Wednesday, April 30, 2008

टीटी-जेई सब मेरे गांव में ही रहते हैं, कहीं नहीं जाते

(अबकी छुट्टियों में मैं अपने गांव होकर लौटा हूं। शहरों में रहकर बमुश्किल ही ये अंदाजा लग पाता है कि गांव कैसे जी रहे हैं। वहां रहने वाले ऐसे क्यों होते हैं। शहर वालों जैसे क्यों नहीं रह पाते हैं। दोनों कहां जाकर बंटते हैं। गांवों में खासकर यूपी के गांवों में तो ऐसा ठहराव दिखता है जिसे, किसी को तोड़ने की भी जल्दी नहीं है। इसी ठहराव-बदलाव का मैं एक बड़ा चित्र खींचने की कोशिश कर रहा हूं। इसी श्रृंखला की ये चौथी कड़ी।)

मैंने पहली कड़ी में ही बताया था कि मेरे गांव में पिताजी की जेनरेशन में ज्यादातर लोग सरकारी नौकरी में थे। थोड़ा ऊपर-थोड़ा नीचे। और, जो नीचे या थोड़ा पीछे रह गए उन्होंने अपने बच्चों के जरिए अपनी अधूरी ख्वाहिशें पूरी करने की कोशिश की। गांव में उन्होंने अपने बच्चों के नाम जेई, गार्ड, टीटी रख दिए लेकिन, इनमें से कोई भी उसके आसपास भी नहीं पहुंच सका।

दोनों मेरे चचेरे दादा लगेंगे। एक रेलवे में ड्राइवर थे अब रिटायर हो गए हैं तो, दूसरे पीडब्ल्यूडी में अभी भी मेठ हैं। ड्राइवर दादा के दो लड़के हैं। एक का नाम है गार्ड दूसरे का टीटी। ये अलग बात है कि बड़ा गार्ड बनने के बजाए उनके ही जुगाड़ से किसी तरह से गार्ड का बक्सा ढोने की नौकरी पा गया तो, दूसरा ट्रेनों में टिकट चेक करने के बजाए खेती का काम देख रहा है लेकिन, ज्यादा पढ़ा लिखा न होने के कारण खेती का हिसाब भी बहुत अच्छा नहीं लग रहा है। टीटी की पत्नी यानी मेरी भाभी जो, शादी के बाद गांव की सबसे खूबसूरत बहुओं में से थी। इस बार उनकी शकल मुझे कुछ डरावनी सी लग रही थी।

टिटियाइन भाभी अब पहले की तरह हंसी-मजाक भी कम ही कर रहीं थीं। जबलपुर में अपने मामा के यहां पढ़ीं-लिखीं और बचपन में ही शादी हुई। आधार वही कि ससुर रेलवे मे ड्राइवर है। इलाहाबाद के सूबेदारगंज में बड़ा सा घर है। खैर, टीटी भैया कुछ कर नहीं पाए और भाभी के चेहरे की चमक धीरे-धीरे गायब होती गई। इस बार तो वो, अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही बुढ़ाई दिख रही थीं। ये भाभी वही हैं अन्नू की मां। भाभी ने बताया लड़ाई हे के बाद अन्नूआ क कुछ दिन के बरे हियां से हटाई देहे अही। बुआ के हियां रही तो, कम से कम झगड़ा झंझट तो न करी। ये बताते वक्त उनकी आंखों में ये डर साफ दिख रहा था कि बेटा कहीं बाप (टीटी) की तरह बेकार न रह जाए।

भाभी ने मुझसे पूछा- का भइया तू तो बंबइया होइ गया। अब कहां तू गांव अउब्या। का, इलाहाबादौ नाही आइ सकत्या। मैं सिर्फ मुस्कुराकर रह गया। मैं कम बोल रहा था। शायद उनसे संवाद के लिए मेरे पास शब्द कम हो गए थे। भाभी ने कहा- तू तो ऐसे चुपचुप बइठा अहा। जैसे बरदेखुआ आय होवा। मैंने भी थोड़ा मजाक किया अब तोहका का देखी तू तो बुढ़ाइ गइउ। फीकी हंसी हंसते भाभी ने कहा- भइया, हम तो बुढ़ाए गए। नानी बनि गए। तब मुझे ख्याल आया कि भाभी की बेटी, जिसकी उम्र अभी भी इतनी ही है कि वो, पढ़े-लिख-कुछ करे, के भी बच्चा हो गया है। सचमुच गांव बदलने में अभी बहुत समय लेंगे। शायद यही वजह थी कि पिछले साल मेरी शादी होने के पहले तक गांव में ये होने लगा था कि अरे भइया रमेंद्र (मेरा घर में बुलाने का नाम) क तो बियाहवै नाहीं होत बा। चाचा (मेरे पिताजी) मोट असामी (ज्यादा दहेज देने वाला) खोजत होइहैं औ का। जबकि, शादी के लिए मैं अपने करियर के थोड़ा सेट होने का इंतजार कर रहा था और पिताजी को बार-बार गच्चा दे रहा था।

खैर, गार्ड-टीटी का ये हाल ता तो, जेई का हाल भी कम नहीं है। पीडब्ल्यूडी में मेठ हमारे पट्टीदारी के दादा ने बेटे का नाम जेई सोचकर तो यही रखा होगा कि जेई न सही पीडब्ल्यूडी में बाबू तो हो ही जाएगा। लेकिन, वो भी आरईएस डिपार्टमेंट में मेठ से आगे न बढ़ पाए। पत्नी शहरी मिली। तेज थी, गांव के लड़कों (देवरों) से जरा खुलकर-हंसकर बात करती थी। इसलिए गांव के बूढ़े-बुजुर्ग जेइयाइन भाभी के चरित्र पर भी टिप्पणी करने से नहीं चूकते थे। बाद में भाभी की इसी योग्यता ने उन्हें पहले गांव का नेता और बाद में भाजपा महिला मोर्चा का बिहार ब्लॉक का अध्यक्ष बना दिया था। उनके साथ टिटियाइन भाभी भी कभी-कभी पार्टी की बैठकों में जाने लगीं। अच्छी बात बस इतनी है कि अभी भी उन लोगों में थोड़ा बहुत ही सही लेकिन, जोश (जिंदादिली ज्यादा सही शब्द होगा) बाकी है।

अगली कड़ी में गांवों में सूखती जमीन, जमीन का झगड़ा

सरकती जींस के नीचे दिखता जॉकी की ब्रांड और गांव में आधुनिकता

(अबकी छुट्टियों में मैं अपने गांव होकर लौटा हूं। शहरों में रहकर बमुश्किल ही ये अंदाजा लग पाता है कि गांव कैसे जी रहे हैं। वहां रहने वाले ऐसे क्यों होते हैं। शहर वालों जैसे क्यों नहीं रह पाते हैं। दोनों कहां जाकर बंटते हैं। गांवों में खासकर यूपी के गांवों में तो ऐसा ठहराव दिखता है जिसे, किसी को तोड़ने की भी जल्दी नहीं है। इसी ठहराव-बदलाव का मैं एक बड़ा चित्र खींचने की कोशिश कर रहा हूं। इसी श्रृंखला की ये तीसरी कड़ी।)

तो, मेरी नजदीकी बाजार में एयरटेल का टावर लग गया। अब हर हाथ में काम तो, सिर्फ नेताओं के भाषण में ही रह गया है लेकिन, हर हाथ में मोबाइल जरूर नजर आने लगा है। गांवों में नोकिया के सस्ते मोबाइल और बीएसएनएल के बाद गांव-गांव में पहुंचे एयरटेल, आइडिया के टावर ने सबके मोबाइल में सिगनल दे दिया है। और, जहां हवा, पानी, बिजली तक नहीं है वहां भी रिलायंस की फुल कवरेज मिलने लगी है। मोबाइल के चमत्कार से चमत्कृत होने की 2002 की एक घटना मुझे याद है। तब नया-नया बीएसएनएल का मोबाइल शुरू हुआ था। इलाहाबाद-लखनऊ रूट पर सारे रास्ते मोबाइल मिलता था। और, इसी वजह से मेरे गांव पर भी बीएसएनएल का सिगनल टूट-टूटकर मिल जाता था। मामा की लड़की की शादी में नजदीकी गांव के एक प्रधान के लड़के को सुबह का कुछ जरूरी काम याद आया और उसने आधी रात को कहाकि अब तो घर जाना ही पड़ेगा। हां, अगर बाबू को बताके आए होते तो, कोई बात नहीं थी। मैंने कहा तो, फोन कर लो। चूंकि प्रधानजी के यहां भी एंटीना वाला टेलीफोन लगा हुआ था। मैंने भी डरते-डरते बड़ा सा एंटीना वाला मोबाइल निकाला और इत्तफाकन फोन लग गया।

मोबाइल ने तो गांवों को बदला ही है। टीवी और विज्ञापन के जरिए ब्रांडेड प्रोडक्ट जिस तरह गांव को अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं। वो, मेरे लिए थोड़ा चौंकाने वाला अनुभव रहा। मुझे याद है कि पहले मैं एक वुडलैंड के जूते पहनकर गांव गया था तो, उसकी कीमत पूछने के बाद बाजार में गांव के ही एक सज्जन इस बात पर हंसे कि हजार रुपया का जूता पहिरब कउन बुद्धिमानी है। लेकिन, अब गांव के लड़के ब्रांडेड चड्ढियां पहन रहे हैं।

