Wednesday, February 20, 2008

देश में लोकतंत्र की सबसे मजबूत पाठशाला है इलाहाबाद विश्वविद्यालय

( इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला अंतराष्ट्रीय पुरातन छात्र सम्मेलन 16-17-18 फरवरी को हुआ। किसी वजह से इसमें मैं जा नहीं पाया। इस पुरातन छात्र सम्मेलन की पत्रिका के लिए मुझसे भी विश्वविद्यालय में मेरे विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनों के बारे में लेख मांगा गया था। जो, विश्वविद्यालय की पत्रिका में छपा है। अब तक मेरे पास पत्रिका आई नहीं है, इसलिए वो पत्रिका नहीं दिखा पा रहा हूं। मैं यहां वो लेख वैसे का वैसा ही छाप रहा हूं। ये लेख इस बात पर भी मेरे विचार हैं कि पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति कितनी सही है।)

पढ़ाई हमेशा अच्छे भविष्य और मजबूत व्यक्तित्व की बुनियाद होती है। और, मैंने जो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान पाया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का गजब का व्यक्तित्व विकास होता है। मैं आज जो कुछ भी हूं उसका बड़ा योगदान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे पढ़ाई के 7 साल रहे हैं।

मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कोई भी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन, पढ़ाई के दौरान छात्रसंघ चुनावों में सक्रिय हिस्सेदारी की वजह से मैं उन्हीं दिनों देश की संसदीय परंपरा से भली-भांति वाकिफ हो गया था। 1993-2000, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस संक्रमण काल के आखिरी दौर में गिना जा सकता है जिसकी एक दशक पहले शुरुआत हुई थी। उस समय तक सत्र देरी से चल रहे थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का सत्र तो देरी से चल ही रहा था। छात्रसंघ के चुनाव भी समय पर नहीं हो रहे थे। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPCS) के भी 3-3 पुराने सत्रों के परिणाम एक के बाद एक आ रहे थे। यानी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर आगे की योजना बनाने वाले छात्र-छात्राएं, चुनाव लड़कर-जीतकर आगे संसद-विधानसभा का रुख करने की चाहत रखने वाले छात्रनेता और IAS-PCS बनकर किसी जिले में अपनी काबिलियत दिखाने की हसरत रखने वाले छात्र सभी के लिए ये संक्रमण काल था। उस समय ये बात ज्यादा समझ में नहीं आती थी।

खैर, 1996 के बाद से सत्र धीरे-धीरे फिर पटरी पर आने लगे थे। 1998 में शायद ही कोई सत्र लेट रहा हो। 6 महीने के कार्यवाहक कुलपति प्रोफेसर वी डी गुप्ता और उसके बाद आए कुलपति प्रोफेसर चुन्नीलाल क्षेत्रपाल ने विश्वविद्यालय को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसले लिए। बीस-बीस सालों से छात्रावस के कमरे में कब्जा जमाए बैठे बूढ़े छात्रों को कमरों से बाहर निकालकर नए छात्रों को मेरिट के आधार पर कमरे मिलने लगे।

एक वाकया जो मुझे याद आ रहा है। विश्वविद्यालय में सत्र की देरी से परेशान छात्रों और छात्रनेताओं का एक वर्ग इस बात के लिए पूरी तरह से मन बना चुका था कि अब किसी भी कीमत पर परीक्षा में देरी नहीं होने दी जाएगी। प्रोफेसर चुन्नी लाल क्षेत्रपाल भी इस फैसले पर मजबूत बना चुके थे कि परीक्षा नहीं टाली जाएगी चाहे जो, हो। लेकिन, सस्ती लोकप्रियता के लिए छात्रनेता, छात्रों के एक वर्ग ने कुलपति पर विधि की परीक्षाएं फिर से टालने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद परीक्षा विरोधी और परीक्षा समर्थक खेमों ने विश्वविद्यालय परिसर में रजिस्ट्रार ऑफिस के सामने अगल-बगल ही मंच लगाकर भाषण करना शुरू कर दिया। भाषण का दुखद अंत मारपीट के साथ हुआ लेकिन, परिणाम सुखद ये रहा कि परीक्षा नियत समय पर ही हुई।

खैर, लोक सेवा आयोग चौराहा और यूनिवर्सिटी के सामने से साइंस फैकल्टी तक जाने वाली सड़क पर आए दिन धरना प्रदर्शन आम बात थी। लेकिन, एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा अपील करती थी कि कहीं भी किसी धरना प्रदर्शन में मुझे ये याद नहीं आ रहा है कि कहीं भी छात्रों ने आंदोलन के दौरान आम लोगों को परेशान किया हो। यही वजह है कि इलाहाबाद अकेला शहर होगा जहां, परिवारों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों को मदद मिलती रही है।

बूढ़े-बुजुर्ग (कहलाते सब छात्रनेता ही थे) नेता परिसर में छात्रों के हितों का बीड़ा उठाए घूमते थे। लेकिन, मुझे अपने समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेताओं की एक अच्छी बात ये थी कि दुर्गुणों (शराब, सिगरेट, अपराध) का आरोप शायद ही किसी छात्रनेता पर लगा हो। परिसर में एक साथ अगर 10-12 नौजवानों के बीच में कोई एक खद्दरधारी घूम रहा है तो, आसानी से समझ में आ जाता था कि कोई छात्रनेता चल रहा है। और, अगर एक ही उम्र के ढेर सारे लड़के चुहल करते घूम रहे हैं और किसी एक लड़के के लिए बीच-बीच में नारे भी लगा रहे हैं तो, मतलब साफ है अगले चुनाव के लिए एक नया छात्रनेता तैयार हो रहा है।

चुनाव और परीक्षा के सत्र में देरी की वजह से 1995 के चुनाव तक ज्यादा बुजुर्ग हो चुके छात्रनेताओं (35-45 साल) के बीच नए छात्रनेताओं (20-28 साल) की भी पूरी जमात तैयार हो चुकी थी। उस समय ये भी चर्चा शुरू हो गई थी कि छात्रसंघ चुनाव लड़ने की उम्रसीमा अधिकतम 28 साल होनी चाहिए। मुझे याद है गोरखपुर में 25 साल की उम्रसीमा लागू की गई तो, वहां के छात्रसंघ के महामंत्री जो, अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, उम्रसीमा में थोड़ी छूट के लिए इलाहाबाद उच्चन्यायालय में याचिका दाखिल करने आए थे। उनकी उम्र 26 साल हो चुकी थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यालय के नीचे खड़े होकर वो पान खा रहे थे कि तभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाले 2 (40 साल के ऊपर के) बुजुर्ग छात्रनेता वहां आ गए। उनको देखने के बाद गोरखपुर से उम्रसीमा में छूट के लिए आए छात्रनेता ने चुनाव लड़ने का इरादा त्याग दिया और बिना याचिका दाखिल किए ही लौट गए।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी के छात्रनेता बनने की भी शुरुआत बड़े रोचक तरीके से होती थी। पिछले चुनाव मे किसी छात्रनेता के पीछे की सबसे सक्रिय मंडली में से किसी एक को अगला चुनाव लड़ाने की तैयारी हो जाती थी। तर्क ये कि जब हम पुराने छात्रनेता के लिए 100 वोट जुटा सकते हैं तो, अपने साथी के लिए तो, 500 वोट जुटा ही लेंगे। कुछ इसी तरह से हम लोगों की 40-50 लोगों की एक जबरदस्त छात्रों की मंडली (इसमें मेरे जैसे इलाहाबाद में अपने घर में रहने वाले और बाहर के जिले, प्रदेश से आकर छात्रावास या डेलीगेसी में रहने वाले छात्र थे।) ने भी अपने साथ के मनीष शुक्ला को चुनाव लड़ा दिया। मनीष बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर से चुनाव लड़े और फिर बहुत ही कम समय में भारतीय जनता युवा मोर्चा के रास्ते जौनपुर की खुटहन विधानसभा का चुनाव लड़ा। कुछ यही तरीका होता है इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रनेता के चुने जाने का। यानी एकदम लोकतांत्रिक तरीका।

