Monday, December 28, 2015

पट्टीदारी की झगड़ा ऐसे ही सुलझता है

शहरों में बसते जा रहे भारत के नौजवानों को ये बात शायद ही समझ में आएगी। क्योंकि, शहरी इंडिया के पास तो पड़ोसी से झगड़ा करने की छोड़ो उससे जान-पहचान बढ़ाने के लिए भी शायद ही वक्त होता है। इसलिए गांव में पट्टीदारी के झगड़े में एक—दूसरे की जान लेने पर उतारू लोग और अचानक एक-दूसरे को भाई बताने वाली बात कम हो लोगों को समझ आएगी। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देते-देते अचानक उनके घर पहुंचने और फिर उनकी नातिन के निकाह में शामिल हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे वही गांव-घर वाली पट्टीदारी याद दिला दी है। पट्टीदारी मतलब की पीढ़ी पहले एक ही रहे लोगों के बढ़ते परिवार का गांव में एक साथ रहना। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का हाल भी तो कुछ इसी तरह का है। गांव में ऐसे ही भाई-भाई के बीच बंटवारा होता है। पीढ़ियां बढ़ते बंटवारा भी बढ़ता जाता है। और इस बढ़ते बंटवारे के साथ घटता जाता है एक दूसरे से प्रेम। घटती जाती है संपत्ति। फिर बढ़ता है झगड़ा। और फिर एक दूसरे की जान लेने से भी नहीं चूकते हैं गांववाले। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का हाल भी 1947 के बाद से कुछ ऐसा ही रहा है। जाहिर है हिंदुस्तान बेहतर हो गया। ज्यादा तरक्की कर गया। पाकिस्तान अपने नालायकों को काम में नहीं लगा सका। तो बड़े भाई की तरक्की से जलन बढ़ती चली गई। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के मामले में ये जलन बढ़ने की बड़ी वजह हिंदू होना और मुसलमान होना हुआ। और ऐसा हुआ कि लगने लगा कि ये झगड़ा कभी सुलझ नहीं सकता। अभी भी यही लग रहा है कि ये झगड़ा कभी नहीं सुलझेगा। भले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के घर तक बिना किसी औपचारिक कार्यक्रम के भारतीय प्रधानमंत्री चले गए हों। भले नवाज की नातिन की शादी में उसे आशीर्वाद, तोहफे भी दे आए हों। लेकिन, हिंदुस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा जिस तरह का है। वो इसी तरह की गैरपरंपरागत सोच से सुधर सकेगा।