बुजुर्गों के पटरे वाली चड्ढी यानी कपड़े से कटवाकर नाड़ा वाली चड्ढी तो वैसे भी पुराने जमाने की बात हो चुकी ती। उसकी जगह वीआईपी और लड़कों में वीआईपी फ्रेंची ने ले ली थी। लेकिन, अब जॉकी ने सबका खेल बिगाड़ दिया है। और, ये जॉकी गांवों में भी नंगई फैला रहा है। नंगई गांव के लोगों को शहर के साथ आधुनिकता की दौड़ में साथ चलने का झूठा अहसास भी करा रही है। मैं चार साल पहले मुंबई आया था तो, अपने न्यूजरूम से लेकर सड़कों-लोकल में लड़के-लड़कियों की खिसकती पैंट (ज्यादातर जींस) के नीचे लड़कों की ब्रीफ और लड़कियों की पैंटी के ब्रांड दिख गए। और, अब पांच साल बाद गांव गया तो, मेरी मौसी का लड़का अंकुर जो, बेहद शर्मीला है (अभी हाईस्कूल में है) जब हम लोगों का पैर छूने के लिए झुका तो, उसकी आधी सरकी जींस से जॉकी की लाल मोटी पट्टी चमकती दिखी। गांव ने शहरों का ये बदलाव तो आत्मसात कर लिया है।

शहरों से आधुनिकता की दौड़ में साथ देने के लिए और भी बदलाव हुए हैं। प्रतापगढ़ के गावों में अगर बाभन के लड़के के बारे में अगर ये झूठा हल्ला भी उड़ जाए कि वो, सिगरेट, शराब पीता है। अंडा या मास-मच्छी खाता है तो, जिले का कोई बाभन तो, उसे अपनी लड़की देने को तैयार नहीं ही होता था। अब पंडितों की बारात में भी दारू पीकर उत्पात मचाने वाले बारातियों की पूरी जमात आ रही है। अब बस इतना बचाया जा रहा है कि सबके सामने तो नहीं पीता-खाता ना। लेकिन, बाभन होने का ढोल पीटने में कोई कमी नहीं है।

Tuesday, April 29, 2008

बाजार से बदलता गांव में दुराव और प्यार का समीकरण

(अबकी छुट्टियों में मैं अपने गांव होकर लौटा हूं। शहरों में रहकर बमुश्किल ही ये अंदाजा लग पाता है कि गांव कैसे जी रहे हैं। वहां रहने वाले ऐसे क्यों होते हैं। जैसे शहर वाले होते हैं। दोनों कहां जाकर बंटते हैं। गांवों में खासकर यूपी के गांवों में तो ऐसा ठहराव दिखता है जिसे, किसी को तोड़ने की भी जल्दी नहीं है। मैं पहले एक पोस्ट में समेटने वाला था। अब कोशिश करता हूं कि भले पोस्ट कई हो जाएं, कुछ ज्यादा बड़ा चित्र खींच सकूं।)

तो, मैं 5 साल बाद गांव गया लेकिन, घर की चाभी खो जाने की वजह से करीब दो साल से बंद पड़े घर में नहीं जा पाया। दादा (पिताजी के बड़े भाई) के यहां ही बैठना होता है। दादाजी साल डेढ़ साल पहले प्राइमरी के प्रिंसिपल से रिटायर हुए हैं। गांव में जिसे राजनीति कहा जाता है वो, करना उन्हें खूब आता है। हमारे बाबा स्वर्गीय श्री श्रीकांत त्रिपाठी शास्त्री रेलवे सर्विस कमीशन में थे और पिताजी बैंक में हैं। इसलिए दोनों भाइयों में बंटवारे के पहले तक दादाजी को किसी तरह की कोई चिंता नहीं थी। खेती में लगने वाला खर्च पिताजी देते थे और बदले में खाने भर का राशन शहर (इलाहाबाद) आ जाता था। गांव में एक अजीब से रुतबे की प्रतीक एक बंदूक (वही बंदूक जिसको निकालने की धमकी देने पर हमारा गांव घेरे दूसरे गांव के लोग भाग खड़े हुए और इसके अलावा तो, तीस साल से ज्यादा के समय में मुझे भी उसका इस्तेमाल याद नहीं है) भी दादा के नाम है। गांव की पहली और क्षेत्र में शायद तब गिनी-चुनी बंदूकें रहीं होंगी।

इस बंदूक का कोई इस्तेमाल नहीं होता सिवाय शादी-तिलक में द्वारचार में कुछेक गोलियां दागने के। मैंने भी एकाध बार तिलक में उससे गोली दागी है। अब तो हाल ये है कि शादी-तिलक में गोलियां किसी ने चलाईं तो, सबसे पहले मेरे ही गुस्से का शिकार होता है(गांव में रुतबा बढ़ाने वाली गोलियां अब शहरी जीवन जीते मुझे बुरी लगने लगी हैं)। खैर, दादाजी प्राइमरी में मास्टर थे। ब्राह्मण थे। और, क्षेत्र में अच्छी प्रतिष्ठा होने से हमारी ग्रामसभा में जीतने वाले प्रधान के लिए उनका आशीर्वाद जरूरी होता था। हमारे ट्रैक्टर पर बैठकर कई प्रधानों ने विजय जुलूस निकाला और सबसे पहले दादा का ही आशीर्वाद लेने आए। ये अलग बात है कि पिछले करीब डेढ़ दशक में लगातार उनके आशीर्वाद का मतलब बस कुछ वोटों तक सिमट गया और अब शायद वो अपने परिवार भर का वोट ही रह गया है।

अब हमारे भैया (दादाजी के बड़े लड़के) दादा से कह रहे हैं कि अब आप चुनाव लड़ जाइए। करीब चालीस सालों से सबको चुनाव हराने-जिताने का दम भरने वाले मेरे दादा डर रहे हैं। कहेन चुनावै लड़ै क होई तो, फिर कम से कम जिला पंचायत क लड़ब। प्रधानी लड़के इज्जत थोड़ो न गंवावै क बा। वैसेओ जब तक राजा (कुंडा के विधायक रघुराज प्रताप सिंह) उधरान अहैं इज्जत इही म बा कि चुप मारके बैठा रहा। न जीता तो, समाज में इज्जत जाई औ जीत गया तो, राजा के दरबार में हाजिरी दैके इज्जत गंवावा। इलाहाबाद-लखनऊ के रास्ते पर कुंडा के पहले लालगोपालगंज बाजार से हमारे गांव के लिए मुड़ना होता है। बाजार में सीमेंटेड सड़क बन रही थी। पूछने पर मेरे मौसी के लड़के लवकुश ने बताया कि ये सड़क लालगोपालगंज की स्थानीय परिषद का अध्यक्ष बनवा रहा है। और, ये बस बाजार और उससे थोड़ा आगे तक ही बनेगी। साथ ही खबर ये भी सुनने को मिली कि लालगोपालगंज बाजार से प्रतापगढ़ की डबललेन सड़क राजा ने रुकवा दी। अब ये पता नहीं कितनी सच है लेकिन, हर दूसरे कदम पर एक रजवाड़े वाले प्रतापगढ़ में उन्हीं राजाओं के चुनाव जीतने के बाद बदहाल सड़कें इस खबर पर यकीन करने को कहती हैं। क्योंकि, विकास ऐसे स्वयंभू राजाओं के लिए तो, मुश्किल ही बनता है ना।

और, ये गांव के समाज में इज्जत का मसला भी अजब है। शहर में पैसा, पोस्ट इज्जत दिलाने में मदद करती है। लेकिन, गांव में जाति और जाति के बाद जुड़ा पैसा और विद्वता (पता नहीं आज के संदर्भ में कितनी बची रह गई है) इज्जत दिलाती है। हमारे ही एक चचेरे दादा हैं जो, इलाहाबाद के एक इंटर कॉलज में लेक्चरर हैं। खुद भी अकेले थे, उनके बेटा भी अकेला है। इस वजह से आर्थिक स्थिति भी ठीक-ठाक है। शहर में हिंदी के अध्यापक हैं लेकिन, गांव में पुलिस थाने में उनका बहुत जुगाड़ होता था। जुगाड़ की वजह ये कि वो किसी न किसी अखबार के बिहार संवाददाता बने रहते थे। और, छठहें छमासी अखबार में छपी अपनी एक खबर दिखाकर बाघराय (हमारा पुलिस थाना) में आने वाले हर दरोगा को काबू में किए रहते थे। खैर, गांवों में आए बदलाव की वजह से अब ये हथकंडा थोड़ा काफी कमजोर पड़ गया है।

इस बार मैं गांव गया तो, हमारी नजदीकी सियारामगंज बाजार में ग्रामीण पत्रकार दादा की जमीन पर एयरटेल का टावर खड़ा था। पता चला किराए पर दिया है। आज ये जमीन उनको कमाकर दे रही है लेकिन, इसी जमीन ने उन्हें समाज में हंसी का पात्र बना दिया था। हंस तो सभी जातियां रही थीं। सारे बाभनों और कुछ ठाकुरों ने तो उनको न्यौतना भी बंद कर दिया। दरअसल, दादा को किसी ने कहा कि सुअर पालन से अच्छी कमाई हो सकती है। गांव के बगल के एक पासी को उन्होंने सुअर पालने के लिए रखा और उसे वही जमीन दे दी थी। पता नहीं कमाई कितनी हुई लेकिन, समाज निकाला का दबाव ऐसा बनाकि उन्हें परंपरा से हटकर अपनी कमाई का नुस्खा बंद डब्बे में डालना पड़ा। अब बेटा उसी बाजार में सरिया, सीमेंट, बालू बेच रहा है, अच्छी कमाई कर रहा है।

