Friday, December 26, 2014

समाज की गंदी सोच का शिकार होती लड़कियां

दिल्ली में एक डॉक्टर के ऊपर हुए एसिड हमले के बाद सरकार ने तेजी से ये दिखाने की कोशिश की है कि उसने अपना काम कर दिया है। सरकार ने इस जघन्यतम अपराध की श्रेणी में डाल दिया है। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि इस तरह के अपराध करने वालों को उम्र कैद या फिर फांसी की सजा हो सकती है। लेकिन,
क्या इससे इस अपराध पर रोक लग सकेगी। फांसी की सजा या ज्यादा से ज्यादा सजा देकर अपराध रोकने का एक सिद्दांत है और वो काफी हद तक काम भी करता है। बलात्कार के मामले में भी इसीलिए बार-बार ये मांग उठती रही कि बलात्कार के अपराधियों को सीधे फांसी की सजा दी जाए। और किसी लड़की के चेहरे या फिर उसके शरीर पर तेजाब फेंककर उसे सजा देने की कोशिश भी काफी हद तक किसी लड़की के साथ बलात्कार करने जैसा ही है। बल्कि, कई मायने में तो किसी लड़की के शरीर या चेहरे पर तेजाब फेंकना, जान से मारने या बलात्कार करने से भी ज्यादा जघन्य है। क्योंकि, किसी लड़की के शरीर या चेहरे पर तेजाब फेंकने के अपराधियों के खिलाफ सरकारी या कानूनी तरीके से जितनी भी कड़ी से कड़ी सजा दी जाए वो, जायज ही है। सरकार ने अपनी तरफ से इसको लेकर समाज में गुस्से को कम करने की हरसंभव कोशिश की है। और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जिस तरह से तेजी से इस मसले पर प्राथमिकता दिखाई है उसकी तारीफ की जा सकती है। गृहमंत्रालय की ओर से बयान में कहा गया है ऐसे मामलों में 60 दिनों के भीतर फैसले की कार्रवाई की जाएगी। साथ ही सरकार स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिलकर एक प्रस्ताव पर काम कर रही है।
जिससे एसिड हमले की शिकार लड़की का इलाज बिना किसी भी परेशानी के कैशलेस हो सके। ऐसी पीड़ित महिलाओं को विकलांग श्रेणी में आरक्षण देने, सरकार की तरफ से कर्ज देने और दूसरी सहायता की बात भी सरकार कर रही है। शायद ये सब पिछले साल 16 दिसंबर को हुए निर्भया मामले का भी दबाव है। दिल्ली में
पिछले साल हुई 16 दिसंबर के बाद कम से कम लड़कियों के मानवाधिकारों को लेकर संवेदनशीलता बढ़ी है। लेकिन, अभी हमारा भारतीय समाज शायद आधी आबादी को लेकर अपने मनस को संतुलित करने में नाकाम ही रहा है।

दरअसल किसी लड़की के ऊपर तेजाब फेंकने की घटना को सिर्फ उसके शरीरिक नुकसान के तौर पर हम देखेंगे तो फिर हर इस तरह की घटना के बाद सरकारों का हरकत में आना, कड़े से कड़ा कानून बनना और उसके लागू होने को ही हम इस समस्या का हल मान लेंगे। और फिर अगली इसी तरह की नीच सोच की घटना के बाद फिर से जागेंगे। यही दरअसल हम भारतीयों का आधी आबादी की समस्याओं को लेकर ज्यादातर बर्ताव रहता है। इसलिए जरूरी है कि आधी आबादी के खिलाफ पुरुषों के बलात्कार और एसिड फेंकने की घटना के मनोविज्ञान पर बात हो। इसकी निंदा हो। उसकी शिकार महिला को अलग से सम्मान न मिले तो कम से कम तेजाब फेंकने से पहले जैसे सम्मान मिले। दरअसल हमारे समाज में दो तरह की तरह मान्यताएं
काम करती है। और दुखद ये कि दोनों ही शर्मनाक मान्यताएं लड़कियों के ही खिलाफ जाती हैं। समाज की पहली मान्यता ये कि लड़की तो सुंदर ही होनी चाहिए। यानी लड़के के संदर्भ में ऐसी कोई मान्यता हमारे समाज ने तय ही नहीं की है तो उसे लड़के के सुंदर होने न होने से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हमारे गांव देहात में एक कहावत बेहद प्रचलित है कि घी क लड्डू टेढ़मेढ़। इसका भावार्थ ये कि घी का लड्डू टेढ़ामेढ़ा भी हो तो खास फर्क नहीं पड़ता। मतलब लड़की के जन्म के साथ उसकी सुंदरता को हर पैमाने पर कसना शुरू हो जाता है। और इसी के साथ ये मान्यता भी हमारे समाज में घर कर चुकी है कि अगर किसी लड़की की सुंदरता में जरा भी कमी है या आ गई तो वो कमतर हो जाती है। या इसे थोड़ा और आगे ले जाएं तो कम सुंदर हुई लड़की के लिए ये दंड जैसा ही है। ठीक ऐसी ही सोच समाज लड़कियों के शीलभंग को लेकर रखता है। हालांकि, बदलते समय के साथ काफी वर्जनाएं टूटी हैं। काफी परिवर्तन हो रहा है। लेकिन, फिर भी किसी लड़की का शीलभंग समाज को बर्दाश्त नहीं है। ऐसी लड़की के लिए समाज का सामना करना मुश्किल होती है। और ये तब है जब हमारा समाज पहले से काफी जाग चुका है। वो बलात्कार की शिकार लड़की या फिर तेजाब फेंकने पर स लड़की के समर्थन में सड़कों पर उतरता दिखता है। आवाज उठाता दिखता है। लेकिन, ये सब सार्वजनिक तौर पर समाज में सभ्य रहने का शायद दबाव ज्यादा है। क्योंकि, निजी तौर पर अभी भी हमारे समाज में कितने पुरुष या कितनी महिलाएं होंगी जो बलात्कार या तेजाब की वजह से सुंदरता के सामाजिक पैमाने पर कमतर हुई लड़की को सम्मान की नजर से देखते हैं। दरअसल सारी मुश्किल इसी नजर की है। इसीलिए जब किसी पुरुष को कोई महिला उसकी इच्छा के खिलाफ जाती हुई दिखती है तो वो इन्हीं दोनों
पैमाने पर लड़की को कमतर करने की योजना बनाता है।

समाज के पैमाने पर महिलाओं को अपमानित करने की इसी गंदी, घिनौनी मानसिकता का शिकार लड़कियां हो रही हैं। पुरुष को लगता है कि उसने जिस लड़की का बलात्कार कर दिया तो अब समाज में किसी भी दूसरे पुरुष की नजर उसे सम्मान नहीं मिलेगा। ठीक इसी तरह से पुरुष अपनी इच्छा को नकारने वाली लड़की की
सुंदरता को सामाजिक पैमाने पर कुरूप करके भी सुख पाता है। क्या किसी लड़की का चेहरा तेजाब से जल जाने या फिर उसके साथ जबर्दस्ती शारीरिक संबंध बना लेने से उस लड़की के मूल व्यक्तित्व में कहीं से भी कोई कमी आती है। इसका जवाब है- बिल्कुल नहीं। लेकिन, समाज की नजर में वो कमतर हो जाती है। या कमतर नहीं तो थोड़ा उदार हृदय समाज के लोग ऐसी लड़की के साथ सहानुभूति जताने लगते हैं। यही ऐसी घटनाओं की मूल वजह है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि अगर मां-बाप लड़कों को टोंकने लगे तो हमारा
समाज अपने आप सुधर जाएगा। उसे मैं थोड़ा और आगे ले जाता हूं। अगर भारतीय मां-बाप, परिवार. समाज कुकर्मी लड़कों को हिकारत की नजर से देखने लगे। कुकर्म करने वाले लड़कों को अपमानित करके लड़कियों को सम्मान देने लगे तो शायद बलात्कार करके और तेजाब फेंककर लड़की को अपमानित करने की इच्छा रखने वाले पुरुषों की सोच बदले। जरूरत इस नजरिए समाज, परिवार को लड़के की परवरिश करने की है। कड़े कानून, ढेर सारी सहानुभूति मिलना ये तो पीड़ित होने के बाद का है। अगर लड़कियों को इस पीड़ा से बचाना है। लड़कियों को उनके सपने मरने से बचाना है। उनके लिए लड़कों के बराबर के मौके तैयार करना है तो समाज को अपना नजरिया बदलना होगा। वो नजरिया बदलना होगा जो बलात्कारी या तेजाब फेंकने वाले पुरुष को अपमान देने के बजाए पीड़ित लड़की को अपमानित करता है या फिर उसके साथ सहानुभूति जताता नजर आता है। इस तरह की घिनौनी घटनाओं की असल जड़ यही है।

Friday, December 05, 2014

बंगाल में दक्षिणपंथ, दीदी और वामपंथ

अमित शाह को अभी भी राष्ट्रीय मीडिया भारतीय जनता पार्टी के पुराने राष्ट्रीय अध्यक्षों की तरह सम्मान देने को तैयार नहीं है। दिल्ली में बैठे पत्रकार अभी भी ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि भारतीय जनता पार्टी को जो अप्रत्याशित सफलता देश के हर हिस्से में मिल रही है, उसमें मोदी लहर के अलावा अमित शाह की शानदार सांगठनिक क्षमता का भी कमाल है। अभी अगर ऐसी सफलता राजनाथ सिंह या किसी हिंदी पट्टी के नेता के नेतृत्व में बीजेपी को मिल रही होती तो यही हिंदी मीडिया उस अध्यक्ष को महानतम साबित कर देता। उसके पीछे सबसे बड़ी वजह ये है कि दिल्ली के पत्रकारों से या ये कह लें कि ज्यादातर पत्रकारों से अमित शाह कम ही मिलते-जुलते हैं। इस वजह से निजी तौर पर पत्रकारों के पास अमित शाह को समझने की दृष्टि कम ही बन पाती है। पत्रकार अमित शाह को गुजरात में नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद के तौर पर हर बुरे काम से जोड़कर याद करना ज्यादा पसंद करते हैं। उसके पीछे वजह ये कि आसानी से साबित किया जा सकता है। लेकिन, अगर अमित शाह को समझना है और अमित शाह की संगठन चलाने की क्षमता समझना है तो इसके लिए अमित शाह को सुनना होगा। फिर चाहे वो निजी बातचीत में हो या फिर अमित शाह को भाषणों को सुनना हो। मीडिया में उत्तर प्रदेश और बिहार से जुड़े पत्रकार सबसे ज्यादा हैं। इसलिए थोड़ा अंटक-अंटककर  फिर धाराप्रवाह हिंदी न बोलने वाला नेता उन्हें कम ही अपील कर पाता है। क्योंकि, वो हिंदी धाराप्रवाह न बोलने वाले नेता के भाषणा को ज्यादा सुनते भी नहीं हैं। मतलब ये कि अमित शाह खुद पत्रकारों से निजी तौर पर घुलना-मिलना कम ही पसंद करते हैं और अमित शाह की पुरानी छवि और धाराप्रवाह हिंदी न होने के कारण ज्यादातर हिंदी पत्रकार उनके भाषणों को दूसरे नेताओं की तरह ध्यान से सनते ही नहीं है। इससे हो ये रहा है कि अमित शाह को समझने का पत्रकारों का काम अधूरा ही रह जा रहा है और इसी आधार पर वो अपना विश्लेषण दे रहे हैं। जाहिर अधूरी समझ का विश्लेषण भी पूरा भला कैसे हो सकता है। अब ये बात मैं क्यों कह रहा हूं इसकी वजह बताता हूं। अमित शाह को जब उत्तर प्रदेश का  प्रभारी बनाया गया था तो उत्तर प्रदेश बीजेपी के एक नेता ने कहा अरे ई उत्तर प्रदेश है। अब अमित शाह हमें राजनीति बताएंगे। वो उत्तर प्रदेश के नेता बरसों से पार्टी कार्यालय में जमे हैं। उनकी राजनीतिक समझ इसी तरह से बनती बिगड़ती रही है। लेकिन, अमित शाह उत्तर प्रदेश में राजनीति समझने-समझाने नहीं, दरअसल संगठन बनाने आ रहे थे। और निजी बातचीत में कुछ ही दिन में उत्तर प्रदेश के नेता ये मानने लगे थे कि अमित शाह बोलते कम हैं लेकिन, काम बहुत ज्यादा करते हैं। संगठन की अमित शाह को गजब की समझ है। और इसीलिए जब लोकसभा चुनाव के समय अमित शाह मीडिया से मुखातिब होते थे तो अमित शाह मीडिया के किसी भी निष्कर्ष को एक झटके में खारिज कर देते थे। जाहिर है अमित शाह बेहतर समझ के साथ राजनीति कर रहे थे। इसीलिए मीडिया को हरियाणा और महाराष्ट्र में अक्खड़ अमित शाह तो नजर आया लेकिन, अपनी पार्टी संगठन के लिए दूसरों की योजना को मटियामेट करने वाला अमित शाह नजर नहीं आया।