भारतीय प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का होना पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए शायद सबसे माकूल हो सकता है। पाकिस्तान की नजर में देखें, तो उनके लिए नरेंद्र मोदी सबसे बड़े दुश्मन चेहरे के तौर पर दिखते हैं। ये वो चेहरा है जिसे दिखाकर हाफिज सईद जैसे आतंकवादी पाकिस्तान के लोगों को हिंदुस्तान के खिलाफ लड़ने के लिए आसानी से तैयार कर पाते हैं। मोदी के दौरे के बाद हाफिज सईद ने तुरंत जहर उगला कि इस यात्रा ने पाकिस्तान की आम जनता का दिल दुखाया है। मोदी का तहेदिल से स्वागत करने के नवाज शरीफ को पाकिस्तान की जनता को सफाई देनी चाहिए। निश्चित तौर पर पाकिस्तान की जनता के मन में हिंदुस्तान के लिए ऐसे बुरे ख्यालात बिल्कुल नहीं हैं और न ही हिंदुस्तान की जनता के मन में ऐसे बुरे ख्यालात पाकिस्तान की जनता के लिए हैं। एक छोटा सा मौका बनता है और दोनों देशों के लोग अपनी पुरानी यादें लेकर बैठ जाते हैं। लेकिन, ज्यादा तनाव के माहौल में हमें वो आवाज तेज सुनाई देती है। जो गोली चलवा देता है। ऐसे में हाफिज सईद जैसे आतंकवादियों की नजर से पाकिस्तान के उसी सबसे बड़े दुश्मन चेहरे का बिना किसी औपचारिक बुलावे के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के घर नातिन की शादी में पहुंचना हाफिज सईद जैसों की आतंकवादी, अलगाववादी बुनियाद पर तगड़ी चोट करता है। हालांकि, इस अप्रत्याशित, अनौपचारिक लाहौर यात्रा का कांग्रेस का विरोध परेशान करता है। कांग्रेस बार-बार यही तो चिल्लाकर कहती रही है कि बीजेपी आएगी, तो पाकिस्तान के साथ जंग करेगी। और जंग हिंदुस्तान के हक में नहीं है। अब कांग्रेस कह रही है कि नरेंद्र मोदी की ये यात्रा एक कारोबारी के हितों को बेहतर करने की है। न कि भारत के हितों को बेहतर करने की। अब ये तो हो सकता है कि कोई कारोबारी नवाज शरीफ से मुलाकात कराने में माध्यम बना हो। लेकिन, ये कौन यकीन मानेगा कि इस तरह की यात्रा किसी कारोबारी के हित को बेहतर करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। जनता दल यूनाइटेड और आम आदमी पार्टी की प्रतिक्रिया भी इस गैरपरंपरागत राजनय पर बेहद परंपरागत रही। दोनों ने ही इसकी आलोचना की है और प्रधानमंत्री मोदी पर व्यंग्य किया है। विदेश नीति के मामलों में शिवसेना की प्रतिक्रिया पर कान देना उचित कम ही लगता है। अच्छी बात ये है कि जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस पर प्रधानमंत्री की तारीफ की है। इस मामले में संतुलित प्रतिक्रिया रही है वामपंथी पार्टियों की। मोहम्मद सलीम और सीताराम येचुरी दोनों ने ही प्रधानमंत्री के इस दौरे को बेहतर कहा है। लेकिन, सभी को इस बात की आशंका है कि ये कहीं फोटो अपॉर्चुनिटी ही बनकर न रह जाए। और ये आशंका बेवजह है भी नहीं। लेकिन, इतनी आशंकाओं के बीच अगर ये दौरा हो गया, तो निश्चित तौर पर भविष्य के ये सुखद संकेत हैं।

नवाज शरीफ के जन्मदिन की बधाई इसका माध्यम बन गई। संयोग से नवाज भी उसी दिन जन्मे हैं जिस दिन भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को सुधारने का बेहतर अध्याय लिखने की कोशिश करने वाले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन रहा। संयोग ये भी है कि पाकिस्तान बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना का भी जन्मदिन यही है। इस पर तरह-तरह की आ रही प्रतिक्रियाओं के बीच सोशल मीडिया पर एक वीडियो गजब वायरल हुआ है। इसमें एक पाकिस्तानी चैनल की न्यूज एंकर इस दौरे पर रिपोर्टर से सवाल पूछती है। रिपोर्टर इसे एक बड़ी दुर्घटना जैसा बताता है। तौबा तौबा से रिपोर्टर अपने लाइव की शुरुआत करता है। खत्म भी वहीं करता है। दरअसल ये उस जड़ भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को भी दिखाता है। जिसमें ऐसे किसी भी राजनयिक रिश्ते के लिए जगह ही नहीं है। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह से गैरपरंपरागत राजनय के लिए जाने जा रहे हैं। इसकी शुरुआत उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के साथ ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को शपथ ग्रहण में आमंत्रित करके कर दी थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने एक समय अलगाववादी रहे सज्जाद लोन से मुलाकात करके और बाद में उसे पीडीपी-बीजेपी की सरकार में मंत्री बनवाकर भी इसी तरह के गैरपरंपरागत राजनय का उदाहरण दिया था।