हमारी नजदीकी बाजार सियारामगंज भी गांवों के सामाजिक बदलाव की गजब की मिसाल है। पंद्रह साल पहले तक एक ठाकुर साहब की तीन दुकानें थीं। जिसमें सीमेंट, सरिया से लेकर घर का हर जरूरी सामान, रस्सी, राशन का तेल सब मिलता था। ठाकुर साहब सेना में सिपाही रहे थे। इसके अलावा बाजार में बस गिनी-चुनी दुकानें थीं। कुछ चाय-समोसा टाइप की। फिर धीरे-धीरे ठाकुर-बाभनों के बेरोजगार लड़कों के लिए उनके घर के लोगों ने, खासकर शहरों में कमा रहे लोगों ने बाजार में ही दुकानें बनवाकर दे दीं। अब एक ही लाइन में बाभन, ठाकुर, बनिया, अहिर, चमार, पासी (इन जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किसी को कमतर या ज्यादा दिखाने के लिए नहीं बल्कि, गांव की सामाजिक स्थिति को शीशे में दिखाने की कोशिश के लिए है) सबकी दुकानें हैं। दुकानों में भी कोई बंटवारा नही। बाभन ठाकुर भी चाय-पान-कपड़ा बेच रहे हैं और दूसरे भी। जाति नहीं काम पैमाना बन रहा है। ऐसा नहीं है कि जाति की ठसक पूरी तरह से खत्म हो गई है लेकिन, काम की जरूरत उसे दबा रही है। अब उसी आधार पर दोस्ती-यारी और दुराव के मापदंड भी बदल रहे हैं।

Monday, April 28, 2008

कहीं कुछ बदल तो रहा है लेकिन, अजीब सा ठहराव आ गया है

(अबकी छुट्टियों में मैं अपने गांव होकर लौटा हूं। शहरों में रहकर बमुश्किल ही ये अंदाजा लग पाता है कि गांव कैसे जी रहे हैं। वहां रहने वाले ऐसे क्यों होते हैं। जैसे शहर वाले होते हैं। दोनों कहां जाकर बंटते हैं। दरअसल यही गांव और शहर का फर्क भारत और इंडिया का फर्क है। बोधिसत्व अपनी एक पोस्ट में मुंबई में इलाहाबाद खोज रहे थे। गांव खोज रहे लिखा था कि उनके गांव में कोई 300 साल से आकर बसा नहीं है। लेकिन, क्या यूपी के गांव ऐसे बचे हैं कि वहां कोई बसने जाए। मैंने उस पोस्ट पर टिप्पणी भी की थी कि दो-चार कदम चल चुके हर आदमी को ऐसे ही गांव याद आता है। और, ये भी कि मैं इस बार गांव जरूर होकर आऊंगा। लेकिन, गांवों में खासकर यूपी के गांवों में तो ऐसा ठहराव दिखता है जिसे, किसी को तोड़ने की भी जल्दी नहीं है। जो, वहां के हैं भी पहला मौका मिलते ही कहीं और किसी शहर में बस जाना चाहते हैं। मैं पहले इसे एक पोस्ट में समेटने वाला था। अब कोशिश करता हूं कि भले पोस्ट कई हो जाएं, कुछ ज्यादा बड़ा चित्र खींच सकूं।)

करीब 5 साल बाद मैं अपने गांव गया। प्रतापगढ़ जिले की कुंडा तहसील मे बिहार ब्लॉक (विधानसभा भी) में मेरा गांव पड़ता है। अपने ब्लॉक में विकास की रुकी गाड़ी देखकर लगता है कि क्या यहीं सोचकर ब्लॉक को हिंदी में विकासखंड कहा जाता है। जबकि, अंग्रेजी में ये block है। सच्चाई में यूपी के ज्यादा विकास खंड अंग्रेजी में blocked ही हैं। इससे पहले बाबा के देहांत के साल भर बाद उनकी बरसी में आखिरी बार गांव गया था। देहरादून में तब अमर उजाला में था। मारामारी में आया और सुबह आया। समजा-जंवार में सबके खाने के बाद मैं भी इलाहाबाद वापस लौट आया था। अगले दिन मेरी वापसी की ट्रेन थी। उसके बाद नौकरी करने मुंबई आ गया। मुंबई से चार सालों में कई बार में इलाहाबाद गया लेकिन, हर बार व्यस्तता की वजह से प्रतापगढ़ अपने गांव जाना नहीं ही हो पाता था। इस बार मैं तय करके गया था कि गांव जाऊंगा ही जाऊंगा।

तय करके गया था इसलिए सायास गांव पहुंचा भी। चिलचिलाती धूप में हमलोग करीब 12 बजे गांव के लिए इलाहाबाद में अपने मोहल्ले दारागंज से निकले। 1.30 बजे मैं अपने गांव चंदई का पुरवा में था। सिया ग्रामसभा के कई पुरवा में से एक हमारा गांव चंदई का पुरवा भी है। हमारे गांव के एक तरफ कोयरानी है जिसमें ज्यादातर यादव जाति के हैं। दूसरी तरफ लाल का पुरवा है जिसमें पिछड़े और दलित जातियों के लोग हैं। बीच में हमारा बाभनों का गांव हैं। इसमें करीब 20-25 घर हम लोगों यानी सोहगौरा त्रिपाठी (ब्राह्मणों में भी खुद को उच्च मानने वाले त्रिपाठी) का है। इसके अलावा एक घर शुक्ला का है। वैसे, पिताजी बताते हैं कि शुक्ला और त्रिपाठी एक-एक घर ही थे लेकिन, त्रिपाठी लोगों का परिवार बढ़ता गया और, शुक्ला थमे रह गए क्योंकि कई पीढ़ियों से उनके यहां एक-एक बेटे ही होते आए। पहली बार मेरी जेनरेशन में दो बेटे हैं। और, थोड़ा सा कटके पड़ान है जिसमें करीब 10 घर पांडे ब्राह्मण हैं।

शुक्लाजी के यहां कभी किसी ने नौकरी नहीं की। या यूं कहें कि अकेले हिस्सेदार होने की वजह से नौकरी वाहियात लगती थी। और, ये भी कि इतनी जमीन है उसे कौन देखेगा। लेकिन, खेती से एक जमाने में होने वाली जबरदस्त कमाई (क्योंकि, तब नौकरी में इतने पैसे नहीं मिलते थे) और उससे भी ज्यादा जमींदारी वाली इज्जत अब बोझ लग रही है। जमीन के ही गरुर में उनके घर में कोई बहुत पढ़ भी नहीं पाया। दूसरी तरफ त्रिपाठी लोगों में पढ़ाई और नौकरी के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मेरे पिताजी की जेनरेशन में ज्यादातर लोग नौकरी में हैं। और, बड़ी संख्या में एमए किए हुए हैं। उसी नौकरी की कमाई से सबके इलाहाबाद में घर बन गए हैं। गांव में भी अब कच्चा घर तो मुझे किसी का दिखता नहीं। ये अलग बात है कि कई घरों में ईंट जोड़कर छत तो डाल दी गई लेकिन, प्लास्टर और पुताई की बाट घर अब भी जोह रहे हैं। पांडे लोगों का भी हाल शुक्लाजी जैसा ही है। बस एक पांडेजी की थोड़ा ज्यादा इज्जत है भले ही वो गांव 4-6 साल बाद दिखें। वजह ये कि वो, पीडब्ल्यूडी में एकाउंटेंट थे और उनका बेटा रुड़की से इंजीनियरिंग करके बड़ी कंपनी काम कर रहा है।

खैर, जब हम लोग उस दिन गांव पहुंचे तो, दादा (पिताजी के बड़े भाई) नए वाले घर में तखत पर बैठे थे। भैया दही का शरबत बनाकर बाल्टी में ले आए और आग्रह ये कि हम पांच लोग हैं तो, पूरा खत्म ही हो जाना चाहिए। खैर, शरबत खत्म होते-होते दादा ने धीरे से कहानी सुनानी शुरू की। बचि ग नाही तो अन्नू तो गोली चलवाइ देहे होतेन। पिताजी ने पूछा- काहे का भ। अरे कुछ नाही लाल का पुरवा के अहिरन से अन्नू क सियारामगंज बाजार (कई गावों की सामूहिक बाजार) में झगड़ा भ। लपटा-झपटी के बाद अन्नू भागि आइए लेकिन, कई लड़िकन मिलके फिर अन्नू क बांसे क कोठी के लगे लपट लेहेन। ऊ तो, कहा- जेई क मेहरारू देख लीहिन औ गोहार लगाइन तो सब दौड़ेन। औहमू से 100-150 अहिर सब गांव छाप लेहेन। हम पूछत रहि गए का भ बतावा लेकिन, लड़िकन मानै क तैयारै नाहीं। फिर जौ हम कहे निकार बंदूक तौ भगेन सब। अन्नू हमारे ही पट्टीदार का नाती है जो, गांव में सबसे सीधे गिने जाते है। और, जिनके दरवाजे पर सबसे ज्यादा यादव दिन भर आकर बैठे रहते हैं।

खैर, जो पता लगा वो यही था कि झगड़ा बेवजह हुआ था। और, शायद पहले की कोई प्रतिक्रिया थी। प्रधान यादव है उसने हमारे दादाजी से आकर कहा- पंडितजी कोई बात नहीं। दरोगा का फोन आया था रात में 11 बजे। मैंने बता दिया, सब ठीक है। कुछ खास नहीं हुआ था। ये एक बड़ा बदलाव था पहले शायद दरोगा के आसपास भी सिर्फ ब्राह्मण-ठाकुर ही पाए जाते थे। और, दरोगा से फोन पर हुई बातचीत या मुलाकात के जरिए विरोधियों को डराने का काम भी वही करते थे। अब यादवजी, पंडितजी को भरोसा दिला रहे हैं कि दरोगा कुछ नहीं करेगा।