अब अमित शाह जिस एजेंडे पर हैं वो मीडिया समझ तो रहा है लेकिन, अभी भी उसका सही विश्लेषण शायद नहीं कर पा रहा है। इसकी वजह ये कि कोलकाता में अमित शाह की रैली को विवादों के बाद मंजूरी तो  मीडिया की नजर में आई लेकिन, मीडिया की नजर में बहुत ज्यादा वो तैयारी नहीं आ पाई जो, कोलकाता रैली के लिए अमित शाह ने की थी। कोलकाता में वो एक बेहतर रैली कही जा सकती है। और सबसे बड़ी बात ये कि उस रैली में नौजवानों, महिलाओं की भागीदारी जमकर थी। अमित शाह वहां भी पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी सरकार की बात कर रहे थे। क्योंकि, अमित शाह को ये पता है कि इसी बहुमत न पा सकने वाली पार्टी के तौर पर बीजेपी का चरित्र चित्रण पिछले छे दशकों में ऐसे हो चुका है कि गठजोड़ की बात आते ही बीजेपी दूसरे दर्जे की पार्टी नजर आने लगती है। इसीलिए अमित शाह कहीं भी गठजोड़ की बात नहीं कर रहे हैं। इसीलिए अमित शाह ने स्वाभाविक तौर पर साथी रही शिवसेना से भी किनारा करने में जरा सा भी गुरेज नहीं किया। यही अमित शाह की सबसे बड़ी ताकत है। अमित शाह को पता है कि उनकी ताकत तभी है जब भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत की सरकारें देश में चलाए। अमित शाह कोलकाता की रैली में तृणमूल कांग्रेस को घोटाले और आतंकवाद से जोड़ रहे थे। लेकिन, अमित शाह को पता है कि ये बंगाल है और यहां मुसलमानों का ध्रुवीकरण उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा साबित हो सकती है। इसीलिए जब रैली में भाषण करते उनके कानों में नमाज की आवाज सुनाई दी तो वो रुक गए और करीब चार मिनट तक शांत रहे। उन्होंने ये कहा भी कि ममता दीदी को कोई मौका नहीं देना है।

अमित शाह की ये रणनीति बंगाल में ये ममता बनर्जी के लिए तो चिंता की वजह है ही। राजनीतिक वामपंथ के लिए ये ज्यादा बड़ी चिंता की वजह बन सकता है। दरअसल जब बंगाल में ममता बनर्जी राजनीतिक वामपंथ से लड़ रहीं थीं तो चुपचाप उग्र, कट्टर वामपंथ ने धीरे से ममता की तृणमूल कांग्रेस की छांव में आना शुरु कर दिया था। दरअसल ये जो तृणमूल कांग्रेस और राजनीतिक वामपंथियों की लड़ाई बंगाल में पिछले कुछ समय से दिख रही है ये लड़ाई राजनीतिक वामपंथ और उग्र वामपंथ के बीच ही है। हां, उग्र वामपंथ ने तृणमूल कांग्रेस का बैनर जरूर थाम लिया है। लेकिन, अब जो खबरें आ रही हैं वो पहली बार हैं कि भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े संगठन भी मुकाबले में हैं। बंगाल में अराजकता की राजनीति बहुत ज्यादा रही है। भले वो राष्ट्रीय मीडिया की नजर में इसलिए नहीं आती रही कि वामपंथ से जुड़े पत्रकार इस मसले पर लिखने-बोलने से बचते रहे। इसलिए वहां सड़कों पर खून खराबे से भी किसी राजनीतिक दल की ताकत का अंदाजा लगता है। अब भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े संगठन भी सड़कों पर खून खराबे के मुकाबले में उतर पड़े हैं। इसका मतलब ये कि बंगाल की धरती पर दक्षिणपंथी, राजनीतिक और उग्र वामपंथ दोनों से लड़ने लायक हो गए हैं। और ये छोटी बात नहीं है। यही अमित शाह की सांगठनिक क्षमता का कमाल है। जबकि, पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के संगठन की कमान जिन राहुल सिन्हा के हाथ में है वो कमजोर कड़ी माने जा रहे हैं। इसलिए ये भी चर्चा है कि अमित शाह यहां प्रदेश अध्यक्ष बदलकर किसी और को ला सकते हैं। कोई ऐसा जो पश्चिम बंगाल में बस चुके, कारोबार कर रहे हैं बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को भी साध सके। राहुल सिन्हा की मुश्किल ये है कि देश भर में नरेंद्र मोदी की लहर और अमित शाह की सांगठनिक क्षमता के बावजूद वो बंगाल में संगठन में बेहतर लोगों को लाने में अक्षम साबित हुए हैं। यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी को बंगाल के बड़े चेहरों को बीजेपी से जोड़कर अपील तैयार करनी पड़ रही है। बाबुल सुप्रियो, बप्पी लाहिरी के बाद कुमार सानू और अभिनेत्री रितुपर्णोंसेन गुप्ता का भाजपा में आना इसी कवायद का हिस्सा है।

पश्चिम बंगाल अमित शाह की प्राथमिकता में है। इसीलिए अमित शाह ने प्रदेश भाजपा को एक करोड़ की सदस्यता का लक्ष्य दे रखा है। हालांकि, राहुल सिन्हा की अगुवाई वाली बीजेपी फिलहाल इसमें पिछड़ती सी दिख रही है। और दिल्ली में बीजेपी नेता इससे खुश नहीं है। अमित शाह हर मोर्चे पर चाक चौबंद हैं। इसीलिए पश्चिम बंगाल की बुद्धिजीवियों वाली धरती पर जाने माने पत्रकार और अभी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता एम जे अकबर को लगाया गया है। एम जे अकबर की अगुवाई में एक बुद्धिजीवियों की रैली भी कोलकाता में हो चुकी है। इस रैली में एम जे अकबर ने कहाकि बंगाल की जनता को रोजगार देने के बजाय ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस राज्य को लूटने में लगी है। अकबर लोगों से अपील कर रहे हैं कि 35 साल लाल सलाम ने बंगाल को बर्बाद किया। अब शारदा सलाम बर्बाद कर रहा है। और इसमें पूरी तरह से ममता बनर्जी का ही हाथ है। और लोकसभा चुनाव के पहले तक सिर्फ 6 प्रतिशत वोट वाली बीजेपी लोकसभा चुनाव में 16 प्रतिशत तक पहुंची तो राज्य में सभी पार्टियों की रणनीति बदलती दिख रही है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का पूरा ध्यान कांग्रेस और लेफ्ट से हटकर अब सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की तरफ है। वो किस तरह हड़बड़ाई हुई हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस की युवा शाखा के अध्यक्ष और ममता बनर्जी के भांजे अभिषेक बनर्जी ने बीजेपी अध्यक्ष राहुल सिन्हा के भाई सुदीप के तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने को बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया। जबकि, सुदीप काफी पहले से तृणमूल कांग्रेस की युवा शाखा से जुड़ा हुआ है। सीपीएम ने भी ममता बनर्जी से सीधे-सीधे मिलने के बजाय बीच में कांग्रेस को माध्यम की तरह इस्तेमाल करने की रणनीति तैयार की है। खबरें तो ये हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सीपीएम के साथ हाथ मिलाने को मंजूरी दे दी है। लेकिन, मुश्किल ये है कि अगर कांग्रेस सीपीएम, तृणमूल और बीजेपी के बीच त्रिकोणीय मुकाबला होता तो, उसमें भी भारतीय जनता पार्टी को बढ़त मिलती दिख रही है। 27 प्रतिशत मुसलमानों का होना भी इन्हें आश्वस्त नहीं कर पा रहा है। इसीलिए एक ऐसा विकल्प तैयार करने की कोशिश हो रही है कि मुसलमान मतों का विभाजन कम से कम हो। लेकिन, ये सब अमित शाह की उस रणनीति के कारगर होने के संकेत हैं जिसमें वो विपक्षी को पहले ही इतना डरा देते हैं कि वो लड़ाई के मैदान में ज्यादा हिस्सा हथियाने के बजाय अपना हिस्सा बचाने में ही सारी ताकत झोंकने लगता है। इसलिए बंगाल की बेहद दिलचस्प लड़ाई भारतीय राजनीति के इतिहास में अद्भुत तरीके से शामिल होने जा रही है। दक्षिणपंथ और वामपंथ की राजनीति का इतना नजदीकी से मुकाबला शायद अभी तक नहीं हुआ है। 

Thursday, November 20, 2014

विचार महत्वपूर्ण या व्यवहार

विचार ही असल है। विचार कभी मरता नहीं है। विचार जीवित रहे तो सब जीवित रहता है। हममें से ज्यादातर की सोच कुछ ऐसी ही रहती है। और शायद यही वजह है कि हम ज्यादातर घटनाओं, बदलावों को दूसरे नजरिये से ही देखते, समझते रहते हैं। हमारी सारी लड़ाई, तर्क यहीं जाकर अंटक जाते हैं कि फलाना विचार सफल हो गया है और ढिमकाना विचार असल हो गया है। फिर उस विचार को हम नाम दे देते हैं। धर्म (धर्म के नाम पर जो, जो याद आ रहा हो जोड़ लीजिए मैं कितना लिख सकूंगा और मुझे तो सब पता भी नहीं है), कर्मकांड, पंथ (दक्षिणपंथ, वामपंथ, तटस्थ, तुष्टीकरण ... ऐसे और ढेर सारे)। फिर बात होती है कि इस विचार की ताकत देखिए कि इतनी बड़ी क्रांति हो गई। बात होती है कि उस विचार की ताकत देखिए सब क्रांति धरी की धरी रह गई। फिर बात होती है कि ये विचार ही तो है कि इतनी बड़ी पार्टी हर झटके से उबर गई। उसी में ये भी बात होती है कि वो विचार ही तो उस पार्टी को ले डूबा। हम ऐसे ही बात करते हैं। विचार, विचारक- हम इसी में निपटे जाते हैं।

