Tuesday, September 24, 2013

इसके लिए रेल बजट का इंतजार क्यों करें ?

सोशल मीडिया को लेकर प्रधानमंत्री ने चिंता जताई है। कहा है कि आजादी भी बनी रहे और इसका दुरुपयोग भी न हो। हालांकि, दुखद ये है कि इस मीडिया को लेकर चिंताएं ज्यादा जताई जा रही हैं। ये कम ही बताया जा रहा है कि आखिर इस सोशल मीडिया या जिसको मैं नागरिक मीडिया कहना ज्यादा पसंद करूंगा वो कितना बेहतर है। और समाज को कितना बेहतर कर रहा है। अब मैं टीवी पत्रकार हूं लेकिन, टीवी के लिए खबर करने के लिए कई ढेर सारी औपचारिकताओं के बाद ही कोई खबर की जा सकती है। फिर समय भी अनुकूल हो ये भी देखना होगा। जैसे रेलवे की खामियों पर बात करनी है तो रेल बजट के आसपास ही ये खबर बेहतर बनेगी। क्योंकि, ट्रेन में गंदगी होती है। खाना ठीक नहीं मिलता। चद्दर, कंबल गंदे होते हैं इसे जानते सब हैं इसकी चर्चा रेल बजट के आसपास ही ठीक रहेगी। यानी रेलवे की कमियों को दूर करने का दबाव पारंपरिक मीडिया सिर्फ रेल बजट के आसपास ही बनाता है कुछ बहुत अलग हटकर न हो जाए। मतलब कोई बड़ी दुर्घटना या ऐसी ही मिलती जुलती खबर। लेकिन, सोशल मीडिया के जरिए हर कोई हर दिन दबाव बनाने में मदद कर सकता है। नागरिक मीडिया है तो उसके लिए पत्रकार होने की भी जरूरत नहीं।

शानदार सेवा की गारंटी देने वाला पैकेट
अभी दो संगोष्ठी-कार्यशाला में जाने का अवसर मिला। पहले भोपाल मीडिया चौपाल में और फिर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा। दोनों ही जगह बात सोशल मीडिया पर ही थी। और संयोग ये भी कि भोपाल से लौटते समय और नागपुर जाते समय बैंगलोर राजधानी की यात्रा करनी पड़ी। चादर वाली पैकेट पर इतनी अच्छी बातें लिखी थी कि लगा राजधानी का मजा ही कुछ और है। वैसे तो चार साल मुंबई-दिल्ली खूब राजधानी का मजा लिया और लगा कि अगर ऐसी राजधानी हो जाए तो देश में लोगों की यात्रा कितनी सुखद हो जाए। ऐसा ही अनुभव इलाहाबाद जाने में दिल्ली से हावड़ा जाने वाली सारी राजधानियों में भी लगा। लेकिन, बैंगलोर राजधानी ने राजधानी की शानदार यात्रा का सारा भ्रम तोड़कर रख दिया। पहले भी करीब दो साल पहले बैंगलोर राजधानी का सफर अंग्रेजी का सफर हो गया था। भोपाल से दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन के लिए हो या हजरत निजामुद्दीन से नागपुर के लिए दोनों ही यात्रा एक ही जैसी खराब अनुभव वाली रही। ट्रेन में बैठने के बाद चाय मांगने पर उसका जवाब आया सारी भट्ठियों पर खाना बन रहा है तो मुश्किल है चाय मिलना। वो मुश्किल ऐसा रहा कि सुबह के पहले चाय नहीं मिली। खाने की क्वालिटी को लेकर तो मुझे दूसरी राजधानियों में शिकायत रही है लेकिन, बैंगलोर राजधानी का खाना तो न खाने लायक है। राजधानी के चिर परिचित मोटे पराठे की जगह पतली रोटी दिखी तो खुशी हुई। लेकिन, खुशी काफूर हो गई। क्योंकि, रोटी कच्ची थी। पहले कौर के बाद गले से नीचे उतारने की हिम्मत नहीं हुई। चावल सब्जी खाई। दही खाई।