इलाहाबाद को लोकतंत्र की मैं सबसे मजबूत पाठशाला कह रहा हूं तो, इसके पीछे वहां के छात्रों के चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने और अपना नेता चुनकर उसे जिताने तक की बात कर रहा हूं। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश का अकेला विश्वविद्यालय होगा जहां, आमने-सामने छात्र नेताओं के मंच लगते हैं। स्थानीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस होती है।

विश्वविद्यालय मार्ग पर चुनाव के एक दिन पहले लगने वाले ये मंच नेता की जीत-हार का पैमाना तय करते हैं। छात्रनेता के समर्थन में पुराने-नए छात्रनेता, पूर्व पदाधिकारी आकर भाषण देते हैं और माना जाता था कि जिसका मंच सबसे बाद तक टिका रहता उसका चुनाव जीतना लगभग तय हो जाता था। जैसे किसी लोकसभा चुनाव में नेता के पक्ष में राष्ट्रीय, राज्य के नेताओं की मीटिंग होती है ठीक वैसे इलाहाबाद में दिल्ली, जेएनयू, बीएचयू या प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ पदाधिकारी भी अपने प्रत्याशियों के प्रचार में आते थे।

इलाहाबाद की लोकतंत्र की पाठशाला की एक और अद्भुत बात जो, मैं जोड़ रहा हूं वो, हैं यहां के छात्रसंघ चुनाव में निकलने वाला मशाल जुलूस। मशाल जुलूस विश्वविद्यालय मार्ग पर लगे मंचों से नेताओं का भाषण खत्म होने के बाद शुरू होता था। फिर समर्थ प्रत्याशी अपने चुनाव कार्यालय से बांस की खपची, जला तेल, कपड़ा और मिट्टी से बनी कुप्पी जैसी मशाल लेकर निकलते थे। हर प्रत्याशी के जुलूस के बीच में दो ट्रॉली पर अतिरिक्त जला तेल होता था जो, बुझती मशाल को आखिर तक जलाए रखने में मदद करता था। ये मशाल जुलूस अगली सुबह होने वाली चुनाव की दिशा तो तय करता ही थी। लड़कों के लिए ये महिला छात्रावास में बिना रोक घुसने का एक लाइसेंस भी था। लड़कियों के छात्रावास के दरवाजे खुले होते थे। अपने से तय नियम के मुताबिक, एक-एक जुलूस अंदर जाते थे और लड़कियों की ओर से फेंकी गई फूल-मालाओं के साथ थोड़ा और उत्साह से भरकर वापस आ जाते थे। वैसे, ये परंपरा इलाहाबाद में जसबीर सिंह के एसपी सिटी रहने के समय पहले आरएएफ के घेरे में बंधी फिर टूट गई। वैसे, मैंने उद्दंड से उद्दंड छात्रों को भी कभी इस दौरान लड़कियों के छात्रावास में कोई बद्तमीजी करते नहीं देखा था। लोकतंत्र की एक और बेहतर मिसाल।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने वाले छात्रनेता का चुनाव क्षेत्र एक संसदीय क्षेत्र से भी बड़ा होता है। मेरा घर इलाहाबाद में है। लेकिन, मैंने इलाहाबाद की गलियों को, मोहल्लों को नजदीक से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चुनावों के दौरान ही देखा। परिसर के मुद्दों के अलावा जाति, क्षेत्र, छात्रावास, डेलीगेसी इन सभी मुद्दों पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं को बैलेंस करके चुनाव जीतना होता था। इलाहाबाद में मेरे समय में दक्षिणपंथी छात्र संगठन और वामपंथी छात्र संगठन दोनों ही काफी सक्रिय रहते थे। वामपंथी छात्र संगठनों की वोटों की मामले स्थिति काफी पतली रहती थी जबकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद मेरे समय में बहुत ही मजबूत स्थिति में था। लेकिन, सेमिनार, धरना-प्रदर्शन पर हर तरह के छात्र संगठनों की मौजूदगी परिसर और परिसर के बाहर निरंतर बनी रहती थी। इस सबके बावजूद आज संसदीय चुनावों को बेहतर करने के लिए जिस बात की सबसे ज्यादा वकालत की जा रही है वो, मेरे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खुद ही चल रही व्यवस्था का हिस्सा बन गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बैनर कभी चुनाव नहीं जिता पाता था। मजबूत व्यक्तित्व चुनाव जीतने की पहली शर्त होता था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मिलने अनुभवों के आधार पर ही मेरा ये मजबूत विश्वास है कि पढ़ाई के दौरान हर लड़के-लड़की को किसी न किसी छात्र संगठन से जरूर जुड़ना चाहिए। भले ही वो राइटिस्ट हो, लेफ्टिस्ट हो या फिर सोशलिस्ट हो। क्योंकि, किसी छात्र संगठन में काम करने से सोचने और किसी बात पर प्रतिक्रिया देने की जो आदत बनती है वो, ताउम्र जिंदगी का अहसास दिलाती रहती है।

छात्रसंघ चुनावों के नोटीफिकेशन के साथ ही परिसर में न्यासी मंडल के आदेश ही काम करते थे। छात्रसंघ चुनाव कब होंगे, कितने दिनों तक प्रचार हो सकेगा। प्रत्याशी के लिए आदर्श आचार संहिता क्या होगी, ये सब तय करना न्यासी मंडल का काम होता था। न्यासी मंडल का अध्यक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त जैसी भूमिका में होता था। प्रोफेसर जी के राय को इस बात का जबरदस्त अनुभव है क्योंकि, 1995 के बाद से वो लगातार इस कुर्सी को संभाले हुए हैं। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री, उपमंत्री और प्रकाशनमंत्री संसद के मंत्रिमंडल जैसे माने जा सकते हैं जिनका सीधा चुनाव होता है और छात्रावास तथा डेलीगेसी से चुने जाने वाले सदस्य विश्वविद्यालय की संसद के संसद सदस्य जैसे होते हैं।

छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाल भाषणों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के आत्मविश्वास का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस समय हर दूसरा वक्ता चुनाव में इस बात का जिक्र जरूर करता था कि जैसे पंजाब में गेहूं की फसल होती है वैसे ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय से IAS, PCS निकलते हैं। इतना ही नहीं ये भी जरूर गिनाया जाता था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को कई प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, राज्यपाल और एक से बढ़कर एक विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार दिए हैं। लेकिन, इसी गुमान में विश्वविद्यालय में एक जो सबसे खराब बात हुई थी कि ये विश्वविद्यालय बदलते भारत के साथ खुद को बदल नहीं रहा था। नॉसट्रैल्जिया में जी रहा था। लेकिन, हमारे विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते विश्वविद्यालय में सुधार की प्रक्रिया का पहला चरण लगभग पूरा हो चुका था।

विश्वविद्यालय में इसके पहले भी पुरातन छात्र सम्मेलन होते रहे हैं। लेकिन, 16 से 18 फरवरी तक ये विश्वविद्यालय का पहला अंतरराष्ट्रीय पुरा छात्र सम्मेलन हुआ है। शायद इस मामले में भी ये पहला होगा कि इस बार कोई बुजुर्ग छात्रसंघ अध्यक्ष, महामंत्री पुरा छात्र सम्मेलन का इस्तेमाल अपने राजनीतिक करियर को दुरुस्त करने के लिए नहीं कर रहे हैं। बल्कि, ये पुरा छात्र सम्मेलन इस विश्वविद्यालय को उन दिनों की याद दिलाएगा जब ये देश में ऑक्सफोर्ड का प्रतिमान विश्वविद्यालय माना जाता था। वैसे ये प्रतिमान मेरे जैसों को तब भी बुरा लगता था, अब भी बुरा लगता है। क्योंकि, मेरा मानना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वो सारी काबिलियत है जिसके बूते ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज को इस विश्वविद्यालय से उपमा लेनी पड़े। और, ये पुरातन छात्र सम्मेलन इस आंदोलन की शुरुआत हो सकती है।