फिर हम नाम जोड़कर विचार को जोड़ देते हैं। राम का विचार, कृष्ण का विचार, दयानंद, विवेकानंद का विचार, मार्क्स, लेनिन का विचार, गांधी का विचार, नेहरू का विचार फिर ऐसे चले आइए तो दुनिया के नेताओं की छोड़ें, भारत में अभी नरेंद्र मोदी का विचार। लगता है कि सब विचार ही है जो सब करता है। और विचार ही महत्वपूर्ण है। और तो और बुखारी का विचार, आसाराम का विचार और ताजा-ताजा बात करें रामपाल का विचार। हिसार के बरवाला में जो कुछ हुआ उसे विचारक इस तौर पर देख ले रहे हैं कि ये दो विचारों की लड़ाई थी। आर्यसमाजी विचार और कबीरपंथी विचार। इससे भी आगे मामला बढ़ गया। कहा ये भी जा रहा है कि कांग्रेस की सरकारी रामपाल के विचारों की थी। इसलिए सब मस्त रहा। अब आई बीजेपी की सरकार के विचार आर्यसमाजी हैं। इसलिए रामपाल के लिए सब पस्त हो गया।

लेकिन, मैं जब देख पा रहा हूं तो दरअसल दुनिया की हर लड़ाई व्यवहार की लड़ाई है। विचार की कोई लड़ाई ही नहीं है। विचार तो जबरदस्ती, ऐसे ही रामपाल टाइप बरवाला गांव जैसा अपना किलानुमा आश्रम बनाने के लिए बता दिया जाता है। विचार तो लगभग सब एक ही हैं। आप किसी भी धर्म, विचार की बुराई खोजने चलिए तो लाख मिलेंगी। लगे हाथ अच्छाई खोजिए। सबमें लगभग एक जैसी ही अच्छाई मिलेगी। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि दरअसल ये सब विचार से ज्यादा व्यवहार का मसला है। विचार मैं मानता हूं कि वो उतना ही आवश्यक है जैसे कि बिना स्नातक हुए आईएएस की परीक्षा में शामिल ही नहीं हो सकते। बस उतना ही। उसके आगे क्या स्नातक होने का विचार किसी को आईएएस बना सकता है। नहीं ना। उसके लिए व्यवहार चाहिए। व्यवहार आईएएस पास करने के लिए जरूरी पढ़ाई करने का। हम मानें तर्कों के आधार पर कि, अलग-अलग विचार हैं तो फिर एक विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते अलग-अलग क्यों हो जाते हैं। दिखने लगते हैं। मतलब विचार जरूरी है लेकिन, तय व्यवहार करता है। वरना अलग-अलग विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते एक से क्यों दिखने लगते हैं। अब सोचिए, सब अगर विचार से ही तय होता है तो, नरेंद्र मोदी को महात्मा गांधी के व्यवहारों की आड़ क्यों लेनी पड़ती। सफाई को ही ले लें तो, सफाई को विचार मानेंगे या व्यवहार। अब अगर सफाई विचार मानेंगे तो दुनिया के किसी भी विचार के बारे में बताइए जहां विचार के तौर पर सफाई को जरूरी न माना गया हो। लेकिन, व्यवहार के तौर पर ही सफाई किसी का विचार बन जाती है, किसी का नहीं। ऐसे ही ईमानदारी की बात करें। बताइए ना विचार के तौर पर कौन बेईमान होना, दिखना चाहता है। लेकिन, व्यवहार के तौर पर। इसीलिए मैं बहुत गंभीरता ये बात मानने लगा हूं कि सारा महत्व व्यवहार का है। विचार के तौर पर दुनिया के सारे विचार अच्छा ही विचारते हैं।


अब सोचिए। ये व्यवहार है या विचार कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी प्रचंड बहुमत हासिल कर लेती है। और यही भारतीय जनता पार्टी 160-180 के ऊपर किसी भी विचार से, किसी विचारक को नहीं जाती दिख रही थी। सब अगर विचार ही तय करता तो महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के विचार तो कांग्रेस की बुनियाद हैं। लेकिन, ये व्यवहार ही था। जो, विदेशी मूल की सोनिया वाली विचार ही असल है। विचार कभी मरता नहीं है। विचार जीवित रहे तो सब जीवित रहता है। हममें से ज्यादातर की सोच कुछ ऐसी ही रहती है। और शायद यही वजह है कि हम ज्यादातर घटनाओं, बदलावों को दूसरे नजरिये से ही देखते, समझते रहते हैं। हमारी सारी लड़ाई, तर्क यहीं जाकर अंटक जाते हैं कि फलाना विचार सफल हो गया है और ढिमकाना विचार असल हो गया है। फिर उस विचार को हम नाम दे देते हैं। धर्म (धर्म के नाम पर जो, जो याद आ रहा हो जोड़ लीजिए मैं कितना लिख सकूंगा और मुझे तो सब पता भी नहीं है), कर्मकांड, पंथ (दक्षिणपंथ, वामपंथ, तटस्थ, तुष्टीकरण ... ऐसे और ढेर सारे)। फिर बात होती है कि इस विचार की ताकत देखिए कि इतनी बड़ी क्रांति हो गई। बात होती है कि उस विचार की ताकत देखिए सब क्रांति धरी की धरी रह गई। फिर बात होती है कि ये विचार ही तो है कि इतनी बड़ी पार्टी हर झटके से उबर गई। उसी में ये भी बात होती है कि वो विचार ही तो उस पार्टी को ले डूबा। हम ऐसे ही बात करते हैं। विचार, विचारक- हम इसी में निपटे जाते हैं।

फिर हम नाम जोड़कर विचार को जोड़ देते हैं। राम का विचार, कृष्ण का विचार, दयानंद, विवेकानंद का विचार, मार्क्स, लेनिन का विचार, गांधी का विचार, नेहरू का विचार फिर ऐसे चले आइए तो दुनिया के नेताओं की छोड़ें, भारत में अभी नरेंद्र मोदी का विचार। लगता है कि सब विचार ही है जो सब करता है। और विचार ही महत्वपूर्ण है। और तो और बुखारी का विचार, आसाराम का विचार और ताजा-ताजा बात करें रामपाल का विचार। हिसार के बरवाला में जो कुछ हुआ उसे विचारक इस तौर पर देख ले रहे हैं कि ये दो विचारों की लड़ाई थी। आर्यसमाजी विचार और कबीरपंथी विचार। इससे भी आगे मामला बढ़ गया। कहा ये भी जा रहा है कि कांग्रेस की सरकारी रामपाल के विचारों की थी। इसलिए सब मस्त रहा। अब आई बीजेपी की सरकार के विचार आर्यसमाजी हैं। इसलिए रामपाल के लिए सब पस्त हो गया।

लेकिन, मैं जब देख पा रहा हूं तो दरअसल दुनिया की हर लड़ाई व्यवहार की लड़ाई है। विचार की कोई लड़ाई ही नहीं है। विचार तो जबरदस्ती, ऐसे ही रामपाल टाइप बरवाला गांव जैसा अपना किलानुमा आश्रम बनाने के लिए बता दिया जाता है। विचार तो लगभग सब एक ही हैं। आप किसी भी धर्म, विचार की बुराई खोजने चलिए तो लाख मिलेंगी। लगे हाथ अच्छाई खोजिए। सबमें लगभग एक जैसी ही अच्छाई मिलेगी। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि दरअसल ये सब विचार से ज्यादा व्यवहार का मसला है। विचार मैं मानता हूं कि वो उतना ही आवश्यक है जैसे कि बिना स्नातक हुए आईएएस की परीक्षा में शामिल ही नहीं हो सकते। बस उतना ही। उसके आगे क्या स्नातक होने का विचार किसी को आईएएस बना सकता है। नहीं ना। उसके लिए व्यवहार चाहिए। व्यवहार आईएएस पास करने के लिए जरूरी पढ़ाई करने का। हम मानें तर्कों के आधार पर कि, अलग-अलग विचार हैं तो फिर एक विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते अलग-अलग क्यों हो जाते हैं। दिखने लगते हैं। मतलब विचार जरूरी है लेकिन, तय व्यवहार करता है। वरना अलग-अलग विचार से चले, पले-बढ़े चलते-चलते एक से क्यों दिखने लगते हैं। अब सोचिए, सब अगर विचार से ही तय होता है तो, नरेंद्र मोदी को महात्मा गांधी के व्यवहारों की आड़ क्यों लेनी पड़ती। सफाई को ही ले लें तो, सफाई को विचार मानेंगे या व्यवहार। अब अगर सफाई विचार मानेंगे तो दुनिया के किसी भी विचार के बारे में बताइए जहां विचार के तौर पर सफाई को जरूरी न माना गया हो। लेकिन, व्यवहार के तौर पर ही सफाई किसी का विचार बन जाती है, किसी का नहीं। ऐसे ही ईमानदारी की बात करें। बताइए ना विचार के तौर पर कौन बेईमान होना, दिखना चाहता है। लेकिन, व्यवहार के तौर पर। इसीलिए मैं बहुत गंभीरता ये बात मानने लगा हूं कि सारा महत्व व्यवहार का है। विचार के तौर पर दुनिया के सारे विचार अच्छा ही विचारते हैं।

अब सोचिए। ये व्यवहार है या विचार कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी प्रचंड बहुमत हासिल कर लेती है। और यही भारतीय जनता पार्टी 160-180 के ऊपर किसी भी विचार से, किसी विचारक को नहीं जाती दिख रही थी। सब अगर विचार ही तय करता तो महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के विचार तो कांग्रेस की बुनियाद हैं। लेकिन, ये व्यवहार ही था। जो, विदेशी मूल की सोनिया वाली कांग्रेस भी लगातार दस साल भारत पर राज कर गई। और ये भी व्यवहार ही था कि सबकुछ सजाकर मिलने के बाद भी राहल गांधी वाली कांग्रेस की समाप्ति की घोषणा लोग करने लगे। अरविंद केजरीवाल भी कोई विचार हैं क्या। नहीं अरविंद केजरीवाल शुद्ध तौर पर व्यवहार हैं। अगर शुद्ध तौर पर अरविंद केजरीवाल व्यवहार न होते तो वही अरविंद केजरीवाल देश हिलाते दिखते रहे और चार-छह महीने में क्या होगा कि अरविंद के विचार सुनने को देश तैयार नहीं। अरविंद के अस्तित्व का संकट टाइप खड़ा हो गया। ये सब व्यवहार ही है। विचार एक ही है। उसी विचार को कोई विचारक कैसे व्यवहार करता है यही तय करता है कि आखिर वो विचारक, उस विचार, व्यवहार के साथ कितना आगे तक, कितनी देर तक चलेगा। तय व्यवहार से होता है लेकिन, जिस विचार को विचारक आगे रख देता है। वही विचार मजबूत हो जाता है। जबकि, असल तो यही है कि व्यवहार ही माने रखता है। इसलिए व्यवहार बेहतर की बात करिए। वरना विचार के तौर पर तो रामपाल जैसा गुंडा भी सारी बुराइयों के खिलाफ था। लेकिन, अपने ही विचार को मानने वालों के साथ उसका व्यवहार अपहरणकर्ता जैसा रहा। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। 

