Sunday, June 12, 2016

रघुराम के राज में मध्यवर्ग ‘रामभरोसे’

रिजर्व बैंक के गवर्नर के तौर पर रघुराम राजन पहली बार मौद्रिक नीति जारी करने जा रहे थे। चार सितंबर 2013 को रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक के गवर्नर का पदभार संभाला था और बीस सितंबर को उनकी पहली मौद्रिक नीति जारी होने वाली थी। बैंक, बाजार, आम जनता सभी को आशा थी कि रघुराम राजन की नीति से बैंक कर्ज सस्ता होगा। जिससे लोगों की जेब पर पड़ रहा अतिरिक्त बोझ घटेगा। रुपया डॉलर के मुकाबले सत्तर के भाव से मजबूत हो रहा था। सेंसेक्स भी फिर से इक्कीस हजार की तरफ बढ़ रहा था। और कच्चे तेल का भाव भी एक सौ बारह डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई से वापस लौट रहा था। छे प्रतिशत से कुछ ऊपर की महंगाई दर थी। और ये महंगाई दरअसल खाने-पीने के सामानों उसमें भी खासकर प्याज की महंगाई की वजह से थी। मतलब कुल मिलाकर ब्याज दरें घटाने के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पास भरपूर वजहें थीं। लेकिन, हुआ ये कि रघुराम राजन की दूरदृष्टि दरअसल महंगाई दर के घटने का इंतजार कर रही थी। राजन की इस दूरदृष्टि का उल्टा असर ये हुआ कि देश के सबसे बड़े और सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने बीस सितंबर की मौद्रिक नीति के बाद ब्याज दरें बढ़ा दीं। पहले से ही मौके की ताक में बैठे निजी बैंक तो जैसे इसी के इंतजार में थे। मेरे बैंक ने भी ब्याज दरें बढ़ाईं और मुझे सूचित किया कि आपकी 240 महीने की अवधि बढ़कर 255 महीने हो गई है। मतलब साढ़े दस प्रतिशत पर लिया गया मेरा कर्ज अब बीस साल के बजाए इक्कीस साल से ज्यादा का हो चुका था। ये रघुराम राजन का आगाज था। जबकि, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के तब के चेयरमैन प्रतीप चौधरी इन्हीं रघुराम राजन के इंतजार में थे कि जब नया गवर्नर आएगा, तो ब्याज दरें घटाएगा या घटाने के संकेत देगा। लेकिन, जब सितंबर की मौद्रिक नीति में रेपो रेट नहीं घटा, तो प्रतीप चौधरी ने ये कहते हुए ब्याज दरें बढ़ा दी कि जुलाई से करना जरूरी था। अब तीन साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद रघुराम राजन की विदाई के संकेत हैं। और इन तीन सालों में रघुराम राजन ने इस तरह से लोगों के मन में धारणा पक्की हो गई है कि ये गवर्नर अपनी तथाकथित दूरदृष्टि के चक्कर में मध्यवर्ग के खिलाफ ही फैसले लेगा। इसीलिए जब सात जून 2016 को मौद्रिक नीति आई, तो कोई चौंका नहीं और रघुराम राजन ने फिर महंगाई के बढ़ने का हवाला देकर रेपो रेट साढ़ेछे प्रतिशत ही बरकरार रहने दिया।

पहले से ही रेपो रेट न बदलने के संकेत थे इसलिए बाजार मजे में है। उद्योग संगठन और बैंक भी उसी लिहाज से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मौद्रिक नीति देखेंगे, तो रघुराम राजन ने रेपो रेट में कटौती न करने के अपने फैसले को मजबूती देते हुए महंगाई दर के बढ़ने का डर सामने रख दिया है। लेकिन, यहां ये समझना जरूरी है कि लगातार सत्रह महीने से महंगाई दर में कमी के बाद अप्रैल पहला महीना था जब महंगाई दर बढ़ी है। और अगर 2015 की शुरुआत से राजन के कार्यकाल में हुई कुल ब्याज कटौती की बात करें, तो ये कुल डेढ़ प्रतिशत रही है। और इसमें से भी सिर्फ आधा यानी पौना प्रतिशत का ही फायदा बैंकों ने लोगों को दिया है। यानी मध्यवर्ग के लोगों को सस्ते कर्ज के लिए फिलहाल अब नए रिजर्व बैंक गवर्नर के आने का इंतजार करना होगा। क्योंकि, एक सौ बारह डॉलर के भाव पर कच्चे तेल से कार्यकाल की शुरुआत के बाद पचास डॉलर के आसपास के भाव पर भी राजन आगे महंगाई घटने का इंतजार कर रहे हैं, तो ये दूरदृष्टि कहा जाएगा या दृष्टिदोष इस पर भी विचार करने की जरूरत है। क्योंकि, ये अजीब स्थिति है कि भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने राजन पर सवाल क्या उठाया, अंतर्राष्ट्रीय लॉबी के साथ देश में भी अर्थशास्त्र के जानकार राजन के कार्यकाल की स्वस्थ समीक्षा करने के बजाए रघुराम राजन को शहीद घोषित करने की कोशिश में लग गए हैं। एक बड़े अंग्रेजी आर्थिक पत्रकार ने तो काफी आगे जाकर पूरा लेख लिख मारा कि कैसे राजन को दूसरा कार्यकाल नहीं मिला, तो देश से विदेशी पूंजी ही गायब हो जाएगी। ऐसे अर्थशास्त्र के जानकारों की बुद्धि पर तरस आता है। ऐसे तो देश में चुनाव की जरूरत ही नहीं है। सीधे एक अच्छा रिजर्व बैंक गवर्नर चुना जाए और अपने आप विदेशी निवेशक दौड़ता-भागता भारत आ जाएगा।