बैंगलोर राजधानी की दाग वाली चादर

पैकेट में से चद्दर निकाली कि अब सोया जाए तो चद्दर सफेद कहने को ही थी। उसे पीलिया सा हुआ लग रहा था। सर्विस करने वाले को बुलाया तो उसने पहले तो अचरज जताते हुए कहा कि ये कहां गंदा है। फिर जब मैंने गुस्से में चादर बदलने को कहा तो उसने पैकेट बदलकर दे दिया। लेकिन, नतीजा खास नहीं निकला। बदली हुई चद्दर की तस्वीर यहां लगा रहा हूं। लगता ऐसे था जैसे हर बार बस प्रेस करके उसे फिर से पैक करके यात्रियों को राजधानी में दे दिया जाता था। ये यात्रा थी भोपाल से हजरत निजामुद्दीन की। कंबल से ऐसे धूल गिर रही थी जिसे देखकर समझने के लिए दिमाग लगाने की जरूरत ही नहीं थी। मतलब जब खरीदा गया था तबसे कभी उसकी साफ सफाई की जरूरत नहीं समझी गई। और, सबसे बड़ी बात कि जब मैं इन बातों पर नाराज हो रहा था। तो, दूसरी ट्रेनों से ज्यादा टिकट की रकम देकर बैंगलोर राजधानी में चलने वाले यात्रियों के माथे सिकुड़ रहे थे कि ये क्यों बेकार में बहस कर रहा है रात भर की तो यात्रा है। यही यात्री होंगे रेल बजट के समय टीवी कैमरे पर गजब का गुस्सा दिखा रहे होंगे।

खैर कुछ खाने से पहले जब ट्रेन के टॉयलेट की तरफ गया तो मन और अच्छा हो गया। सामान्य ट्रेनों के स्लीपर क्लास में तो इस तरह की गंदगी आमतौर पर दिख जाती है। लेकिन, किसी राजधानी में इस तरह की गंदगी मैंने इसके पहले नहीं देखी। देखी भी थी तो दो साल पहले बैंगलोर राजधानी में ही। टॉयलेट के सामने काफी गंदगी दिख रही थी। और टॉयलेट के अंदर जाने के साहस को कम कर रही थी। लेकिन, कुछ शंकाएं ऐसी होती हैं जिनका समय पर निवारण होना जरूरी होता है।
इसलिए खराब होते मन के साथ ट्रेन के टॉयलेट का दरवाजा खोलकर उसमें घुस गया। अंदर से टॉयलेट बंद करने की कोशिश की तो देखिए क्या हुआ। ये राजधानी का टॉयलेट था। अब चादर देना, सफाई का काम और खाना-चाय, ये सब तो रेलवे ने पूरी तरह से निजी हाथों में दे रखा है। कुछ भी कहने पर ठेकेदार से बात कीजिए। हम क्या करें का रुदन सेवा करने वाले लोग दे देते हैं। लेकिन, टॉयलेट भी क्या पूरी तरह से रेलवे ने ऐसा निजी हाथों में दे रखा है कि तय मानक वाली सिटकनी भी न लगे।

अब ये सब टीवी-अखबार वाली मीडिया में तो रेल बजट के समय ही लिखा-दिखाया जाएगा। और काफी संसाधन भी इस स्टोरी को करने पर खर्च होगा। सोशल मीडिया या नागरिक मीडिया में मेरी तरह हर कोई ये रिपोर्टिंग रोज कर सकता है। रोज-रोज इसकी रिपोर्टिंग होगी तो शायद कुछ असर भी हो। शायद ऐसे ठेकेदारों का ठेका भी रद्द हो। बैंगलोर की कोई अकांक्षा एंटरप्राइजेज के पास इसका ठेका अभी है। चादर कंबल वाला पैकेट किसी पैरामाउट गारमेंट से आया था। ये भी बैंगलोर की ही थी। मुझे ये भी आश्चर्य हो रहा था कि आखिर राजधानी में चलने वाले लोग इसका विरोध क्यों नहीं करते। इस मामले पर अराजक क्यों नहीं होते।