विश्वविद्यालय के अब के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे से मेरी जो एक मुलाकात हुई है और जो उनके बारे में मेरी राय बनी है वो, ये कि प्रोफेसर हर्षे किसी भी तरह सबसे पहले विश्वविद्यालय की माली हालत ठीक करना चाहते हैं। आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि विश्वविद्यालय में ढेर सारे नए वोकेशनल कोर्सेज शुरू हो चुके हैं। जो, विश्वविद्यालय के बदलते भारत यानी यंग इंडिया के साथ कदम मिलाने का संकेत दे रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बंद पड़ा जर्नलिज्म डिपार्टमेंट भी जल्द ही शुरू हो सकेगा।

प्रोफेसर हर्षे से बस मेरा एक अनुरोध है कि वो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ को भारतीय लोकतंत्र की मजबूत पाठशाला बने रहने के लिए भी जरूरी फैसले लें। पढ़ाई में राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को चलाने वाले नेता अच्छी पढ़ाई करेंगे और लोकतंत्र के सबक अच्छे से सीखेंगे तभी वो, अच्छे नेता बन सकेंगे। इसके लिए जरूरी पहल इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे परिसरों से ही हो सकती है। और, प्रोफेसर हर्षे जैसे विजनरी कुलपति ही पढ़ाई और राजनीति दोनों में बेहतर तालमेल का फॉर्मूला तलाश सकते हैं।

Tuesday, February 19, 2008

पत्थर में जान डाल देते हैं ज्ञान भाई

पत्थरों में जिंदगी का अनुभव कितने लोगों ने किया होगा। लेकिन, ज्ञान सिंह के लिए ये बेहद सहज कार्य है। इतना सहज कि वो उनकी जिंदगी का अंग बन गया है। और, अब तो पत्थर ही ज्ञान सिंह की पहचान बन गए हैं। पत्थरों का मोह ही उन्हें इलाहाबाद से उदयपुर खींच ले गया। इलाहाबाद से बनारस के रास्ते पर इलाहाबाद से बाहर निकलते ही अंदावा के पास ज्ञान सिंह का गांव हैं। बनारस हिंदू युनिवर्सिटी से ही ज्ञान सिंह ने मास्टर्स इन फाइन आर्ट्स (स्कल्पचर) की डिग्री ली।

मार्बल स्कल्पचर के लिए 1996 में राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले ज्ञान सिंह आजकल मुंबई में हैं। महात्मा गांधी मार्ग पर जहांगीर आर्ट गैलरी में उनकी कला का बेजोड़ नमूना देखा जा सकता है। ये प्रदर्शनी 18 फरवरी को शुरू हुई है और 24 फरवरी तक सुबह 11 बजे से शाम 7 बजे तक चलेगी। उनकी कला के कुछ बेजोड़ नमूने मैं यहां दिखा रहा हूं। यही प्रदर्शनी दिल्ली में तानसेन मार्ग पर स्कल्पचर कोर्ट में 12 से 21 मार्च तक देखी जा सकती है।

‘Rhythm’ Pink Marble




‘Bird myth’ with fountain और ‘Emerging Form’ with fountain




‘Akchhayvateshwar’ Black Marble और ‘Head’ Black Marble




‘Melting’ Pink Marble





‘Ganesha’ Pink Marble

ये राज ठाकरे और उनके समर्थकों के पढ़ने के लिए है

राज ठाकरे की ठकुरैती इस समय शांत हो गई है। लेकिन, मराठी अस्मिता के नाम पर कब वो जाग जाए ये कोई नहीं जानता। मैं दैनिक जागरण अखबार में इलाहाबाद का पन्ना पढ़ रहा था। मैं खुद भी इलाहाबाद का हूं और मेरे मोहल्ले दारागंज के ही मराठियों से जुड़ी खबर है। मुझे आजतक अंदाजा नहीं था कि मेरे मोहल्ले में ही 1000 से ज्यादा मराठी रहते हैं। ये मराठी क्या सोचते हैं पढ़िए

Saturday, February 16, 2008

चीन में भी शहरों और गांवों के विकास में बड़ा फर्क है

भारत के लिए अक्सर ये कहा जाता है कि तरक्की के साथ सामाजिक विकास के मामले में भी चीन से सीखा जा सकता है। ये भी दावा किया जाता है कि वहां के कम्युनिस्ट शासन में सभी लोगों में बराबर बंटवारा है। अभी कुछ दिन पहले जब खबर आई थी कि भारत के तीन सबसे बड़े पूंजीपतियों के पास जितना पैसा है, उससे कम पैसा वहां के सबसे बड़े 120 पूंजीपतियों के पास है। साथ ही ये भी खबर थी कि भारत में अमीर और अमीर हुआ है जबकि, गरीब और गरीब। आज एक खबर और मैंने पढ़ी जो, चीन में गांव और शहर के बीच के विकास के अंतर को दिखाती है। यहां तक कि कई मां-बाप को छोटे शहरों में अपने बच्चों को छोड़कर इसलिए बड़े शहरों में जाना पड़ता है कि अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ा सकें। और, अच्छी जिंदगी जी सकें। पूरी खबर यहां पढ़े

ई लल्लूपना न होये ऊ, सच्चाई है जउने प आंख मूंदे कइउ पीढ़ी बरबाद होई ग बा

मैंने उत्तर प्रदेश के बारे में ASSOCHAM की एक रिपोर्ट के आधार पर तरक्की की उम्मीद जताई थी। उस पोस्ट के आधार पर एक ब्लॉगर लल्लू ने बहुत गंभीर बातें कह डाली हैं। इस पोस्ट को लल्लूपना टैग दिया गया है लेकिन, ये बात गंभीरता से न लेने से ही कई पीढियां बरबाद हो चुकी हैं। मैं वहां टिप्पणी करना चाह रहा था। लेकिन, वहां टिप्पणी फॉर्म न होने से यहीं चिपका रहा हूं। और, पूरी पोस्ट डाल रहा हूं।

वाकई हम यूपी के लोगों को दूसरे राज्य में पिटने जाने की कतई जरूरत नहीं है.
हम जिस काम को आपस में अच्छी तरह से कर सकते हैं उसके लिये दूसरे प्रांत के लोगों का सहारा लेना पड़ता है? छी.
हमारे अन्दर बहुत प्रतिभा है और हम आपस में ही इत्ती मार कुटाई कर सकते हैं कि जरूरत पड़ने पर दूसरे प्रांत या देश के लिये भी मारकुटाई करने वाले भेज सकते हैं. इतने सालों से हम एक दूसरे को पीटने या लतियाने के अलावा कर ही क्या रहे हैं!

सबसे बड़ी बात तो ये है कि हमें मार पिटाई करने के लिये मुद्दों की जरूरत नहीं पड़ती. जब दिल में आग हो तो मुद्दों की क्या कमी. धर्म जात के नाम पर तो हम एक दूसरे को सदियों से पीटते आये ही हैं. कभी कभी तो हम एसे एसे बचकाने मुद्दों पर एक दूसरे को पीटने लगते हैं कि बेचारे बुश बाबा को भी ये लगने लगे कि उसने इराक पर हमला करके कुछ गलत नहीं किया.