बदलाव बस ऐसा ही है। चिलचिलाती धूप में गांव में वैसे भी कोई न दिखता लेकिन, सच्चाई ये भी है कि गांव में बचे भी वहीं हैं। जिनको कहीं काम नहीं मिला या जिनको वहीं प्राइमरी स्कूल से इंटर कॉलेज तक में अध्यापक की नौकरी मिल गई। नौकरी करने से रिटायर होने तक वही गांव में हैं। गांव में सबसे आगे हमारा ही घर है। बाबा ने बनवाया था। दो मंजिल का शानदार पक्का घर। तब आसपास के इलाके में ऐसा घर नहीं था। करीब 15 साल पहले दादा और पिताजी के बीच बंटवारा हो गया। आधा-आधा बंटा घर रेलगाड़ी के डिब्बे जैसा हो गया। हम लोगों का हिस्सा अकसर बंद ही रहता। क्योंकि, हम लोग गांव जाते भी तो, दादा के ही यहां बैठते। अब तो, हाल ये है कि घर की चाभी खो गई है और दो साल से ताला ही नहीं खुला है।

Thursday, April 17, 2008

‘सत्यार्थमित्र’ का स्वागत कीजिए

एक और हिंदी ब्लॉग शुरू हो गया है। सत्यार्थमित्र ब्लॉग शुरू किया है, सिद्धार्थशंकर जी ने। 14 तारीख को मेरी सिद्धार्थजी की मुलाकात हुई और 16 अप्रैल को सिद्धार्थजी ने ये ब्लॉग बना डाला। उनसे कुछ ब्लॉगिंग पर चर्चा हुई और दूसरे ही दिन उनका फोन आ गया कि मैंने अपना ब्लॉग बना लिया है। सिद्धार्थ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र रहे। गोरखपुर से पत्रकारिता की शुरुआत करने की कोशिश की लेकिन, फिर सामाजिक दबाव में प्रशासनिक अधिकारी बन गए। सिस्टम के साथ अभी तक तालमेल बिठाने की कोशिश में लगे हुए हैं। शायद यही वजह है कि अब ब्लॉग को अभिव्यक्ति का जरिया बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

मैं उनकी जिस पोस्ट के जरिए मिला वो, कुत्ते का दार्शनिक विचरण था। उसी पोस्ट को उन्होंने फिर से अपने ब्लॉग पर डाला है। आपको भी पसंद आनी चाहिए। खैर, मैं जब उनसे मिला तो, मेरे मुंह से निकला कि नेट (ब्लॉगिंग) के बहुत फायदे हैं। तो, भाभीजी (सिद्धार्थ जी की पत्नी) ने मुझसे पूछा- फायदा छोड़िए, ये बताइए कि इसका नुकसान क्या है। तो, उन्होंने ही हंसते हुए जवाब भी दे दिया कि अब मेरे समय में से ही ब्लॉगिंग भी समय खाएगी। मैंने कहा – ये तो है लेकिन, इसकी काट ये है कि इसी बहाने आप इनके साथ ज्यादा समय बिता सकती हैं। बस, इनकी ब्लॉगिंग में आप भी थोड़ी साझेदार हो जाइए।

अब ये परिचय मैं इसलिए करा रहा हूं कि आप सभी लोग नवोदित ब्लॉग सत्यार्थमित्र का ऐसा स्वागत करें कि सिद्धार्थ और भाभीजी को इसके फायदे ही याद रहें नुकसान कुछ न दिखे।

Wednesday, April 16, 2008

खुद ही देख लीजिए उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिए संकेत

मायावती के मस्त हाथी की चाल के आगे सबको रास्ता छोड़ना पड़ा। उत्तर प्रदेश के आधार के भरोसे दिल्ली फतह करने का इरादा रखने वाली मायावती को राज्य के उपचुनावों ने और बल दिया होगा। आजमगढ़ लोकसभा सीट से बसपा के अकबर अहमद डंपी ने जीत हासिल कर भाजपा की रही-सही साख भी बरबाद कर दी। डंपी ने भाजपा के टिकट पर लड़े दागी रमाकांत यादव को 54 हजार से ज्यादा मतो से हरा दिया। डंपी ने इससे पहले भी बसपा के ही टिकट पर रमाकांत यादव को हराया था। ये अलग बात है कि 1998 के लोकसभा चुनाव में रमाकांत सपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे। उत्तर प्रदेश में भाजपा की हालत किसी गंभीर रोग से ग्रसित मरीज के लिए दी जाने वाली आखिरी दवा के रिएक्शन (उल्टा असर) कर जाने जैसी हो गई है। राजनाथ सिंह ने कैडर, कार्यकर्ताओं को दरकिनारकर चुनाव एक लोकसभा सीट जीतने के लिए रमाकांत जैसे दागी को टिकट दिया लेकिन, फॉर्मूला फ्लॉप हो गया।

दूसरी लोकसभा सीट भी बसपा की ही झोली में गई है। खलीलाबाद लोकसभा सीट से भीष्मशंकर तिवारी ने 64,344 मतों से सपा के भालचंद्र यादव को हरा दिया है। भीष्मशंकर (कुशल तिवारी) लोकसभा तक पहुंचने में कामयाब हो गए। खलीलाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा चौथे नंबर पर चली गई है। भीष्मशंकर, चतुर राजनीतिज्ञ हरिशंकर तिवारी के बड़े बेटे हैं। और, इससे पहले 1998 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। हरिशंकर के छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी इससे पहले बसपा के ही टिकट पर बलिया लोकसभा उपचुनाव हार चुके हैं। ये अलग बात है कि बलिया में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर की जीत पूरी तरह से भावनात्मक जीत थी। सबसे दिलचस्प बात ये है कि विधानसभा चुनाव में खुद हरिशंकर तिवारी अपनी परंपरागत चिल्लूपार विधानसभा सीट बसपा के ही राजेश तिवारी के हाथों गंवाकर दशकों बाद पहली बार विधानसभा में जाने से रोक दिए गए।

विधानसभा सीटों में भी हाथी ने सबको रौंद दिया है। बिलग्राम, कर्नलगंज और मुरादनगर विधानसभा सीटों पर मायावती का कब्जा हो गया है। बिलग्राम (हरदोई) से बसपा की रजनी तिवारी ने सपा के विश्राम सिंह को 38,168 को हरा दिया है। कर्नलगंज (गोंडा) से बसपा की बृज कुंवरि सिंह ने सपा के योगेश प्रताप सिंह को 9,737 वोटो से हरा दिया है। मुरादनगर (गाजियाबाद) विधानसभा से बीएसपी के राजपाल त्यागी जीते हैं। भाजपा बिलग्राम में तीसरे और कर्नलगंज में चौथे नंबर पर रही है। जबकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गाजियाबाद की मुरादनगर सीट पर तो, चौथे नंबर पर भी उसे जगह नहीं मिल सकी हैं। इस सीट पर लोकदल के अयूब खां दूसरे नंबर पर हैं।

मैंने अभी कुछ दिन पहले भी लिखा था कि उत्तर प्रदेश में अब तक विधानसभा चुनाव के समय के समीकरण बदले नहीं हैं। और, उत्तर प्रदेश की तीन विधानसभा और दो लोकसभा सीटों पर बसपा के जोरदार कब्जे से ये साफ भी हो गया है। भाजपा आजमगढ़ को छोड़कर सभी जगह तीसरे नंबर पर रही है। मायावती के तानाशाही रवैये का हवाला देकर प्रदेश में मायावती के विरोधी ये कहने लगे थे कि अब जनता मायाराज के खिलाफ हो रहा है लेकिन, सच्चाई यही है कि मायाजाल बढ़ता ही जा रही है। और, अब तो इस बात की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है कि लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की चाभी उसी को मिलेगी जिसको मायावती का साथ मिले।


आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव
अकबर अहमद डंपी (बसपा)- 2,27,340 मत
रमाकांत यादव (भाजपा)- 1,73,089 मत
बलराम यादव (सपा)- 1,56,621 मत
एहसान खां (कांग्रेस)- 11,210 मत

खलीलाबाद लोकसभा उपचुनाव
भीष्म शंकर तिवारी (बसपा)- 2,18,393 मत
भालचंद्र यादव (सपा)- 1,53,761 मत
संजय जायसवाल (कांग्रेस)- 94,565 मत
चंद्रशेखर पांडे (भाजपा)- 60,384 मत

बिलग्राम विधानसभा उपचुनाव
रजनी तिवारी (बसपा)- 92,196 मत
विश्राम यादव (सपा)- 54,088 मत
यदुनंदन लाल (भाजपा)- 8,168 मत
सुरेश चंद्र तिवारी (कांग्रेस)- 2,766 मत

कर्नलंगज विधानसभा उपचुनाव
बृज कुंवरि सिंह (बसपा)- 50,283 मत
योगेश प्रताप सिंह (सपा)- 40,546 मत
रामा मिश्रा (कांग्रेस)- 21,478 मत
कृष्ण कुमार (भाजपा)- 4,387 मत

मुरादनगर विधानसभा उपचुनाव
राजपाल त्यागी (बसपा)- 58,687 मत
अयूब खां (लोकदल)- 51,834 मत
मनीष (सपा)- 12,850 मत
प्रदीप त्यागी (कांग्रेस)- 5,030 मत

Monday, April 14, 2008

ये विविध भारती की विज्ञापन प्रसारण सेवा का इलाहाबाद केंद्र है

एफएम ने लोगों के रेडियो सुनने का अंदाज बदल दिया है। तेज, हाजिर जवाब रेडियों जॉकी- फोन नंबरों पर जवाब देकर इनाम जीतते श्रोता। मेरे शहर इलाहाबाद में भी दो एफएम रेडियो शुरू हो गए हैं जो, शहर में युवाओं के मिजाज से मेल भी खूब खा रहा है। लेकिन, इन सबके बीच विविध भारती प्रसारण की बात ही कुछ निराली है। इलाहाबाद में मेरे मोहल्ले दारागंज में एक नया जेंट्स ब्यूटी पार्लर खुला है। छोटे भाई के साथ मैं आज जब दाढ़ी बनवाने पहुंचा तो, एसी की ठंडी हवा में मैंने मसाज करने को भी बोल दिया। और, दाढ़ी बनवाते-बनवाते विविध भारती का फोन टाइम कार्यक्रम शुरू हो चुका था। ये कार्यक्रम इतना दिलचस्प था कि मैं इसे आप सबसे बांट रहा हूं।

फोन की घंटी बजी और प्रस्तोता ने कार्यक्रम शुरू किया। फोन टाइम में आपका स्वागत है, मैं हूं अविनाश श्रीवास्तव।
जी, बताइए क्या नाम है आपका।
जी, गीतांजलि।
आप किस क्लास में पढ़ती हैं।
क्लास 8 में
हां, आपकी आवाज से लगा कि आप अभी बहुत छोटी हैं। क्या सुनेंगी आप
जी देशप्रेमी फिल्म का गीत लेकिन, पहले मेरी दोस्त का नाम मैं ले लूं
जी बिल्कुल
फिर अवाज आई देशप्रेमी फिल्म का गाना हमारे पास नहीं है। इसलिए हम आपको फना फिल्म का गीत सुनाते हैं। उम्मीद है आपको पसंद आएगा
देश रंगीला रंगीला ...