खैर, मैं किसी विचार के वशीभूत न हो जाऊं। इसलिए प्रयास बस यही कि व्यवहार अच्छा चलता रहे। विचार तो अच्छा ही चलता है।कांग्रेस भी लगातार दस साल भारत पर राज कर गई। और ये भी व्यवहार ही था कि सबकुछ सजाकर मिलने के बाद भी राहल गांधी वाली कांग्रेस की समाप्ति की घोषणा लोग करने लगे। अरविंद केजरीवाल भी कोई विचार हैं क्या। नहीं अरविंद केजरीवाल शुद्ध तौर पर व्यवहार हैं। अगर शुद्ध तौर पर अरविंद केजरीवाल व्यवहार न होते तो वही अरविंद केजरीवाल देश हिलाते दिखते रहे और चार-छह महीने में क्या होगा कि अरविंद के विचार सुनने को देश तैयार नहीं। अरविंद के अस्तित्व का संकट टाइप खड़ा हो गया। ये सब व्यवहार ही है। विचार एक ही है। उसी विचार को कोई विचारक कैसे व्यवहार करता है यही तय करता है कि आखिर वो विचारक, उस विचार, व्यवहार के साथ कितना आगे तक, कितनी देर तक चलेगा। तय व्यवहार से होता है लेकिन, जिस विचार को विचारक आगे रख देता है। वही विचार मजबूत हो जाता है। जबकि, असल तो यही है कि व्यवहार ही माने रखता है। इसलिए व्यवहार बेहतर की बात करिए। वरना विचार के तौर पर तो रामपाल जैसा गुंडा भी सारी बुराइयों के खिलाफ था। लेकिन, अपने ही विचार को मानने वालों के साथ उसका व्यवहार अपहरणकर्ता जैसा रहा। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। खैर, मैं किसी विचार के वशीभूत न हो जाऊं। इसलिए प्रयास बस यही कि व्यवहार अच्छा चलता रहे। विचार तो अच्छा ही चलता है। 

Saturday, November 15, 2014

GOOGLE BLOG!

हिंदी को लेकर हम काफी हलाकान हुए रहते हैं। और इधर ये भरोसा बढ़ा है कि जब @narendramodi प्रधानमंत्री हो गए हैं तो हिंदी भी प्रधान भाषा हो जाएगी। लेकिन, जरा भारतीयों के लिए हिंदी के कंप्यूटर प्रयोग के सबसे बड़े मंच, साधन गूगल की तरफ ध्यान से देखिए। गूगल हिंदी ब्लॉगरों को विज्ञापन तो नहीं ही देता है। इसीलिए हिंदी ब्लॉगिंग सिर्फ शौक है। Google का कोई भी ऑफीशियल ब्लॉग पन्ना हिंदी में है ही नहीं। जाने कौन कौन सी भाषा में लोगों को गूगल अपनी योजनाओं, तकनीक की जानकारी दे रहा है लेकिन, भारतीयों के लिए सब अंग्रेजी में हैं। गजब है हम इत्ते अंग्रेज हो गए हैं। आप भी इस पन्ने पर जाइए और खुद देखिए।http://www.google.com/press/blog-directory.html  गूगल का जो इंडिया ब्लॉग है वो कहता है
News and Notes from Google India

Thursday, October 30, 2014

अच्छे दिन के पीछे कौन

सबकुछ ठीक रहा तो झारखंड, जम्मू कश्मीर चुनाव से पहले पेट्रोल-डीजल दोनों ही 2-3 रुपये लीटर सस्ता हो सकता है। वजह अंतर्राष्ट्रीय है। कच्चा तेल $85.14/बैरल हो गया है। रुपया भी डॉलर के मुकाबले लगभग स्थिर है। इससे मोदी सरकार के अच्छे दिन आ गए हैं। लेकिन, सच्चाई यही है कि इस समय कोई भी सरकार होती तो ये अच्छे दिन आते ही आते। तेल उत्पादन करने वाले देशों के संगठन को गिरते कच्चे तेल के भाव से चिंता हो रही है। हो सकता है कि कीमतों को गिरने से रोकने के लिए वो कुछ उत्पादन घटाने जैसा कदम उठाएं। 27 नवंबर को OPEC देशों की होने वाली बैठक में इस पर फैसला लिया जा सकता है। साथ ही सर्दियां शुरू हो रही हैं। अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में गैसोलीन की मांग तेजी से बढ़ेगी। हर तरह का कच्चा तेल महंगा हो सकता है। तब इस सरकार की असली परीक्षा होगी। तभी समझ में आएगा कि तेल नीति (मोटा-मोटा पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस जैसी कीमतें) के मामले में मोदी सरकार कितनी मजबूत है। और तभी ये भी तय होगा कि अच्छे दिन रह-रहकर आएंगे-जाएंगे या सचमुच आएंगे। खैर, सर्दियां बढ़ने तक सस्ते पेट्रोल-डीजल का मजा लीजिए।

Wednesday, October 29, 2014

काला धन वालों की खास सूची सिर्फ बतंगड़ पर!


बड़ी मुसीबत है। सुप्रीमकोर्ट ने सरकार से कह दिया है कि वो काला धन वाली सूची हमें तो दे ही दो। हम उसको किसी को नहीं बताएंगे। अच्छा रहा कि सुप्रीमकोर्ट अभी ये नहीं कह रहा है कि देश के हर काला धन वाले की सूची हमें सौंपो या देश को सौंपो। फिर तो मामला एकदम गड़बड़ा जाएगा साहब। देश की सरकार को जनसंख्या जानने से भी बड़ी मुहिम चलानी पड़ जाएगी। सड़क पर बैठा मोची, सुबह दूध देने वाला, हमारा धोबी, हमारी गाड़ी साफ करने वाला, हमारा सब्जी वाला, हमारी काम वाली सब काले धन के खातेदार हैं। हालांकि, इन काले धन वालों में कितनों का खाता खुला होगा। भगवान जानता होगा या वो काले धन वाले खुद जानते होंगे। सोचिए हर रोज जो चाय नाश्ता हम-आप सड़क किनारे की दुकान पर करते हैं। कितने की रसीद लेते हैं। तो जाहिर बिना बिल का कोई भी भुगतान काला धन हो गया। अब भारतीय रुपये का नोट हरा हो, लाल हो या फिर और रंग का। लेकिन, कानूनी पैमाने पर तो एक झटके में हर नोट काला हुआ जाता है। सोचिए घर का खर्च चलाने का पैसा नहीं है ये सड़क पर बैठा मोची हर रोज कहता होगा। लेकिन, उसने कब कहा कि उसके पास भी काला धन है। अब सोचिए देश के हर काला धन वाले का हिसाब लगाना पड़ा तो मोदी सरकार के पांच साल तो इसी में बीत जाएंगे। सारा आधार, जनसंख्या रजिस्टर, बायोमीट्रिक सिस्टम सब गड़बड़ा जाएगा। 


अर कौन-कौन से तो विभाग हैं। बिना पंजीकरण के दुकान लगी तो उसके लिए जिम्मेदारी अधिकारी, कर्मचारी, विभाग भी काला धन का जिम्मेदार। नौकरी करने वाला पूरी ईमानदारी से टैक्स भरे लेकिन, काला धन में वो भी जिम्मेदार। चाय की दुकान सड़क किनारे लगी तो नगर निगम, प्राधिकरण का अधिकारी जिम्मेदार। और वो सेल्स टैक्स वाला जो हर कारोबारी का टिन नंबर जांचता है वो भी तो काला धन का जिम्मेदार। अमूल दूध की अरबों की कंपनी। लेकिन, दूध के आधा लीटर पैकेट का बिल नहीं दिया तो वो भी काला धन की जिम्मेदार। मतलब सफेद दूध की क्रांति करने वाली कंपनी भी जाने-अनजाने गजब काले धन की क्रांति में शामिल है। फिर सोचिए। देश का हर सरकारी विभाग क्या कर रहा होगा। सिर्फ एक काम। नोटिस जारी करना। सेल्स टैक्स विभाग के अधिकारी, कर्मचारी खड़ें होंगे सड़क किनारे की दुकानों पर एक दिन में कितना कमाया। इस कमाई के लिहाज से उस दुकान को कितना सेल्स टैक्स देना होगा। फिर वहीं खड़ा होगा इनकम टैक्स विभाग वाला। पूछेगा- इतना बेचा तो कितना कमाया। और इतना कमाया तो टैक्स कितने का दिया। टैक्स नहीं दिया तो क्यों नहीं दिया। और दिया तो कम क्यों दिया। मतलब काला धन बढ़ाया। सारे स्वच्छता अभियान, जनधन योजना, सीधे खाते में सब्सिडी की रकम -- सबके रंग इस काले धन वाली मुहिम के सामने उतर जाएंगे। वैसे भी काले रंग के आगे भला कौन सा रंग टिका है आजतक। 

किसी ने कहा तो भगवान श्रीकृष्ण के संदर्भ में होगा कि सब रंग कच्चा संवरिया रंग पक्का। ऐसे ही थोड़े न ब्लैक इज ब्यूटीफुल लिखी लाइनें खूब चलीं होगीं। लेकिन, काला दिखाने का प्रचलन द्वापरयुग के बाद खत्म सा हो गया। और ये तो घोर कलियुग है साहेब। इस कलियुग में तो काला रंग छिपाने के लिए ढेर सारी क्रीम मौजूद है। जब काला रंग छिपाने के लिए इतना इंतजाम हमारे कलियुग में है तो भला काला धन छिपाने के लिए क्यों न हो। काले धन को तो हम जबर्दस्ती काला कह रहे हैं। कम से कम भारत में तो किसी नोट का रंग काला नहीं है। फिर भी सुप्रीमकोर्ट ने कह दिया है तो नई-नई श्रेणियों में सुप्रीमकोर्ट में काला धन वालों के लिफाफे जाएंगे। छोटे काले धन वाले की सूची, मोटे काले धन वालों की सूची। सड़क किनारे काला धन वालों की सूची, म़ॉल के काला धन वालों की सूची। और बढ़िया होगा कि शहरों की भी काला धन सूची आए। और शहरों में मोहल्ले और फिर मोहल्ले में गलियों की काला धन सूची आए। देश के व्यवस्थित चंडीगढ़, नोएडा, गुड़गांव और ग्रेटर नोएडा जैसे व्यवस्थित शहरों से सेक्टरों की अलग-अलग काला धन सूची आ जाएगी। कितना मजा आएगा जब किसी अखबार की हेडलाइन होगी। मध्यप्रदेश के छोटे से गांव ने काला धन के मामले में मुंबई के कफ परेड इलाके को पीछे छोड़ा। लग जाओ सरकार। इससे बड़ी मुहिम दुनिया में कहीं-कभी नहीं चली होगी। भारत विश्व का नेता बनने जा रहा है। नया उदाहरण पेश होगा। 

Wednesday, October 22, 2014

मित्रों, माफ करना मैं चाहकर भी देशभक्त नहीं रह सका!