लेकिन जब असल मुद्दों की बात आती है तो हम दूर खड़े तमाशाई बन जाते हैं.अगर कोई आदमी किसी महिला के साथ बदतमीजी कर रहा हो तो हम दूर खड़े रहेंगे. मैं इन जगह बृहन्नला जैसे शब्द का उपयोग करना चाहता था पर सोचा इससे शबनम मौसी सरीखे लोगों का अपमान होगा.

कोई मायावती अपने एक स्कूल को तुड़वा कर गटर बनवा डालती है और हम घर में दुबके टेलीविजन के सामने बैठे रहते हैं. बुरा लगे तो रिमोट हाथ मे है. चैनल बदल डालेंगे. बस्स. कही कोई पत्ता भी नहीं खडकता.

तो हम यहीं पिटें और पीटें यही तो हमारा चरित्र है. वाकई हम यूपी के लोगों को दूसरे राज्य में पिटने जाने की कतई जरूरत नहीं है.

Friday, February 15, 2008

अगले 3 सालों में उत्तर प्रदेश में 25 लाख नौकरियां

देश के बीमारू राज्यों में अगुवा उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए इससे अच्छी खबर नहीं हो सकती है। ASSOCHAM को अब उत्तर प्रदेश में संभावनाएं दिख रही हैं। देश के दो सबसे बड़े उद्योग संगठनों में से एक ASSOCHAM की ताजा स्टडी रिपोर्ट कह रही है कि उत्तर प्रदेश उद्योगों के लिहाज से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्लेटफॉर्म बन सकता है। लेकिन, ASSOCHAM को सबसे बड़ी समस्या implementation की ही लग रही है।

ASSOCHAM ने जो स्टडी की है, उसका नाम रखा है "Uttar Pradesh: a rainbow of opportunities". ASSOCHAM की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी ताकत राज्य का मानव संसाधन और जमीन को बताया गया है। ASSOCHAM के चेयरमैन वेणुगोपाल धूत के मुताबिक, राज्य में मेन्युफैक्चरिंग की विकास दर 10.5 और खेती में 4 प्रतिशत की विकास दर होनी चाहिए। राज्य में देश की 17 प्रतिशत आबादी रहती है। साथ ही देश की कुल खेती की जमीन में से 11.8 % खेती की जमीन उत्तर प्रदेश ही है।

ASSOCHAM का कहना है कि विकास की ये रफ्तार पाने के लिए राज्य में 50,000 करोड़ रुपे का निवेश होगा। उत्तर प्रदेश में IT और ITES सर्विसेज आसानी से डेवलप की जा सकती है। इन उद्योगों से राज्य हर साल 5,000 करोड़ रुपए की IT सर्विसेज निर्यात कर सकता है। और, इन्हीं दोनों इंडस्ट्री में ही राज्य में 2010 तक 8 लाख नई नौकरियों के आने की उम्मीद है।

ASSOCHAM की रिपोर्ट के मुताबिक, IT, ITES के अलावा करीब एक दर्जन क्षेत्र और हैं जिसमें राज्य तेजी से तरक्की कर सकता है। इन सेक्टर्स में राज्य में करीब दो लाख करोड़ रुपए का निवेश होने की उम्मीद है। और, 2010 तक ये सेक्टर्स UP में 25 लाख लोगों को नौकरी देंगे। ये खास सेक्टर्स हैं फूड प्रॉसेसिंग, एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रीज, हेवी इंजीनियरिंग, पेट्रोकेमिकल, रियल इस्टेट, रिटेल, एक्सप्रेसवेज, टेक्सटाइल-कॉटन और सिल्क और चीनी।

जब राज्य में मायावती की सरकार बनी थी। तभी मैंने उत्तर प्रदेश में राजनीति के जरिए विकास का गणित नाम से एक पोस्ट लिखी थी। जिसमें मैंने साफ लिखा था कि उत्तर प्रदेश मानव संसाधन और एग्री बेस्ड इंडस्ट्री के मामले में देश का सिरमौर बन सकता है। अब यही बात ASSOCHAM की रिपोर्ट भी कह रही है। बस सवाल सिर्फ ये है कि क्या मायावती की सरकार इतने बड़े विकास के लिए तैयार है।

Thursday, February 14, 2008

ए भाई लोगों इन मराठियों की भी जरा चिंता कर लो

मराठी माणुस के भले का दावा करने वालों ने एक मराठी माणुस की जान ले ली। और, दूसरा एक मराठी माणुस हत्यारा बन गया। यानी दो मराठी परिवार बरबाद हो गए। लेकिन, अभी भी मराठियों की चिंता करने वालों की सेना का अभियान जारी है। मराठी हितों की चिंता करने वाले सचमुच कितने चिंतित हैं अपने वोट के लिए या मराठी हितों के लिए ये सब जानते हैं। फिर भी महाराष्ट्र के 2000 के सेंसस से इसे समझने में और आसानी होगी। सच्चाई ये है कि मराठियों को बुनियादी सुविधाएं तक नहीं मिल पा रहीं और ये आंकड़ा सिर्फ मुंबई का नहीं है। जहां गैर मराठियों को मराठियों के संसाधनों पर कब्जा करते प्रचारित किया गया है।

पूरे महाराष्ट्र के आधे से ज्यादा घरों में टॉयलेट तक की सुविधा नहीं है। जब उत्तर भारतीयों की संख्या मुंबई में बहुत कम थी, तब भी देश का अकेला शहर मुंबई ही था जहां, चॉल सिस्टम में बीसों घरों के लोग एक ही टॉयलेट का इस्तेमाल करते थे। मराठी संस्कृति, अस्मिता का ढोल पीटने वालों अब जरा गैर मराठियों को गंदगी में रहने वाले और गंदगी करने वाले बोलने से पहले इन आंकड़ों का ध्यान कर लेना। देश में सबसे ज्यादा शहरीकरण गुजरात के बाद महाराष्ट्र का ही हुआ है। लेकिन, यहां गांवों के लिहाज से 81.8 प्रतिशत और शहरों में 41.9 प्रतिशत घरों को अपना टॉयलेट तक नसीब नहीं है। शहरों की 40 प्रतिशत आबादी ड्रेनेज सिस्टम से जुड़ी नहीं है।

दूसरी सुविधाओं के मामले में भी अगर देखें तो, शहरों में भले ही 70.5 प्रतिशत घरों में टीवी सेट हैं लेकिन, गांव के इससे भी ज्यादा घरों में टीवी ही नहीं है। 35 प्रतिशत घरों मे रेडियो या ट्रांजिस्टर है। 14.1 प्रतिशत घरों में टेलीफोन है। 30.1 प्रतिशत घरों में साइकिल है। 13.2 प्रतिशत घरों में बाइक, स्कूटर या फिर मोपेड है। सिर्फ 3.4 प्रतिशत घरों में ही कारें हैं। और, 36.8 प्रतिशत घरों में इनमें से कोई भी सामान नहीं है। ये आंकड़े साफ बताते हैं कि मुंबई में चमकती SUV’s में घूमने और मायानगरी की चमकती पार्टियों में शामिल होने वालों को असली मराठी हितों के बारे में अंदाजा भी नहीं होगा।

ऐसा नहीं है कि देश के दूसरे हिस्सों में ऐसा समान बंटवारा है। लेकिन, सच्चाई यही है कि मुंबई जैसी देश की आर्थिक राजधानी होने के बावजूद यहां की सरकारें और यहां के नेता राज्य के दूसरे हिस्सों के विकास का कोई खाका तैयार नहीं कर पा रहे हैं। मुंबई में निश्चित तौर पर जिस तरह से बाहर से लोग आ रहे हैं यहां की भी बुनियादी सुविधें टूट रही हैं। और, इसका कोई न कोई विकल्प भी खोजना पड़ेगा। पर, सवाल ये है कि जब विकसित राज्यों में शुमार महाराष्ट्र की सरकार राज्य के दूसरे हिस्सों में ही ऐसे विकल्प नहीं दे पा रही है और महाराष्ट्र के ही दूसरे हिस्सों से लोग मुंबई भागे चले आ रहे हैं तो, ये उम्मीद कैसे की जा सकती है कि पिछड़े का ठप्पा लगे उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अपने अवसर खोजने देश की आर्थिक राजधानी में नहीं आएंगे।