फोन की घंटी के साथ दूसरे श्रोता लाइन पर थे।
जी बताइए कौन बोल रहे हैं।
राजेंद्र बोल रहा हूं
हां, राजेंद्रजी बताइए। क्या सुनना चाहते हैं
राजेंद्र ने गाना सुनने से पहले एक दूसरा सवाल पूछना चाहा
राजेंद्र ने पूछा- ये बताइए क्या अभी जो हमारी बात हो रही है वो, रिकॉर्ड हो रही है
जी, हां बिल्कुल रिकॉर्ड हो रही है
लेकिन, हम बहुत दिन से फोन लगा रहे थे, घंटी जाती है लेकिन, फोन ही नहीं उठता
नहीं, ऐसा नहीं है। आप फोन करेंगे तो, बिल्कुल उठेगा। देखिए ना आखिर हमारी-आपकी बात हो रही है ना।
नहीं लेकिन, हम दो साल से फोन लगा रहे हैं और आपका फोन नहीं उठता। इ समझिए कि दो साल से लगातार हम फोन लगा रहे हैं।
नहीं आप फोन लगाएंगे तो, बिल्कुल लगेगा हो सकता है फोन व्यस्त रहा हो जैसे देखिए अभी आपसे बात हो रही है तो, दूसरे का फोन कैसे मिल पाएगा। बताइए क्या सुनेंगे
तब तक श्रोता का उत्साह बढ़ चुका था। राजेंद्र ने कहा- अभी दो नए एफएम खुले हैं लेकिन, हमें विविध भारती के अलावा कोई सुनना पसंद नहीं है। हम दूसरे एफएम एकदम नहीं सुनते।
राजेंद्रजी ऐसी बात नहीं है सभी रेडियो अच्छे हैं। सबकी पसंद अलग-अलग हो सकती है।
नहीं सर, विविध भारती की बात ही अलग ही है।
अब तक राजेंद्र गाना नहीं बता पाए थे
अविनाश श्रीवास्तव ने फिर गाना सुनाने के बारे में पूछा तो, राजेंद्र ने कहा हम अपने दोस्तों का नाम ले लें
जी बिल्कुल
फिर राजेंद्र ने एक लाइन से अपनी कई दोस्तियां, रिश्तेदारियां निभाते हुए उन सबके नाम विविध भारती के फोनटाइम में सुना दिए
प्रस्तोता ने फिर टोंका तो, राजेंद्र ने ये गाना सुनाने की फरमाइश की
तू जो हंस हंस के सनम मुझसे बात करती है सारी दुनिया को यही बात बुरी लगती है

गाना खत्म होने के बाद तीसरे श्रोता लाइन पर थे संदीप सरोज
जी, संदीप क्या करते हैं आप जी, हाईस्कूल का एग्जाम खत्म हुआ है
अच्छा तो, आप खाली होकर फोन टाइम में फोन कर रहे हैं
जी
और, क्या कर रहे हैं कंप्यूटर कोर्स भी कर रहा हूं
संदीप, लगता है आपने रेडियो बहुत तेज कर रखा है
जी, अभी तक तेज सुन रहा था अब धीमा कर दिया है
आपके बगल में कौन हंस रहा है
जी, मेरी बहन है। बहुत दिन से फोन नहीं लग रहा था। मेरी बहन भी हमेशा विविध भारती सुनती है।
पीछे से लगातार संदीप की बहन के हंसने की आवाज आ रही थी
अविनाश ने फिर पूछा कौन सा गाना सुनेंगे
सदीप ने भी अपने जान-पहचान के सारे नाम गिनाए जिससे, उसकी अच्छी छनती रही होगी और एक और गाना पेश

एक छोटे से ब्रेक के बाद चौथा श्रोता हाजिर था
मैं फोन टाइम से अविनाश बोल रहा हूं, आप कौन
जी, मैं मिर्जापुर के गांव से सुजाता बोल रही हूं
जी, सुजाता बताइए क्या करती हैं आप
जी घर का काम करती हूं
पढ़ाई कितनी हुई है आप
हंसते-खिलखिलाते सुजाता ने बताया कि पढ़ी-लिखी नहीं है
फिर प्रस्तोता ने कहा- पढ़ाई क्यों नहीं की, पढ़ाई तो बहुत जरूरी है
सुजाता ने कहा- जी, पिताजी हमारे नहीं थे, मां ने पाला-पोसा, कम उमर में शादी भी हो गई
तो, फिर अब पढ़ाई कीजिए।
ठीक है हम अपने घर जाएंगे तो, अम्मा से कहेंगे
अपनी सास से भी तो कह सकती हैं
तब तक बीच में ही वो बोल पड़ी अच्छा हम सबका नाम ले लें
जी, जरूर
फिर सुजाता ने अपनी ननद, सास, चाचा सबका नाम ले लिया
फिर थोड़ा शरमाते-सकुचाते-हंसते बोली हम अपने पति का नाम बताएं
जी, बताइए
हमारे पति का नाम है- कंपोटर
प्रस्तोता भी उसको पढ़ाने के अपने अभियान पर अडिग था। फिर बोला तो, अपने पति से कहिए पढ़ाने के लिए। वैसे कौन सा गाना सुनना चाहती हैं
जी, हम कहेंगे। नगीना फिल्म का गाना सुनाएंगे
जी, कौन सा गाना सुनना चाहती हैं
वो, मैं तेरी दुश्मन वाला
गाना शुरू हो गया मैं तेरी दुश्मन.. दुश्मन तू मेरा .. मैं नागिन तू सपेरा

अब तक चार श्रोताओं का ही फोन शामिल हो पाया था
पांचवां फोन था काशीपुर के उदयभान का
उदयभान ने फोन किया और सीधे गाना बताया कहा- मुझे गाना सुना दीजिए, तुझको ही दुल्हन बनाऊंगा, वरना कुंआरा मर जाऊंगा
अविनाश ने पूछा- क्या करते हैं
जी, पढ़ रहा हूं
बताइए कौन सा गाना सुनेंगे
तब तक बीच में ही उदयभान का दोस्त गाने के बोल बताने लगा- तुझको ही दुल्हन बनाऊंगा, वरना कुंआरा मर जाऊंगा
अविनाश ने कहा- अभी पेश करता हूं लेकिन, गाना लाइब्रेरी में नहीं था। और, खेद व्यक्त करते हुए उसकी जगह बजने लगा- एक ऊंचा लंबा कद, दूजे सोणिये तू हद

गाना खत्म फिर बजी फोन की घंटी
जी, मैं अक्षय कुमार बोल रहा हूं
अक्षयजी बताइए कौन सा गाना सुनेंगे
जी, पहले मेरे भतीजे से बात कर लीजिए
अगले ही क्षण भतीजा फोनलाइन पर था। जी, मैं बृजेश कनौजिया बोल रहा हूं
लाडला फिल्म का गीत सुनाएंगे क्या
जी, जरूर वैसे आप क्या करते हैं
बृजेश- जी मैं मुंबई से हार्डवेयर का कोर्स करता हूं। अभी छुट्टियों पर घर आया हूं
लाडला फिल्म का गाना नहीं था अविनाश ने दूसरा गाना सुना दिया
और, सोमवार, बुधवार, शुक्रवार को 10.30 से 11 बजे तक चलने वाले फोन टाइम कार्यक्रम समाप्त हुआ।

दरअसल, अभी भी देश के एक बहुत बड़े हिस्से के लिए रेडियो-टीवी पर सुनाई-दिखाई देना सबसे बड़ा रोमांच बना हुआ है। आधे घंटे के फोनटाइम में छे लोगों ने अपनी जिंदगी, पढ़ाई-लिखाई, परिवार, यार-दोस्तों या ये कहें जो, कुछ सुनने वाले को महत्व का लगता था, उसे रेडियो प्रस्तोता के साथ बंटा लिया। न तो, गाना सुनने वाले को बहुत जल्दी थी न, गाना सुनाने वाले को। लेकिन, मेरा टाइम खत्म हो रहा है क्योंकि, मेरा मसाज पूरा हो चुका है।
और, अगला कार्यक्रम पेश है लोकगीत
बोला चलै ससुराल लैके..
तब तक मैं पैसे देकर घर लौट गया।

Thursday, April 10, 2008

एक ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को मंजूरी दे दी है। 2006 के सरकार के बिल के बाद से अब तक ये मामला लटका हुआ था। कई अलग-अलग संगठनों ने इसे चुनौती दी थी। सुप्रीमकोर्ट ने भी सरकार से इसे लागूकरने का आधार पूछा था।

अब सुप्रीमकोर्ट ने इस लागू करते हुए इससे क्रीमीलेयर को बाहर करने को कहा है। लेकिन, अभी भी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वो, क्रीमीलेयर कैसे तय करेगी। वैसे, कोर्ट ने सांसदों-विधायकों को बच्चों को इससे बाहर कर दिया है। अब IIT, IIM और AIIMS में कोटा के आधार पर आरक्षण लागू हो सकेगा।