हालांकि, ये कोई देशभक्ति का पक्का वाला पैमाना नहीं है। इसलिए भी कि अब दुनिया के काम करने का तरीका बदल गया है। दुनिया में सबकुछ ग्लोबल है, लोकल भी है। लेकिन, इस बार जब देश की राजनीति ऐसे बदली कि तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। वो भी उस दल की जो, कई मायने में जबरदस्त अछूत है। तो इस पैमाने को फिर से तैयार किया गया। पता नहीं वो संदेश सचमुच नरेंद्र मोदी ने किसी को एक बार भी भेजा था या नहीं। लेकिन, लाखों बार ये संदेश एक दूसरे को भेजा गया। सोशल मीडिया के हर मंच पर भेजा गया। मेरे पास भी आया। संदेश कह रहा है कि इस दीपावली पर भारतीय, स्वदेशी सामानों का ही इस्तेमाल करना है। खासकर Made in China से बचने की सलाह है। वजह भी ये कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी Make In India की बात कर रहे हैं। हालांकि, ये प्रधानमंत्री Make In India कहकर देसी उद्योगपतियों से ज्यादा विदेशी उद्योगपतियों का आह्वान कर रहे हैं। फिर भी हमने सोचा कि इस प्रधानमंत्री की ये बात सुनते हैं। इसलिए खुद के खरीदे अपने घर की पहली दीपावली के लिए रोशनी Make In India या Made In India उत्पाद से ही करने का इरादा बनाया। लेकिन, पूरे भारतीय बाजार में चीन से आई, चमकती रोशनी की लड़ियों के बीच में एक भी भारतीय लड़ी मुझे नहीं दिखी। हारकर ये लड़ी मैं ले आया। घर की बालकनी में लटका दी।

ये परेशानी पहली बार नहीं हुई है। इससे पहले भी मेरे मन में कई बार स्वदेशी की बात आई। लेकिन, बार-बार ये अहसास हुआ कि ऐसा भावनात्मक प्रयास इस बाजार के समय में संभव नहीं है। क्योंकि, बाजार में जो सस्ता है, अच्छा है। वही बिकेगी, चलेगा। फिर चाहे चीन के पटाके, बिजली की लड़ियां हों या फिर लक्ष्मी गणेश की मूर्ति। लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति तो मुझे मिट्टी से बनी मिल गई। और मुझे लगता है कि कम से कम ये तो चीन से नहीं आई होगी। लेकिन, इस चीन के कारोबार में जो छिपी बात है। Make In India अभियान को सफल बनाने के लिए ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की समझ में ये बात होगी, मैं मानता हूं। 25 रुपये से 150 रुपये में एक बालकनी को चमकाने भर की बिजली की लड़ी अगर चीन से चलकर यहां आ पा रही है। तो ये सोचने-समझने-अनुकरण करने की बात है। भारत को इसी पर काम करना होगा। और ये ज्यादा जोर शोर, आक्रामक रणनीति के साथ इसलिए भी करना होगा कि नरेंद्र मोदी के  Make In India के खतरे को भांपते हुए शी जिनपिंग ने Made in China का नारा और बुलंद कर दिया है। शुभ दीपावली।

Tuesday, October 21, 2014

उम्मीद से होने से पहले सोचें!

महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर भाजपा के जो तीन नाम आ रहे हैं, उसे जानकार राजनीतिक, पीढ़ीगत बदलाव के तौर पर देख रहे हैं। मोदी-अमित शाह कुछ जादू करने के मूड में न हों तो, देवेंद्र फडणवीस, विनोद तावड़े और पंकजा मुडे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। विनोद तावड़े 50 से थोड़ा ही ऊपर हैं तो देवेंद्र 40 के ऊपर और पंकजा 40 के भी नीचे। देखने में ये राजनीति नौजवानों के हाथ में आ रही है। लेकिन, महाराष्ट्र समझने वालों के लिए एक छोड़ी सी जानकारी NCP (मोदी जी के मुताबिक नेचुरली करप्ट पार्टी) मुखिया शरद पवार 37 साल की उम्र में ही राज्य के मुख्यमंत्री बन गए थे। इसलिए उम्मीद से होने पहले सोचें, तब उम्मीद से हों तो बेहतर।

और अंत में

ये जो कुछ बड़का लोग हैं। जिन्होंने नरेंद्र मोदी के समर्थक को भक्त कहना शुरू किया या कहें पूरी तरह भक्त साबित कर दिया। उन लोगों का इस मोदी लहर में बड़ा योगदान है। अब भक्त होंगे तो भगवान के लिए कुछ भी कर गुजरेंगे। कर रहे हैं। भक्त श्रृंखला बन गई है।

जान मत दीजिए!

सबको शुभ धनतेरस, दीपावली। हिंदू धर्म इसीलिए मुझे भाता है कि यहां सब मस्त है, सब स्वस्थ है। तो जान मत दीजिए सोना-चांदी का सिक्का खरीदने के लिए। धनतेरस पर कुछ खरीदना शुभ है। इसमें सोना-चांदी कब शामिल हुआ, इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी दे सके तो बेहतर। मुझे लगता है कि इसके पीछे नीयत सिर्फ इतनी रही होगी कि घर में कुछ नया आए तो लोगों का मन खुश रहे और दूसरा ये कि कुछ खरीदेंगे ही। तो अपनी हैसियत के लिहाज से कारोबार, अर्थव्यवस्था बढ़ाने में मददगार रहेंगे। इसलिए जिनकी हैसियत है वो चांदी, सोना, हीरा कुछ भी खरीद लीजिए। बाकी अपनी जरूरत का सामान खरीदिए। चम्मच से लेकर कुकर तक। फिर से शुभ धनतेरस, दीपावली।


और अंत में
ये भारत में त्यौहार किसी बड़ी दैवीय साजिश का नतीजा लगते हैं। किसी भी हाल में न देश को दुखी रहने देते हैं, न देशवासियों को। इसीलिए हिंदुस्तान उत्सवधर्मी कहा जाता है। लीजिए फिर उत्सव के साथ धर्म लग गया। शुभ दीपावली।

Saturday, October 18, 2014

हिंदी में कुछ दिक्कत तो है!

ब्लॉग अड्डा की तरफ से एक मेल मेरे पास आया। इस मेल में लिखा है कि अगर आप इस प्रतियोगिता में शामिल होते हैं तो आपके INK Conference में नि:शुल्क प्रवेश मिलेगा। मुंबई में होने वाले इस कार्यक्रम के प्रवेश यानी Pass की कीमत 50 हजार रुपये बताई गई है। मुझे लगा मैं भी इसमें शामिल होता हूं। हालांकि, जिस तरह के लोग इसमें दिख रहे थे। उससे मेरी आशंका गहरा गई थी कि यहां भी हिंदी वाले अछूत ही होंगे। उनको प्रवेश नहीं मिलेगा। फिर भी मैंने हिम्मत करके ब्लॉगअड्डा के पन्ने पर जाकर ये सवाल पूछा कि क्या ये हिंदी ब्लॉगरों के लिए भी है। कई घंटे तक वो ब्लॉगअड्डा संचालकों की अनुमति का इंतजार करता रहा। फिर मेरा प्रश्न ही गायब हो गया। मतलब डिलीट कर दिया गया। वजह भी बड़ी साफ थी कि दो देशों के ब्लॉगरों को साथ मिलकर एक ब्लॉगपोस्ट तैयार करनी थी। और देश भले ही भदेस हिंदीभाषी को प्रधानमंत्री बना दे लेकिन, ये बाजार कहां मानने वाला है कि भारत में सिर्फ हिंदी में ब्लॉगिंग करने वाला विदेश के किसी ब्लॉगर से संवाद भी बना सकता है। इसलिए उन्होंने मेरे प्रश्न को डिलीट भी कर दिया कि उनका पन्ना हिंदी में लिखा बात से गंदा न दिखे।

Exclusive only because you are a part of BlogAdda! 
View this email in your browser

Connect with Bloggers 'Beyond Boundaries' & win a pass to INK Conference! 

We want YOU to be a part of India's most premier event where the likes of Kunal Bahl (Co-founder & CEO, Snapdeal.com), Anupama Chopra (Film Critic, Author), Dr. Shriram Nene (Surgeon, Serial Entrepreneur), Neeraj Arora (Vice President, WhatsApp Inc.), Rajan Anandan (Managing Director, Google India), Shantanu Moitra (Music director, composer), Usha Uthup (The Voice), Vidhya Subramanian (Bharatanatyam Dancer) and many others are going to speak. An event only the best attend. Be among the best. A chance to win a pass to INK 2014. (Exclusive to the BlogAdda community)

ठीक है कि ये उनका विशेषाधिकार है। लेकिन, भाई फिर किसी हैसियत से ब्लॉगअड्डा ने हम हिंदी ब्लॉगरों को अपने साथ जोड़ा और ऊपर लिखी मेल मेरे इनबॉक्स में ठेल दी। इस सबको देखकर मैं ये समझ पा रहा हूं कि
कुछ दिक्कत तो है। मार्क जुकरबर्ग भारत आए और हिंदी ब्लॉगरों, पत्रकारों से दूर रहे। हिंदी ब्लॉगिंग का उत्साह अंग्रेजी ब्लॉगिंग से कई गुना आगे हैं। लेकिन, हिंदी ब्लॉगिंग के ज्यादातर मंच, संकलक कुछ ऐसा नहीं कर पाए, जिससे बाजार उनके पीछे चले। सभा, बहस तक ही मामला रहा। वो भी बड़ी मुश्किल से। अंग्रेजी में वही मंच, संकलक बड़ा आगे तक बढ़ गए। अंग्रेजी ब्लॉगरों के नाम लिखकर चिढ़ाती हुई मेल भी इनबॉक्स में आ जाती है कि फलां ब्लॉगर $1000 से ज्यादा महीने में कमा रहे हैं। हिंदी ब्लॉगर सभा, संगोष्ठी में फाइल, कलम बटोरकर आ जाएं। इत्ते में ही खुश। कुछ दिक्कत तो है। सुलझ सके तो सुलझाइए।

लाइफ इन अ मेट्रो!

मातृशक्ति

आमतौर पर ये धारणा है कि सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं के लिए बड़ी मुश्किल है। उन्हें दुनिया भर की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उनके साथ हर तरह की बद्तमीजी होती है। लेकिन, मेट्रो में उस दिन मुझे दूसरा अनुभव हुआ। एक अधेड़ उम्र दंपति नोएडा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन से चढ़े। सीटें भर गईं थीं। लेकिन, अधेड़ उम्र महिला ने दो लोगों को थोड़ा-थोड़ा समेटा और अपने लिए जगह बना ली। महिला निश्चिंत थी। दोनों पुरुष सिमटे बैठे थे। अक्षरधाम स्टेशन पर उनके पति महोदय को मेरे बगल सीट मिल गई। पति को सीट मिलते ही वो अधेड़ उम्र महिला बिजली की गति से मेरे और अपने पति के बीच में जगह बनाने के लिए उपस्थित थी। मुझसे अपना शारीरिक उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं तुरंत उठ खड़ा हुआ। पति ने भी खड़े होकर मुझे बैठने को कहा। मैंने जवाब में खड़े रहना ही उचित समझा। पत्नी ने पति का हाथ पकड़ा और लगभग जबरदस्ती बैठा लिया।


बुजुर्ग

दो बुजुर्ग मेट्रो का दरवाजा खुलते ही मेट्रो में वृद्ध एवं विकलांगों के लिए लिखी वाली सीट की ओर दौड़े। एक ने कम उम्र व्यक्ति को उठाकर अपने लिए जगह बना ली। दूसरा बुजुर्ग ही बैठा था। लेकिन, दूसरे बुजुर्ग अतिसाहसी थे। वो दूसरी तरफ गए। और अनारक्षित सीट पर बैठे एक नौजवान को उठाकर अपने लिए सीट आरक्षित कर ली। जबरी।


किस्मत पर भरोसा
वो बुजुर्ग किसी से बात कर रहा था। फोन पर कह रहा था। व्हाट्सएप चेक किया। उधर से जो जवाब आया हो। बुजुर्ग ने कहा। अरे मैंने ग्रुप बना लिया है। रोज रात को एक संदेश भेज देता हूं। अच्छा लगे तो बहुत अच्छा। सिर्फ तीन लोग ही हैं उस ग्रुप में। और मैंने तो फेसबुक अकाउंट भी बना लिया है। मजा आ रहा है। जिंदगी है। उसमें सुबह भी होगी, दोपहर भी, शाम भी और रात भी। तो ऐसे ही जिंदगी चल रही है। मुझे रिटायर हुए 9 साल हुए। मैं अपनी जिंदगी शुरू हुए 9 साल ही मानता हूं। और जवानी में तो नहीं माना लेकिन, अब किस्मत पर भी थोड़ा बहुत भरोसा करने लगा हूं। और जोर से हा हा हा ...