और, ये आंकड़ा ये भी साफ करता है कि मुंबई का विकास किसी मराठी या गैर मराठी की वजह से नहीं हुआ। समुद्र के किनारे बसा होना, आज से सौ साल पहले से ही देश का व्यापारिक केंद्र होना और दुनिया भर में भारत के अकेले आर्थिक शहर के तौर पर पहचान- इन सबकी वजह से मुंबई की शान है, मुंबई की चमक है। अब अगर सचमुच मराठी हितों के रक्षकों को अपना दावा सिद्ध करना है तो, महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों को भी मुंबई जैसा चमकाकर दिखाएं और तब कहें कि पिछड़े राज्यों के लोगों को यहां घुसने नहीं देंगे। क्योंकि, अभी तो महाराष्ट्र के ही दूसरे हिस्से बहुत पिछड़े नजर आ रहे हैं।

Wednesday, February 13, 2008

राज की गिरफ्तारी और जमानत के ड्रामे का सच

राज ठाकरे को जमानत मिल गई। अगर किसी ने बुधवार चार बजे के पहले टेलीविजन बंद कर दिया होगा और किसी वजह से सात बजे तक टीवी नहीं देख पाया होगा तो, उसे लगेगा कि राज को जमानत क्यों लेनी पड़ी। जब पिछले 48 घंटों से राज्य सरकार की पूरी मशीनरी और केंद्र की ओर से भेजी गई अतिरिक्त अर्द्धसैनिक बलों की फौज राज के घर का सुरक्षा घेरा प्रधानमंत्री निवास से भी ज्यादा किए हुए थी और गिरफ्तारी नहीं हो पाई तो, फिर ये जमानत का ड्रामा क्या है।

बुधवार शाम चार से सात बजे के बीच की गिरफ्तारी से लेकर जमानत तक का ये ड्रामा महाराष्ट्र की गंध भरी राजनीति की असली कहानी कह देता है। शुरुआत में राज ठाकरे की उत्तर भारतीयों के खिलाफ गंदगी करने की कोशिश सिर्फ ठाकरे खानदान के वर्चस्व की लड़ाई के तौर पर देखी जा रही थी। लेकिन, अब ये पूरी तरह साफ हो गया है कि मायानगरी में अब तक बनी किसी भी फिल्म से ज्यादा ड्रामे वाली इस पटकथा को राज्य के सबसे कमजोर मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और राज्य के वोटविहीन (शायद रियल लाइफ की बांटो-काटो की राजनीति कुछ वोट भीख में दे दे) नेता राज ठाकरे ने मिलकर तैयार किया है। और, पिक्चर अभी खत्म नहीं हुई है। क्योंकि, वोटों के लिहाज से राज ठाकरे को ज्यादा फायदा नहीं होगा। हां, कांग्रेस-एनसीपी के कमजोर, बेतुके शासन को एक और मौका मिलने में ये मदद करेगा।

ये दोनों नेता कितने दोगले हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज की जमानत से से ठीक पहले तक मुख्यमंत्री एक टीवी चैनल पर ये कह रहे थे कि राज्य में सभी की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी है। और, राज ठाकरे की गिरफ्तारी एकदम जायज है। उस समय विक्रोली कोर्ट में महाराष्ट्र पुलिस राज ठाकरे को 12 दिन की न्यायिक हिरासत में लेने का आधार तक नहीं पेश कर पाई। और, मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के कई हिस्सों खासकर नासिक, औरंगाबाद, पुणे में एमएनएस की गुंडागर्दी जमकर चल रही थी। वैसे राज पहले तो दहाड़ रहे थे कि वो जमानत किसी भी कीमत पर नहीं लेंगे फिर धीरे से भीगी बिल्ली की तरह जमानत लेकर निकल आए।


राज को जमानत देते समय अदालत ने जो दो बातें कहीं जरा उसे भी पढ़ लीजिए।
पहला- ‘शहर में शांति का ख्याल रखें’।
क्या, कानून तोड़ने वाले और देश बांटने की कोशिश करने वाले किसी व्यक्ति को इतनी इज्जत दी जा सकती है
दूसरा- ‘पढ़े-लिखे व्यक्ति की तरह व्यवहार करें’। ये एकदम सही सलाह लगी लेकिन, क्या ये बताने की जरूरत है पढ़े-लिखे हैं इसीलिए वो सारी गंदगी सोच-समझकर फैला रहे हैं।


राज के सिर्फ इस कुतर्क पर उन्हें जमानत मिल गई कि उनके बयानों को पूर्ण परिदृश्य में रखे बिना मीडिया ने उसका गलत इस्तेमाल किया। वैसे ऐसे कुतर्कों के साथ राज पहले भी कानून को ठेंगे पर रखते रहे हैं। लेकिन, पुलिस अदालत को ये क्यों नहीं बता पाई कि पिछले दस दिनों में मुंबई एक गुंडा ‘राज’ की बंधक हो गई थी। जबकि, अदालत में चल रही बहस के समय भी राज के गुंडे महाराष्ट्र में गैरमराठियों के लिए दहशत बढ़ाने की कोशिश छोड़ नहीं रहे थे। अब पुलिस अदालत को क्यों ये नहीं बता पाई कि टैक्सियों के तोड़े जाने, लोगों को सड़कों पर, ट्रेन में, बसों में पीटे जाने की तस्वीरें को अब भला किस पूर्णता की जरूरत है। पुलिस चाहती तो, किसी भी टीवी चैनल से वो तस्वीरें लेकर अदालत से गुंडा ‘राज’ की रिमांड ले सकती थी। कल नासिक से जिस तरह से उत्तर भारतीयों के आपात खिड़की से किसी तरह घुसकर नासिक छोड़कर जाने की तस्वीरें थीं वो, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद की ट्रेन की याद दिला रही थीं।

फिर भी अगर देशमुख की पुलिस राज को हिरासत में नहीं रख पाई तो, इसके पीछे ज्यादा कहानी खोजने की जरूरत है क्या। देशमुख ने वोटविहीन नेता को पिछले दस दिनों से सुर्खियों में रखा हुआ है। टैक्सी वालों को पीटने और टैक्सियां तोड़ने की पहली घटना के बाद अगर उस इलाके के थानेदार को ही प्रशासन ने कार्रवाई की छूट दी होती तो, रोनी सूरत वाले गृहमंत्री शिवराज पाटील और गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के मुर्दा वक्तव्य टीवी पर देखने की जरूरत नहीं होती। राज किसी आम गुंडे की तरह जेल की सलाखों के पीछे होता और मीडिया उसकी जमानत या गिरफ्तारी के ड्रामे पर अपना कैमरा न फोकस करता।

एक थानेदार के हाथों खत्म हो जाने वाली गुंडागर्दी पर कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकारें 48 घंटों तक आपात बैठक करती रही और गुंडा ‘राज’ मराठियों का सबसे बड़ा नेता बनता गया। राज को जमानत मिलने के बाद जो, लोग टीवी चैनल पर एमएनएस समर्थक के तौर पर नाच रहे थे, भांगड़ा कर रहे थे, उनमें से ज्यादातर 18 साल तक के नहीं थे। जो 18 साल के ऊपर के थे वो, ज्यादातर खाली बैठे लोग थे जो, काम नहीं करना चाहते लेकिन, राज की सेना में शामिल होकर रुआब झाड़ना चाहते हैं।

