अभी इसे बहुत लंबा रास्ता तय करना है। क्योंकि, Internet and Mobile Association of India और IMRB के एक सर्वे के मुताबिक, भारत में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं की कुल 1249 वेबसाइट ही हैं। सफर लंबा लेकिन, भविष्य उज्ज्वल है।

Saturday, September 12, 2009

बंबई, ब्लॉगर, बाजार, भाषण

कई महीनों बाद मुंबई जाने का अवसर हाथ आया था तो, ऐसा हो ही नहीं सकता था कि मैं इसे छोड़ देता। दरअसल, अनीताजी के मन में सेमिनार कराने की इच्छा ने मुझे ये अवसर प्रदान किया था। अनीताजी के ब्लॉग पर सेमिनार की चर्चा है। इसी सेमिनार के लिए दिल्ली से मुंबई की रेलयात्रा का विवरण बतंगड़ पर है। मैंने सोचा कि सेमिनार में दिया गया मेरा भाषण भी अब पोस्ट किया जा सकता है।



The Role of MEDIA in Financial Market Awareness

Money … Market .. mudra ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो, एक दूसरे के समानार्थी यानी synonymus हैं। और, इन सबको आम लोगों तक पहुंचाने में एक और M यानी Mumbai … का बड़ा रोल रहा है। दरअसल यहां विषय रखा गया है The Role of MEDIA in Financial Market Awareness। लेकिन, मुझे लगता है कि MEDIA से भी पहले अगर किसी ने फाइनेंशियल मार्केट के बारे में सबसे ज्यादा लोगों को Aware किया उन्हें जानकार बनाया तो, वो है ये शहर मुंबई।


मुंबई शहर की पहचान मायानगरी के तौर पर होती है और वैसे भले लोग इसे INDIA’S FINANCIAL CAPITAL बोलते हैं लेकिन, जब सपने पूरे करने की बात होती है तो, ज्यादातर माना यही जाता है कि यहां आने वालों के सपने सिर्फ रुपहले पर्दे के जरिए ही पूरे होते। लेकिन, सच्चाई ये है कि इस शहर के एक किनारे में दिखती गोल सी इमारत है जो, देश के बड़े हिस्से के सपने पूरे करने में मददगार बन रही है। बांबे स्टॉक एक्सचेंज- इस इमारत के बिना इस शहर की बात अधूरी रह जाएगी। बांबे स्टॉक एक्सचेंज की इमारत शेयर बाजार का प्रतीक बन गई है ये अलग बात है कि बांबे स्टॉक एक्सचेंज से ज्यादा शेयरों का खरीदना बेचने इसी शहर के ..... 

Friday, September 11, 2009

ये मानेगी नहीं जब करेगी नंगई ही करेगी

बहुत दिनों से आपके घर में कोई झगड़ा नहीं हुआ। बहुत दिनों से आपके परिवार के लोगों ने एक दूसरे के खिलाफ साजिश रचनी बंद कर दी है। बहुत दिनों से पड़ोसी के परिवार को देखकर आप बेवजह ईर्ष्या नहीं कर रहे हैं तो, परेशान मत होइए। भारतीय टेलीविजन इतिहास की सबसे बड़ी अदाकारा फिर से अपनी सारी अदा के साथ वापसी कर रही है।


एकदम सही पहचाना आपने- ये हैं क . क . क किरन नहीं। क . क . क K फैक्टर वाली एकता कपूर। वही अपने चिरयुवा जीतेंदर बाबू की काबिल बिटिया। अब एकता कोई ऐसा सीरियल बनाने जा रही हैं जिसमें सिर्फ नंगई होगी। क्यों-क्योंकि, सास-बहू की लड़ाई, पति-पत्नी के ढेरो अवैध संबंधों की चाशनी में भी कपूर साहिबा के धारावाहिक कोई देख नहीं रहा है। सब रियलिटी शो देख लेते हैं या फिर बालिका वधू या लाडो को देख ले रहे हैं।


एकता कपूर दुखी हैं कि सारे टेलीविजन दर्शकों ....

Wednesday, September 09, 2009

ये अभी और शर्मसार करेंगे

5 star embarrassment – ये शब्द ठीक से मेरे अनुभव में कल पहली बार आया। वैसे अंग्रेजी भाषा ही है कि कब कौन प्रेम में लड़िया रहा है और उसी शब्द पर कौन गुस्से से लतिया रहा है। खास फर्क मालूम नहीं पड़ता। खैर, कल ये 5 star embarrassment हुआ है यूपीए सरकार को।


वजह बने हैं उनके 2 मंत्री। विदेश मंत्री एस एम कृष्णा और उनके डिप्टी साहब शशि थरूर। थरूर साहब तो बरसों यूनाइटेड नेशंस में रहे हैं और उन्हें महंगे होटलों की-शानो शौकत की आदत रही है। इसलिए शायद उन्हें अंदाजा ही नहीं लगा कि होटलों में रहने से कौन सा वो देश की जनता के साथ धोखा कर रहे हैं। भारतीय जनता के जरिए उनका चुनाव भी पहली बार हुआ है। इससे पहले के चुनाव तो, वो इलीट स्टाइल के लड़ते थे, कभी जीतते थे-कभी हारते थे। लेकिन, कृष्णा साहब तो, भारतीय जनता की नुमाइंदगी करते आ रहे हैं- क्या उन्हें भी समझ में नहीं आया कि वो, क्या कर रहे हैं। ...