विदेशी निवेश के आने का किसी देश के बैंक गवर्नर से संबंध का कोई उदाहरण दुनिया में नहीं है। ये सीधे तौर पर किसी देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती से तय होता है। देश के नेता की मजबूती से तय होता है। देश की नीतियों से तय होता है। देश की नीतियों को कैसे उस देश की सरकार लागू कर रही है, उससे विदेशी निवेश का आना तय होता है। इसलिए अर्थव्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों के बजाए किसी गवर्नर के भरोसे पूरी अर्थव्यवस्था के बदलाव की स्थितियों को बनते देखने वालों की बुद्धिहीनता से ज्यादा एक साजिश दिखाता है, जिसकी तरफ सुब्रमण्यम स्वामी इशारा कर रहे हैं। क्योंकि, जिस महंगाई के बढ़ने की बात बार-बार रिजर्व बैंक की ताजा पॉलिसी में की गई है। उसे तैयार करते समय कम से कम दो साल बाद देश में पक्के तौर पर आने वाले शानदार मॉनसून को ध्यान में रखा गया होगा। ऐसा तो माना ही जाना चाहिए। फिर भी महंगाई दर का डर दिखाकर मध्यवर्ग और छोटे-मंझोले उद्योगों को सस्ते कर्ज से दूर रखकर राजन बेहतर नीति नहीं बना रहे हैं। जिस डूबते कर्ज को लेकर राजन की छवि किसी बैंकिंग हीरो जैसी बनी है। उस पर भी चर्चा करना जरूरी है। रघुराम राजन चार सितंबर दो हजार तेरह को रिजर्व बैंक के गवर्नर बने थे। लेकिन, उससे पहले 2007 रघुराम राजन यूपीए की सरकार के साथ थे। 2007-08 में आर्थिक मामलों के सुधार पर बनी समिति के अध्यक्ष थे। 2008-12 तक वो प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार थे। 2012 से रिजर्व बैंक गवर्नर बनने तक रघुराम राजन देश के वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। अब 2007 से लेकर 2013 तक देश में आर्थिक अराजकता कहां पर थी। इसके आंकड़े बताने की शायद ही जरूरत हो। यही वो समय था जब देश में बैंकों का एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स लगातार बढ़ रहा था। मतलब आज नरेंद्र मोदी की सरकार के समय रिजर्व बैंक गवर्नर के तौर पर रघुराम राजन जिस डूबते कर्ज को लेकर बैंकों को धमका रहे हैं। दरअसल इसके बढ़ने का असल समय वही था जब राजन आर्थिक सुधार वाली कमेटी के मुखिया थे। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार थे और तत्कालीन वित्त मंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे।

इसलिए मुझे लगता है कि सुब्रमण्यम स्वामी के आरोपों को राजनीतिक विरोध के नजरिये से देखने के बजाए इस नजरिये से देखा जाना चाहिए कि आखिर रघुराम राजन ने सही मायने में गवर्नर के तौर पर क्या अच्छा-बुरा किया। राजन के गवर्नर बनने के कुछ ही महीने बाद देश में एक मजबूत सरकार थी। दुनिया में उसकी साख बेहतर थी। महंगाई दर बहुत कम हो गई थी। कच्चा तेल काबू में था। इस सबके बाद भी अगर राजन के खाते में कुछ खास नहीं दिखता, तो राजन की काबिलियत पर संदेह उठना स्वाभाविक है। क्योंकि, देखने से तो यही लगता है कि एक सेलिब्रिटी गवर्नर यूपीए के समय में हिंदुस्तान को मिला जिसकी कीमत एनडीए सरकार के समय में जनता चुका रही है। और इस तरह से देश की अर्थव्यवस्था कोअंधों में काना राजा कहने वाले गवर्नर को फिलहाल दूसरा कार्यकाल देने का कोई मतलब नहीं है। मोदी सरकार के लिए ये फैसला इसलिए भी ज्यादा जरूरी हो जाता है कि राजन की नीतियां उसी मध्यवर्ग और छोटे-मंझोले उद्योगों का नुकसान कर रही हैं। जिसने बड़ी उम्मीद से नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री चुना है।
(ये लेख catchHindi और catchenglish पर छपा है)

No comments:

Post a Comment

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...