मराठी माणुस के हितों की रक्षा करने के राज ठाकरे के खोखले दावे के साथ शुरू हुआ गुंडा ‘राज’ एक मराठी माणुस की जान ले चुका है। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में इंजीनियर 52 साल के अंबादास धारराव की राज ठाकरे के भक्तों के पथराव में मौत हो गई। अबंदास की बीवी के मराठी हितों की रक्षा का क्या हुआ। राज ने अदालत में भी मराठी माणुस के हितों की रक्षा करते रहने की प्रतिबद्धता दोहराई है यानी अभी पिक्चर बाकी है तो, अभी कितनी जानें जाएंगी, फिर वो मराठी माणुस की हों या फिर उत्तर भारतीयों की।

Saturday, February 09, 2008

एक गुंडा ‘राज’ के साये में कई गुंडे ‘राज’ कर रहे हैं

कहावत है चोर-चोर मौसेरे भाई लेकिन, यही कहावत महाराष्ट्र में अंदाज बदल लेती है, यहां पर वही कहावत गुंडा-गुंडा चचा-भतीजा में तब्दील हो जाती है। और, अब तो हाल ये है कि पूरे राज्य के नेता एक दूसरे के भाई-भतीजे नजर आ रहे हैं। क्या पक्ष, क्या विपक्ष। सरकार और सरकार से बाहर किसी में कोई भेदभाव नहीं है। सब एक दूसरे की गुंडई बढ़ाने में मदद कर रहे हैं।

लेकिन, गुंडा ‘राज’ में भी पूरी विनम्रता के दर्शन हो रहे हैं। पुणे में एक समारोह के बाद जब आयोजकों ने राज ठाकरे को वहां आने के लिए धन्यवाद दिया तो, राज ने पूरी विनम्रता से इसका सेहरा श्रीमान राजाधि ‘राज’ प्रदेश के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के सिर पर सजा दिया। राज ने स्वीकारा कि अगर देशमुख साहब ने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया होता तो, वो आयोजन में शामिल न हो पाते। वैसे राज ठाकरे पुलिस ‘राज’ मुंबई के पुलिस कमिश्नर डी एन जाधव को उनका प्रशस्ति पत्र सार्वजनिक मंच से देना या तो भूल गए या फिर सरकारी नौकर छोड़कर बख्श दिया।

सेना की शुरुआती तालीम के दिनों से ही गुंडा ‘राज’ शुरू हो गया था। शुरू में बड़े ठाकरे, जिनका मुंबई में किसी भी कीमत पर कोई ‘बाल’ भी बांका नहीं कर सकता, को गुंडा ‘राज’, ठाकरे ‘राज’ का ही हिस्सा लगता था। लगता था सेना बढ़ रही है। भले ही कोई दुश्मन न हो लेकिन, सेना का झंडा फहरा रहा था। किसी किले पर न सही, दादर के शिवसेना भवन पर ही सही। लेकिन, ठाकरे ‘राज’ से बाहर होकर गुंडा ‘राज’ की बातें देश के सबसे बड़े स्वनामधन्य मराठी नेता को 80 साल की उम्र में बुरी लगने लगी हैं।

ठाकरे के परम मित्र बिग बी यानी बॉलीवुड के ‘राज’ अमिताभ बच्चन को गंडा ‘राज’ मुंबई, महाराष्ट्र विरोधी बताने लगा तो, ‘राज’ के जनक, बाल ठाकरे से रहा नहीं गया वो, कह बैठे कि गुंडा ‘राज’ गलत है। नाम नहीं लिया किसी का लेकिन, ‘सामना’ मिलते ही कह दिया गुंडा ‘राज’ गलत है। आखिर मामला बॉलीवुड के राजाधि‘राज’ का था। विनम्र बच्चन की अनुभवी पारखी आंखों ने अभी हफ्ते-दो हफ्ते पहले ही तो पहचाना था कि नया ठाकरे‘राज’ कला की दुनिया में परचम लहराएगा।

गृह‘राज’ संभालने वाले उपमुख्यमंत्री आर आर पाटील एनसीपी से हैं। उन्हें पता है मराठी‘राज’ ठाकरे का हो गया और उत्तर भारतीय ‘राज’ कांग्रेस का तो, मुश्किल हो जाएगी। वो, फिर दहाड़े, ठीक उसी तरह से जैसे 31 दिसंबर की रात दो गुजराती लड़कियों के साथ कुछ मराठी बालकों की छेड़खानी के बाद दहाड़े थे। ये डायलॉग आप लोग भी याद कर लीजिए। आगे कई ऐसे मौके आएंगे जब आप पाटील के मुंह से ये रटा-रटाया डायलॉग सुनेंगे। ‘अपराधी कोई भी हो उसे छोड़ा नहीं जाएगा। ऐसा सबक सिखाया जाएगा कि आगे से कोई भी ऐसी हरकत करने से डरेगा।’ गृह‘राज’ पाटील साहब ने लगे हाथ ये भी कह दिया कि अमर सिंह बहुत बोलते हैं। उत्तर भारतीयों की पिटाई के लिए जिम्मेदार असर सिंह भी हैं।

वैसे उत्तर प्रदेश के गुंडा ‘राज’ की कमान कुछ महीने पहले ही अमर सिंह और उनके भाई मुलायम सिंह यादव के हाथ से छूटी है। अब हर कोई उन्हें गुंडा लगता है। और, उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक गुंडा ‘राज’ दिखता है। उत्तर प्रदेश में मायावती का गुंडा ‘राज’ तो, महाराष्ट्र में तो, गुंडा ‘राज’ है ही। वैसे अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव की सपा ने मुंबई में ‘राज’ के लिए गुंडा ही तलाशा था। अबू आजमी पर दाउद जैसे गुंडों के राजा से संपर्क रखने का आरोप लगते रहे हैं। अब ये बात गुंडा ‘राज’ की पार्टी के लोग भी कह रहे हैं। आजमी ने पहले लाठी भांजी लेकिन, जब सामने मुस्तैदी से ‘राज’ की सेना आ गई तो, दुबक लिए। पिट गए ‘राज’ के ताज में रोड़ा बनने वाले।

‘राज’ करने के लिए बाल ठाकरे को अब उत्तर भारतीयों का भी साथ चाहिए। उद्धव के 'राज' के लिए सेना तो तैयार पहले ही हो चुकी है लेकिन, 'राज' में थोड़ी मुश्किलें आ रही हैं। इसलिए सेना में उत्तर भारतीयों को भी शामिल करने की कोशिश हो रह है। इसके लिए एक बड़े उत्तर भारतीय (अमिताभ बच्चन के लिए ये विशेषण शर्मनाक है) के पक्ष में उतरने से बेहतर भला क्या हो सकता है। उधर, ‘राज’ के लिए देशमुख की कांग्रेस और पाटील की एनसीपी बाल ठाकरे से मराठियों की सेना छीनकर उसका बड़ा हिस्सा ‘राज’ को थमाना चाहती है। ‘राज’ की भी पुरानी आदत सेना साथ लेकर चलने की है। अब शिवाजी की सेना तो मिलने से रही। इसलिए नई सेना बनानी है। सेना में जोश भरना है, सेना को किसी के खिलाफ लड़ाई के लिए तैयार किए बिना सेना मे साहस नहीं आता और इस सबके बिना ‘राज’ नहीं आएगा। यहां तक कि 31 दिसंबर की रात छेड़खानी करने वालों को पहले तो उत्तर भारतीयों की करतूत बता दिया। लेकिन, जब वो मराठी माणुस निकले तो, राज उनके पक्ष में मैदान उतर आए। उत्तर भारतीयों को दुश्मन सेना बताकर ‘राज’ करने की कोशिश जारी है। नारायण राणे, छगन भुजबल भी तो ‘राज’ के इसी फॉर्मूले से अब तक राज कर रहे हैं।