नागपुर से वापसी में ये समझ में आ गया। वापसी में मेरा आरक्षण केरल एक्सप्रेस में था। सेकेंड एसी में होने से मैं आश्वस्त था कि यात्रा सुखद रहेगी। बोगी में घुसते ही गंदगी ने मेरा स्वागत किया। मेरी सीट एकदम दरवाजे के पास थी। और, दरवाजे के पास जाने कहां से या शायद एसी से ही निकलकर पानी चू रहा था और लोगों के आने जाने से अच्छी कीचड़ वाली गंदगी दरवाजे पर ही जमा हो गई थी। सीट और उसके आसपास फिर सफाई की उम्मीद ही दिमाग में नहीं रह गई थी। और, इस नाउम्मीदी को पूरी तरह से केरल एक्सप्रेस की गंदगी ने समर्थन किया। खैर टीटीई आया। टिकट चेक कराया। मैंने स्टेशन पर पता कर लिया था कि केरल एक्सप्रेस में पैंट्री कार है। आश्वस्त था कि खाना मिल जाएगा। लेकिन, ट्रेन की हालत देखकर दोबारा आश्वस्त होना चाहा। टीटीई ने कहा - अरे अब तो सब बंद हो गया होंगा। फिर थोड़ा रुककर बोला नहीं अभी तो साढ़े आठ ही बजा है ना मिलेंगा-मिलेंगा। अभी वो ऑर्डर लेने आएगा।
केरल एक्सप्रेस के टॉयलेट की छत
लेकिन, थोड़ी देर बाद ही दोबारा आश्वस्त होना भी भ्रम साबित हो गया। चिप्स का पैकेट और कोल्डड्रिंक की बोतल लिए आ रहे यात्री ने बताया कि कुछ बचा नहीं है। बस यही है। स्टेशन पर फ्लेवर्ड मिल्क तो पी लिया था लेकिन, वो खाने की जगह तो ले नहीं सकता था। इसलिए जल्दी से पैंट्री कार की तरफ बढ़ा। सेकेंड एसी के दो डिब्बे फिर थर्ड एसी के कई डिब्बे फिर स्लीपर के दो डिब्बे और फिर पैंट्री कार। पैंट्रीकार में पुलिसवाले पैंट्री वालों से मुफ्त का खाने के लिए लड़ रहे थे। दारू फुल थी। मामला दोनों ओर से टाइट था। पैंट्रीवाला भी दारू के नशे में पुलिस की वर्दी के रोब में जरा भी आने को तैयार नहीं था। खत्म होते सामान में से चिप्स, बिस्किट, पानी और एक जूस की बोतल लेकर मैं जल्दी से अपने कूपे में आ गया। और जब केरल एक्सप्रेस के टॉयलेट में गया तो साफ हो गया कि आखिर इसी रूट पर बैंगलोर राजधानी में यात्रा करने वाले खुशी से सफर क्यों करते हैं। अराजक क्यों नहीं होते।

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - बुधवार - 25/09/2013 को
    अमर शहीद वीरांगना प्रीतिलता वादेदार की ८१ वीं पुण्यतिथि - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः23 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra

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  2. आपने वर्धा यात्रा को मल्टी-टास्किंग के प्रयोग में इश्तेमाल किया। वाह।
    रेलगाड़ियों में टायलेट की सफाई बहुत दुर्लभ है। कभी नॉन एसी कूपे के टायलेट में जाकर देखिए। नाक पर कपड़ा बाँधकर अंदर जा सकेंगे।

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    1. सोशल या नागरिक मीडिया की तो असल खूबी और ताकत भी यही है।

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  3. हम भी बंगलोर राजधानी से वापस आये, हमारा भी अनुभव लगभग यही रहा।

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    1. आपका अनुभव अतिमहत्वपूर्ण है। सुधार का कुछ रास्ता तो तैयार करेगा ही।

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    2. संबंधित अधिकारियों को घेरा है, यहाँ आकर। आपकी पोस्ट आज पढ़वायेंगे।

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    3. अरे वाह भले ही ये आपके प्रयास से सुधरे इसे हम सोशल मीडिया की उपलब्धि में जोड़ देंगे। :)

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  4. केरल एक्सप्रेस और बंगलौर राजधानी की व्यवस्था हमने भी कुछ यूँ भुगती.उस पर तुर्रा यह कि खान-पान के बाद ज़बरिया टिप लेने भी बंदा चला आया.हमने तो डाँटकर भगा दिया.

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    1. आपसे भला कोई टिप ले पाएगा टीप तो नहीं दिया।

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