Thursday, October 09, 2014

मिट्टी रो रही होगी

बच्चे मन के सच्चे होते हैं। ये बात हर कोई कहता रहता है। लेकिन, उसका अनुभव कभी-कभी गजब तरीके से होता है। अभी एक दिन खेल खेल में मुझे भी ये अनुभव हुआ। रविवार के दिन दोनों बेटियों को लेकर अपार्टमेंट के प्ले एरिया में था। झूला झूलते-झूलते बड़ी बेटी अमोलो ने पूछा। पापा ये मिट्टी क्यों दबा दी है। दरअसल हमारे अपार्टमेंट के प्ले एरिया में पता नहीं किस सोच से मिट्टी के ऊपर पूरी तरह से कंक्रीट डालकर पक्का कर दिया गया है। एक वजह हो सकती है कि झूलों और दूसरे खेलने वाले उपकरण मजबूती से जमे रहें। लेकिन, इससे हर समय ये खतरा बना रहता है कि बच्चे गिरे तो उनको चोट लग सकती है। अमोलो ने कहा- पापा मिट्टी रो रही होगी। क्यों मिट्टी को दबा दिया है। मैं जवाब नहीं दे सका। लेकिन, सच है कि हमारे अपने कर्मों से मिट्टी तो रो ही रही है। हमें विकास चाहिए। लेकिन, जाने-अनजाने सच्चे मन से अमोलो ने वो कह दिया जिसका जवाब खोजना असंभव है।

Tuesday, September 30, 2014

हम मन से गुलाम

हिंदुस्तान अखबार में 
ये खबर पढ़कर समझना मुश्किल है कि जयललिता इतनी महान नेता हैं या मरने, अस्पताल जाने वाले इतने बड़े मूर्ख थे, हैं। लेकिन, इतना तो आसानी से समझ में आ जाता है कि हम गजब गुलाम मन वाले देश में रहते हैं। जयललिता किसी भी तरह के महान कर्म की वजह से जेल नहीं जा रहीं थीं। जयललिता तमिलनाडु के उन लोगों के लिए भी जेल नहीं गईं, जो उनके लिए जान दे रहे हैं, देने को तैयार हैं। जयललिता भ्रष्टाचार की वजह से जेल गई हैं। और ये पहली बार नहीं हुआ है। इसके पहले भी कई बार देश के नेताओं की जान गई है या वो जेल गए हैं तो गुलाम मनस वाली जनता ने उनके लिए जान दी है। अब इसको आप चाहे जैसे मानें। मुझे तो ये सिर्फ और सिर्फ हमारी गुलाम मानसिकता का ही परिचय देता है।

YSR रेड्डी भी बहुत बड़े नेता थे। इतने बड़े कि उनकी दुखद मृत्यु के बाद राज्य के अलग-अलग हिस्सों से 150 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान दे दी। सवाल ये नहीं है कि किसी नेता की लोकप्रियता कितनी हो। और उसकी अभिव्यक्ति के तरीके क्या हों। लेकिन, अगर किसी नेता की मौत पर उसका समर्थक समाज आत्महत्या कर रहा है। तो, ये समझना आसान हो जाता है कि उस नेता ने अपनी नेतृत्व क्षमता का इस्तेमाल उनके व्यक्तित्व विकास के बजाय व्यक्तित्व खत्म करने में किया है। इस कदर खत्म कर दिया कि एक नेता के मरने, जेल जाने, उसका बंगला खाली होने के बाद वो जान देने, लेने को तैयार हो जाते हैं। गुलाम, अपनी गुलामी साबित करने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते हैं और वो छोड़ते भी नहीं हैं। यही गुलामी है। और अगर ये गुलामी नहीं है तो फिर गुलामी क्या है। लॉर्ड और वायसराय का राज।

Monday, September 29, 2014

थप्पड़ ने खोली राजदीप के अपराधों की पोटली

राजदीप सरदेसाई को लेकर दुनिया भर की जा बातें हो रही हैं वो अपनी जगह। लेकिन, राजदीप सरदेसाई के अपराध बहुत हैं। इस थप्पड़ से सारे अपराधों की बात होगी। इससे कम से कम मैं तो खुश हूं। और कम से कम आज की तारीख तक किसी की चवन्नी भी मैंने बेईमानी के एवज में नहीं ली है। मैं भी ये मानता रहा कि राजदीप बड़े और ईमानदार पत्रकार हैं। देश के जाने कितने पत्रकारिता पढ़ने वाले बच्चे राजदीप को देखकर पत्रकारिता करते हैं। उन सबको राजदीप ने ठगा है। उन सबके साथ राजदीप सरदेसाई ने बेईमानी की है। किसी पत्रकार के साथ धक्कामुक्की या मारपीट पहली बार नहीं हुई है। रिपोर्टिंग करते समय कई बार होती है। लेकिन, राजदीप ने जो इरादतन टाइप की मारपीट अपने साथ करवाई उसकी वजह से पूरे देश की छवि को जो बट्टा लगा। उसकी भरपाई किसके हिस्से से होगी। राजदीप को अगर सचमुच की पत्रकारिता करनी होती तो क्या डॉक्टर ने बताया था कि करीब दो दशक से संपादक रहने के बाद उन्हें फिर से किसी संस्थान में नौकरी करनी पड़े। क्या दोनों पति-पत्नी पत्रकार देश में सचमुच की पत्रकारिता करने की शुरुआत नहीं कर सकते थे।

सीएनएन आईबीएन और आईबीएन सेवन के संपादक की नौकरी छोड़नी पड़ी तो फिर से संपादक की कुर्सी ही चाहिए। क्या ये साबित करना चाहते हैं कि बिना संपादक हुए पत्रकारिता नहीं हो सकती। क्या राजदीप सरदेसाई और सागरिका घोष हेडलाइंस टुडे और टाइम्स ऑफ इंडिया की नौकरी करने के बजाय स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर देश की सरकार के खिलाफ असल मुहिम छेड़ने का साहस कर सकते थे और अगर नहीं कर सकते थे तो मलाईदार संपादकी और मोटी रकम के साथ पत्रकार बनने की इच्छा रखने वाली पूरी पीढ़ी बरगलाने का अधिकार इन्हें किसने दिया। पत्रकारिता, देश दोनों के साथ ये बेईमानी नहीं कर रहे थे। इस वीडियो को देखकर समझिए कि राजदीप सरदेसाई ने ऐसा क्यों किया होगा। किसी दलाली या किसके लिए बेईमानी कर रहे थे राजदीप सरदेसाई। आज तक पर जब मैंने राजदीप को मैडिसन स्क्वायर से रिपोर्टिंग करते देखा तभी समझ गया था कि वो एजेंडे पर थे। राजदीप सरदेसाई के मन में शायद ये इच्छा रही होगी कि वो अमेरिका में ये बेहूदगी करके दुनिया के सबसे सेक्युलर पत्रकार बन जाएंगे। उनकी इच्छा शायद यूएन में मुकदमा चलाकर नरेंद्र मोदी को अब दागी साबित करने की होगी या फिर अमेरिका की किसी अदालत में। देश, देश की जनता, देश सम्मानित संस्थाओं को अपमानित करने की नीयत से ये राजदीप सरदेसाई अमेरिका गया था।

Tuesday, September 23, 2014

विकल्पहीनता

किसी से भी पूछकर देखिए। ज्यादातर का जवाब यही आएगा कि विकल्प ही नहीं है। विकल्प होता तो ये थोड़े न करते। नौकरी कर रहे हैं तो कारोबार की बात करेंगे। कारोबार कर रहे हैं  तो नौकरी की बात करेंगे। राजनीति कर रहे हैं तो कुछ समय बाद वही भाव कि विकल्प ही नहीं है। विकल्प बन जाए तो राजनीति छोड़ दें। ऐसे ही कोई दूसरा बोल सकता है कि विकल्प मिल जाए तो कल से राजनीति करनी शुरू कर दें। बात करिए तो ऐसे लगता है कि पूरा समाज ही विकल्पहीनता का शिकार है। 95 प्रतिशत लोगों को विकल्प मिले तो कुछ और करने लगें। फिर इससे दूसरे तरह की भी विकल्पहीनता की बात आती है। लंबे समय तक इस देश में ये सामान्य धारणा बनी रही कि इस देश में राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस का विकल्प नहीं है। देश बचाना है तो संघ का विकल्प नहीं है। पिछड़ों की राजनीति जारी रखनी है तो लालू-मुलायम-शरद यादव का विकल्प नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के लिए चौधरी साहब की विरासत का विकल्प नहीं है। दलित राजनीति में उत्तर में मायावती तो दक्षिण में करुणानिधि का विकल्प नहीं है।

ये विकल्पहीनता भी गजब की है। हर दिन विकल्प मिलता जाए तो भी विकल्पहीनता ही रहती है। हमारा भारत गजब विकल्पहीन देश है। ये विकल्पहीनता का भ्रम इस कदर है कि महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के जीवित रहते ही कांग्रेस से टूटकर एक और विकल्प राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तैयार हो गया। लेकिन, बाल ठाकरे को लगता रहा कि महाराष्ट्र में उनका कोई विकल्प ही नहीं है। वो भ्रम फिर टूटा। भतीजा राज ठाकरे, बेटे उद्धव ठाकरे से ज्यादा ताकतवर हो गया फिर भी ये भ्रम बना रहा कि शिवसेना का महाराष्ट्र में कोई विकल्प नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय राज ठाकरे को वही बाल ठाकरे वाला भ्रम हो गया कि मराठी माणुष वाली राजनीति के लिए बाल ठाकरे के बाद वही विकल्प हैं। उनका विकल्पहीनता का भ्रम टूटा तो उनके चचेरे भाई उद्धव ठाकरे को ये विकल्पहीनता वाला भ्रम हो गया कि महाराष्ट्र में बीजेपी के पास उनसे गठबंधन के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसे ही विकल्प बिहार में नीतीश को हुआ था लोकसभा चुनाव के समय। फिर नरेंद्र मोदी की अगुवाई में ऐसी जीती बीजेपी को उसे भी विकल्पहीनता का भ्रम हो गया। वही वाला भ्रम कांग्रेस के आसपास वाला। तो विधानसभा उपचुनावों में गजब-गजब विकल्प दिखे। हर राज्य में अद्भुत विकल्प। 2012 में ही तो उत्तर प्रदेकी जनता ने ऐसे वोट दे दिया कि लगा समाजवाद के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। ये वही उत्तर प्रदेश की जनता थी जिसने पांच साल पहले ऐसे ही मायावती की दलित-सवर्ण गठजोड़ वाली राजनीति के आगे सबको विकल्पहीन कर दिया था।

ये विकल्पहीनता वाला भ्रम इस देश में इतनी तेजी से फैलता है। उसकी सबसे शानदार उदाहरण हैं अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी। लगा कि अब इस पार्टी की राजनीति का देश में कोई विकल्प ही नहीं है। कुछ इसी तरह बंगाल में वामपंथी सोचते थे। उनका विकल्प ममता बनर्जी हो ही गईं। वहां तक तो फिर भी ठीक था विकल्पहीन बंगाल की राजनीति में ममता के विकल्प के तौर पर भी कोई वामपंथ को जगह देने को तैयार नहीं दिख रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी हम सोचते हैं कि विकल्प ही नहीं है। हम भी ऐसे ही सोचते हैं कि हमारे पास पत्रकारिता के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। वो भी किसी न किसी की नौकरी करते हुए पत्रकारिता। लेकिन, जब इतने भ्रम टूटे हैं तो विकल्पहीनता का ये भ्रम भी टूटेगा। हालांकि, फिर मैं विकल्पहीनता पर ही आ गय। अब मुझे लगता है कि रोटी का जुगाड़ मजे भर का हो जाए तो स्वतंत्र पत्रकारिता का कोई विकल्प नहीं है। अरे मैं अब कुछ ज्यादा भ्रमित हो रहा हूं। फिलहाल इस लेख को यहीं खत्म करने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं है।

Monday, September 22, 2014

डॉक्टर हर्षवर्धन त्रिपाठी!