गुंडा ‘राज’ के पक्ष में देशमुख, पाटील, पवार नजर आ रहे हैं तो, ‘राज’ बचाने के लिए बाल ठाकरे, अमिताभ बच्चन, संजय निरुपम और भोजपुरी फिल्मों के कलाकार दिख रहे हैं। और, इन दोनों के ‘राज’ में सैंडविच बन गए हैं। इस गुंडा ‘राज’ में कुछ गरीब उत्तर भारतीयों की रोजी-रोटी पर हमला हुआ। सौ-पचास को लात-जूते मिलीं और 25-50 मराठी माणुस पुलिस रिकॉर्ड में आ गए। अब ये कुछ और नहीं कर पाएंगे। अब ये सिर्फ किसी की सेना में ही काम कर पाएंगे। अब ये सिर्फ झूठी अस्मिता बचाने के बहकावे में आकर बार-बार किसी न किसी के लिए गुंडा ‘राज’ कायम करेंगे। और, इनके बाद की मराठी माणुस की पीढ़ी उत्तर भारतीयों के यहां आने की नहीं, अपने ही बाप-दादाओं के गुंडा ‘राज’ कायम करने की कोशिश करने वाली सेना में शामिल होने का खामियाजा भुगतेगी।

Friday, February 08, 2008

... और अब चाहिए कोडिफाइड मीडिया



इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन, इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की पत्रिका ‘बरगद’ का ताजा अंक मीडिया पर है। इस अंक में मीडिया का कोड ऑफ कंडक्ट होना चाहिए क्या। पत्रकारिता की नई प्रवृत्तियां बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समाचारों में सनसनी और टीआरपी की होड़, विशेषीकृत पत्रकारिता न तकनीकी लेखन, सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम बनाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा मीडिया की भाषा कैसी होनी चाहिए विषय पर तीन दिन तक चली राष्ट्रीय संगोष्ठी का पूरा निचोड़ है।

इस गोष्ठी में केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष रामशरण जोशी, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति राधेश्याम शर्मा, सहारा टाइम्स के प्रमुख उदय सिन्हा, जामिया मिलिया, नई दिल्ली से प्रोफेसर हेमंत जोशी, एनडीटीवी, दिल्ली के समाचार संपादक प्रियदर्शन, वरिष्ठ टीवी पत्रकार मंजरी जोशी, नया ज्ञानोदय नई दिल्ली के संपादक रवींद्र कालिया, इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जी के राय और दूसरे कई मीडिया के दिग्गजों के साथ मुझे शामिल होने का मौका मिला था। मैंने कौन बनाए मीडिया का कोड ऑफ कंडक्ट विषय पर उद्घाटन सत्र में अपनी बात रखी थी। इस संगोष्ठी के संयोजक सेन्टर ऑफ फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन के अध्यापक और बरगद पत्रिका के प्रबंध संपादक धनंजय चोपड़ा थे।

बरगद का ये अंक bargad@rediffmail.com प्रो जी के राय या धनंजय चोपड़ा के नाम मेल करके मंगाया जा सकता है। इसकी सहयोग राशि 10 रुपए है।

Thursday, February 07, 2008

गांधी के मुंह में मरते समय राम ठेल देने से किसका भला हुआ


महात्मा गांधी का इस्तेमाल उनके मरने के बाद भी हो रहा है। कौन कर रहा है किसके भले के लिए हो रहा है। या सिर्फ मरे हुए गांधी को जिंदा रखकर उनका इस्तेमाल करने की कोशिश चल रही है। और, गांधी की महानता भले ही पूरे देश के काम आ रही हो। लेकिन, सच्चाई यही है कि धोती में मुस्कुराते गांधी की मुस्कान वाली फोटो पर हार डालकर सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को मिला है। और, इसीलिए देश में गांधी के मुंह से निकले आखिरी ‘हे राम’ का सबसे ज्यादा प्रचार-प्रसार भी कांग्रेस ने ही किया।

कुछ दिन पहले ही गांधी के मरने के आखिरी शब्द ‘हे राम’ की जगह ‘राम-राम’ में बदले। और, अब गांधीजी के साथ 1943 से 1948 तक काम करने वाले एक गांधीवादी कह रहे हैं कि गोली लगने के बाद महात्मा गांधी के मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। वो, हतप्रभ रह गए थे और तुरंत उनकी मृत्यु हो गई थी। चेन्नई में रहने वाले 85 साल के कल्याणम वेंकटरमण का कहना है कि गांधी का पहले ही मोहभंग हो चुका था।

वेंकटरमण कहते हैं कि जब नाथूराम गोडसे ने गांधीजी पर पांच गोलियां दागीं वो, उस समय गांधीजी से मुश्किल से आधा मीटर की दूरी पर खड़े थे। वेंकटरमण का कहना है कि गांधीजी तुरंत गिर गए उनके मुंह से कुछ भी नहीं निकला। वो, सवाल भी खड़ा करते हैं कि इतने नजदीक से लगी गोली के बाद किसी को कुछ बोलने का मौका भला कैसे मिल सकता है।

फिर सवाल ये है कि आखिर गांधी के मुंह में आखिरी शब्द हे राम या फिर राम-राम किसने ठूंसा। और, इससे किस तरह का फायदा देखा गया। गांधी के पक्ष-विपक्ष में चल रह शोधों में गांधी के मुंह में ठूंसे गए आखिरी शब्द को भी शामिल किया जाना चाहिए।

पद्मश्री पाने वाला देश का पहला किसान

भारत एक कृषि प्रधान देश है। तो, इसमें नया क्या है। नया ये है कि देश में पहली बार किसी किसान को भी पद्मश्री के लायक समझा गया है। उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद के हाजी कलीमउल्ला को ये सम्मान मिला है। बड़े-बड़े नेता, पत्रकारों, व्यापारियों के बीच में पद्मश्री पाने वालों की लंबी सूची में कलीमउल्ला कहीं बहुत नीचे दब गए। लेकिन, सुखद ये रहा कि कई अखबारों में कलीम उल्ला को खासी तवज्जो मिली। कलीम आम के सिर्फ एक पेड़ पर आम की 300 किस्में उगा चुके हैं। बरसों का कलीम का खुद का ही शोध है। अमर उजाला के संपादकीय पृष्ठ पर अमर उजाला कानपुर के स्थानीय संपादक प्रताप सोमवंशी ने कलीम उल्ला की काबिलियत को जगजाहिर करने वाला एक लेख लिखा है। प्रतापजी के साथ मैंने इलाहाबाद से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। काम करना सीखा था। मैं उस संपादकीय का लिंक दे रहा हूं। कलीम की काबिलियत की पूरी जानकारी के लिए ये लेख पढ़ें

Wednesday, February 06, 2008

गलत है कि नई पीढ़ी, प्रतीकों के बारे में हमसे कम सोचती-विचारती है

मेरा छोटा भाई आनंदवर्धन नोएडा के FDDI से रिटेल मैनेजमेंट का कोर्स कर रहा है। कल मेरे जीमेल पर दिखा कि छोटे भाई ने ऑर्कुट पर कुछ स्क्रैप भेजा है। मुझे लगा शायद भैया क्या हाल है। या फिर कुछ ऐसा ही हल्का-फुल्का संदेश होगा। लेकिन, उसका संदेश मुझे अंदर तक हिला गया। पत्रकार होने के नाते ये भ्रम थोड़ा बहुत तो बना ही रहता है कि हम दूसरों से सामाजिक विषयों पर, अपने प्रतीकों के बारे में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता या दूसरा सामाजिक मुद्दों पर ज्यादा संवेदनशील होते हैं। लेकिन, MBA की पढ़ाई कर रहे छोटे भाई के स्क्रैप ने मुझे थोड़ा सुकून भी दिया और चौंकाया भी। मैं तो पत्रकारिता में आने से पहले छात्र राजनीति, सामाजिक आंदोलनों से भी जुड़ा रहा हूं। लेकिन, मेरे छोटे भाई ने तो आज तक किसी राजनीतिक हलचल या सामाजिक आंदोलन में शिरकत नहीं की है। लेकिन, शायद अपने प्रतीकों पर हमला उसे मुझसे ज्यादा खल रहा है। ये पूरा संदेश मैं नीचे डाल रहा हूं।

anand vardhan:
pranam bhaiya read it & think y this happen in INDIA
its a serious matter for all of d INDIANS

Shame on this goverment !!!

