Friday, May 23, 2014

भारतीय राजनीति के ये शुभ संकेत हैं


नरेंद्र मोदी की जीत मे सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए हैं। सारे विश्लेषण भी। और जमे-जमाए प्रतीक भी मिटा दिए हैं। क्रांति के अग्रदूत अरविंद केजरीवाल नौटंकी सम्राट हो गए हैं। भारतीय चुनावी विश्लेषक और फिर आम आदमी पार्टी के नेता के तौर पर देश के सौम्य चेहरों में से एक योगेंद्र यादव इस समय सोशल मीडिया पर सबसे बड़ा मजाक बन गए हैं। अरविंद केजरीवाल से भी बड़ा। राजनीति का जो तरीका बेहद क्रांतिकारी था। उसी तरीके पर अब विश्लेषक कहने लगे हैं कि अरविंद केजरीवाल को राजनीति का नया तरीका खोजना होगा। दो नंबर ऊपर की ढीली ढाली शर्ट, फ्लोटर सैंडिल पहनने वाला अरविंद आम आदमी का पर्याय बन गया था। ऊट पटांग कपड़े बनाकर उसे फैशन बताने वाले फैशन डिजाइनर अरविंद के ड्रेस सेंस की राजनीतिक समझ की तारीफ करने लगे थे। लेकिन, सोलह मई ने अरविंद को ऐसे ध्वस्त किया जैसे शानदार चमकती बहुमंजिली इमारत को गलत तरीके से बनाने की वजह से प्रशासन से डायमनामाइट से गिराने का आदेश दे दिया हो। लेकिन, क्या सचमुच अरविंद केजरीवाल पूरी तरह से खत्म हो गए हैं। और सिर्फ मजाक का विषय बन गए हैं। मुझे लगता है दोनों तरफ से इसका विश्लेषण करने में थोड़ी जल्दबाजी हो रही है। फिर वो अरविंद के विरोधियों का उनके पूरी तरहे से खत्म हो जाने की भविष्यवाणी करना हो या फिर अरविंद समर्थकों का उन्हें अभी भी नरेंद्र मोदी की बराबरी वाला नेता साबित करने की जल्दी हो। एक और वर्ग है थके हारे वामपंथियों का, जिसमें वामपंथी विचार के नेता, बुद्धिजीवी तो शामिल ही हैं। ढेर सारे वामपंथी चाशनी में डूबे संपादक ङी शामिल हैं जिनको लगता है कि इसी को आगे रखकर अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लड़ाई लड़ी जा सकती है। देखिए ना पुराने संबंधों और छवि के आधार पर अखबारों में सीताराम येचुरी के एकाध लेख और प्रकाश करात के कहीं-कहीं जिक्र के अलावा कौन वामपंथी राजनीति के इन अग्रदूतों की चर्चा कर रहा है। इसीलिए हर तरफ से अरविंद केजरीवाल के मूल्यांकन में अति हो रही है।

अरविंद केजरीवाल का बॉण्ड न भरना और जेल जाना, दो तरह से देखा जा रहा है। बहुतायत के लिए वो नौटंकी है। कुछ लोगों के लिए वो चंपारण में अंग्रेजों के विरोध में किया गया गांधी जी के कृत्य जैसा है। मैं जहां तक समझ पा रहा हूं। न तो ये नौटंकी है और न ही महात्मा गांधी के महान कृत्य जैसा है। ये स्पष्ट तौर पर राजनीति है। वो राजनीति जो देश में विपक्ष करता है। वो राजनीति जो सत्ता को हर वक्त चुनौती देने की राजनीतिक शक्ति का अहसास कराता है। वो राजनीति जो ये अहसास कराती है कि पांच साल बाद ही सही लेकिन, बदलाव हो सकता है। अरविंद केजरीवाल का जेल जाना यही राजनीति है। सोशल मीडिया और टेलीविजन के दौर के महानायक बने अरविंद केजरीवाल को सोशल मीडिया और टेलीविजन की राजनीति बहुत अच्छे से करनी आती है। कम से कम इस पर तो कोई दो मत नहीं होगा। नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ चुके हैं। लेकिन, चुनाव के दौरान भी और अभी भी नरेंद्र मोदी के मुकाबले में टेलीविजन या सोशल मीडिया में अच्छे-बुरे किसी भी संदर्भ में अगर कोई था, है तो वो हैं अरविंद केजरीवाल। इसलिए अरविंद केजरीवाल की राजनीति को संतुलित तरीके से देखने समझने की जरूरत है। इसके लिए ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। इस देश में करीब दो साल पहले एक ऐसा माहौल बन गया था जिसमें ये लगने लगा था कि देश में सरकार ही नहीं है। और इसी के साथ एक दूसरी तगड़ी निराशा ये भी होने लगी थी कि देश में विपक्ष भी नहीं है। न तो कांग्रेस को कोई सरकार मानने को तैयार हो रहा था और न ही भारतीय जनता पार्टी को विपक्ष। गालियां दोनों को बराबर मिल रही थीं। इसलिए कि सरकार निकम्मी है तो कम से कम विपक्ष तो कारगर हो। उसी दौर में अरविंद केजरीवाल नेता बने। देश भी हर किसी को गाली दे रहा था। अरविंद का सुर देश के कानों को अपना सा लगा, अच्छा लगा। बस अरविंद देश के नायक बन गए। वो फिल्मी नायक हो गए। फिल्मी एक दिन के मुख्यमंत्री से आगे बढ़कर वो चमत्कारिक तरीके से वो उन्चास दिन के मुख्यमंत्री हो गए। लेकिन, यहीं अरविंद भ्रम की राजनीति के शिकार हो गए। अरविंद केजरीवाल को लगा कि अगर वो देश के सबसे बड़े नेता हैं, अग उन्होंने ही पूरे देश में अलख जगाई है तो फिर मुख्यमंत्री बनकर ही क्यों बैठ जाया जाए। प्रधानमंत्री की कुर्सी ज्यादा क्रांतिकारी होगी। यहीं अरविंद का आंकलन गड़बड़ा गया। और नरेंद्र मोदी की राजनीति समझ उनसे कोसों आगे की रही। दिल्ली में शीला दीक्षित को निपटाने वाला पुराना फॉर्मूला बनारस में काम नहीं कर पाया। क्योंकि, शीला पंद्रह साल से इस राज्य की मुख्यमंत्री भी थी। हर बार तय फॉर्मूला काम भी नहीं करता।