Tuesday, April 08, 2008

राहुल बाबा के आह्वान के बाद राजनीति में युवाओं को तवज्जो मिली

राहुल के डिस्कवर इंडिया कैंपेन में उन्हें कुछ मिला हो या न मिला हो। विरासत में कांग्रेसी राजनीति के खासमखास परिवारों के दो ‘बाबा लोगों’ को आखिर ‘बड़का लोगों’ की राजनीति में जगह मिल ही गई। ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद को चुनावी साल के पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिल गई है। चुनावों को ध्यान में रखकर कुछेक और छोटे-छोटे मंत्रिमंडलीय परिवर्तन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मैडम सोनिया के इशारे पर किए लेकिन, खास बदलाव यही दोनों हैं।

सोनिया गांधी, राहुल को ठीक उसी तरह से गद्दी संभालने के लिए तैयार कर रही हैं। जैसे, महाराजा-महारानी युवराज को गद्दी के लायक बनाते थे। राजशाही और लोकतंत्र में फर्क सिर्फ इतना ही है कि तब 14 साल का युवराज भी खास दरबारियों के भरोसे गद्दी संभाल लेता था। अब, लोकतंत्र में कम से कम 25 साल की उम्र तो होनी ही चाहिए। और, दरबारियों से ज्यादा हैसियत हासिल करनी ही होती है। ये दिखाता है कि जो, वो कह रहा है वो किसी भी वरिष्ठ दरबारी से ज्यादा सुना जा रहा है। वो, काम सोनिया ने राहुल के लिए धीरे-धीरे पूरा कर दिया है।

राहुल ने डिस्कवर इंडिया कैंपेन में कहा कि देश की राजनीति में युवाओं को कम मौका मिल रहा है। फिर जब उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस पर भी यही आरोप लगाया तो, लोगों को लगा कि भारतीय राजनीति में गजब का ईमानदार नेता सामने आ रहा है। लेकिन, ये ईमानदारी कम थी और राजनीति ज्यादा। इसका अंदाजा इससे साफ लग जाता है कि मंत्रिमंडल में जो परिवर्तन कए गिए हैं वो, परिवर्तन कहीं से भी चुनाव को बहुत प्रभावित नहीं करेंगे। हां, राहुल के युवाओं को मौका न दिए जाने की बात उठाने पर दो युवाओं को मौका दे दिया गया। पहले राहुल के साथ के लिए राष्ट्रीय कांग्रेस में खानदानी कांग्रेसियों के घर के बच्चों को एक साथ मौका दिया गया था।

मीडिया में भले ही ये बात कही जा रही हो कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में आधार बढ़ाने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद को केंद्रीय राज्य मंत्री बनाया गया है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की राजनीति को थोड़ा भी जानने वाला ये बात अच्छे से जानता है कि जितिन प्रसाद को कितने ब्राह्मण अपना नेता मानते हैं और ग्वालियर से बाहर ज्योतिरादित्य की कितनी ताकत है। कुल मिलाकर राहुल बिना प्रधानमंत्री बने ही मंत्रिमंडल का फैसला करने लगे हैं। तो, कांग्रेस की ओर से अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित करने की जरूरत अब भी है क्या। क्योंकि, त्याग की प्रतिमूर्ति सोनिया गांधी दुबारा विदेशी मूल का मुद्दा तो विरोधियों को देना भी नहीं चाहेंगी। त्यागी सोनिया ने ये भी बता दिया कि राहुल ने मंत्री बनने से इनकार कर दिया है।

Monday, April 07, 2008

दिवसों के भरोसे चल रहा है भारत

आज मुंबई में कोई हॉर्न नहीं बजाएगा। पुलिस तो ऐसा ही कह रही है। पुलिस ने नो हॉन्किंग डे घोषित कर रखा है। महानायक अमिताभ बच्चन ने भी अपनी गाड़ी पर नो हॉन्किंग डे का स्टीकर चिपकाया है और टीवी पर लोगों से अपील कर रहे हैं कि कम से कम आज गाड़ी का हॉर्न न बजाएं। दरअसल 7 अप्रैल यानी आज विश्व स्वास्थ्य दिवस है। और ध्वनि प्रदूषण (शोर) से होने वाली बीमारियों पर थोड़ा काबू के लिए मुंबई पुलिस ने हॉर्न बजाने पर एक दिन के लिए जुर्माना लगा दिया है।

मैं मुंबई के लोवर परेल में रहता हूं। बिग बाजार के बगल घर है यानी मुख्य सड़क है। घर की खिड़की खोलना तक मुश्किल है कि सड़क पर गाड़ियों के हॉर्न के शोर से घर में टीवी नहीं देख सकता। बातें भी आपस में थोड़ा तेज स्वर में ही करनी पड़ती है। हाल ये है कि कान तेज सुनने का ही आदी हो गया है। यही वजह है कि ज्यादातर समय हमारा घर खुली हवा से परिचित नहीं हो पाता है। इसलिए, आज हॉर्न पर पाबंदी के पुलिस के फैसले से मुझे तो, दूसरे नो हॉर्न दिवस के पैरोकारों से ज्यादा खुश होना चाहिए। लेकिन, मुझे खुशी नहीं हो रही है बल्कि, चिढ़ हो रही है। वजह नंबर एक- आज भी मेरे घर के सामने हॉर्न धड़ल्ले से बज रहा है, मेरे घर की खिड़की बंद है-क्योंकि, यहां कोई पुलिस वाला नहीं खड़ा है। वजह नंबर दो- क्या अच्छे काम भारत में सिर्फ दिवसों में ही मनाए जाएंगे।

मुझे लगता है कि हमारा देश ना, सिर्फ दिवसों के भरोसे ही चल रहा है। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस है तो, थोड़ा आजादी की बात करेंगे। देशभक्ति गीत सुनेंगे, झंडा फहराएंगे। गांधी जयंती है तो, खादी की बात करेंगे, ग्राम स्वराज्य की बात करेंगे, अहिंसा की बात करेंगे। वैलेंटाइन डे है तो, बीवी से, गर्लफ्रेंड से ज्यादा प्यार जताएंगे। मदर्स, फादर्स डे पर मम्मी-पापा के लिए कुछ तोहफे खरीद लेंगे।

और, दिवस भी चूंकि प्रतीकात्मक हैं। इसलिए बड़े शहर, राजधानी तक ही सिमट जाते हैं। किसी भी दिवस को याद कर लीजिए। आखिर, स्वास्थ्य दिवस है तो, फिर इसी बहाने पूरे देश में हॉर्न पर सख्ती सरकार को क्यों नहीं सूझा, भले ही एक दिन के लिए ही सही। मुंबई पुलिस ये सोच सकती है तो, महाराष्ट्र पुलिस इसे पूरे राज्य में क्यों नहीं लागू कर सकती थी। और, आज यानी नो हॉर्न दिवस पर भी बिना वजह के ही हॉर्न बजाने पर जुर्माना है तो, ये बिना वजह हॉर्न बजाने वालों से पुलिस रोज सख्ती से क्यों नहीं निपटती। लेकिन, इसके लिए भारी तोंद वाले कांस्टेबल और दरोगा लोगों को ट्रैफिक के कायदे का पालन सही से करना होगा और चालान बुक का इस्तेमाल अपनी कमीशन की रकम बढ़ाने के लिए करने से बचना होगा।

दुनिया के कई देशों में मीलों जाने पर शायद हॉर्न की आवाज सुनाई दे। फिर यहां ऐसा क्यों नहीं हो पाता। यहां घर से निकलते ही हॉर्न कान के रास्ते से घुसकर माथे पर एक अजीब से विकार की तरह बैठ जाता है। हर हॉर्न मारने वाले की दलील कि आगे की गाड़ी या कुछ और वजह से रास्ता ही नहीं मिलता तो, हॉर्न बजाना जरूरत बन जाता है। लेकिन, लाल बत्ती पर हॉर्न बजाने की क्या जरूरत होती है। हॉर्न बजाने की आदत हम भारतीयों की इतनी आम हो गई है कि हम अब इसे नोटिस भी नहीं लेते। ड्राइवर को लगता है कि गेयर, ब्रेक, क्लच, स्टेयरिंग के साथ हॉर्न को भी निरंतर इस्तेमाल ही करना होता है।

हाल इतना बुरा है कि शनिवार को रात एक कुछ मित्रों के साथ पार्टी में नवी मुंबई जा रहा था तो, चेंबूर के पास एक एम्बुलेंस हमारी गाड़ी के पीछे लगातार हूटर बजाती आ रही थी। लेकिन, कोई रास्ते देने को तैयार नहीं था क्योंकि, आगे भी उतना ही जाम था। हमने अपनी गाड़ी किनारे करवाकर उसे रास्ता तो दे दिया लेकिन, अगले बीस मिनट तक हमारे आगे ही फंसा रहा।

छोटे शहरों में पहले कुछ दरोगा हुआ करते थे। जो, जिस पुलिस स्टेशन में चार्ज संभालते थे। वहां कुछ दिनों के लिए मोटरसाइकिल के प्रेशर हॉर्न ब्रेक हॉर्न सब बंद हो जाते थे। वैसे ये दरोगा लंबे बाल वाले लड़कों के बाल भी कटवा देते थे। और, चौराहे पर पुलिस के पास कटे बालों के साथ बाइक्स से निकाले हॉर्न का बड़ा गुच्छा तैयार हो जाता था। ये ज्यादती है लेकिन, दिवसों के भरोसे चल रहे हॉर्न बजाने के आदती भारत को सुधारने के लिए जरूरी है कि ऐसे दरोगाओं को सिस्टम के कुछ सुधार का जिम्मा दे ही दिया जाए। क्योंकि, खिड़की बंद करने के बाद भी मेरे कान के रास्ते से घुकर माथे पर हॉर्न के शोर का विकार बैठ चुका है और ये तब है जब आज नो हॉर्न दिवस है कल से तो, ...।