Bhagat singh, Rajguru and Sukhdev have been referred as terrorists in an ICSE 6th standard class in social science subject text book at page number 64 & 65 in Mumbai.............
Get up friends..............
Pass this message like fire...................
Protest against this..................

........................................जय HIND!!! जय HIND!!! जय HIND ...................

Instead of forwarding stupid messages please forward this message to every1 who is an INDIAN by heart!!!!!

इस संदेश को देखने के बाद मुझे लगा कि सिर्फ करियर बनाने का नाम लेकर हम भले ही नई पीढ़ी को बुरा भला कहें। सच्चाई यही है कि ये नई पीढ़ी हमसे ज्यादा विचारवान है। हर मुद्दे को परख रही है, सोच विचार रही है। अपने प्रतीकों को लेकर संवेदनशील है। ये तो हमसे पहले की पीढ़ी से लेकर अभी तक और हमारे नेताओं की गंदी अगुवाई ने इस देश की चेतना को ग्रहण सा लगा दिया है।

नेहरूजी की लोकसभा सीट से अतीक होगा अगला कांग्रेस प्रत्याशी



मायावती को उनके प्रदेश के अपराधी डराते हैं। कहा जाता है कि अगर कोई किसी को कभी झापड़ भी मार दे तो, झापड़ खाने वाला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, झापड़ मारने वाले से हमेशा डरता रहता है। यही मायावती के साथ हो रहा है। वैसे मायावती का अतीक से डरना बेवजह नहीं है।

मायावती को लखनऊ के वीवीआईपी गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के रमाकांत, उमाकांत यादव और अतीक अहमद की बदसलूकी आज भी डराती होगी। वैसे जब मायावती ने अतीक से अपनी जान का खतरा बताया तो, पहले से ही उत्तर प्रदेश से भगोड़ा घोषित किए जा चुके अतीक की पुलिस मुठभेड़ में हत्या की आशंका बलवती हो गई। लेकिन, न तो कल्याण सिंह का जमाना था और न ही अतीक अहमद, शिव प्रकाश शुक्ला की तरफ सिर्फ अपराधी था। अतीक माननीय सांसद हैं और आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, सपा के लिए काम की ताकत बन सकते हैं।

अब अगर दिनदहाड़े हुई हत्या के बाद भी अतीक जैसा बदमाश मुस्कुराते हुए मुख्यमंत्री पर आरोप लगाकर मजे से जेल जा सकता है तो, मारे गए बीएसपी विधायक राजू पाल की विधवा पूजा पाल और राजू की मां रानी पाल का डरना तो बेवजह नहीं ही है। उनके पास तो मुख्यमंत्री जैसी सुरक्षा भी नहीं है। राजू पाल हत्याकांड में गवाह उमेश की तो जैसे सांस ही रुक गई है।

इधर, दिल्ली पुलिस के बड़े-बड़े कारनामे कर रही है। बड़े-बड़े भगोड़े बदमाशों को दिल्ली पुलिस धर दबोच रही है, सलाखों के पीछे पहुंचा दे रही है। खासकर उत्तर प्रदेश के भगोड़े बदमाशों के लिए तो दिल्ली पुलिस काल बन गई है। खबरों को देखकर पहली नजर में तो ऐसा ही लगता है। दो दशक से भगोड़े पांच लाख के इनामी बदमाश बृजेश सिंह के बाद इलाहाबाद का कुख्यात भगोड़ा माफिया सांसद भी दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आ गया है।

लेकिन, एक बड़ा इत्तफाक दिख रहा है जिससे सवाल भी खड़े हो सकते हैं कि आखिर उत्तर प्रदेश के अपराधी दिल्ली पुलिस की ही पकड़ में क्यों आ रहे हैं। बृजेश सिंह के भुवनेश्वर से पकड़े जाने के बाद जब अतीक अहमद दिल्ली से पकड़े गए तो, मुझे लगने लगा कि कहीं मायावती सही तो, नहीं कह रही थी। मायावती ने कुछ दिन पहले ही प्रेस कांफ्रेंस करके कहा था कि समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुना गया भगोड़ा सांसद अतीक अहमद उनकी हत्या करने की फिराक में हैं। और केंद्र की कांग्रेस सरकार उसकी मदद कर रही है। वैसे तो इतनी तगड़ी सिक्योरिटी में रहने वाली मुख्यमंत्री को कोई अपराधी कैसे मार सकता है। लेकिन, आरोप जब मुख्यमंत्री खुद लगा रही हो तो, उस पर कुछ तो यकीन करना ही पड़ता है।

अतीक का दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आना कई सवाल खड़े करता है। क्या उत्तर प्रदेश पुलिस में अतीक का जाल इतना मजबूत हो चुका है कि अतीक की सारी बातचीत रिकॉर्ड होने के बाद भी पुलिस उसे पकड़ नहीं सकी। कहते हैं कि फरारी में अतीक ने 65 से ज्यादा सिमकार्ड इस्तेमाल किए। अतीक का भाई अशरफ और हमजा अभी भी पुलिस की पकड़ में नहीं आए हैं। साफ है माहौल ठीक होते ही ये दोनों भी दिल्ली पुलिस की गिरफ्त से यूपी की जेल में महफूज हो जाएंगे। अतीक ने दिल्ली पुलिस (मुझे साफ मिलीभगत लगती है) को खुद को सौंपने से पहले दिल्ली में टीवी चैनलों को जिस ठाट से इंटरव्यू दिया था वो, देखने लायक था। साफ दिख रहा था कि दिल्ली में किसी सांसद आवास पर इंटरव्यू दिया गया था।

एक और बात छोटे-छोटे मामलों में आजकल पुलिस अपराधियों से सच उगलवाने के लिए नारको टेस्ट का सहारा लेने लगी है। फिर अतीक को इससे क्यों बख्शा जा रहा है। साफ है अगर बेहोशी में अतीक ने सारी सच्चाई उगली तो, राजू पाल का हत्यारा साबित होने के साथ वो कई बड़े नेताओं और उत्तर प्रदेश पुलिस के कई बड़े अफसरों को भी नाप लेगा। इलाहाबाद शहर और अतीक के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में तो सबकी बोलती सी बंद हो गई है। सब कह रहे हैं कि जेल में बैठा अतीक तो अब वहीं से किसी की भी हत्या करवा सकता है।

अब सोचिए कि मायावती क्या कर लेंगी अगर सपा और कांग्रेस दोनों को अतीक नेता लग रहे हैं अपराधी नहीं। मुझे तो लगता है कि मायावती सच ही कह रही हैं कि केंद्र की कांग्रेस सरकार भी अतीक की मदद कर रही है। और, अगले लोकसभा चुनाव में नेहरू-गांधी की विरासत की मलाई खा रही सोनिया अम्मा की कांग्रेस अतीक अहमद को नेहरू जी की लोकसभा सीट फूलपुर से अपना प्रत्याशी बना सकती है। जीतने में कोई दिक्कत तो है ही नहीं।

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी  9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...