तो क्या इससे मान लें कि अरविंद की राजनीति खत्म हो गई है। मैं समझता हूं इसे दूसरे संदर्भों में देखने-समझने की जरूरत है। फिर से मैं दो साल पीछे जाता हूं। जब देश ये मानने लगा था कि देश में न तो सरकार है न विपक्ष है। अब आज की बात करें तो संदर्भ ज्यादा स्पष्ट तरीके से समझ में आएंगे। देश के लोगों को ये लग रहा है कि ये भारत की सबसे मजबूत सरकार बन रही है। देश के लोगों को लगता है कि सबसे मजबूत प्रधानमंत्री उन्हें मिला है। और ऐसे में जब कांग्रेस विपक्षी पार्टी का दर्जा भी पाती नहीं दिख रही है। क्योंकि, उसके पास दस प्रतिशत सांसद भी लोकसभा में नहीं हैं। ऐसे में अरविंद केजरीवाल की राजनीति बेहद शुभ संकेत नजर आती है। चुनाव के समय भी ये शुभ संकेत दिखे थे। अरविंद की राजनीति ने दूसरे दलों, नेताओं को भी छवि सुधारने, अपराधियों को दूर रखने के लिए मजबूर किया था। यहां तक कि राहुल गांधी ने तो ये तक माना कि कांग्रेस को वही राजनीतिक तरीका अपनाना होगा। लोगों से राय लेना, लोगों की बात सुनना, उसके आधार पर घोषणापत्र तैयार करना ये सब भी हुआ। अब जब देश की सबसे मजबूत सरकार है और लोकसभा में विपक्ष की हैसियत लगभग समाप्त हो गई है। संसद के बाहर एक मजबूत विपक्ष की सख्त जरूरत है। और ये मजबूत विपक्ष फिलहाल कांग्रेस, वामपंथ, ममता, जयललिता, लालू, मुलायम, नीतीश, माया मिलकर भी देते नहीं दिख रहे हैं। अरविंद केजरीवाल में ही उम्मीद की किरण जगती है। ये भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत हैं कि लंबे समय के बाद देश को मजबूत सरकार के साथ बेहतर विपक्ष भी मिलने जा रहा है। भले ही ये संसद से बाहर सड़क पर हो। लेकिन, आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी भी तो लंबे समय तक सड़क पर ही विपक्ष की भूमिका में थी। और बेहतर ये भी होगा कि मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका के लिए अरविंद केजरीवाल की राजनीति बेहतर होगी तो कांग्रेस, वामपंथ भी शायद लोगों से जुड़कर राजनीति करने की शुरुआत नए सिरे से कुछ कर सके। उसमें वामपंथ से उम्मीद तो ना के बराबर है। लेकिन, कांग्रेसी राजनीति की जमीन एकदम से खत्म नहीं हुई है। भारतीय राजनीति के इस शानदार दौर का स्वागत करना चाहिए। जिसमें बेहतर सरकार और बेहतर विपक्ष हों। लेकिन, इसके लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं को कम से कम अगले पांच सालों तक किसी राज्य की भी सत्ता पाने का गुमान छोड़कर परिपक्व राजनीति करनी होगी। नहीं तो देश की सरकार बनने का सपना टूटने के बाद अब देश का विपक्ष बनने का भी सपना टूट जाएगा।

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