Tuesday, September 08, 2009

भारतीयों में गुलामी का इनबिल्ट सॉफ्टवेयर

YSR रेड्डी की दुखद मौत के बाद आंध्र प्रदेश से करीब 150 लोगों की जान जाने की खबर आई है। कुछ लोगों ने अपने प्रिय नेता की मौत के बाद आत्महत्या कर ली। कुछ इस अंदाज में कि अब मेरे भगवान न रहे तो, हम रहकर क्या करेंगे। और, कुछ बेचारों ने आत्महत्या तो, नहीं की लेकिन, रेड्डी की मौत की खबर सुनने के बाद वो, ये सदमा झेल नहीं पाए। इससे जुड़ी-जुड़ी दूसरी खबर ये कि आंध्र प्रदेश से संदेश साफ है कि YSR रेड्डी का बेटा जगनमोहन रेड्डी की राज्य की बागडोर संभालेगा तो, राज्य का भला हो पाएगा। पिता के अंतिम संस्कार के समय टेलीविजन पर दिखती जगनमोहन की हाथ जोड़े तस्वीरें किसी शोक में डूबे बेटे से ज्यादा राज्य की विरासत संभालने के लिए तैयार खडे, दृढ़ चेहरे वाले प्रशासक की ज्यादा दिख रही है।



हालांकि, कांग्रेस हाईकमान के कड़े इशारे के बाद जगनमोहन का मुख्यमंत्री बनने का सपना फिलहाल हकीकत में बदलता नहीं दिख रहा है। लेकिन, सवाल यहां मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनने का नहीं है। सवाल ये है कि क्या ये नेताओं की भगवान बनने की कोशिश नहीं है जिसमें भगवान के खिलाफ खड़ा हर कोई राक्षस नजर आता है। जैसा दृष्य आज जगनमोहन को मुख्यमंत्री बनाने के लिए दिख रहा है ठीक वैसा ही दृष्य आज से कुछ साल पहले दिल्ली में देखने को मिला था जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का त्याग करने का एलान कर दिया था। अब बिना प्रधानमंत्री बने भी देश की सर्वोच्च सत्ता पर सोनिया गांधी ही काबिज हैं लेकिन, जगनमोहन को ये अच्छे से पता है कि कोई दूसरा मुख्यमंत्री बनेगा तो, पिछले 5 सालों से उनके इर्द गिर्द घूम रही राज्य की सत्ता की शक्ति का केंद्र कोई और बन जाएगा।

Monday, September 07, 2009

100 रुपए खुल्ला होता है

करीब 9 महीने बाद मुंबई जाने का मौका मिला। मुंबई राजधानी में दिल्ली से मुंबई के लिए सफर शुरू हुआ। मुंबई का रोमांच- मुंबई की भीड़, गणपति, मुंबई की नई पहचान ताजा बना बांद्रा-वर्ली सी लिंक- अपनी ओर खींच रहा था।



यात्रा शुरू हुई। मेरे सामने की चार सीटों पर सिर्फ एक महिला यात्री थीं। लेकिन, माशाअल्ला पर्सनालिटी क्या पूरा पर्सनालटा था। लंबाई-चौड़ाई सब ऐसी थी कि शायद उन्हें हमारी तरह साइड की बर्थ मिली होती तो, उनके लिए उसमें समाना मुश्किल होता। किसी संभ्रांत मुस्लिम परिवार की बुजुर्ग भद्र महिला थीं। उनको छोड़ने संभवत: उनकी भतीजी और दामाद आए थे। माशाअल्ला भतीजी भी आपा पर ही गई थी। भतीजी के पति ने ऊपर वाली बर्थ एकदम से ऊपर उठा दी जिससे आपा का सर शान से उठा रहे कोई तकलीफ न हो। और, चूंकि चारो सीटों पर वो अकेली ही थीं तो, इस इत्तफाक के बहाने दामाद ने पूरी आत्मीयता उड़ेल दी और आपा के ना-ना करने के बावजूद सीट ऊपर कर दी। एसी द्वितीय श्रेणी के कूपे की ऊपर वाली सीटें फोल्डिंग हैं और, अगर आपको भी संयोग मिले कि नीचे आप हों और ऊपर की सीट खाली हो तो, इसका मजा ले सकते हैं।


कुली आपा का सामान रख चुका था। उसे पैसे देने के लिए भतीजी ने पैसे निकाले तो, आपा ने मीठी आवाज में I have lot of change … कहकर पर्स में से एक साथ निकल आई ढेर सारी नोटों में से एक 100 की नोट कुली को थमा दी। कुली बेचारा इतनी अंग्रेजी अगर समझ गया होगा तो, सोचता कि काश ऐसे ही रोज 5-10 लोग चेंज देने वाले मिल जाते तो, जीवन सुधर जाता। खैर, 100 रुपया चेंज होता है ये जानकर थोड़ा तो मैं भी हदस गया था।

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी  9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...