Sunday, April 06, 2008

अमेरिकी मान रहे हैं कि अमेरिका गलत रास्ते पर है

अमेरिका- दुनिया का दादा। एक ऐसा देश, जिसकी दुनिया में छवि ये है कि वहां के लोग दुनिया के दादा का ये खिताब अपने पास रखने के लिए अपने प्रतिनिधियों (राष्ट्रपतियों) के हर फैसले पर आंख-मूंदकर मुहर लगा देते हैं। यहां तक कि इराक को नेस्तनाबूद करने के अपने राष्ट्रपति के फैसले को भी उन्होंने दुनिया में अपनी बढ़ती ताकत के सुबूत के तौर पर मान लिया। लेकिन, अब शायद अमेरिकी बदल गए हैं या दुनिया में ताकत, कंज्यूमर, बाजार की बदलती ताकत ने उन्हें बदल दिया है।

The newyork times और CBS News अमेरिकी चुनाव से पहले पूछे गए पोल में शामिल अमेरिकियों में से 81 प्रतिशत कह रहे हैं अमेरिका इतने गलत रास्ते पर चल रहा है कि अब संभालना मुश्किल हो गया है। दरअसल इराक में अमेरिका की मचाई भारी तबाही और अमेरिका पर लादेन के हमले ने अमेरिकियों का डराया भी और चेताया भी है। शायद यही वजह है कि उन्हें ये लगने लगा है कि मामला गड़बड़ा गया है। अमेरिकी, अब अमेरिका से बाहर दुनिया के सबसे ज्यादा लोगों के दुश्मन हो गए हैं।

इसीलिए क्या महिलाएं-पुरुष, क्या बड़े-बच्चे, शहरी, कुछ गांव में बचे अमेरिकी और सिर्फ हाईस्कूल की पढ़ाई कर निकले छात्र- सब कह रहे हैं कि अमेरिका को सही रास्ता चुनना होगा। यहां तक कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए आपस में और विरोधी पार्टी से लड़ रहे डेमोक्रैट और रिपब्लिकन भी मान रहे हैं अमेरिकी सरकार की नीतियों में बड़े सुधार की जरूरत है। 71 प्रतिशत लोग मान रहे हैं कि पांच साल में हालात अमेरिकियों के लिए बेहद खराब हुए हैं। सिर्फ 4 परसेंट को लगता है कि बीते 5 सालों में कुछ पहले से अच्छा हुआ है।

ये सब सुनने में बड़ा अच्छा लग रहा है कि अमेरिकी इतना बदलान पसंद कर रहे हैं। लेकिन, सच्चाई यही है कि अमेरिका के इन दो मीडिया हाउस के सर्वे में अमेरिकियों के ये भाव इसीलिए सामने आ रहे हैं अमेरिकी इस समय बुरी तरह डरे हुए अमेरिका की दुनिया में ताकत घटी है। अमेरिकियों की खर्च करने की ताकत कम हो रही है। एक-एक झटके में एक-एक लाख नौकरियां घट रही हैं। और, ये लगातार कई महीनों से हो रहा है। रियल एस्टेट सेक्टर बरबाद हो गया है।

कुल मिलाकर सीधी सी बात ये है कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था में मंदी आ गई है (फिर भी अमेरिकी सरकार और अर्थशास्त्री, अमेरिकियों को ये दिलासा देने की कोशिस कर रहे हैं कि मंदी का खतरा है)। अमेरिका भारतीय दार्शनिक चार्वाक के सिद्धांत- ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, यावत जीवेत सुखम जीवेत- के शिकार हो गए हैं। क्रेडिट की ऑक्सीजन पर जिंदा अमेरिका का क्रेडिट मार्केट (साख तो रह ही नहीं गई है।) पूरी तरह ध्वस्त हो गया है।

इसको आप ऐसे समझ सकते हैं अच्छी नौकरी और अगले साल उस नौकरी से भी अच्छी नौकरी मिलने की उम्मीद में अमेरिकियों में बरसों से घर-गाड़ी खरीदनी की होड़ लगी है। उस घर खरीदने की भूख को तृप्त करने के लिए बिल्डर्स बिना सोचे बड़े-बड़े शानदार कंक्रीट के जंगल तैयार करते चले गए। उन जंगलों को तैयार करने के लिए बैंकों ने उन्हें बिना सोचे-समझे और सही आंकलन किए, मनचाहा लोन दे दिया। यहां तक बैंकों ने ऐसे लोगों को भी लोन देने शुरू कर दिए जिनके रिकॉर्ड लोन लौटाने के मामले में बेहतर नहीं हैं या यूं कहिए कि आगे उनकी खर्च करने और कर्ज चुकाने की उतनी बेहतर क्षमता नहीं दिख रही है।

तेजी के दौर में अमेरिकी बेतहाशा खर्च करते रहे और तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था के भरोसे अमेरिकी शेयर बाजार में शेयरों के भाव छलांग लगाते रहे। लेकिन, इस बीच मैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन सेक्टर में डिमांड में कमी आई और इसकी वजह से उन्हें कर्मचारियों को नौकरी से निकालना पड़ा। नौकरी से निकाले गए कर्मचारी घरों के कर्ज की स्त चुकाने में नाकाम होने लगे। कंक्रीट के जंगलों के खरीदार कम होने लगे। कई बड़े बिल्डर्स के प्रोजेक्ट रुक गए और बिल्डरों को दिया बैंकों का कर्ज एनपीए यानी ऐसा कर्ज बन गया जिसके लौटने की गुंजाइश कम ही दिखती है।

घर खरीदने वाले घटे तो, तेजी से घरों की कीमत घटी। जिन्होंने अपने घर गिरवी रखकर बैंकों से कर्ज लिया था। उसकी कीमत कर्ज से बहुत कम रह गई। बस भारतीय किसान के गरीबी के दुश्चक्र की तरह अमेरिकी फाइनेंशियल मार्केट क्रेडिट के दुश्चक्र में फंस गया। अमेरिका का पांचवां सबसे बड़ा बैंक बेयर स्टर्न्स, जिसके एक शेयर का भाव जनवरी में 150 डॉलर था। मार्च में सिर्फ 10 डॉलर शेयर के भाव पर बिक गया। अब मंदी के इससे बड़े लक्षण क्या होते हैं। लेकिन, अभी भी सफेद दाढ़ी वाला अमेरिकी सेंट्रल बैंक का चेयरमैन बेन बर्नानके और कार्टूनिस्ट की पहली पसंद वाली शक्ल वाला अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश दोनों ही कह रहे हैं कि अमेरिका को मंदी से बचाने की कोशिश जारी है।

खैर, हम फिर से लौटते हैं कि अमेरिकी कह रहे हैं कि अमेरिका गलत रास्ते पर है। वैसे इस सर्वे में शामिल 72 प्रतिशत अमेरिकी अभी भी मान रहे हैं कि उनके घर की आर्थिक स्थिति ठीक है। लेकिन, जब ये पूछा गया कि हाल के बरसों में आपकी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है तो, ये कहने का दम सिर्फ 23 प्रतिशत अमेरिकियों में बचा है। 28 प्रतिशत खुद को पहले से गरीब मान रहे हैं (वैसे ये शब्द अमेरिकी सिर्फ विकासशील नाम के देशों के लोगों के लिए इस्तेमाल करते हैं) और 48 प्रतिशत कह रहे हैं कि पांच साल पहले जितने ही पैसे अब भी उनके पास हैं।

अपने स्वास्थ्य के लिए 42 प्रतिशत अमेरिकी बेहद चिंतित हैं। 29 प्रतिशत को थोड़ी बहुत चिंता है। 28 प्रतिशत ही हैं जो, पुराने अमेरिकियों जैसी बात कर रहे हैं कि उन्हें खास चिंता नहीं है। घर की कीमत को लेकर 31 प्रतिशत अमेरिकी बहुत चिंतित हैं, 38 प्रतिशत की चिंता अभी हल्की-हल्की है। लेकिन, 30 प्रतिशत को अब भी चिंता नहीं है। लेकिन, फिर भी 81 प्रतिशत अमेरिकी कह रहे हैं अमेरिका बहुत गलत रास्ते पर चला गया है। भीषण त्रासदी का समय है दुनिया के दादा के लिए।

Wednesday, April 02, 2008

और, कितनी गिरावट-कितना दोगलापन

राजनीति में गिरावट की जब बात होती है तो, नेता बड़ी चतुराई से ये कहकर बच निकलने की कोशिश करते हैं कि समाज से ही नेता निकलते हैं और समाज के हर क्षेत्र में आई गिरावट का असर राजनीति में भी दिखता है। वैसे तो, ये सामान्य सी बात दिखती है लेकिन, राजनीतिक जीवन में बढ़ता दोगलापन भयावह स्थिति की तरफ बढ़ रहा है।

अर्थशास्त्र में मजबूत ईमानदार माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने अपनी जुबान पर कायम न रह पाने में मिसाल कायम कर दी है। 2004 में आई कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार लोकसभा और राज्यसभा में अपने वादों को पूरा कर पाने के मामले में आजादी के बाद की सबसे फिसड्डी साबित हुई है।

पहले के नेता और सरकारें आज के नेताओं (सरकारों) के मुकाबले कितने ईमानदार थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1984 तक सरकारें लोकसभा-राज्यसभा में किया गया हर वादा पूरा करती थीं। यहां तक कि 2003 तक भी सरकार सदन में किए गए 90 प्रतिशत वादे तो पूरे करती ही थी। ससंदीय कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2004 में यूपीए की सरकार आने के पहले तक रही एनडीए सरकार ने लोकसभा में किए गए 85.26 प्रतिशत वादे पूरे किए। राज्यसभा में किए 87.50 प्रतिशत वादे पूरे हो गए।