ये एतिहासिक शोध मैंने पूरा किया है। इसे मैं नए माध्यम यानी कि ब्लॉग पर पेश कर रहा हूं। मेरे शोध का विषय रहा- बीमारी की हद तक वामपंथ से ग्रसित व्यक्ति स्वस्थ होने की हद तक दक्षिणपंथी कैसे बन सकता है। इस शोध का परिणाम भी एक ही लाइन का है। परिणाम है देश में दक्षिणपंथी विचारधारा वाली सरकार का होना। अब इस शानदार शोध के लिए मुझे डॉक्टरेट मिले ना मिले। वैसे तो राह चलते कई विश्वविद्यालय बुलाकर बड़े लोगों को बिना शोध ही डॉक्टरेट की उपाधि दे देते हैं। बड़ा आदमी न होने से इतना महत्वपूर्ण शोधपत्र प्रस्तुत करने के बाद भी शायद ही कोई विश्वविद्यालय अदालतों की तरह स्वत: संज्ञान ले। बीमारी से ग्रसित ढेर सारे वामपंथियों के स्वस्थ दक्षिणपंथी में बदलने की कुछ कहानियां भी मैं यहां लिख सकता हूं। लेकिन, इसकी कोई जरूरत नहीं है। अपने आसपास के बीमारी की हद तक वाले वामपंथी पर नजर रखिए। खुद सब साफ हो जाएगा।

(नोट- मैं तो आलसी, अगंभीर किस्म का शोधार्थी हूं। इसलिए ऐसे ही इतना महत्वपूर्ण शोध कर लिया। लेकिन, कोई गंभीर, सक्रिय, कामकाजी शोधार्थी चाहें तो सचमुच इस विषय पर शोध कर सकते हैं। और पक्का उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि भी मिल सकती है।)

Saturday, September 20, 2014

हर बार कमतर आंके जाते हैं मोदी!


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से ठीक पहले भारतीय मूल के अमेरिकी पत्रकार फरीद जकारिया ने उनका साक्षात्कार किया है। और फरीद जकारिया को ऐसा साक्षात्कार हुआ कि वो नरेंद्र मोदी के मुरीद हो गए। वो कह रहे हैं कि हमने मोदी को कम आंका था। उनकी तारीफ में वो और क्या कह रहे हैं सुनिए। ये सुनना और समझना बेहद जरूरी है। कम से कम मुझे तो याद नहीं आ रहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री के लिए दुनिया में इतनी बेसब्री कब थी और कभी थी भी क्या। पहली बार मुझे ये दिख रहा है कि दुनिया को अपने लिहाज से किसी भारतीय नेता ने इस्तेमाल करना शुरू किया था। वरना अब तक या तो भावनाओं को भड़काने, सहलाने के लिहाज से विदेश नीति तय होती थी या तो गुटनिरपेक्ष के नाम पर पीछे की कतार में भारतीय नेता भी खड़ा होता था और दुनिया के नेता फैसला सुना देते थे।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण में सार्क देशों के सभी नेताओं को बुलाया और तिब्बत के निर्वाचित प्रधानमंत्री को भी। ये पहली शुरुआत थी। विदेश नीति की शुरुआती चाल में नरेंद्र मोदी ने पहले खुद को सार्क देशों का नेता दिखाया। फिर शुरुआत की भूटान से। भारत का पड़ोसी ये छोटा सा देश काफी हद तक भारत की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा हुआ है। और सबसे अच्छी बात ये है कि ये ऐसा पड़ोसी देश हैं जहां से भारत को किसी भी तरह की मुश्किल आज तक नहीं हुई है। दुनिया के सारे देशों को दरकिनार करके भूटान की यात्रा करने का फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेहद सोची समझी रणनीति का नतीजा है। प्रधानमंत्री ब्राजील गए विश्व की बदलती व्यवस्था में भारत की भूमिका तय करने। और काफी हद तक गैर अमेरिकी नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद ब्राजील में रखी गई। लेकिन, नरेंद्र मोदी के विदेश नीति के कौशल का सबसे शानदार उदाहरण देखने को मिला उनकी जापान की यात्रा में। जापान, भारत का भावनात्मक सहयोगी रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी ने सबसे ज्यादा किसी देश के साथ अपने रिश्ते बेहतर रखे तो वो जापान ही रहा। और सबसे बड़ी बात कि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे भी दक्षिणपंथी नेता हैं। दोनों देशों के मुखिया जब मिले तो वो मिसाल साबित हुआ। दोस्ती जैसे माहौल में भला दुनिया के कितने नेता आपस में मिल पाते हैं। जापान को जो अच्छा लगे वो सब वो करते रहे। लेकिन, अंत में जब वो लौटे तो ये साफ हुआ कि दरअसल जो उन्हें अच्छा लग रहा था और जो भारत के लिए इस समय जरूरी था, वो सब नरेंद्र करवाकर लौटे। नरेंद्र मोदी को जापान के उद्योगपतियों को ये समझाने में कामयाबी मिली कि जो काम वो जापान में 10 साल में करेंगे वो भारत में 2 साल में हो सकता है। इसीलिए मोदी ने 35 बिलियन डॉलर को रुपये में बदलकर बताया कि 2 लाख 10 हजार करोड़ रुपये साझा कार्यक्रम जापान की मदद से भारत में पूरे होंगे। शहर सुधारने से लेकर बुलेट दौड़ाने, गंगा साफ करने से लेकर शोध तक। नरेंद्र मोदी शिंजो आबे को गीता भी दे आए। आबे गीता पढ़ें ना पढ़ें, मोदी ने भारत में अपने प्रति आस्थावान लोगों को काफी कुछ पढ़ा दिया।

जब नरेंद्र मोदी जापान में थे। तो भारतीय टेलीविजन चैनलों पर सबसे ज्यादा चिंता चीन के साथ सामान्य रिश्ते को बचाने को लेकर जताई जा रही थी। सब कह रहे थे कि जापान ने जो भारत को दिया, उसकी कीमत भारत को चीन के साथ संबंध बिगाड़कर चुकानी पड़ सकती है। और कमाल ये जापान के साथ रिश्ते की बुनियाद नरेंद्र मोदी बुद्ध को ही बताते रहे। किसी को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि उन्हीं बुद्ध की विरासत को सहेजते हुए वो चीन को भी साध लेंगे। इसके तुरंत बाद ऑष्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबोट का भारत आना उनता सुर्खियों में नहीं रहा। लेकिन, ऑष्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भी मोदी की विदेश नीति का एक अहम पड़ाव रहे। जापान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गए थे तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत आना था। जिनपिंग भारत आए। अपनी खूबसूरत पत्नी के साथ आए। और वौ सौंदर्य निखरकर दिखा जब नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग और उनकी पत्नी के आवभगत के लिए अहमदाबाद के साबरमती रिवरफ्रंट में अद्भुत इंतजाम किए। अद्भुत इसलिए कि इतने सामान्य से माहौल में चीन के राष्ट्रपति के साथ भारत के प्रधानमंत्री की मुलाकात-हंसी मजाक हो रहा था। वही भगवान बुद्ध की शांति की प्रेरणा की बात वो चीन के साथ भी कर रहे थे। जिस चीन को लेकर लंबे समय से भारतीयों के मन में छुरी घोंपने वाला भाव ही है। दरअसल हम भारतीय 1962 में चीन से एक लड़ाई क्या हारे। हमारे लिए चीन सबसे बड़ा दुश्मन हो गया है। हमारे घर-गांव में भी तो जमीन का कब्जा ही सबसे बड़ा मुद्दा होता है। और उस पर ये कि चीन जब चाहता है हमारी सीमा में घुस आता है। आंख दिखाता है, डराता है और मजे से लौट जाता है। कुल मिलाकर चीन के साथ भारत के रिश्ते बड़े असहाय किस्म के रहे। डरे-डरे से रहे। उस पर सीमा के साथ कारोबार में भी चीन ने भारत की अर्थव्यवस्था की ऐसी की तैसी कर रखी है। मेड इन चाइना या चाइनीज ब्रांड की सबसे खराब छवि भारत में है। फिर भी हम भारतीयों के घर में ब्रांड चाइना ऐसे घुस गया है। जैसे भाषा में अंग्रेजी। इसीलिए जैसे हम भारतीय अंग्रेजी, अंग्रेजी दां लोगों से डरते हैं वैसे ही चीन, मेड इन चाइना के सामानों से। इस ग्रंथि के साथ जी रहे भारतीयों के घर में चीन का राष्ट्रपति शी जिनपिंग आ रहा था। ताकतवर, तानाशाह चीन का मुखिया। उस पर सीमा पार चीन के सैनिक भारतीय सीमा में घुसे हुए हैं, ये खबरें भी आ रही थीं। ऐसे माहौल में नरेंद्र मोदी के ऊपर कितना दबाव रहा होगा ये समझने की बात है। नरेंद्र मोदी के चुनावी माहौल में बताए गए छप्पन इंच के सीने पर दे दनादन गोलियां चल रही थीं। चीन, भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साथी है। लेकिन, ये साथी उस तरह का है जो हिसाब लगाने पर पता चलता है कि सब लेकर चला गया। कुछ ऐसा ही कारोबारी साथी है चीन। चीन से कारोबार करने पर करीब 30 बिलियन डॉलर का घाटा है भारत को। मतलब चीन के साथ कारोबार करने में हम आयात करके चीन को, वहां की कंपनियों को 30 बिलियन डॉलर दे दे रहे हैं। यानी उनकी अर्थव्यवस्था हम ऐसे मजबूत कर रहे हैं। दुनिया कर रही है लेकिन, हमारा करना चिंताजनक इसलिए है कि बाजार से लेकर सस्ते श्रमिक तक हम चीन से बेहतर हो चले हैं। इस कारोबारी असंतुलन को ठीक करने की बात यूपीए दो में भी होने लगी थी लेकिन, अब शायद इस पर कुछ ठोस हो सके। अब 30 बिलियन डॉलर के घाटे वाले भारत में आकर चीन के राष्ट्रपति अगर 20 बिलियन डॉलर के निवेश की बात कर रहे हैं तो ये पचता नहीं है। इससे तो कारोबारी घाटा तक पूरा नहीं होगा। तो क्या नरेंद्र मोदी चीन के साथ कारोबारी मामले पर जापान जैसी सफलता हासिल नहीं कर सके। मौटे तौर पर इसका जवाब हां में है। क्योंकि, शी जिनपिंग की यात्रा से पहले ये बहुप्रचारित था कि चीन भारत में जापान से तीन से पांच गुना ज्यादा निवेश करेगा। कुछ माध्यमों से तो ये रकम 100 से 300 बिलियन डॉलर तक बताई जा रही थी। इसलिए जब सिर्फ 20 अरब डॉलर के समझौते हुए तो ये कम सफल ही माना जाएगा। लेकिन, जब चीन के राष्ट्रपति के साथ हुई बातचीत को थोड़ा अच्छे से समझें तो ये असफलता कम होती जाती है। जैसे चीन के राष्ट्रपति के साथ बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार के पुराने कारोबारी रास्ते खोलने, उस रास्ते से ज्यादा से ज्यादा कारोबार करने की सैद्धांतिक सहमति बड़ी सफलता है। भले ही समझौते जापान के साथ हुए समझौतों से कम रकम के हैं लेकिन, ये महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि ये सब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस चीन के साथ करने में सफल हो रहे थे, जो चीन हर बात में हमसे दादागीरी करता दिखता रहा है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे क्योटो के हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगवानी में पहुंचे थे। इसके बाद ये बात कही जा रही थी कि नरेंद्र मोदी भी प्रोटोकॉल तोड़कर शी जिनपिंग की अगवानी के लिए अहमदाबाद हवाई अड्डे पर जा सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोटोकॉल तोड़ा लेकिन, वो हवाई अड्डे नहीं गए। होटल में जरूर चीन के राष्ट्रपति और उनकी पत्नी की अगवानी की। अच्छी बात ये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतिहास से सबक लिया है। इतिहास को रास्ते की बाधा नहीं बनाया है। वरना तो एक दक्षिणपंथी लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए भारतीय प्रधानमंत्री के लिए तानाशाह, वामपंथी चीन के राष्ट्रपति के साथ ऐसा दोस्ताना माहौल खोज पाना कहां संभव था। भारत और भारतीयों में चीन के विश्वासघात का डर इस कदर है कि अखबार, चैनल बार-बार कह रहे थे कि मोदी जी बड़े धोखे हैं इस राह में। लेकिन, मुझे लगता है कि इतिहास सबक लेने के काम आए तो बेहतर। इतिहास रास्ता बंद करने की वजह न बने। 1962, 2014 में भी फर्क है। तब के चीन-भारत और अब के भारत-चीन में भी फर्क है। नेहरू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कितना फर्क है, ये भी साफ दिख रहा है। इसके अलावा जैसे भारत की मुश्किलें हैं। वैसे ही चीन की भी ढेर सारी मुश्किलें हैं। विदेश नीति के तौर पर तिब्बत, वियतनाम, जापान, अमेरिका की मुश्किलें चीनी ड्रैगन को भारतीय हाथी के साथ सलीके का व्यवहार करने को मजबूर भी करती है। ऐसे ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत के साथ विवादों को इतिहास की बात नहीं बता दिया। इतना ही नहीं हुआ जब भारत की सड़कों पर तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर चीन विरोधी नारे लग रहे थे। पोस्टर, बैनर दिख रहे थे। उसी समय तिब्बतियों के पूज्य दलाई लामा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जता रहे थे। वो शी जिनपिंग को खुले दिमाग वाला बता रहे थे और सलाह दे रहे थे कि चीन, भारत से सीखे। बुद्ध की सिद्धांत काम कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से साफ-साफ कहा कि बिना सीमा विवाद सुलझाए काम नहीं बनेगा। ये बड़ी बात थी। नरेंद्र मोदी ने कहा कि सीमा नए सिरे से तय करनी होगी। क्योंकि, सीमा पर तनाव रहेगा तो संबंध सामान्य नहीं रह सकेंगे। शी जिनपिंग ने भी इस पर सहमति जताई है। और अगले पांच साल तक के कारोबारी संबंधों पर दोनों देशों के बीच बनी सहमति इस बात को पुख्ता करती है।