जिस परंपरागत खांचे में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के रिश्ते को देखा जाता है और माना जाता है कि दोनों देशों के रिश्ते कभी ठीक नहीं हो सकते। वही परंपरागत खांचा ये भी कहता, साबित करता था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जम्मू कश्मीर में कभी नहीं बन सकती और वो भी पीडीपी के साथ तो कभी नहीं। लेकिन, ये हुआ। भारतीय राजनीति के लिहाज से मुख्यत: हिंदुओं की पार्टी बीजेपी और मुख्यत: मुसलमानों की पार्टी पीडीपी की साझा सरकार जम्मू कश्मीर में बन गई। बीच-बीच में आ रही मुश्किलों के बावजूद काम भी कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस दौरे को पाकिस्तान में काफी तारीफ मिल रही है। बिलावल भुट्टो ने भी इसे अच्छा कदम बताया है। पाकिस्तान के मीडिया ने भी इसे सराहा है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि अमेरिकी मीडिया में भी इसे सकारात्मक कहा जा रहा है। चौंकाने वाला मैं इसलिए कह रहा हूं कि बार-बार यही कहा जाता है कि अमेरिका ही है, जो नहीं चाहता कि भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते सामान्य रहें। अब अगर ये अमेरिकी दबाव है कि मोदी-शरीफ मिल रहे हैं, तो इसे क्या कहा जाएगा। यही न कि हमारी जरूरत अब अमेरिका की भी जरूरत बन रही है। आलोचना के लिए भले कांग्रेस इस दौरे की आलोचना कर रही है। लेकिन, ये आलोचना दरअसल इसलिए भी है कि मोदी का ये दौरा यूपीए सरकार के दस सालों की विफलता को और साफ तरीके से देश के लोगों को दिखा रहा है। दस साल तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद विनम्र मनमोहन सिंह पाकिस्तान नहीं जा सके। तथ्य ये भी है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह का जन्मस्थान पाकिस्तान में ही है। जबकि, भारतीय जनता पार्टी और अभी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो आक्रामक शैली के नेता हैं। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी के बाद मोदी ही पाकिस्तान जा पहुंचे। और ये इतना भी अनायास नहीं था। इससे पहले दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बैंकॉक में मिल चुके हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान जा चुकी हैं। विदेश मंत्रालय के पत्रकारों को दिए भोज में सुषमा स्वराज ने हम पत्रकारों को बताया कि कैसे नवाज की मां ने कहा कि बेटी तू मुझसे कम से कम वादा करके जा कि भारत पाकिस्तान के रिश्ते की गाड़ी पटरी पर ले आएगी।


हिंदुस्तान में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री होना अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री होने से भी माकूल वजह है। पूर्ण बहुमत की सरकार है। संसद के अलावा देश में भी मोदी के समर्थक ऐसे हैं कि उन्हें भक्त कहा जा रहा है। पाकिस्तान को इस लिहाज से समझना जरूरी है कि रावण की तरह पाकिस्तान के भी दस सिर हैं। इसलिए जहां नवाज शरीफ से इस तरह की बातचीत जरूरी है। वहीं आतंकवाद, उग्रवाद वाले चेहरों से उसी भाषा में निपटना भी पड़ेगा। इसके भी संकेत लाहौर जाने के कुछ ही घंटे पहले काबुल में वहां की संसद का उद्घाटन करते प्रधानमंत्री मोदी ने दे ही दिए थे। अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर अजित डोभाल की मौजूदगी पाकिस्तान की गलत हरकतों से भारत की सुरक्षा को आश्वस्त करती है। और पाकिस्तान को डराती भी है कि ये हमारी हरकतों के बारे में सब जानता है। अगर ऐसा नहीं होता, तो भारतीय प्रधानमंत्री पाकिस्तान की धरती पर पाकिस्तानी सेना के हेलीकॉप्टर में नहीं यात्रा करते। इस यात्रा के बाद विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप का ट्वीट काफी कुछ कहता है। विकास स्वरूप ने लिखा- काबुल में सुबह का नाश्ता, लाहौर में चाय और दिल्ली में रात का खाना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनय के अनूठे दिन को पूरा करके वापस लौटे। और यही तो प्रधानमंत्री रहते डॉक्टर मनमोहन सिंह ने सपना देखा था। फिर से कह रहा हूं ये पट्टीदारी का झगड़ा है। ऐसे ही सुलझेगा। इस मसले पर ऑस्ट्रेलिया के SBS रेडियो ने भी मुझसे फोन पर बातचीत की।

No comments:

Post a Comment

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...