लेकिन, यूपीए सरकार की तो जुबान ऐसे फिसल रही है कि वादे अधूरे छोड़ने की फिसलन बढ़ती ही जा रही है। 2005 में यूपीए सरकार ने लोकसभा में 1,946 वादे किए, पूरे हुए 1,701। 2006 में 963 वादे किए, पूरे हुए 768। और, 2007 में तो हद ही हो गई। सरकार के मंत्रियों की जुबानें ऐसी फिसलीं कि 1,086 में से सिर्फ 156 वादे ही पूरे हो पाए। यानी लोकसभा में सरकार ने जा वादे सांसदों के सामने किए, उनमें से सिर्फ 14.36 प्रतिशत ही पूरे हुए। यही हाल राज्यसभा का भी रहा। 2005 में मंत्रियों की कही 1,164 में से 867, 2006 में 877 में से 495 और 2007 में 918 कही गई बातों में से सिर्फ 198 बातें ही पूरी हुईं।

ये सारी गिरावट प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़कर त्याग की प्रतिमूर्ति बनी सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार में है। अब जब संसद में किए गए वादों का ये हाल है तो, मंच पर यूपीए सरकार के इन नेताओं के भाषण सच्चाई के कितने नजदीक हैं, इसका अंदाजा बेहद आसानी लगाया जा सकता है। इससे, लगातार बेहतर से बेहतर रेल बजट और मुख्य बजट पेश करने वाले रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और वित्तमंत्री पी चिदंबरम के करिश्मे का अर्थशास्त्र कुछ तो समझ में आ ही जाता है।

अब भी साफ नहीं है कि किसानों की कर्जमाफी का पैसा कहां से आएगा। अगली सरकार उसे पूरा करने में कितना पटरा होगी या बैंक ही पटरा हो जाएंगे। यही वजह है कि इस सवाल पर चिदंबरम सबसे ज्यादा चिढ़ते हैं। इसीलिए मुझे तो लगता है कि लालू ठीक कह रहे हैं चुनाव के ठीक पहले के साल में बजटों में इस सरकार ने सिर्फ जादू-टोना ही किया है यानी ज्यादातर बातें हवा-हवाई ही हैं क्योंकि, इस सरकार के वादों का दसवां हिस्सा भी पूरा हो जाए तो, बहुत है।

Tuesday, April 01, 2008

मायावती प्रधानमंत्री बनेंगी या उप प्रधानमंत्री

लोकसभा चुनावों की तैयारियों में सभी राजनीतिक पार्टियां जुट गई हैं। और, इस तैयारी में सबसे अहम ये कि किसके साथ, दिल्ली के रास्ते पर कितनी दूर चला जा सकता है। ऐसे देखने पर साफ तौर पर देश पूरी तरह से जाने-अनजाने दो दलीय व्यवस्था पर ही चल रहा है। एक पक्ष एनडीए यानी नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) और दूसरा पक्ष यानी सरकार में बैठा यूपीए, यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (संयुक्त विकासशील गठबंधन)। दोनों के अलावा कहने को एक तीसरा मोर्चा भी है जो, यूपीए को बाहर से समर्थन दे रहे लेफ्ट की अगुवाई में अलग-अलग राज्यों के कुछ क्षेत्रीय दल हैं।

लेकिन, सच्चाई यही है कि तीसरा मोर्चा नाम का विकल्प फिलहाल तो मरा हुआ सा दिख रहा है। तीसरे मोर्चा का अगुवा लेफ्ट तो, पूरी तरह से ही कांग्रेस के साथ है। और, कांग्रेस के साथ चल रहे छद्म मल्लयुद्ध के बीच हुए सम्मेलन में लेफ्ट पार्टियों ने फिर से साफ कर दिया है कि भाजपा उनकी पहली दुश्मन है और अगर जरूरत पड़ी तो, वो फिर से कांग्रेस की मदद कर सकते हैं। तीसरे मोर्चे की बात भी सुनाई नहीं पड़ी। और, जिस तरह के जनादेश आते दिख रहे हैं उसमें, साफ है कि एनडीए या फिर यूपीए किसी को भी पूर्ण बहुमत तो नहीं मिलने वाला। कांग्रेस-भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टियां बनी रहेंगी और 15 से 25 सीटों के फासले से सत्ता का सुख भोगेंगी या फिर विपक्ष में बैठकर संसद का काम रोकती रहेंगी।

ज्यादातर राज्यों में दोनों गठबंधनों के साथी चुनाव के पहले से ही तय हैं और जो, चुनाव के पहले साथ नहीं लड़ेंगे वो, पहले से ही न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सरकार में शामिल हो जाएंगे। लेकिन, इस सबमें एक जो, अचानक पलटा समीकरण है वो, बन रहा है सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश से। उत्तर प्रदेश ही वो राज्य है जिसमें बदहाल होने से भाजपा की अगुवाई वाला एनडीए सत्ता से बाहर रह गया और लालकृष्ण आडवाणी हाथ ही मलते रह गए। अभी भी इस राज्य में न तो भाजपा के हालात ज्यादा बदले हैं और न ही कांग्रेस जमीन से उबर पाई है। यही वजह है कि दोनों ने अलग-अलग तरीके से सपा-बसपा के साथ एक अनकहा गठबंधन बनाना शुरू कर दिया है।

उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मुस्कुराती मायावती की तस्वीर फ्रेम में धुंधली पड़ चुकी है। राहुल के कहने मायावती एक छोटा सा अफसर हटाने को तैयार नहीं हैं। गांधी परिवार की बड़ाई पर मायावती ने सुल्तानपुर के जिलाधिकारी को नाप दिया और राहुल गांधी दलितों की दुर्दशा पर सबसे ज्यादा आंसू बहा रहे हैं। उन्हें दलित बस्ती के बच्चे सबसे प्यारे लग रहे हैं। अब तो, सोनिया गांधी कह रही हैं कि मायावती के खिलाफ कांग्रेस कार्यकर्ता आंदोलन करें। जेल जाएं, पीछे से राहुल भी जेल जाएंगे। ये बयान ठीक उसी दिन आया जब किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने मायावती को जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया और टिकैत समर्थकों के बवाल के आगे टिकैत के पैतृक गांव सिसौली (मुजफ्फरनगर) से पुलिस टिकैत को नहीं पकड़ सकी। टिकैत का बेटा भले पुलिस हिरासत में पहुंच गया। वैस, देर-सबेर टिकैत सरकारी मेहमान बनेंगे ही। लेकिन, इस वाकये ने कांग्रेस-सपा की जुगलबंदी थोड़ी बेहतर कर दी है। मुलायम और उनकी पार्टी पूरी तरह से टिकैत के समर्थन का ऐलान कर चुकी है हो, सकता है मुलायम को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ फायदा भी हो जाए।

वैसे, मुलायम और कांग्रेस लाख कह रहे हों कि मायावती के राज में अंधेरगर्दी चरम पर है। लेकिन, भाजपा अभी भी मायावती सरकार के खिलाफ कुछ भी कड़ाई से नहीं बोल पा रही है। वजह शायद लोकसभा चुनाव 2009 के बाद के समीकरण का ध्यान है। अगर कुछ बहुत बदलाव नहीं हुए तो, देश भर में कुल मिलाकर मायावती की पार्टी को 35 से 45 सीटें मिल सकती हैं जो, केंद्र की लंगड़ी सरकार की बैसाखी बन सकते हैं। वैसे तो, उत्तर प्रदेश में मायावती और भाजपा का गठंधठन बुरी तरह से फ्लॉप हो चुका है। लेकिन, केंद्र में सत्ता की मलाई चखने को आतुर मायावती और खुद को पहले से ही एनडीए की ओर से पीएम इन वेटिंग कहलाने वाले लालकृष्ण आडवाणी के बीच कुछ तार जुड़ते से दिख रहे हैं।

आडवाणी को ये अच्छी तरह पता है कि ये चुनाव उनके लिए करो या मरो का चुनाव है। चतुर राजनीतिज्ञ आडवाणी को मायावती के बढ़ते प्रभाव का भी बखूबी अंदाजा है। बस, मायावती का अडियल रवैया थोड़ी मुश्किल कर सकता है। क्योंकि, माया मैडम अब प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं। साथ ही उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कई सीटों पर बसपा और भाजपा के प्रत्याशियों के बीच सीधा मुकाबला भी कुछ मुश्किल करेगा।

लेकिन, राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के आगे क्षेत्रीय या राज्य की महत्वाकांक्षा की तिलांजलि भारतीय राजनीति के लिए नया किस्सा नहीं होगा। मायावती की इस राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा ने पहले भी कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को ही फायदा पहुंचाया है। वैसे भी मायावती के सिर कभी भी तीसरे मोर्चे का भूत नहीं चढ़ता और वो, मुलायम की तरह लेफ्ट नेताओं के साथ मंच पर भाषण देने नहीं जातीं। ये भाजपा के लिए काफी सुकून की बात है। अब बस सवाल यही है कि मायावती को आडवाणी उपप्रधानमंत्री बनने के लिए मनाकर खुद प्रधानमंत्री बनते हैं या फिर मायावती सत्ता से बाहर रहकर सत्ता की सौदेबाजी का मन बनाती हैं। क्योंकि, मायावती खुलेआम कहती हैं- दलितों को समाज में सबसे ऊपरी तबके में शामिल करने के लिए वो किसी से भी किसी भी शर्त पर हाथ मिला सकती हैं। इस फॉर्मूले से उत्तर प्रदेश में तो, दलित, समाज का सबसे ऊपरी तबका हो गया है। तो, क्या अब बारी केंद्र की है।

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी  9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...