चीन के साथ भारत के हुए समझौतों में सबसे ऊपर कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए एक नया रास्ता है। जिससे सीधे सड़क रास्ते से कैलाश मानसरोवर यात्रा संभव हो सकेगी। इसके अलावा रेलगाड़ियों की तेज रफ्तार, आधुनिक शहरों के बनाने में सहयोग भी बेहद अहम हैं। एक अनुमान ये भी है कि चीन जानबूझकर भारत के साथ ऐसे समय पर सीमा विवाद खड़ा करता है जब उसके राष्ट्राध्यक्ष भारत में होते हैं। कोशिश ये कि इस दबाव से दूसरे समझौते अपने पक्ष में कराए जा सकें। लेकिन, इस बार ये शायद असरकारक नहीं रहा। और भारत-चीन के बीच के रिश्तों को हर वक्त संदेह से देखने वाले ये तो मानते ही होंगे कि शायद ही हाल के वर्षों में चीन की सेना की भारतीय सेना के साथ कोई ऐसी मुठभेड़ हुई है जिसमें किसी भारतीय सैनिक की जान गई हो। दोनों देशों के बीच पहले गोली न चलाने का जो समझौता है, ये उसी की वजह से है। सीमा में घुस आने का ये खेल दबाव बनाने का ही तरीका है। जो अब शायद अमल में लाना मुश्किल होगा। नरेंद्र मोदी की शी जिनपिंग से बात के बाद चीन की सेना भारतीय सीमा से पीछे भी हट गई। शायद जिनपिंग भी ये सोचकर आए होंगे कि रिश्तों को बेहतर बनाने के चक्कर में शायद ही भारतीय प्रधानमंत्री भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों की घुसपैठ का मुद्दा उठाएंगे। लेकिन, मोदी ने वो मुद्दा उठाया और उस पर कार्रवाई भी कराई। शायद यही मोदी के व्यक्तित्व का सबसे मजबूत पक्ष है। नरेंद्र मोदी हर उस बात का भी इस्तेमाल खुद को मजबूत बनाने में कर लेते हैं, जिसे उनकी कमजोरी के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए सिरे से विदेश नीति परिभाषित कर रहे हैं। उनकी बातों में वही बुद्ध, वही शांति की बात है लेकिन, इस मजबूती के साथ कि दुनिया के दूसरे देशों को ये अहसास हो रहा है कि भारत के साथ शांति का संबंध बनाए रखना ही बेहतर है। नरेंद्र मोदी को भारतीय बाजार की ताकत भी पता है। और इसीलिए हर कोई, जिसकी नजर भारत के इस बाजार पर है, मोदी उससे आखिरी हद तक जाकर मोलभाव कर रहे हैं। हालांकि, सौदा टूट न जाए, इसका भी ख्याल मोदी रख रहे हैं। अब मोदी अमेरिका के दौरे पर हैं। सीएनएन चैनल पर शो करने वाले फरीद जकारिया ने उनका साक्षात्कार लिया और उस साक्षात्कार के बाद वो कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी विश्व नेता बनने की क्षमता रखते हैं, मैंने उन्हें कम करके आंका। अब भले ही जकारिया के पुराने विश्लेषणों के आधार पर इसकी विश्वसनीयता को कसौटी पर खरा न माना जाए लेकिन, मोदी के व्यक्तित्व और उसके तथ्यों के आधार पर ये तय है कि दुनिया में भारत की ताकत देखने का नजरिया बदल रहा है। बाकी बातें अमेरिका दौरे के बाद ...

Wednesday, September 17, 2014

बीजेपी का उम्मीद से अच्छा प्रदर्शन!

कम से कम मेरे अनुमान को बीजेपी ने ध्वस्त कर दिया। मुझे ये लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में 11 विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर कहीं लड़ाई में नहीं है। दो घोर शहरी सीटों- नोएडा और लखनऊ पूर्वी - को छोड़कर बीजेपी के लिए हर जगह मुश्किल दिख रही थी। शहरी से भी ज्यादा ये दोनों सीटें ऐसी हैं जहां तरक्की, जेब में कमाई, विकास टाइप के शब्द पर भी राजनीति की जा सकती है। ये उम्मीद मैंने इसके बावजूद लगा रखी थी कि भारतीय जनता पार्टी ने लखनऊ पूर्वी और नोएडा में भी प्रत्याशी ऐसे और इतनी देर से चुने कि जिनके ऊपर दांव लगाना सही नहीं ही था। आशुतोष टंडन उर्फ गोपाल की सारी राजनीति हैसियत पिता लालजी टंडन की वजह से रही है। खबरें ये है कि अपनी राज्यपाल की कुर्सी दांव पर लगाकर लालजी टंडन ने बेटे को आखिरकार विधायक बनवा ही दिया। और बीजेपी ने उससे ज्यादा प्रदर्शन करते हुए सहारनपुर भी जीत लिया। वो भी योगी आदित्यनाथ को चेहरा बनाने के बावजूद। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में योगी आदित्यनाथ के साथ मीडिया भी पूरा सहयोग करने में जुट गया था। उस योगी आदित्यनाथ को जो पूर्वी उत्तर प्रदेश में दो चुनावों- 2007 विधानसभी और 2009 लोकसभा - में लगभग अगुवा होने के बावजूद पार्टी की झोली थोड़ी भी नहीं भर सका।

इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव की तीसरी पीढ़ी भी संसद में पहुंच गई। अब पूरे देश का राजनीतिक विश्लेषण करने की इस समय कोई खास वजह नहीं है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की चर्चा जरूरी है। इसी उत्तर प्रदेश को 2012 में मुलायम-अखिलेश ने लगभग पूरा जीता। उसके बाद 2014 में मोदी-अमित शाह-लक्ष्मीकांत बाजपेयी की टीम ने लगभग पूरा जीता। अब फिर मामला भ्रम का हो गया है। जिस उत्तर प्रदेश में बीजेपी के छुटभैया नेता भी इस दंभ में बात करने लगे थे जैसे 2017 के लिए उन्हें अभी से राज्य की सत्ता सौंप दी गई हो। वही दंभ बीजेपी नेताओं का टिकट बंटवारे में भी दिखा। और वही दंभ टिकटों के बंटवारे के समय में भी। वहीं दंभ भारी पड़ गया। अतिआत्मविश्वास और अहंकार का अंतर अकसर सफलता के समय समझ नहीं आता। असफलता इसीलिए होती है कि ये समझ में आए। अच्छे दिन, बुरे दिन की बात करते रहिए। कौन मना कर रहा है। आखिर में ये भी कि अच्छे दिन किसके थे, किसके आ गए हैं। इस पर बात करते रहेंगे। बस एक छोटा सा तथ्य ध्यान आया। पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान सारे राजनीतिक दल सांप्रदायिक ताकत के खिलाफ एकजुट होने की बात करते रहे। नरेंद्र मोदी ने उसे सिरे नहीं चढ़ने दिया। विकास, सबके लिए मौके, तरक्की की बात करके दूसरों के लिए "आरक्षित" सीटें बीजेपी के पाले में डाल दीं। अब जब उत्तर प्रदेश में सारी अपनी ही सीट जीतने का प्रश्न था तो बीजेपी के नेता लव जेहाद के प्रश्न का उत्तर खोज रहे थे। उत्तर ये मिला कि उत्तर प्रदेश समाजवादी हो गया।

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी  9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...